Monday, August 31, 2015

चर्चा में अब तू ही होगा

भारत के पांच लाख गाँव।


चर्चा में अब तू ही होगा
वजूद मिट जो गया था
दुबारा फिर से जन्मेगा
ज़र, ज़मीन और जोरू
पर ध्यान फिर से होगा।

इलैक्शन है करीब
बातें होंगी अजीब
महरारू को आरक्षण
बढ़ा हुआ मिलेगा।

खेत खलिहान की ओर
ध्यान सबका रहेगा
उद्योग और उनके पति
आराम कुछ दिन फरमाएं
जब बजट बनेगा तो
उनके मनमाफिक बनेगा
ऊँच नीच चलता है
राजनीति का अहम हिस्सा है
यह भारत है
उत्तरप्रदेश और बिहार
जीतना आवश्यक है
प्रधान सेवक तो यहीं से आयेगा
जो सेवा करेगा वही मेवा पायेगा।




शौक कुछ अजीब थे लंबे चौड़े दालान वाले घर ही पसंद थे


शौक कुछ अजीब थे
लंबे चौड़े दालान वाले घर ही पसंद थे



शौक कुछ अजीब थे
लंबे चौड़े दालान वाले घर ही पसंद थे
कौन जानता था
वक्त की मार ऐसी होगी 
जो था नसीब में
वह भी न पास होगा
वक्त आखिरी
बहुमंजिला बिल्डिंग में काटना होगा
मन मार लेते हैं
चाँद तारे तक यहाँ दिखाई नहीं देते हैं
लगता है दिवास्वप्न था
गुजर जो गया वो कल था
बुझ गए हैं अरमान
बुझ गए सब दिये
मन अब यहीं लगा के रहते हैं
कभी बालकनी में
कभी राकिंग चेयर पर बैठे रहते हैं
ऊब जाता है मन उनको पास बुला लेते हैं
उनकी आँखों में नमी को देख सहम जाते हैं
तसल्ली दिल को देके खुश हो लेते हैं
वक्त गुजरे अच्छा बस यही दुआ करते है.......

©सुरेंद्रपालसिंह 2015

Saturday, August 29, 2015

सहर होने तक ठहर जाओ तो कुछ चैन पड़े !




कलम से____
इक बार ज़रा और पास आओ तो चैन पड़े
पैमाने को थोड़ा छलकओ तो ज़रा चैन पड़े !
सागर के किनारे बैठके हर मौज पर दिल मचलेगा
आगे बढ़ के तूफान से टकराओ तो कुछ चैन पड़े !
सुकून मिलता है तेरा अफसाना सुन के
तड़पती हुई गज़ल सुनाओ तो कुछ चैन पड़े !
यादों के सहारे कट रही है ए-जिंदगानी अपनी
वक्त रुक जाए कुछ ऐसा करो तो चैन पड़े !
दामन में चाँद सितारे जड़कर रात है आज आई
सहर होने तक ठहर जाओ तो कुछ चैन पड़े !
©सुरेंद्रपालसिंह 2015

Wednesday, August 26, 2015

निकाल ले मणिरत्नम हैं जो वहाँ पड़े!

चाहती हूँ काश मुझे कोई ऐसा मिले
मन जिससे बार बार मिलने को करे
मथ ड़ाले मेरे भीतर के समंदर को
निकाल ले मणिरत्नम हैं जो वहाँ पड़े!






कलम से____

कैसा होता है मन सुन्दरता का मानसरोवर
कैसा होता है तन सुन्दरता का शिखर
चाहती हूँ काश मुझे कोई ऐसा मिले
मन जिससे बार बार मिलने को करे
मथ ड़ाले मेरे भीतर के समंदर को
निकाल ले मणिरत्नम हैं जो वहाँ पड़े

लंबे अरसे से तलाश है मुझको
मुझे एक शक्सियत ऐसी मिले
देखते ही जिसे मुझे कुछ ऐसा लगे
मिट गए सब पाप इस जीवन के
कट गए हों सब बंधन जैसे
मिल गया हो मोक्ष इसी काया में

इसी आस में जीवन चले
चाहती हूँ, काश मुझे कोई ऐसा मिले........


©सुरेंद्रपालसिंह 2015


Tuesday, August 25, 2015

जीवन के कुछ पल उसको दे दो।



बंद जो है पिंजरे में व्याकुल
भूला बैठा है जो
दुख जतलाने की भाषा
वाणी के कुछ क्षण उसको भी दे दो।



कलम से____

भटक गया है जो जीवन में
सही राह चले कुछ ऐसा तुम कर दो
बुझे हुए दीपक को
अंजुलि भर प्रकाश तुम दे दो।

बिखराते हो जो तुम भू पर
सोने की किरणें
एक किरण उसको भी दे दो
भाल उसका आलोकित तुम कर दो।

जगा रहे हो तुम
दल दल के कमलों की आँखो को
उनके सोये सपनों को
एक किरण उसको भी दे दो।

बंद जो है पिंजरे में व्याकुल
भूला बैठा है जो
दुख जतलाने की भाषा
वाणी के कुछ क्षण उसको भी दे दो।

एक मात्र एक स्वप्न
उसके सोये मन में
जागृत कर दो
जीवन के कुछ पल उसको दे दो।

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/

Monday, August 24, 2015

खुमारी अभी उतरी नहीं है कल रात की गूँज रही है अभी तलक गजल आपकी.





खुमारी अभी उतरी नहीं है कल रात की 
गूँज रही है अभी तलक गजल आपकी.

रेप में भला इज्जत क्या चार से लुटती है?





शाम से सुबह तक
दिन से रात तक
बस एक ही चीज
वही चक चक.........

आपाधापी में
कब सुबह हुई
कब शाम हुई
पता जब चला
अहसासों की मृत्यु हुई......

अखबार के हर पन्ने पर
एक ही बात दिखती है
कभी इस गली में
कभी उस गली में
इज्जत बहन की
कभी यहाँ
कभी वहाँ
बस लुटती है
नालायक हो गया है
मुलायम सा दिल
प्रश्न जो है पूछता
रेप में भला इज्जत
क्या चार से लुटती है?

©सुरेंद्रपालसिंह 2015

सूत्रधार कौन?





सूत्रधार कौन?

नाटक के सारे पात्र
नर नारी मिल कर
पत्थरों में आत्मा के संचार का प्रयास हैं करते
फिर भी नदियाँ रोती हैं
समुद्र हुंकार नहीं भरते
शब्द बासी नहीं पड़ते
प्रेम मुक्त रहता संदेह के दायरों से
ख्वाब हुकूमतों के मोहताज़ नहीं होते
बुलबुले फूटने के लिए जन्म नहीं लेते
धरा की हलचल और प्रकृति की भाषा
अनचाही वस्तुओं में शरीक नहीं होती
एकाकीपन के सारे हौसले पस्त नहीं होते
नाटक के सभी पात्र गर सजीव होते
मृत प्रायः हैं सभी समाप्ति की ओर
अपरिभाषित बंधनों से दूर बहुत दूर.....

©सुरेंद्रपालसिंह 2015

तेरे आने के खयाल भर से





तेरे आने के खयाल भर से 
इन आँखों में चमक आ जाती है
यादें ही हैं जीने का सहारा मेरा, 
जब भी आतीं हैं, रुला जातीं हैं।

आजाओ आँख मूँदें आगोश में


आजाओ आँख मूँदें आगोश में
ले आया हूँ मैं चांदी सी बूँदें
भीगेंगे आज हम बरसात में
हाथ आप दीजिये मेरे हाथ में
टोकिए न हमें न इस काम में
भीगेंगे आज हम बरसात में.......
 

कभी पास बैठ कर तो देखो




कलम से____

कभी पास बैठ कर तो देखो
फूल कैसे है खिलता
जब है खिलता 
तो कैसे है महकता
चुपके चुपके वो
अपनी व्यथा है कहता
जब वो है चटकता
खिलखिला के है हँसता
कभी वो बेकरारी से
इंतजार किसी का है करता
कभी वो किसी भँवरे के
राह देखा है करता
कभी वो बागँवा की राह है तकता
कभी वो फूल चुनने वाले का
इंतजार करता है रहता
कभी वो मुरझा के
बिखरने की चाह है रखता
फूल है इसलिए वो हर किसी को
खुश करने की कोशिश में लगा है रहता
कांटों में खिलके भी मुस्कुराता है रहता ....

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/

सो रहा है हमवतन यहाँ कोई






सो रहा है हमवतन यहाँ कोई
न बोलता है न बोलती है रूह उसकी
न खटखटाओ इन दरो-दीवारों को
दर्ज हैं यहाँ बेइन्तहा दर्द की दरारें.......

"दिल व दिल्ली दोनों अगर हैं खराब पर कुछ लुत्फ उस उजड़े घर में भी है !!" मीर तक मीर।



"दिल व दिल्ली दोनों अगर हैं खराब
पर कुछ लुत्फ उस उजड़े घर में भी है !!"

मीर तक मीर।
 





एक दिन और ढ़ेर
हो गया
जिन्दगी
एक सीढी
और चढ़ गई.....

जाते जाते
शाम न्योता दे गई...

आना मिल बैठेंगे
कुछ अपनी कह लेंगें
कुछ तेरी सुन लेंगें
जीवन में रंग नये भर लेंगें...

राम राम जी !

न खिलाया घेवर न खिलाई कोई और मिठाई


आज के दिन भी बार्डर पर हो रही है गोलाबारी
कब खत्म होगी भारत-पाक में यह मारामारी ?

न खिलाया घेवर न खिलाई कोई और मिठाई
दिनरात बस एक काम दनदना गोली ही चलाई !!
 

Sunday, August 23, 2015

प्रहरी तुम सजग रहना





प्रहरी तुम सजग रहना
घात लगाए बैठा है दुश्मन
हर हरकत पर ध्यान रखना
आहट हो प्रहार करारा करना
सम्पूर्ण राष्ट्र तुम्हारे है पीछे
भारत की शान बनाए रखना
अबके सिर धड़ से पहले
उनका कलम है करना
शीष को माँ के चरणों चढ़ा
असीम गौरव प्राप्त करना
सीने पर हो प्रहार कड़ा
पीठ पर वार न करना
प्रहरी टोलियाँ छोटी बना
सजग हमेशा रहना
पुरखों की गौरव गाथा का
ध्यान हमेशा करना
युद्ध भूमि में
अंगद का पावं जमा कर लड़ना
अश्त्र शश्त्र की पूजा नितदिन
पुनीत कर्तव्य समझ करना
देवी माँ का नाम ले
दुश्मन के सीने चढ़ना
भारत माता के सपूत हो
तुम इसे भूल न जाना
नाज़ करे दुनियां तुझ पर
काम सदा ऐसे करना
चढ़ जा चढ़ जा चोटी पर
हिमालय तेरा है अपना
चुस्त दुरुस्त चौकन्ने रहना
दुश्मन की सोच से सदैव
दो कदम आगे की सोच रखना
रणभेरी हो जब सदैव सजग रहना
वार पहला हो दुशमन पर
प्रयास यही हमेशा करना
प्रहरी बस तुम सजग रहना !

ठहराव जब कुछ अब मिल गया है बिछड़ा कोई अपना दिख गया है.......







कलम से____

जिक्र क्या करूँ
उन यादों का
जो पीछे छूट गईं
जिदंगी के सफर में
इक जगह टिक पाए नहीं
शहर दर शहर
दर बदर बदलते रहे
कभी इस जगह
कभी उस जगह
ठिकाना बदलते रहे
खाने कमाने में लगे रहे

इक आइने सा साथ निभाती रही
जिदंगी हकीकत बयान करती रही
ठहराव जब कुछ अब मिल गया है
बिछड़ा कोई अपना दिख गया है.......

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/

बुल्लेशाह शाह






बेवज़ह मुहब्बत भी कभी किसी से होती है
हर कहानी की कोई न कोई वज़ह होती है
वक्त के सीने को चीर नायाब किस्से होते हैं
लैला मजनूं शीरी फरहाद हर रोज़ नहीं होते हैं !!

बुल्लेशाह शाह ने क्या खूब कहा है इन दो रचनाओं में:-

मूल पंजाबी पाठ:

सानू आ मिल यार पियारया,
जद अपनी अपनी पै गई,
धी माँ नू लुट के लै गई,
मूह बाहरवीनां सदा पसारिया,
सानू आ मिल यार पिआरिया।
दर खुल्हा हशर अज़ाब दा,
विच हवियां दोज़ख मारिया,
सानू आ मिल यार पिआरिया।
बुल्हा शाह मेरे घर आवसी,
मेरी बल्दी भाह बुझावसी,
इनायत दम-दम नाल चितारया
सानू आ मिल यार पियारया।।

हिंदी अनुवाद:

हे प्रियतम हमसे आकर मिल।
सब लगे हैं अपनी स्वार्थ-सिद्धि में
बेटी माँ को लूट रही है
बारहवीं सदी आ गई है
आ पिया तू आकर हमसे मिल।
कष्टों और क़ब्र का दरवाज़ा खुल चुका अब
पंजाब की हालत और ख़राब
ठंडी आहों और हत्याओं से पंजाब कमज़ोर हो रहा है
हे प्रियतम आकर हमसे मिल।
हे ख़ुदा तू मेरे घर आ
इस प्रचण्ड आग को शान्त करा
हर साँस मेरी तुझे याद करे ख़ुदा
आ पिया तू आकर हमसे मिल।

मूल पंजाबी पाठ

बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ
'मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ
आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ लाईयाँ?'
'जेहड़ा सानू सईय्यद सद्दे, दोज़ख़ मिले सज़ाईयाँ
जो कोई सानू राईं आखे, बहिश्तें पींगाँ पाईयाँ
राईं-साईं सभनीं थाईं रब दियाँ बे-परवाईयाँ
सोहनियाँ परे हटाईयाँ ते कूझियाँ ले गल्ल लाईयाँ
जे तू लोड़ें बाग़-बहाराँ चाकर हो जा राईयाँ
बुल्ले शाह दी ज़ात की पुछनी? शुकर हो रज़ाईयाँ'

हिन्दी अनुवाद पाठ

बुल्ले को समझाने बहनें और भाभियाँ आईं
(उन्होंने कहा) 'हमारा कहना मान बुल्ले, आराइनों का साथ छोड़ दे
नबी के परिवार और अली के वंशजों को क्यों कलंकित करता है?'
(बुल्ले ने जवाब दिया) 'जो मुझे सैय्यद बुलाएगा उसे दोज़ख़ (नरक) में सज़ा मिलेगी
जो मुझे आराइन कहेगा उसे बहिश्त (स्वर्ग) के सुहावने झूले मिलेंगे
आराइन और सैय्यद इधर-उधर पैदा होते रहते हैं, परमात्मा को ज़ात की परवाह नहीं
वह ख़ूबसूरतों को परे धकेलता है और बदसूरतों को गले लगता है
अगर तू बाग़-बहार (स्वर्ग) चाहता है, आराइनों का नौकर बन जा
बुल्ले की ज़ात क्या पूछता है? भगवान की बनाई दुनिया के लिए शुक्र मना'

"सारी" कहके लगता था गुनाह सारे धुल गए





कलम से____

कितना करीब का
रिश्ता था मेरा तेरा
गर्म हवा कुछ ऐसी चली 
फूल नाजुक से थे सूख गए
कुछ तुमने उठाये
कुछ हमने उठाये
किताबों में रख के
हम दोनों भूल गए
गिर जातीं थीं जब
किताबें बुकशैल्फ से
उठाने में न जाने
कितनी बार सिर
हमारे टकरा गए
"सारी" कहके लगता था
गुनाह सारे धुल गए
फिर वहीं से दासंता
शुरू क्या हुई
जब जब वो सूखे फूल
किताबों में मिले
तार मन के झंकृत कर गए

रास्ते तुम्हारे अलग
हमारे अलग हो गए
भूलीबिसरी यादों के
सहारे ही हम यूँही
भवसागर उतर गए .......

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/

मैं ठहरा गँवार इसी जगह खड़ा रहा

कलम से ____

मैं ठहरा गँवार इसी जगह खड़ा रहा
तुम थे तेज तर्रार बाहर जा बड़े हुए।

भारत माता के चरणों की रज मैं लेता रहा
तुम अमरीका में ज्ञान ध्यान में लगे रहे।

मेरी भाग्य रेखा में था बैलों का इक जोड़ा
संपत्ति और मायाजाल में तुम उलझे रहे।

मैं बैठा इक मंदिर नतमस्तक भगवान समक्ष
तुम वहाँ संसार बसा गुणगान दूसरों का करते रहे।

खेतों में जब लहलहाती है फसल, आखँ मेरी खुशी से छलक जाती है
धरती माँ की याद जब जब आती है , आखँ तुम्हारी भी भर आती है।

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/


हर प्रार्थना में मैंने तुम्हें जो पुकारा है....




कलम से____

प्रेम के बन्धन में तो तुम बंधे नहीं
मन्नत के धागे से बांध लूंगी मैं
लेके तेरा नाम लपेट दिया है 
धागा तेरे चारों ओर

विश्वास था बहुत
अपने आप पर
तुम्हीं इक ऐसे निकले
गुरूर जिसने मेरा तोड़ा है
कोशिश रहेगी मेरी सदा
फलक तक ढूँढ़ने की तुझे
दीवाना सा बना के तू दूर बैठा है
बांध लूँगी तुझे मैं अपनी सांसो में
सांसो से फूँक कर मैंने
धागा मन्नत का एक बांधा है
धागे से बंधे से चले आओगे तुम
हर प्रार्थना में मैंने तुम्हें जो पुकारा है....

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/

आज सुबह की बारिश ने बहुत सूकून दिया।


दो तीन रोज़ से उमस बहुत थी, आज सुबह की बारिश ने बहुत सूकून दिया।

कल शाम को अपने घर की बंद बालकनी में बैठकर बहुत याद आ रहे थे वो पुराने घर जिनमें खुला आंगन और फैले हुये बरामदे हुआ करते थे। कौन कम्बख्त, बंद कमरों में रहना पसंद करता था। ज्यादातर घर के लोग चारपाई बिछा बरामदे में ही सोते थे। एक अदद टेबल फैन लग जाता था जो सबसे करीब चारपाई वाले को तो खूब हवा देता था। बादवाकी हवा के इक्के दुक्के झोंके हीमहसूस कर पाते थे।

मच्छर काटा करते थे। बचने के लिए बच्चे अक्सर मुँह से टाँग चादरें से ढ़क करत सो जाया करते थे। ऐसे में बारिश भी जब होती थी तो पैताने फुहार बड़ी अच्छी लगती थी। नींद उचटती सी आती रहती थी पर मन को गुदगुदाती रहती थी।

इन्हीं बरामदों में एक तरफ झूला पड़ जाता था। घर के बच्चों के लिए बरसात में घमाचौकड़ी मचाने की जगह खूब रहती थी। चौके के पास ही तख्त पर सब्जी भाजी काटने से मुहल्ले भर की बातें बतियाते घर की औरतों कभी नहीं थकतीं थीं। कहने का मतलब आंगन में लगी तुलसी और बरामदे से जितना लगाव हुआ करता था उसका जिक्र करना मुश्किल है, बस यूँ समझ लीजिए जिदंगी बस इन्हीं के आसपास मौज मस्ती में कट जाती थी।

आज फ्लैट में रहते हुए अब यह सब बातें जैसे गुज़रे ज़माने जैसी लगतीं हैं बस nostalgic बना छोड़ जातीं हैं।

वक्त बदल रहा है पर कभी कभी घुटन लगने लगती है, मन उचटने लगता है पर यह सोच शांत हो जाता है अब जिदंगी यहीं बसर करनी है। ख्वाब में जिदंगी बहुत हसीन लगती है........

Tuesday, August 18, 2015

मेरी रूह को छूकर अभी गुज़रा है .........

  


On this friendship day:

आज सुबह की चाय पीते हुये कुछ इस तरह उनकी याद आई........

बाबूजी, उस समय लगभग 86 वर्ष के हो गए थे। चलते फिरते थे और उन दिनों मैं हमारे ही पास कौशांबी में आए हुए थे। वैसे तो वो बहुत खुश रहते थे, हमारे पास। पर दो कष्ट हमेशा उनको सताते थे। एक तो आसपास उठने बैठने वालों की सत्य कहूँ तो चमचों की कमी( गांव में कोई न कोई सेवा में लगा रहता था) और दूसरा यह कि घर छंटवे मन्ज़िल पर था। उनको लिफ्ट से आने जाने में उलझन लगती थी। हमेशा कहते थे कि मुझे यहां ऐसे लगता है जैसे कि औरंगजेब ने एक शाहजहां को मुस्समन बुर्ज में कैद कर दिया हो।

उनको शाम को मैं अपने साथ घुमाने ले जाता था पास के पार्क में। वहाँ बैठ कर पुरानी पुरानी बातें करने में उन्हें अच्छा लगता था। एक दिन, मैं उनको सीधे सड़क पर कुछ दूर ले गया। बीच में एक जगह वह रुक गये और कुछ देर खड़े रहे, मुझे लगा आज कुछ अधिक ही सैर होगई, थक गये होंगे। रात को मेरी धर्मपत्नी रमा सिंह ने गर्म तेल पाँव के तलवों में लगा के पैर दबा दिए तो उन्हें बहुत अच्छा लगा।आँख नम हो चली न जाने किसकी याद उनको आई होगी।

अब जब धीरे धीरे ही सही हमारी उम्र भी सरकती जा रही है तो ऐसी बातें अक्सर याद आने लगीं है। जाने अनजाने में ही सही पर हर व्यक्ति का आचार व्यवहार उम्र के साथ अपने माता पिता जैसा होने लगता है। यह बदलाव स्वतः ही होने लगता है और पता भी नहीं लगता है।

क्या खूब अल्फाज़ हैं यह.....

"वो एक तुम्हीं तो थे,
जो पास मेरे बैठे थे,
न जाने ये कौन था,
मेरी रूह को छूकर अभी गुज़रा है ..........."

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/
 — with Puneet Chowdhary.

Happy Friendship Day



अपने आसपास के बदलाव को
कभी कभी हम नज़रअंदाज कर देते हैं
मेरा ध्यान भी बस अभी गया
'फ्रेंडशिप डे' पर आज गुलदस्ते में
अपने आसपास के बदलाव को
कभी कभी हम नज़रअंदाज कर देते हैं
मेरा ध्यान भी बस अभी गया
'फ्रेंडशिप डे' पर आज गुलदस्ते में
फूल लाल रंग के कुछ नये आ गये...

Happy Friendship Day to all of my dear ones.


उमड़ता हो मचलता हो धड़कता हो सीने में ,


कलम से____

उमड़ता हो मचलता हो
धड़कता हो सीने में , 
ये सारी नेंमतें हो तो.. 
मज़ा आता है जीने में ,
तसव्बुर में कोई आए
आके रुसवा भी कर जाये
तक्कलुफ़ इस तरह हो ,
तो मज़ा आता है पीने में....

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/

जब राह में मिल जाएंगे राम मेरे पग उनके पखार मैं, जल पी लूँगा !




कलम से____

डिबिया में किया बंद है एक धूप का गोला
मेरा मन होगा तब, मैं खोलूँगा !

आसमान जब नीचे उतरेगा
तब ही अपने पर, मैं खोलूँगा !

पगडंडी ओ गाँव की तू लगती है अपनी सी
पदचापों के गीत सुनाना तुम, मैं सुन लूँगा !

बीहड़ जंगल करीब से देखे हैं बहुतेरे
नीरवता उनकी कांधों पर, मैं ढ़ो लूँगा।

नन्हा बिरवा तुलसी का एक
अपने मन के आँगन में, मैं बो लूँगा !

जब राह में मिल जाएंगे राम मेरे
पग उनके पखार मैं, जल पी लूँगा !

प्रबल ज्वार प्रेम का उमड़ पड़ा है
तटबंध संभालो अब, मैं लव खोलूँगा !

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/