Friday, October 31, 2014

मौसम खराब हो तो घर से मत निकला करो





कलम से____

मौसम खराब हो
तो घर से मत निकला करो
तेज हबाओं के झोंके
हिला कर रख देंगे
हस्ती तेरी क्या चीज़ है
अच्छे अच्छे ख़ाक
हो गए हैं इस आशियाने में।


तूफान सा है उठा सागर में
सोते से जगाने को......


( Nilofer land fall expected any time now.....)

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

Thursday, October 30, 2014









कलम से____

फूल एक गुच्छे से टूट मेरी हथेली पर गिरा
कहने लगा चूम लो अभी कुछ देर बाद सूख जाऊँगा, मैं !!!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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एक नजारा अजीबोगरीब देखा।





कलम से____



एक नजारा अजीबोगरीब देखा
रात भर दिल्ली में खाली बसों को भागते देखा
दिन में ठसाठस भरी देखा
दिल्ली के लोग भी .......

तम झोंपड़ी के दूर।



 
कलम से____

तम झोंपड़ी के दूर
मैं सामर्थ्य भर करता रहा
था अकेला 
सिहरता रहा सरद रातों में ठिठुरता रहा
मरता रहा जीता रहा
रात भर मैं, फिर मी
जलता रहा !!

सूर्योदय
के पहले ही 
 मुझे बुझा दिया,
कह कर मुझे, यूँ विदा किया
साध्यं बेला में
फिर प्रज्वलित कर लेगें
 तिमिर
इस कुटिया से दूर कर देंगे
थोड़ा सा प्रकाश कर
हम फिर जी लेगें !!

मन प्राण हमारे
   बसते हैं यहाँ
जायें तो जायें अब कहाँ
 शेष कुछ खुशियां हैं हमारे भाग में
सबको खुशी मनाते देख
हम भी थोड़ा ही सही खुश हो लेंगे !!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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कलम से____

साजो सामान साथ लेकर घर से निकला हूँ
मिलूँगा उनसे,
जहां में, जहां जाकर मिलतीं हैं ...

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Wednesday, October 29, 2014

तुम, तुम ही हो या कोई और.....






कलम से_____

तुम, तुम ही हो या कोई और
मुझे यह मुगालता क्यों हो रहा है
तुम, तुम ही हो.....

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Tuesday, October 28, 2014

बाहर खिड़की के नज़र जो पड़ी।







कलम से____

बाहर खिड़की के नज़र जो पड़ी
लगा कुहासी सुबह हो गई
कुछ देर बाद पता यह लगा
मुगालता था यह मेरा
सुबह अपनी खराब हो गई
स्माग है, जो कोहरा सा लग रहा 
भ्रमित जो हमें कर रहा।

कार का दरवाजा खोलने लगा
पता यह चला रात बूँद कुछ गिर गईं
कार के बोनट समेत शीसों पर धूल के
हस्ताक्षर जो छोड़ गईं।

बाग में घूमने का आनंद भी मिट गया
स्माग के कारण खांसने जो लगा
खासंने से याद आ गया
मान्यवर खांसीराम केसरी 
हमारे मोहल्ले में फिर आगए हैं
कौशांबी में भूलेभटके 
भगवान इसलिए पधार गए हैं
मोदीजी की सरकार को सुप्रीमकोर्ट में फटकार क्या लगी
मफलर लगा खासंने के दिन फिर जो इनके आ गए हैं।

पालिटिक्स देश की फिर गरमा गई है
दिल्ली के चुनाव में लगता है देर अभी है।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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कविता का जीवन काल कम हो गया।








कलम से____

कविता,
का जीवन काल कम हो गया
चौबीस घंटे
या
अधिक से अधिक
छत्तीस घंटे
मात्र रह गया।

फेसबुक
ने यह काम कर दिया
एक बार कविता पढ़ क्या ली
लाइक कर दी
या
विवेचना लिख दी
बस फिर वो
पुरानी हो गई
 खत्म हो गई
डाटाबेस के काबिल रह गई।

फिर नई का
इतंजार रहता है
नई नई के लिए
चाहनेवालों का
दिल बेकरार रहता है
नई आते ही
  पुरानी सी लगने लगती है
चलन अब यही हो गया
फेसबुक के मित्रों के
नजरों में चढ़ने के पहले ही
कविता,
पुरानी पड़ उतर जाती है।।

खुशी इतनी है
कविता,
हिंदी में होती है
हिंदी को पापुलर कर गई है
हिंदी की सेवा कर गई है ।।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Monday, October 27, 2014

कल हम हुए न हुए ।






कलम से____

            कल हम हुए न हुए
               कुछ पता नहीं 
            इतना पता जरूर है
         उनको हमसे गिला नहीं,
सिमटी हुई यादों को सभांल कर बैठे हैं 
       एक पोटरी में गाँठ बांध कर,
         जो लम्हे कुछ मिले हैं हमें,
    आ गुजार लें हँस कर या रो कर,
जाने कल फैसला क्या हो जिन्दगी का,
 क्या करेंगे इन हालात में जानकर !!!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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क्यों, मुझे कैद कर दिया तस्वीर बना कर

कलम से____

क्यों, मुझे कैद कर दिया
                    तस्वीर बना कर,
   मैं आजाद ही रहती तो कितना अच्छा होता !!!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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मुर्दों के शहर में लाशें वापस आने लगीं हैं।




कलम से____


मुर्दों के शहर में लाशें आने लगीं हैं
भीड़  यहाँ  फिर  से  बढ़ने  लगी  है
चार  दिन  की चादंनी  थी बिखरी रही
अंधड चला जो धुंधली अब पड़ने लगी है !!

मागँ भरी जो दिखती रही चार दिन तक
फिर  सूनी  सूनी  सी  दिखने  लगी  है
चौखट से चिपके पैर जस के तस रह गए हैैं
महावर की चमक भी फीकी पड़ने लगी है !!

रौनक  चेहरे  पर  जो  आ  गई  थी
हौले  हौले  फिर  उड़ने  लगी  है
सभंले हुऐ अभी दिन दो हुए  नहीं है
तिल तिल कर जिन्दगी काटने लगी है !!

मुर्दों के शहर में लाशें वापस आने लगीं हैं
भीड़  यहाँ  फिर  से  बढ़ने  लगी  है !!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Sunday, October 26, 2014

मैं, जिन्दगी हर किसी को अहमियत देती हूँ।







कलम से____

मैं,
जिन्दगी
हर किसी को
अहमियत देती हूँ
इज्जत
की निगाह
से देखती हूँ
उम्मीद
यह रखती हूँ
जो लोग अच्छे होगें
मुश्किल के वक्त साथ रहेंगे।

पर ऐसा हुआ नहीं
मुश्किल में साथ किसी ने दिया नहीं
कन्ने से पतंग जैसे कटती है
काट दिया
उल्टे नसीहत दुनियाँ भर की दे गए
जो न चाहिए था
वह काम कर गए
छाले दिल के दुखा और गए।

बुरे वक्त में बुरे लोग
याद बरबस ही आ गए
कम से कम
सबक एक सिखा गए
अपने पराए की
पहचान बता गए।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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अभी तो शाम हुई है....






कलम से____

अभी तो शाम हुई है
   चलना है
मंजिल है दूर बहुत
लंबी है डगर
 रात है आन पड़ी ।

जिन्दगी हिसाब
      माँगती है
किरदार निभाने है
कई और अभी ।

आखिरी किरदार निभाना है बाकी,
निभा के पूछूँगा यारो
परदा गिरने पर
    ताली बजेगी या नहीं ......

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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अरे भाई अब नार्मल हो भी जाओ।



अरे भाई
अब नार्मल हो भी जाओ
दीपावली एक साल बाद आएगी !!

इस साल
कोई गिफ्ट नहीं दिया
कोई बात नहीं, अगली दीपावली पर दे देना !!

नहीं
तो करवा चौथ पर ही सही
दिवाली आने के पहले ही
दे देना !!!

बच्चों को देख कर ।



कलम से____

बच्चों को देख
मन प्रसन्न होता है
 हमारे जमाने से
बहुत अंतर दिखता है।

अब बच्चे बहुत फोकस्ड हैं
 सचेत रहते हैं
कल क्या बनेगें
चिंता करते रहते हैं।

मां को दिलासा
देते रहते हैैं
चिंता न किया कर
नाम रौशन करेगें
  दाग न लगने देगें
डाक्टर इन्जीनियर की बातें
हुई पुरानी हैैं
हम कुछ नया ही करेगें
जो भी करेगें
पैरों पर अपने खड़े होगें।

जो कहते हैं
वह करके रहेगें।

यह चेन्ज अच्छा लगता है
देखो आगे क्या होता है?

(Ht News: Career couples freeze family dreams)

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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किसने दरवाजे पर दस्तक दी है।





कलम से____

किसने दरवाजे पर
है दस्तक दी
मौसम के बदलाव की लगती है
मंद मंद रफ्तार ही सही
हवाओं में सरद खुशबू सी है
शरद ऋतु आ ही गई है
दस्तक यह उसकी है।

स्वागत है
आओ खुशियों
के पल साथ कुछ ले आओ
हमारे जीवन
को मधुर रसमय कर जाओ।

स्वागत स्वागत स्वागत।।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Saturday, October 25, 2014

सैटरडे ईवनिंग का प्रोग्राम फिक्स्ड है।





कलम से____

सैटरडे ईवनिंग का
प्रोग्राम फिक्स्ड है
 उथल पुथल
 दिल में मची हुई है।


उत्सव है
आज दिल में
   हलचल हो रही है
मिलने को
 प्रिंस चार्मिगं से
तबीयत मचल रही है !!

सबसे खूबसूरत
    लिवास मैंने अपना पहना है
परी बनके
  ख्वाबों में
उनके जो रहना है !!

बालॅ डांस
का प्रोग्राम है
तन्हा उन्हें
न छोडूंगी
 दिल में उनके हौले हौले उतरूँगी
उम्मीद है मुझे आज
 प्रपोज कर देंगे
ता उम्र साथ रहने की
     कसम हम लेकर सपनों की दुनियाँ मेें कदम अपना रख लेगें !!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Friday, October 24, 2014

रात दिवाली लोगां ने खूब मनाई।

कलम से____

रात दिवाली
लोगां ने खूब मनाई
पटाखों की आवाज
आधी रात के पार आई
धुआँ धुआँ हो गया
मेरा शहर
हर आखँ रोने लगी
फिक्र इसकी किसी ने नहीं करी
कबूतर कबूतरी भी
अपने घर न आ सकीं
रात भर परेशान रहीं
न जाने इस शोरगुल
में वह कहाँ रहीं
मेहमान जितने आए थे
मधुर याद संजोए
पिछले साल की
वह भी सब चले गये
सुबह से कोई नजर आया नहीं
रात गुजारी कहाँ पता नहीं
संवेदनशील मानव रहित समाज है हो गया
इन्सान ही इन्सान का दुश्मन हो गया।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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चलो हटकर कुछ काम करें।





कलम से____

चलो हटकर कुछ काम करें
जो दूसरा कोई न कर सके
वह काम करें
पत्थर जो जड़ हो चुके हैं
उनको हिलायें
अपनी जगह से उनको हटायें
चलो हम अपनी पहचान बनायें !!

पहचान बनाते हुए
खिलबाड़ न करो
प्रकृति से प्यार बस करते रहो !!

हैदराबाद के आसपास गए
अगर आप हैं
तो सवाल एक स्वाभाविक
उठने लगता है
इन पत्थरों को
किसी ने कैसे
वहाँ सजा रखा है
गिर जाए अगर तो तूफान मचा देगें
 ज़लाज़ला आएगा जिस दिन
शोर दुनियाँ में हो जाएगा उस दिन
प्रकृति के साथ छेड़ छाड़ ठीक नहीं है
रहने भी दो इनको जैसे हैं
बस वही अब ठीक है........

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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स्वच्छ भारत, काश यह मुनासिब हो पाए।





कलम से____


स्वच्छ भारत
काश यह मुनासिब हो पाए
एक दिन इंडिया
मेरा इटली जैसा हो जाए
यहाँ की फिजाओं में
है प्यार बहुत
है ताजमहल मुमताज की खातिर
कुछ बस ऐसा
हो जाए
मेरा भारत भी
महान हो जाए ......

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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कल रात धूम धड़ाका होता रहा।






कलम से ____

कल रात
धूम धड़ाका होता रहा
लोगां खुशियाँ मनाते रहे
हम आकाश में
कभी इधर तो कभी उधर
भटकते रहे
नींद पलकों में अलसाई रही
हम, घर अपना तलाशते रहे
भोर होने को थी
तब जाकर कहीं
जगह मिली
बैठ कर
हम जहाँ से
जग का मुजरा देखते रहे !!

( Heavy pollution all around and not going for morning walk. After effects of our great festivity.)

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Wednesday, October 22, 2014

आज जंगल का राजा छुट्टी पर है।






कलम से____

आज जंगल का
राजा
छुट्टी पर है
चलो उत्सव मनायें
खायें पीयें ऐश करें
दिये जलायें
पटाखे फोड़ें
दीपावली मनायें
प्रकाश करें
अंधकार जीवन से हटायें।

चलो सब मिल खुशी मनायें
आज दिवाली मनायें।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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मनाओ दीवाली तुम जलाओ घर में चिराग....





कलम से____

मनाओ दीवाली तुम
  जलाओ घर में चिराग
रौशनी की खातिर,
अंधेरों को दूर करने के लिए
एक ही दीप काफी है !!

मुझे अभी जरूरी
काम करने है
 अपने बच्चों की खातिर
खुशियों में शरीक़ हो लूँगी
   काम पहले निपटा लूँ
घर की सफाई तो कर लूँ
सजावट का सामान जो लाई हूँ
    लगा तो लूँ
पटाखे जहाँ चलाएगें वहाँ बाल्टी
पानी से भर के रख तो दूँ
  चलूँ सरदी है पड़ने लगी
रजाई कंबल निकाल तो दूँ
स्वेटर बुन के जो रखा है
उसको बस एक बार धो तो लूँ
  अपने हाथों से पहनाऊँगी
उसे आज अपने हाथों की बनी पूडी पकवान खिलाना है मुझे
न जाने कितने काम हैं वाकी
   मुझे अभी जो करने हैं
चलूँ उठूँ टागें दुखती हैं तो क्या अभी तो हाथ पांव चलते हैं
न चलेगें जिस दिन तब की तब देखी जाएगी अभी जिन्दगी चलती है
जब तक चलती है
चलाई जाएगी ......

  बेटा आकर यह कहता है, माँ
जा रहे हैं हम सब लोग बच्चे भी मेघा के घर
   दीवाली वहीं मनाएंगे
आप यहीं रहना, घर का ख्याल है जो रखना
देखना, आप अकेली हो
   घर को देखती रहना !!

चिराग एक जलाऊँ तो जलाऊँ
 अब किसके लिए ....प्रश्न अचानक उठ खड़ा होता है, उत्तर भी अपने आप मिल जाता है
चलो कोई बात नहीं
खुश रहूँगी मैं, अपने लिए
जलाऊँगी चिराग सिर्फ एक अपने उनके लिए
  वह तो आएगें शाम आज की वह मेरे साथ ही बिताएगें
  बरस हो गए हैं कई
 शाम कोई एक न गई जिस दिन याद उनकी न आई हो
आखँ मेरी, उनके लिए, न भर आई हो !!!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Monday, October 20, 2014

बूझो तो बताऊँगा।





कलम से____

बूछो तो बताऊँगा,
मैं
किसके लिए
लिखता हूँ
है कौन मेरे
ख्यालों में जिसके
खोया रहता हूँ....

 कभी शाख से
जुदा हुए
तन्हाई में गिरे
पत्ते पर लिखे दिल के
जज्बातों को उकेरा करता हूँ
शबनम सी पड़ी बूंदो के
अहसासों
को पढ़ कर
उनकी बात करता हूँ
बिछड़ने की हर आह की
दर्द की दास्तां बयां करता हूँ
कुछ अपनी कुछ आपकी
मैं सबकी बात कहता हूँ
   बस मैं आप सब के
दिल के करीब रहता हूँ।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Sunday, October 19, 2014

दीवाली क्या आई।




कलम से______

दीवाली क्या आई
   हर साल की तरह
एक आफत सी है आई
  बाज़ार में भीड़-भाड़़
अचानक न जाने कहाँ से है उतर आई।

जिसे देखो
   सामान खरीदफरोक्त
में है लगा
लगता है सारा
बाज़ार आज ही बिकेगा
      कल के लिए के लिए कुछ न बचेगा
मारा-मारी है मची
किस-किस की सुने
    दुकानदार
कभी इधर की कभी उधर की
ड्यूटी अदा कैसे करे।

मियाँ-बीबी में तकरार
का सबब है बनी
        यह दीवाली
वह कहे मेरे उनके लिए
कुछ नहीं खरीदा
दूसरा कहे मेरे उनके
लिए कहां कुछ है खरीदा
     लेन-देन के इस
व्यापार में हुआ
  है रंग जो फीका
बड़ी मुश्किल से चढ़ेगा
जब बम जोरदार फटेगा
 तब चेहरा कहीं
जाकर खिलेगा।

चलाओ चलाओ
  अपने अपने बम और पटाके
बस ख्याल रहे इतना
किसी का दिल नहीं दुखे
खुशियों का है त्योहार
मिल-बांट के है मनाओ
    हो सके तो
सबके चेहरे के
 खिलने का सबब बन जाओ।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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बड़ी तब्दीलियां लाये हैं हम अपने आप में.....





कलम से____


बड़ी तब्दीलियां लाये हैं हम अपने आप में,
पर आपकी यादों में रहने की आदत अभी बाकी है……

इन्हीं यादों का तो एक सहारा है,
जिन्दगी बाकी बहुत खाली खाली है....

तुमने तो मेरा नाम हर जगह लिख दिया,
हर दरो दीवार पर नाम तेरा लिखना अभी बाकी है......

हसरत है कभी दरिया किनारे मिल बैठेगें,
नाम तेरा मेरा पानी पर भी लिखना जो अभी बाकी है.....

फलक में चाँद-तारे इतंजार करते हैं,
चल  कर  वहाँ  जगह  अपनी  बनाना  बाकी है.........


//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Saturday, October 18, 2014

एक और रविवार की सुबह, जिक्र पुराने एडवेंचर वाले दिनों का.....





कलम से____

एक और रविवार की सुबह, जिक्र पुराने एडवेंचर वाले दिनों का......

बात पुरानी है
डायरी से निकाल छानी है
सन 1966-67 का जमाना
तब मैं रानीपुर में रहता था
(Bhel के Sector 5-A में)
घर के ठीक सामने पहाडियों से घिरा सुदंर जगंल
शिवालिक की घाटी से गिरा हुआ
जब कभी मन डूबा करता
हर की पैड़ी चला जाया करता था
यदाकदा जंगल भी बुला लिया करता था
रानीपुर फौरस्ट रेंज का ब्रिटिश कालोनियल टाइप का एक गेस्ट हाउस हुआ करता था
नहीं पता अब है कि नहीं
जाकर वहाँ मन को अच्छा बहुत लगता था
दूर दूर तक घाटी का दृश्य
बरसाती मौसम में मन मोह लिया करता था
रानीराव नदी उफान पर जब होती थी
राहगीरों का रास्ता अवरुध्द हुआ करता था
उन्हीं दिनों की बात है
  जगंल से मोह हुआ
भीतर घुसने का मन बहुत किया करता था
राहुल सांकृत्यान जी की
"मालिनी के वनों में" और "शिवालिक की घाटी में" रचनायें वहीं बैठ पढ़ीं थीं
   मालिनी के वनों की नायिका से मन मिलने को लालायित रहता था।

फौरेस्ट रेस्ट हाउस पर एक दिन मुलाकात हो गई
 जलालुद्दीन गूजर से बात तय हो गई
चलेगें उसके साथ जंगल में
एक रात रहेगें खायेंगे पीयेंगे
 जैसे गूजर लोग रहा करते हैं
मौज करी मस्ती खूब रही
   भैंसों का दूध पिया मावा खाने को खूब मिला
जंगल में जंगली जीवन का अहसास किया
 जलालुद्दीन से ही बात होती थी
घरवालों को हिंदी समझ नहीं आती थी
नहीं जानते थे, वह सब, कहाँ किस मुल्क में रहते हैं
  सिर्फ दूध निकालना या मावा के काम करने में दिन कटता था
 शादी ब्याह भी कबीलों के बीच होता था
बाहरी दुनियाँ से कोई नाता उनका न होता था
जलालुद्दीन ही हरिद्वार जाता आता
बस वही दूध मावा बेच पैसे लाता
अजीब सा लगता है न, यह सब
पल पल जीवन उनका ऐसे ही कटता था
इस अजीबोगरीब माहौल में
शान्ति और खुशियों से मन प्रसन्न रहता था।

जगंल में जाना कितना अच्छा लगता था
मन आज भी कभी कभी भटकता है
जगंल जाने को करता है
मृगनयनी सी मालिनी के वन की राजकुमारी से मिलने को भटका करता है।

धन्य हैं राहुल जी आप युग पुरुष की तरह रहे
घूमे फिरे और जीवन अपना खूब जिये
  हम लोगों के भाग्य ऐसै कहाँ
भाग्यशाली आप जैसे कम हुआ करते हैं।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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सरदी का मौसम अब करीब है।





कलम से____

सरदी का मौसम
अब करीब है
बूलन्स को निकाल लो यारो
थोड़ी धूप दिखा दो यारो
अकेले रहते हो तो यह काम
खुद कर लो यारो
घरवाली साथ है
तो उसका हाथ बटाओ यारो ।

माँ के साथ हो
फिर चिंता की कोई बात नहीं
सालों से करती आई है
अबके भी कर लेगी यारा
तू जब रोता था
हाथ उसीका बढ़ता था
आसूँ भी वही पोंछा करती थी
आज भी तू जब सोता है
रजाई की रुई की गरमाहट
उसीके हाथों के पिरोये धागों
की बज़ह से मिलती है
वही सदा तेरे लिए परेशान रहती है
क्या तू यह कर पाएगा
जब वह चल न पाएगी
सहारा क्या तू बन पाएगा।

सोच यही माँ है,
जो आज भी तुझ पर जान छिड़कती है
तेरे ऊपर खुद को न्योछावर करती है
बलइयां कोई और नहीं लेगा
दुआ कोई तुझे नहीं देगा.......

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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कुम्हारन बैठी रोड़ किनारे, लेकर दीये दो-चार ।




कुम्हारन बैठी रोड़ किनारे,लेकर दीये दो-चार।
जाने क्या होगा अबकी,करती मन में विचार।।

याद करके आँख भर आई,पिछली दीवाली त्योहार।
बिक न पाया आधा समान,चढ गया सर पर उधार।।

सोंच रही है अबकी बार,दूँगी सारे कर्ज उतार।
सजा रही है, सारे दीये करीने से बार बार।।

पास से गुजरते लोगों को देखे कातर निहार।
बीत जाए न अबकी दीवाली जैसा पिछली बार।।

नम्र निवेदन मित्रों जनों से,करता हुँ मैँ मनुहार।
मिट्टी के ही दीये जलाएँ,दीवाली पर अबकी बार।।

Please share as much as you can.

Thanks for support.

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Friday, October 17, 2014

जीवन भर तुमको सुना है।




कलम से____

जीवन भर तुमको सुना है
क्या अब तुम बात एक मेरी सुनोगे?

कहो प्रिये,
आज तुम और सिर्फ तुम बोलोगी
तुम्हारी मैं हर बात सुनूँगा !!

दूर चलो, यहाँ से
मन अब भर गया
चलते हैं, किसी ऐसी जगह
चित्त शांत जहां रहे
नदिया का किनारा हो
पर्वतों के पीछे से
निशा निमंत्रण लिए
चादँ हर रोज आता हो
छोटा सा घर हो
जो हमारा हो !!

जीवन की आपाधापी में
बहुत कुछ है खो दिया
खो जो दिया है
उसे हासिल दोबारा करें
जो भी अपने पास है
बचाखुचा उसमें ही अब जिएं !!

सात जन्म किसने हैं देखे
यह हैं सब किस्से कहानियों में
इस जन्म को भरपूर जियें
अबके बिछड़े,
पता नहीं फिर कब मिलें
....................  मिलें या न मिलें
जीवन उत्सव है, बस इसे ऐसे ही जियें !!!


//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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मेरी आदतों पर न जाना






कलम से_____

मेरी आदतों पर न जाना
मुस्कराते रहना मेरी आदत में शुमार है
गमगीन होने से क्या होगा
गम जो भी हैं सिर्फ मेरे अपने हैं।

लोग आएंगे साथ बैठेगें
खुशियों में शरीक़ भी होंगें
दाग़ दिल पर जो हैं
वो तुम्हारे अपने हैं
किसी ने यूँही मुफ्त में नहीं है दिए
खरीदे हैं, तुमने बाज़ार से अपने लिए।

गुमान था चाहा हैं मुझे लोगों ने बहुत
देर से पता लगा दिखावा था सब
अपने अपने मतलब के लिए।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

करना था वो तुमने काम कर दिया।






कलम से____


करना न था वो तुमने काम कर दिया
तुमने बेबज़ह मुझे बदनाम कर दिया।।

खत भेज कर तुमने मुझे बुला तो लिया
वादा तोड़ मिलने का फिर नाम ना लिया ।।


क्यों ऐसा करते हो समझ मेरे आता नहीं
जिऊँगा कैसे तुमने कभी यह गौर किया।

सारे गम अपने भुला आजाओ पास मेरे 
इस फरियाद को अपनी समझ मेरे पिया।

गिले शिकवे न रहेगें अपने बीच अब कोई
वादाए ऐतबार कर आजाओ मेरे जिया।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Thursday, October 16, 2014

Time to pull out woolens.



Time darling to pull out woolens
From cupboard and show it some Sun
Weather is changing
Slight chip in of Cold: One feels now
Be careful when you go out
For your morning walk
For your work outs
For meeting birdies in the garden
For meeting your friend
Who is so especial to you

Time to remember sweet times are lingering
Time to enjoy the best of the seasons is fast coming
Time to eat drink and be merry are approaching

It's winter coming

//surendrapalsingh © 2014//

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उच्चारण: "ग़ज़ल-मात अपनी हम बचाना जानते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

उच्चारण: "ग़ज़ल-मात अपनी हम बचाना जानते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


कलम से____


तेज रफ्तार जिन्दगी
रुकने लगी है,
उम्र का अहसास
दिलाने लगी है,
चलते चलते थमने सी लगी है
शाम भी डूबने से पहले,
एक पल को ही सही,
रुकने सी लगी है।

तुम से जब मिला था,
साल बहुत गए
उसके बाद बदल गया बहुत हूँ
मिलो कभी अगर 
पहचान न पाओगे शायद
चेहरे की रौनक बुझ सी गई है
एक लौ है, जो जल रही है
राह जीवन की दिखा रही है
कभी कभी
कानों में धीरे से आकर कह रही है
कह देना,
बात कह न पाया था
तुमसे,
कहने को जो रह गई है।


//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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कलम से____

खेल खेल में
जिन्दगी यूँ ही
कटती जाती है
कभी हार कभी जीत
होती रहती है।

वक्त वक्त की बात
होती है,
जीत होती है
तो दुनियाँ हसीन लगती है
दुश्मन भी साथ हो लेते हैं
वक्त है खराब, तो दोस्त भी साथ छोड़ देते हैं।

मज़ा आता है, जब हार मिलती है
इन्सान की असली पहचान तब होती है
लडाई लड़ने का अदांज बदल जाता है
बात जब किस्मत से लड़ने की होती है।

कहने की बात होती है

किस्मत से लड़ने में
मजा आ रहा है दोस्तों
ये मुझे जीतने नहीं दे रही,
और हार मैं मान नहीं रहा ।।


//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Wednesday, October 15, 2014





कलम से_____

अभी अभी
एनडीटीवी पर
खबर सुनी
कलम लाखों
की
हो गई
लखनऊ में
कलम
दीपावली की
गिफ्ट
बन गई
कलम अब
वास्तव में
सही जगह
पहुंच गई
विरासत की
तिजोरी की सौगात
बन गई।

वाह कलम से
यह क्या
बात निकल गई।
कलम से ही कलम की बात हो गई।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//


कलम से____

नींद प्यारी थी तुम्हें, अंतस द्वंद को मेरे समझा नहीं
शूल  करते  हैं  क्या,  तुमने यह कभी जाना नहीं !!

बरबस ही उस निशा की याद हो आई
कोशिशों के बावजूद सो पाया मैं नहीं !
जगा पाया न तुम्हें प्रयत्न सौ बार कर
नींद प्यारी सी, सोती रहीं तुम रात भर !!

तन बदन मेरा दर्द से कराहता रहा,
उठ हृदय से कण्ठ फिर घुटता रहा
निकट रह कर भी, तुम दूर बहुत दूर रहीं
नींद गहरी सी, सोती रहीं तुम रात भर !!

आश्वस्त बहुत मैं था, जगा लूँगा तुम्हें
घाव अंत:स्थल के दिखा दूगाँ तुम्हें
थकी मांदी सी पड़ी, स्वप्न में खोई
बेहाल सी, सोती रहीं तुम रात भर !!

दूर तुम थीं नहीं, आती जाती सांस पर
जीवन की घुटन महसूस, मैं करता रहा
एक ज़िद्दी लट को, भाल से तुम्हारे मैं
हटाता रहा, पर सोती रहीं तुम रात भर !!

भाल से लटें हटाते रात पूरी कट गई
यामिनी न जाने आखिर कहां खो गई
चूमने लगीं पलकें भोर की पहली किरन
नींद अखियों से तुम्हारी जाकर तब गई !!

नींद प्यारी थी तुम्हें, अंतस द्वंद को मेरे समझा नहीं
शूल  करते  हैं  क्या,  तुमने यह कभी जाना नहीं !!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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कलम से____

चलते चलते
    दूर काफी निकल गया
सोचा साथ कुछ है मेरे नहीं
 कर्ज किसी का चुकाना है नहीं
मुड़ के देखा
   निशान कुछ साथ चल रहे थे
रेत पर
जैसे कि वो छोड़ेंगे
अकेला मुझे नहीं !!!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Tuesday, October 14, 2014

दूर बहुत नभ मंडल में।



कलम से____

दूर बहुत
नभ मंडल में
एक दृश्य देख कर
विचार उठा
दूर बहुत देखने को
मन बहुत करता है
फिर लौट वहीं
आसपास रह जाता है
आकर्षण कुछ ऐसा होता है
दिल अपनों में ही उलझा रहता है
अक्सर किस्से मोहब्बतों के
गलियों मोहल्लों के होते हैं
 चादँ और तारों की बातें
हम सपनों में किया करते हैं।

इन्टरनेट के आने से
दुनियां ही बदल गई है
चादँ की छोड़ो
उसके आगे की भी खबर मिल रही है।

मंगल पर यान हमारा
क्या करता है
सब मालूम
होता रहता है।

अपनी दुनियां के आगे
भी दुनियां है
एक नहीं न जाने कितनी दुनियां हैं
लोग वहाँ भी होते होगें
रहते कैसे खाते क्या होगें
दिन दूर नहीं
जब हम उनके साथ बैठेगें
    खाएगें और पियेंगे
  नये लोग मिलेंगे।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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सागर किनारे।



कलम से____

सागर किनारे 
कभी अकेले हो कर
खुद के भीतर के
अकेलेपन
को खंगालने का अहसास
बड़ा न्यारा है !!

कितने ही ख्वाब 
लहरों पर सूरज की रौशनी में संवर जाते हैं
और 
       कहीं फिर दूर चले जाते हैं
  कुछ रिश्ते मन को गुदगुदा जाते हैं
  कुछ अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं
हकीकत से 
पल भर के लिये ही सही
दूर खुद को किए जाते हैं !!!


//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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I walk alone.




Mornings are exclusive to me
And these are for me: Me alone
That's the time I think
That's the time I plan
That's e time I do my poetry
That's the time to do creative thinking
That's the time God is near to me.
That's the time I am midst nature
That's the time I hear birds chirping
That's the time I see sun rising and dispelling darkness.

Thanks that's the time I have to myself.



//surendrapalsingh © 2014//

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Monday, October 13, 2014




कलम से____

काश मैं पेन्टर होता
बनारस की गलियों में रहता
वहाँ के घाटों के मनोरम
दृश्य बनाता
आते जाते लोगों के
साथ हो जाता
जो चेहरा
नज़र चढ़ जाता
उसको सामने मैं बिठाता
कुछ उसकी सुनता
कुछ अपनी कहता
धीरे धीरे
अक्स उसका मन में बसाता
रंगों की महफिल सजाता
जब वो मेरे
करीब हो जाता
 अजीज़ हो जाता
कहता चलो, चलें दो कदम साथ
चलता वो तो
बनारस की तंग गलियों में
इधर उधर घूमा करता
बैठ मिठाई की दुकान पर
हलवा पूडी
रवडी खाया करता
आश्रम में बैठ
घंटो प्रवचन सुना करता
     धर्म क्या है अधर्म क्या है
जानने की कोशिश करता
 जीवन के दर्शन को
खोखली बातों से तौला करता
घाट की सीढ़ी से
  गंगा को
निहारा करता
बहती हुई गंगा
ठहरी हुई गंगा
चंचल गंगा
उच्छल गंगा
गंगा के हर रूप को
हृदय में बसाता ...

हुआ फिर चल देता
गलियों में लोगों के साथ
फिर कहीं खो जाता
रंगो को पेन्टिंग में भरते भरते
बिछड़ जाता....

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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मंजिल मेरी यह थी ही नहीं ।



कलम से____


मंजिल मेरी यह थी ही नहीं
              रुकी थी मैं,
    पल दो पल के लिए
चल सको तो साथ कदम मिलाकर चलो
वरना
मैं अकेले ही चली जाऊँगी,
अपनी मंजिले मकसूद की ओर.......


//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Sunday, October 12, 2014

जिन्दगी को इस मुकाम तक लाने के बाद भी ..

कलम से____

जिन्दगी को इस मुकाम
तक लाने के बाद भी
कभी यह नहीं समझ पाये
सादगी से हट कर भी
कोई और सलीका होगा
    इसे जीने का,
समझने का
जो आया उसे गले लगा लिया
जो मिल गया
हाले दिल उसको बता दिया
उसका हाल है क्या
  यह जान लिया।

हमने तो
जिन्दगी को इस तरह
    करीब से
जी लिया।

अब कैसे कहें
लोगों ने हमें जीने नहीं दिया
  जिन्दगी हमें मिली
हर मोड़ पर मुस्कुराती हुई
हमने भी उसे मुस्कुराते हुए
       गले लगा लिया।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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रात हो गई मैं ठहरी दिन की रानी।




कलम से_____

रात हो गई
मैं ठहरी दिन की रानी
नयन पसारे
बाट जोहती
मैं तुम्हारी
फूलों पर मंड़राती हूँ
देखो, मैं कहाँ  बैठ
इतंजार करती तेरा  हूँ।

अंधकार से डर है लगता
अपना कोई यहाँ नहीं दिखता
आ भी जाओ,
   समय नहीं है अब कटता।

सबकी निगाहें हैं, मुझ पर
कहते हैं लोग यहाँ
कितनी रंग बिरंगी है यह
तितली रानी लगती है
    चलो पकड़ें इसे और साथ ले चलें अपने।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Saturday, October 11, 2014

मंद मंद पवन बह रही ऐसे।



कलम से____


मंद मंद पवन
बह रही ऐसे
ऋतु नूतन आ रही जैसे
कर्णप्रिय स्वर लहरी सी
अनजाने ही कुछ कह जाती
मन पुलकित कर जाती ऐसे !!

अथाह प्रेम की सागर बन
प्रीत हृदय जागृत करने को
आना तुम प्रिये।

तरु पक्षी लौट आते साझं ढ़ले
दीप प्रज्वलित करने हिय में
स्वप्निल श्वेत वस्त्र धारण किये
आना तुम ऐसे प्रिये !!

राह देखती है अखियां मेरी
व्याकुल है मनुवा मेरा
नभ मंडल के तारों को बटोर
आचंल में समेट लाना तुम प्रिये !!


//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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मन किया सुबह होने के पहले ही ।



कलम से____

मन किया
सुबह होने के पहले ही
मील कुछ तय कर लूँ
मंजिल है दूर
थकने के पहले
कुछ कदम और मैं चल लूँ।

पेड़ मिलेगा कोई न कोई
नीचे बैठ थोड़ा सुस्ताऊँगा
हिम्मत जुटा फिर
मैं राह पर आ जाऊँगा।

धीरे धीरे हे सही
चलूँगा तो भी पहुंच जाऊँगा
राह में कोई मिलेगा
साथ में उसका पाऊँगा
मंजिल दूर हो जितनी
सूरज डूबने के पहले
पहुँच ही जाऊँगा।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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कलम से____

फलक से उतर सब मिलने नीचे आ गए
करती रही मैं इतंजार, बस एक तुम नहीं आए !!!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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कौन है,  जिस पर निगाह मेरी आकर  यूँ  रुक गई
पुरानी सी एक बात ख्वाब न जाने कितने जगा गई !!!

//सुरेन्द्रपालसिंह//

Friday, October 10, 2014

"हुद हुद " की हो रही है हुंकार।

कलम से ____

"हुद हुद" की हो रही हुंकार
आने वाला हूँ
हो जाओ तैयार
विनाश की लीला
होने वाली है
आन्ध्र और ओडिशा
को परेशान करने है वाली
हर साल कुछ न कुछ
हो जाता है
पूर्वी तट हमारा
बरबाद कर जाता है
खड़ी बंगाल की वैसे ही
उग्र है बहुत
जीवन को झकझोर जाती है
सागर लाख बुलाए
दूर ही रहना
खतरों से झूझने की
है आदत पर आज दूर बने ही रहना
झंझावात है विशाल
'हुद हुद' से बच कर ही चलना।

शाम को मिलते हैं
खबर अच्छी ही देना।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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ऐसा इसमें क्या है जो इस बेकरारी से इतंजार करते हो।

कलम से____


ऐसा इसमें क्या है
जो इस बेकरारी से इतंजार करते हो
थोड़ा लेट क्या हो जाता है
परेशान से हो जाते हो
इतने परेशान तो पहले कभी नहीं होते थे ।

हाँ,
मैं जब लेट हो जाती थी
तब तुम
इधर से उधर और उधर से इधर
टहला करते थे
जैसे अब टहला करते हो।

सुनके बात मेरी खड़े हो गए
अखबार हाथों में था
सीने से लगा लिया
कहा धीरे से
आज भी
दिल मेरा तुम्हारे लिए धड़कता है
इसमें दूसरा न कोई बसता है ।

छोड़ो भी,
छोड़ो चाय लाई हूँ,
चाय पियो ठंडी न हो जाय
चश्मा आँखों पर चढ़ा
फिर वो खो गए
अखबार में............


//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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