Sunday, January 26, 2020

गुज़रा ज़माना आता नहीं दोबारा --- एस पी सिंह



“गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा ....”



एस पी सिंह
हमारे मित्र एस पी राणा ने फ़ोन करके कहा जब आपका मन कुछ लिखने का क्र रहा है तो अपने यादगार पलों को सिमट कर ही लिखना शुरू करिए फिर उसके कुछ देर ही बाद एक मित्र ने एक पोस्ट में लिखा कि लगता है कि 'ठलुएको हाईजैक कर लोगों ने राजनीति का अखाड़ा बना दिया है। जिस ध्येय से यह ग्रुप शुरू किया गया था लगता है उसका कोई मतलब ही नहीं। उसी समय से मेरे मष्तिस्क में यह बात चोट कर रही थी कि अब इस पेज पर वह पहले सी बात नहीं जो कभी हुआ करती थी। कुछ ज्ञान ध्यान की बातें, कुछ पुरानी यादें ताज़ी हो जातीं थींकुछ आपस में छेड़छाड़कुछ चककल्सबाज़ी वग़ैरह। मुझे लिखने का शौक शुरू से ही था। एक वक़्त में हर रोज़ डायरी लिखा करता था। बीच-बीच में कभी-कभी टूटी - फूटी कविता तो कभी कहानियां इत्यादि भी। कभी लिखने पढने की इस आदत को जिन्दगीं में कभी सीरियसली लिया ही नहीं जब यह सोशल मीडिया का दौर शुरू हुआ और फेसबुक और ट्वीटर का ज़माना आ गया तब इस शौक ने जोर मारा तथा एक बार फिर से लिखना शुरू हो गया जब हम 'ठलुएहो गए कि जिंदगी में करने के लिए कोई ख़ास काम नहीं बचा तब इस शौक ने फिर से जोर मारा। आज हम इस ठलुआगीरी में और कुछ तो करते नहीं वक़्त काटने के लिये कभी यह लिख दिया तो कभी वह। दिन भर उसी पोस्ट पर मित्रों की टिप्पणियां पढ़ कर खुश हो लेते हैंपल दो पल की ज़िंदगी जी लेते हैं। 
मदान भाई की बात को सर माथे लेते हुए एक 'गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा.....’ नामक सीरीज़ शुरू करने की धृष्टता कर रहा हूँ। मैं आशा करता हूँ कि मेरे इस प्रयास में आप सभी सहभागी बनेंगे तथा आप भी कुछ न कुछ लिखेंगे और 'ठलुएपर पोस्ट करते रहेंगे जिससे वही पहले वाला हँसी मज़ाक काकुछ पुरानी यादें ताज़ा करने का वक़्त पुनः लौट सके।
हार्दिक धन्यवाद।

एस पी सिंह                                                                                                              गाजियाबाद(उत्तर प्रदेश)
एपिसोड 1
This post is dedicated to our first General Manager Mr. Rama Kant ji, ITI Ltd., Raebareli.
शुरूआती दौर की बात है, नई नई नौकरी लगी थी ITI Ltd में। 'नोट' वगैर लिखे काम नहीं चलता था। कुछ भी करना हो तो 'नोट'। न करना हो थो 'नोट'। बहरहाल वगैर 'नोट' के गुज़ारा नहीं था। Sorry don't mistake me for currency note. I am referring to a Note on the Notesheet of a Government file.
मैं बेहतर से बेहतर नोट लिखता और कोशिश रहती कि सभी बिंदुओं पर विशिष्ट ध्यान आकर्षित करते हुए अपने बिंदु पर रहूँ और जिसका अनुमोदन प्राप्त करना हो वह काम हो जाय।
"इस बात में मुझे mastery हासिल थी", ऐसा मेरे दोस्त और वरिष्ठ अधिकारी कहते थे, मैं नहीँ।
हमारे जनरल मैनेजर साहब, जो कि भारत सरकार के उच्च अधिकारी रह चुके थे, मेरी नोटिंग्स पढ़ कर बहुत प्रभावित होते थे और मुझे लगता था कि चलो अपना काम बन गया।
परंतु ऐसा भी हुआ नहीं कि उन्होंने कोई भी प्रस्ताव एक बार में मान लिया हो। हर बार यह कह कर कि इसको इस दृष्टिकोण से और देख लो उस दृष्टिकोण से देख लो और फिर फाइल वापस मेरे पास। मैं भी था, थोड़ा ज़िद्दी स्वभाव का। जो कहते, उस बिन्दु पर फिर नोटिंग लिख फिर फाइल उनकी सेवा में भेज दिया करता था।
मज़बूरन उनको तब फाइल पर लिखे प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति देनी पड़ती थी। आज भी यह सब फाइलें रिकार्ड रूम की शोभा बढ़ा रही होंगी, आई टी आई लिमिटेड, रायबरेली इकाई में।
जब कभी ऐसा होता था, तब हम अपने साथियों के बीच एक जुमला कहते थे और दिल खोल कर हँस भी लिया करते थे। वह था :-
" Johnny won't hit today मूड था साहब का, पर आज hit करने पर मज़बूर कर ही दिया जी एम साहब को।"
I thought that this anecdote let me share today with my Facebook friends because some of you who are yet in job may be having such difficult times with your boss to deal with.
शुक्रिया।
©सुरेंद्रपालसिंह 2020

एपिसोड 2
मैंने कल के अपने वृतांत में अपने हनोवर के विजिट के बारे में ज़िक्र किया था उसी क्रम में एक महत्वपूर्ण बात मैं आप सभी लोगों के साथ बांटना चाहता हूँ| जब हम लोग प्लांट घूम चुके और हमारी ऑफिसियल मीटिंग खत्म हुई उसके बाद हमारे मेजबान हमको दोपाहर के खाने पर एक होटल में ले गए| जर्मनी में मौसम सुबह कुछ था दोपहर होते-होते कुछ और हो गया, बदली घिर आई और बरसात होने लगी| हम लोग जब होटल में जाकर बैठे तो उस वक़्त बाहर हल्की-हल्की बर्फ भी गिर रही थी| हम लोगों के लिए मौसम में यह अचानक परिवर्तन आश्चर्यजनक था| खैर यह सब देख कर हमें बहुत ही अच्छा लग रहा था।
हमारे मेजबान ने हम सभी के लिए जर्मन लागर ड्राफ्ट बियर का आर्डर दिया और जब बियर हम लोगो की टेबल पर सर्व कर दी गई तो उन्होंने अपना मग उठा कर चियर्स किया| इसके साथ ही उन्होंने एक बात बताई जो मेरे दिल दिमाग पर ऐसी छा गई कि मैं जब कभी बियर पीता हूँ तो उनकी वह बात अनायास ही याद हो आती है। जो उन्होंने तब कहा था वह कुछ इस प्रकार था कि बियर पीने का असली आनंद तो ऐसे ही मौसम में आता है जब बाहर बर्फ़ गिर रही हो। बियर का घूंट पी लेने के बाद जब तक आदमी अपनी बियर के झाग में भीगी हुई मूँछ को अपने हाथ से शान के साथ न पोंछे और मूँछ को ताव न दे तब तक समझिये कि उसने बियर पी ही नहीं हैं।
मुझे आज भी याद है कि मैंने उनसे कहा था, “जिस व्यक्ति के मूँछ ही न हो तो वह क्या करे कि उसे लगे की उसने बियर पी है”
इस पर उनका जवाब था, “फिर वह यही समझे कि उसने बियर पीने का आधा मज़ा उठाया”
बियर पीने के बाद इधर-उधर की बातें होने लगीं तो उन्होंने यह बताया कि हर एक जर्मन को अपने देश की बियर पर नाज़ है दुनिया में इससे अच्छी बियर और कहीं नहीं बनती| बात ही बात में मिठाइयों की बात भी होने लगी तो हमारे सुपर बॉस ने अपने हिंदुस्तान की मिठाइयों की खूब तारीफ करी। चलते चलाते हम लोग जब निकलने लगे तो होटल की तरफ से कुछ टॉफ़ी हम लोगों को भेंट की गई| उन्होंने फिर अपनी जर्मनी की टॉफ़ी की खूब तारीफ़ करी| मैं एक दिन पहले ही स्विट्ज़रलैंड में था जहाँ मैंने कुछ टॉफ़ी खाई थीं तो ‘हीट ऑफ़ द मोमेंट्स’ में मेरे मुँह से निकल गया कि स्विट्ज़रलैंड की टॉफ़ी भी अच्छी होती हैं| बस फिर क्या था उनके मुँह से निकला कि ऐसा हो ही नहीं सकता है हमें अच्छी तरह से मालूम है कि पूरी दुनिया में हमसे अच्छी टॉफ़ी कोई बना ही नहीं सकता है।
मैं उनकी बात सुनकर चुप रह गया पर हिंदी में हमारे सुपर बॉस ने मुझे सलाह देते हुए कहा, "भइय्या युरोप में जब तक हो इस बात का ध्यान रखना कि जिस देश में हो उस देश के निवासियों के सामने किसी और देश की बनी चीजों की तारीफ़ मत करना, ये लोग अपनी चीजों के बारे में बहुत सेन्सटिव होते हैं" एक बात जो महसूस की कि वहाँ के लोगों का राष्ट्रवाद अपने यहाँ की तरह नकली और दिखावटी नहीं है।
मैं शाम को अपने होटल पहुँचा तो यह देख कर सकते में आ गया कि मेरे लिए रिसेप्शन पर जर्मन टॉफ़ी के कई पैकेट्स रखे हुए थे।नहीं जानता कि ये छोटी-छोटी बातें हम लोग अपने जीवन में कहाँ तक अपना सकते हैं? मुझे यह सब याद कर बहुत अच्छा लगता है बस इसीलिए इस घटना को आपके साथ बाँटने का मन हुआ।
रायबरेली के दिनों की यादें....
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 3
कल के रोज़ मैंने अपने जर्मनी के दौरे के बारे में ज़िक्र किया था, यह उस वक़्त की बात है जब हम लोग रायबरेली इकाई में सन 1982 - 83 में क्रॉसबार प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे। आज उसी सिलसिले में एक बात और याद हो आई कि जब हम लोग उस प्लांट को देख रहे थे तब वहां कार्यरत कर्मियों ने हम हिंदुस्तानियों को भी उसी निग़ाह से देखा था जिस प्रकार हम लोग अपने आसपास किसी विदेशी को घूर कर देखते हैं। ....उस पर तुर्रा यह कि वह पतली दुबली दिलकश बदन वाली महिला है तो उससे नज़र जल्दी से हटती ही नहीं बल्कि उसके पीछे वहां तक चली जाती है जहां तक वह नज़र आती है।
उस फैक्ट्री में जहां मशीन ऑपरेटर्स पुरूष कर्मी थे तो वहां कुछ ऑपरेटर्स महिला कर्मी भीं थीं। हमारे लिए यह कोई नई बात नहीं थी क्योंकि हमारी आईटीआई रायबरेली इकाई में असेम्बली लाइन्स में भी महिला कर्मी बहुतायत में हुआ करतीं थीं। यूँ कहूँ तो अतिश्योक्ति न होगी कि शुरूआत में बहुतेरी तो उम्र के उस पड़ाव पर थीं जब घर वाले अपनी बच्चियों के लिए शादी को लेकर परेशान रहते हैं। जब पुरुष और महिलाएं एक साथ काम करते हों तो एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। रायबरेली इकाई में तो बाद में बहुत से युवा लड़के लड़कियों ने आपस में शादी ही नहीं कि बल्कि बहुत स्वस्थ एवं आदर्श जीवन निर्वहन भी किया।
हां, तो मैं अपनी जर्मनी के फैक्ट्री के विज़िट पर दोबारा से लौटता हूँ। जो बात अब मैं बताने जा रहा हूँ वह महत्वपूर्ण इस लिहाज़ से है कि कोई भी आदमी अपने काम में किस प्रकार दिल लगाकर काम कर सकता है। मैंने वहां जब देखा जो मुझे कुछ अजीब सा लगा पर था जीवन की हकीकत के बहुत क़रीब था। मशीन पर काम करने वाले अधिकांश कर्मियों ने अपनी अपनी महबूबाओं की या अपनी पत्नियों की तस्वीरें मशीन पर लगा रखीं थीं। कुछ ने तो नग्न महिलाओं की तस्वीरें बतौर पोस्टर गर्ल्स लगा रखीं थीं। इस सबको देखकर मुझे ही नहीं बल्कि हमारे डेलीगेशन के अन्य लोगों को भी अजीब सा लगा। हमारे डेलीगेशन के एक सीनियर सदस्य ने तो हमारे साथ चलते हुए उस फैक्ट्री के मैनेजर से पूछ लिया, "आपके यहाँ कर्मी इस प्रकार की नग्न अथवा अपनी अपनी गर्ल फ्रेंड्स की फ़ोटो चिपका देते हैं इस पर आपको कोई एतराज नहीं है"
उस मैनेजर ने जो उत्तर दिया वह तो और भी चौंकाने वाला था, "जी नहीं हम लोग तो उल्टे इसे पसंद करते हैं बल्कि यह चाहते हैं कि वे हर हफ़्ते एक नई तस्वीर लगायें। क्योंकि यह सब करने से हमारे यहां के कर्मियों का दिलोदिमाग केवल काम पर बना रहता है और इधर उधर नहीं भटकता है"
उनकी बात सुनकर मुझे भी लगा कि उनका यह कितना यतार्थपूर्ण वक्तव्य था क्योंकि हमारे यहां तो अक़्सर काम करते हुए मशीन ऑपरेटरों का दिमाग़ तो इधर उधर भटकता ही रहता है जो कभी कभी एक्सीडेंट का कारण भी बनता है।
अब तो समय बहुत बदल गया है यूरोप कहीं और आगे निकल गया होगा लेकिन भारत में अभी यह बदलाव शायद नहीं आ सका है। जिस प्रकार से यहां फ़ैशन का दौर चल रहा है उससे तो यही लगता है कि एक दिन यह बदलाव भी आकर रहेगा और फैक्टरियों में एक्सीडेंट कम होंगे..
रायबरेली के दिनों की यादें....
@सुरेन्द्रपालसिंह2020
एपिसोड 4
यादों के पिटारे से आज भी मैं ज़िक्र एक घटना का करना चाहूंगा जो 1982 में हनोवर, जर्मनी की उस फैक्ट्री का विजिट करते समय घटी। हम लोग जब उस फैक्ट्री का विजिट कर रहे थे तो मेरी दिलचस्पी रायबरेली यूनिट में प्लांट हेड होने के नाते यह थी कि वहां ऐसा क्या कुछ किया जाता है जिससे कि कम्पनी की उत्पादकता में इज़ाफ़ा होता रहता है।
जब हमारा डेलीगेशन एक मशीन के पास से गुज़र रहा था तो उस मशीन पर प्रिवेंटिव मेन्टेन्स डिपार्टमेंट का एक क्रू काम कर रहा था। उसमें एक कर्मी मशीन का लुब्रीकेंट चेक कर रहा था और अपने शेड्यूल के हिसाब से लुब्रीकेंट बदल रहा था। मैंने अपने साथ चल रहे मैनेजर के माध्यम उस कर्मी से बात की। मुझे ताज़्ज़ुब तब हुआ जब उस कर्मी ने यह बताया कि पिछले एक साल में कोई भी मशीन ब्रेकडाउन उसके काम की कमी के कारण नहीं हुआ"
जब मैंने उससे यह पूछा, "यह कैसे हो सकता है हमारे यहां तो आये दिन लुब्रिकेंट फेलियर के कारण मशीन ब्रेकडाउन होते रहते हैं"
उस मैनेटेनेंस कर्मचारी का कहना था, "मैं जो भी करता हूँ, उसे दिल लगाकर करता हूँ। मुझे अपने काम पर फ़क्र है और जब कोई कहता है कि मेरे द्वारा किये गए काम में कोई कमी है तो मैं उसकी बात दिल पर लेता हूँ और अपने काम और ईमानदारी से करता हूँ जिससे उसे कुछ भी कहने का मौका न मिले। इसलिए मेरे काम में कोई भी कमी नहीं निकाल सकता है और यही कारण है कि हमारे यहां की मशीनिंग सेक्शन की प्रोडक्टिविटी सबसे अधिक बनी रहती है। यह तो आपको चेक करना चाहिए कि आपके यहाँ मशीने किस कारण ब्रेकडाउन में जा रहीं हैं"
यह उदाहरण उन सबके लिए कि जो भी काम करो उसे दिल लगाकर करो तो फेलियर हो ही नहीं....
रायबरेली के दिनों की यादें...
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 5
आईटीआई लिमिटेड अपने ज़माने की जानी मानी ही नहीं बल्कि हिंदुस्तान की भारत सरकार की पहली पब्लिक सेक्टर यूनिट है। भारत में टेलिकम्युनिकेशन के प्रसार में आईटीआई का बहुत बड़ा हाथ है। 1974 में आईटीआई की रायबरेली यूनिट की स्थापना के साथ ही रायबरेली की प्रगति का मार्ग प्रशस्त हुआ नहीं तो उससे पहले रायबरेली उत्तर प्रदेश के तीन सबसे पिछड़े जिलों (रायबरेली, प्रतापगढ़ और मैंनपुरी) में से एक हुआ करता था।
आज मैं जिस बात की ज़िक्र करना चाह रहा हूँ वह है कि आईटीआई में जहां काम धाम तो अपनी रफ़्तार से हुआ करता था मैनेजमेंट ने बंगलोर यूनिट को देखते हुए हमेशा यही प्रयास किया कि रायबरेली में भी कैंटीन की सुविधा ऐसीं रहें जिसमें सभी कर्मचारियों को समय से चाय, समोसा और खाना मिल सके। कैंटीन के उचित प्रबंधन के लिए मैनेजमेंट ने कैंटीन एडवाइजरी कमेटी जब बनाई तो न जाने किसकी सलाह पर मुझे भी उसमें रखा गया। कमेटी में हम लोग भरसक प्रयास करते कि खाने की क्वालिटी नंम्बर एक रहे लेकिन कहीं न कहीं कुछ ऐसा हो जाता था जो कर्मचारियों में विद्रोह की भावना को जाग्रत कर देता था और आये दिन लोग खाने की थालियों को लोग ऐसे लहराते हुए फेंकते थे जैसे कि हम लोग बचपन में घड़ों की गिट्टी को तालाब की सतह पर उछालते हुए फैंकते थे और जब वह छपाक छपाक करती हुई पानी के ऊपर से दूर तक जाती थी तो ख़ूब ताली बजाकर हंसते थे। ऐसे माहौल में कैंटीन में काम करने वाले सभी लोग डरे डरे और सहमे हुए रहते थे। एक दिन जब मुझसे एजीएम (पी एंड ए) ने मुझसे पूछा कि क्या किया जाय तो मैंने उनसे कहा कि रायबरेली राजा रजवाड़ों की धरती है और यहां एक नहीं अनेक राजा और राणा लोग रहे हैं। वे सभी लोग अपने यहाँ राज काज देखने के लिए लंबरदार रखते थे। आप भी कैंटीन के रख रखाव के लिए अपने कर्मचारियों के बीच से कुछ लंबरदार ढूंढ कर उन्हें कैंटीन में पोस्ट करिये तो कम से कम मारपीट की नौबत नहीं आएगी। सौभाग्य से मैनेजमेंट ने मेरी राय मानी और कुछ लंबरदारों को कैंटीन में लगाया गया। यह तो मैं नहीं कह सकता कि कैंटीन की व्यवस्था में कोई बहुत बड़ा सुधार हुआ लेकिन इतना अवश्य हुआ कि रोज़ रोज़ की हायतौबा ज़रूर ख़त्म हो गई।
मैनेजमेंट करना कोई आसान काम नहीं होता। कुछ स्थान ऐसे होते हैं जहाँ हर काम के लिए पुलिस प्रशसन पर डिपेंड नहीं किया जा सकता इसलिए जिस इलाके में जो मुनासिब हो उसके हिसाब से उचित व्यक्तियों को रख कर प्रशासन चलाना पड़ता है।
हमारे मित्र भूपेंद्र बहादुर सिंह जो उस समय रायबरेली के कैंटीन प्रशासन के कार्यभार को सम्हालने का जिम्मा उठाये हुए थे आशा करता हूँ कि मेरे इस मत से सहमत होंगे।
ऐसी ही न जानी कितनी छोटी छोटी बातें आईटीआई की यादों में बसी हुईं हैं जिसके बारे में जितना लिखा जाए उतना कम। इसलिए फ़िलहाल के लिए रायबरेली की बस इतनी ही बातें कल से कुछ अपने बचपन से जुड़ी यादों को बांटने का मन कर रहा है।
रायबरेली के दिनों की यादें....
@सुरेन्द्रपालसिंह2020
एपिसोड 6
यह उस दिन की बात है जब हमने एक पोस्ट फेसबुक पर डाली थी जिसमें इस बात का ज़िक्र था कि हम अपने लिए सुबह उठकर बेनागा एक कप चाय दालचीनी नींबू की बनाते हैं जिसके बाद ही हमारी दिनचर्या शुरू होती है। चाय की रेसेपी रहती है दो कप चाय के लिए एक चौथाई टेबल स्पून चाय की पत्ती और दालचीनी का पाउडर, थोड़ा सा हर कप के लिए नींबू का रस और चीनी स्वादानुसार। यह चाय बहुत ही स्वास्थ्यवर्धक होती है। .....और शायद हम उम्र के लोगों को जवान रखने की ताकत भी प्रदान करती है।
हमारे एक मित्र संजय सांगवान ने लिखा सुबह की चाय केबल नीबूं वाली वह भी सुगरलेस हो तो और भी बेहतर।
हमारी पोस्ट को पढ़कर हमारे एक दूसरे मित्र अशोक जी, जो चांदपुर, बनारस में निवास करते हैं उन्होंने पूछा, "भाई साहब क्या हुआ क्या आजकल भाभी साहिबा कहीं बाहर गईं हुईं हैं"
मैंने उत्तर में बस इतना ही लिखा, "एक कप चाय सुबह की हमारी ड्यूटी है। हमारे हाथों की बनी हुई चाय से धर्मपत्नी को इतनी ऊर्जा मिलती है कि फिर वह दिन भर सेवा में लगीं रहतीं हैं"
यह पोस्ट उन मित्रों के लिए कि अगर आप यह किसी अहंकार वश ऐसा नहीं करते तो एक दिन करके देखिए कि आपके जीवन में कितना प्यार बरसता है और आप फिर मूँछ ऐंठ कर मौज से रह सकते हैं.....
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 7
ये बात है 1963-64 की जब हम लोगों का यू पी स्टेट जूनियर हॉकी सिलेक्शन के लिए लखनऊ में कैम्प चल रहा था। शिकोहाबाद से मैं और राम सेवक अपने कॉलेज से और फिर बाद में मैनपुरी जिले से सेलेक्ट होकर आए थे। इसी कैम्प के अंर्तगत हम लोगों को एक दूसरी टीम से मैच खेलने होते थे।
लखनऊ आर्ट्स कॉलेज का हॉकी का ग्राउंड उन दिनों में अब्बल माना जाता था। हम लोग एक दिन शाम के समय एक मैच खेल रहे थे। राम सेवक सेंटर फॉरवर्ड पोजीशन पर और मैं राइट हाफ खेला करता था।
मैंने ड्रिबल कर एक पास दूसरी टीम की 'डी' के मुहाने पर राम सेवक की ओर बढ़ाया। राम सेवक उसे लेकर आगे बढ़ा और दन्न सीधे एक गोल ठोंक दिया। इस तरह मेरे ही पास पर राम सेवक ने तीन गोल और किये।
दूसरी टीम को लगा कि आज तो ये दोनों मिल कर न जाने कितने ही गोल न कर डालें। इसलिये उन लोगों ने योजना बनाई और राम सेवक जब बाल लेकर आगे बढ़ रहा था तो उसके बायें पैर के टखनों के पास हॉकी से एक जोरदार चोट की। राम सेवक बेचारा आह कर फील्ड में गिर गया। उसे उठा कर बाहर किया गया और खेल पुनः चालू हुआ।
मैंने भी मौका ढूंढ कर जिस लड़के ने राम सेवक को मारा था अपनी लेफ्ट साइड में लेकर धड़ाक सीधे मारा। उस ज़माने में हॉकी के गेम में यह मान्यता थी कि कोई भी खिलाड़ी आगे बढ़ते हुए खिलाड़ी को लेफ्ट साइड से नहीं चेक कर सकता था। बस मैंने भी इसी रूल का सहारा लिया और ओप्पोनेंट टीम के उस खिलाड़ी को हॉकी से चोट पहुँचाई। इसके बाद खेल दोंनों टीम के बीच बहुत रफ़ हो गया।
एक बार मौका बना कर मुझ पर भी वार किया गया पर मैंने अपनी हॉकी बीच में अड़ाकर स्वयं को बचाया। खेल जब ख़त्म हुआ तो हमारी टीम पाँच गोल से जीती।
उसके बाद हमारे कोच ने दोनों टीमों को आमने-सामने खड़ा किया और मुझे अपने पास बुलाया और मुझसे वही ट्रिक दिखाने के लिये कहा जिससे मैंने उस लड़के को चोट मारी थी। जब मैंने वह ट्रिक सभी के सामने दोबारा कर के दिखाई तो हमारे कोच ने मेरे खेल की बहुत तारीफ़ की और कहा, "देखा ऐसे मारा जाता है,जिससे फ़ाउल भी न हो और रेफ़री तुम्हें गेम के बाहर भी नहीं कर सकता है"
मालूम है वह कोच कौन था वह थे के डी सिंह 'बाबू'। इंडिया टीम के कैप्टेन और हॉकी के एक महान खिलाड़ी।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 8
यह बात उस वक़्त की है जब कि हिंदुस्तान में आना-पाई का जोर था और 'ऍफ़पीएस' से 'एमकेएस' में जाने का निर्णय लिया गया था। अगर मुझे सही याद पड़ता है तो शायद 1955 - 56 का ज़माना रहा होगा। जब हिंदुस्तान की आबादी मुश्किल से 41 - 42 करोड़ रही होगी। लोगों का अपने अपने गांव से सम्बंध बना हुआ था। खेती एक कमाऊ पूत माना जाता था। लोगों का शहरों की ओर पलायन नहीं के बराबर था।
वैसे तो हम लोग शिकोहाबाद, जिसे शहर कहना तो ठीक न होगा, बहरहाल इसे क़स्बा तो कहा ही जा सकता है जो उस समय मैनपुरी ज़िले की एक तहसील हेड क्वार्टर हुआ करता था, वहाँ रहा करते थे। शिकोहाबाद रेलवे स्टेशन से केवल साथ - आठ मील नहर किनारे हमारा गाँव हुआ करता था (गाँव तो अभी भी वहीं है कहीं नहीं गया) हमारे दादा जिन्हें मैं छोटे बाबा कह कर बुलाया करता था। वह गाँव में ही रह कर जमींदारी का काम देखा करते थे।
मैं यदाकदा अपनी मां सा के साथ गाँव जाया करता था। ऐसे ही एक बार की बात है कि मैं गाँव में था जब हमारे बाबा सा ने कहा, "बहुत दिन हुए कोई तुम्हारी बुआ सा के यहाँ नहीं गया है क्यों न तुम एक बार वहाँ घूम आओ"
बस जल्दी में प्रोग्राम बना और मैं और खानदान के ही रिश्ते के एक चाचा को लेकर हम तूफ़ान एक्सप्रेस से खुर्ज़ा स्टेशन आ गए। सुबह लगभग यही नौ बजे का समय रहा होगा। खुर्ज़ा रेलवे स्टेशन के ठीक बाहर से ही बुआ के गाँव के लिए लोकल बस चलती थी उसमें सवार हुए और एक घटें में ही उनके यहाँ पहुँच गए। बुआ सा के मायके से कोई आया हो और घर में देशी घी की पूड़ी और कचौड़ी न बने यह तो हो ही नहीं सकता था लिहाज़ा एक शानदार खाना खा पीकर हम लोग आराम करने के लिए घर के ऊपर अटारी में चले गए।
वहाँ हम लोग दो तीन दिन तक रहे और जब चलने की बारी आई तो हमारे फूफा सा हमको लेकर खुर्ज़ा बाज़ार आये और हमसे अपने लिये बुश्शर्ट और निक्कर के लिये कपड़ा पसंद करने के लिये कहा। चूँकि नई करेंसी और एमकेएस प्रणाली को सरकार जोरशोर से लेकर आ रही थी तो उन दिनों में उसी का बोलबाला था। दुकानदार ने हमारे सामने कपड़े के एक के बाद एक थान खोल कर डाल दिये और कहा, बेटा जो पसंद हो उस पर हाथ रख दो"
हमने आव देखा न ताव झट से दो कपड़ों के थान के ऊपर अपनी उँगली रख दी। दुकानदार ने दो बुश्शर्ट और दो निक्कर का कपड़ा काट कर फूफा जी को दिया जिसे लेकर हम लोग घर के पास ही एक टेलर मास्टर के यहाँ गए और उसने हमारा नाप लिया और अगले दिन ही वह सिले सिलाए कपड़े ले कर घर दे गया।
जब हम लोग बुआ जी के घर से चलने लगे तो मैंने कपड़े चेंज किये और एक नई बुश्शर्ट और निक्कर पहन ली। चलते-चलते बुआ जी ने हमारी बुश्शर्ट की जेब में कुछ नोट रख कर हमारी बलियाँ लीं प्यार किया और हम चलने लगे तो फूफा सा ने हँस कर कहा, "लल्लू बाबू जम रहे हो इस नई ड्रेस में। बुश्शर्ट भी ख़ूब रंग बिखेर रही है"
मैंने भी ध्यान से अपनी बुश्शर्ट देखी जिसके प्रिंट पर जगह-जगह लिखा हुआ था
"बदला ज़माना,
भाई बदला ज़माना,
छै पैसे का एक आना।"
इस ब्लॉक के साथ कुछ लड़के-लड़कियां डांस करते हुए दिखाए गए थे।
आजकल के बच्चे शायद नहीं जानते होंगे हमारे ज़माने में उस समय पैसे, आना और पाई चला करते थे। छै पैसे का एक आना, बारह पैसे की एक दुअन्नी, चार आने की एक चवन्नी, आठ आने का आधा रुपैय्या और सोलह आने का एक रुपैय्या हुआ करता था। दुअन्नी बारह पैसे की हुआ करती थी लेकिन दो दुअन्नी मिलकर पच्चीस पैसे के बराबर हुआ करतीं थीं जो बचपन में ऐर्थमेटिक्स में बहुत उलझन पैदा करतीं थीं
यादें क्या वह तो आतीं रहेंगी बस हम उनकी ओर ध्यान न दें तो वो दूसरी बात है।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 9
कल के एपिसोड पर मित्र एसपी राणा ने बी एच ई एल, रानीपुर हरिद्वार की कुछ बातों का ज़िक्र क्या किया लगा कि उन्होंने यादों का पिटारा ही खोल दिया। न जाने उस दौर की कितनी ही बातें नज़रों के सामने से घूम गईं।
बी एच ई एल हरिद्वार के खुलने की जब से चर्चा ए आम क्या हुई कि हमारे बाबू सा ने अपने मन में एक सपना संजो लिया था कि मैं अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर वहां जॉइन करूँ। उनके मन में जहां तक मुझे लगता है कि कुछ ख़्याल ऐसा रहा होगा यह करने से मैं अपनी माँ सा की यादों से जुड़ा रहूँगा जिनकी मृत्यु मेरे बचपन में जब मैं मात्र सिक्स इयर्स का था तब डाकपत्थर, देहरादून के एक हस्पताल में हो गई थी। जब एक बार मेरे हरिद्वार में रहते हुए बाबू सा वहां आए थे तो मैंने उनसे पूछा भी था कि क्या हम दोनों डाकपत्थर चलें जहां मेरी माँ सा ने आखिरी सांस ली थी तो उन्होंने बहुत सोचकर वहां जाने से मना कर दिया था। मैं जान गया था कि वह गुज़रे हुए वक़्त में शायद दोबारा नहीं जाना चाहते रहे होंगे। देहरादून और उस क्ष्रेत्र से इस तरह हमारा बहुत ही नज़दीकी रिश्ता रहा।
मेरी जॉब 1966 में जब बी एच ई एल, रानीपुर, हरिद्वार में लगी उसके बाद पाँच साल तक मैं वहां रहा। इस दौरान बहुत सी ऐसी बातें हुईं जो भूलने पर भी भुलाई नहीं जा सकतीं हैं। सबसे अधिक तो वह बात भूलती ही नहीं जब मेरी नज़र तान्या पर बी एच ई एल के ऑफिसर्स क्लब के स्विमिंग पूल में उसको स्विमिंग करते देखते समय पड़ी जिसकी यादों के काफ़िले पर एक पूरी कहानी "घुमक्कड़" बन गई। दूसरा जब तान्या से बाद में अक़्सर ही मुलाकात ऑफिस के काम के सिलसिले में होती रहीं थीं। सेंट पीटर्सबर्ग जो कि उस ज़माने में लेनिनग्राद के नाम से जाना जाता था, वहां मुझे ट्रेनिंग के लिए जाना था। लेनिनग्राद में हैवी इलेक्ट्रिकल इक्विपमेंट जैसे कि जनरेटर्स और डाज़ो डी सी मोटर्स बना करते थे। मुझे डाज़ो ड़ी सी मोटर्स की मैन्युफैक्चरिंग के प्रोसेस के संबंध में ही वहां जाना था। तान्या ने उस वक़्त भी मेरी बहुत मदद की थी।
वैलेंटाइन वीक की शुरूआत के पहले ही दिन राणा जी की वजह से तान्या की यादें ताज़ा हुईं इसके लिए उनका हृदय से धन्यवाद।
रानीपुर के और भी बहुत से किस्से हैं उन दिनों के। जैसे जैसे याद आते जाएंगे और दिल की गहराइयों को कुरेदते रहेंगे मैं उन्हें आपके साथ शेयर करता रहूँगा।
बी एच ई एल, रानीपुर, हरिद्वार की यादें....
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 10
बी एच ई एल रानीपुर में हम उस वक़्त थे जब वहां पार्शियल प्रोडक्शन हो रहा था और फैक्ट्री का कंस्ट्रक्शन का दौर था। मैं शरुआती दौर में इलेक्ट्रिकल डिपार्टमेंट में पोस्टेड था। उस ज़माने में हमारे चीफ इंजीनियर श्री एस एन सिंह साहब हुआ करते थे जो उस समय यूपी स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के चीफ के पद से रिटायर होने के बाद आये थे। क्या गज़ब का रौब था सिंह साहब का जिधर निकल जाते उधर लोगों में भगदड़ मच जाया करती थी। उस समय 12 MW थर्मल पावर स्टेशन और 132 KV सबस्टेशन का काम जोरों पर था। जिधर देखो उधर कॉन्ट्रैक्ट लेबर काम किया करती थी। ऐसे में जब वर्कर्स हरी रंग की विल्लीस स्टेशन वैगन जिसे सिंह साहब इस्तेमाल किया करते थे देखते ही डर के मारे इधर उधर भागना शुरू कर दिया करते थे। चूँकि मैंने मार्टिन बर्न लिमिटेड आगरा के पावर हाउस में काम किया था तो मुझे 12 MW के turbo-generator पर काम करने का मौक़ा ख़ूब मिला।थर्मल पावर स्टेशन के लिए boilers USSR से और टरबाइन और जनरेटर स्कोडा चेकोस्लोवाक़िया से आई थी। उन दिनों में मुझे रूस और चेकोस्लोवाक़िया दोनों जगहों के एक्सपर्ट्स के साथ काम करने का अवसर प्राप्त हुआ और जो एक्सपीरियंस हासिल हुआ उससे बाद में अन्य स्थानों पर काम करने में बहुत मदद मिली।
हम लोग दिन भर काम में खटते और थके मांदे घर पहुंचते लेकिन उन दिनों में इतनी ऊर्जा हुआ करती थी कि चाय नाश्ता करके फिर क्लब की ओर चल पड़ते थे। बी एच ई एल के क्लब की जितनी भी तारीफ़ करूँ वह कम ही होगी। सभी कुछ तो था उस क्लब में जैसे कि बैडमिंटन  कोर्ट्स, टेबल टेनिस, बिलियर्ड्स टेबल्स और सबसे बड़ा मेरे लिए आकर्षण था स्विमिंग पूल। गर्मियों के सीजन में स्विमिंग पूल में ग़ज़ब की रौनक हुआ करती थी। रशियन्स फैमिलीज़ की भरमार और वे लोग हम जैसे नवयुवकों के लिए विशेष आकर्षण के केंद्र हुआ करते थे।
स्विमिंग पूल से निकल कर बिलियर्ड्स खेलना तो हर रोज़ का रूटीन सा बन गया था। जिस दिन बिलयर्डस खेलने को नहीं मिला करता था उस दिन लगता था कि कुछ अधूरा अधूरा सा रह गया। बिलयर्डस खेलना जैसे कि एक नशा से बन गया था। क्लब में एक रुस्सियन बिलियर्ड और दूसरी इंग्लिश बिलियर्ड्स की टेबल्स हुआ करती थी। रुस्सियन बिलियर्ड टेबल पर अक़्सर रशियन्स खेला करते थे और इंग्लिश बिलियर्ड टेबल पर हम लोग। खेलने वाले अधिक और समय कम हुआ करता था। इसलिए हम लोगों को केवल आधे घंटे का सेशन खेलने का ही मौक़ा मिला करता था। वह भी एडवांस बुकिंग के बाद। इसलिए हम लोग ऑफिस से लौटते समय ही बुकिंग कराकर घर लौटते थे। जब बुकिंग का समय होता उससे पहले ही बिलियर्ड्स रूम में अपने टर्न आने का इंतज़ार किया करते थे। मुझे याद है कि तब हीरा सिंह नाम का वहां मार्कर हुआ करता था जो खेलने में हम लोगों की मदद किया करता था। आधे घंटे के लिए सबको चवन्नी देनी होती थी। क्या दिन होते थे उन दिनों की याद ही रोमांच पैदा कर देती है। संडे संडे हम लोग हरिद्वार निकल जाते थे। जब मन किया तो ऋषिकेश, देहरादून, मसूरी, रुड़की, सहारनपुर निकल जाते। कुछ और नहीं तो शिवालिक की घाटियों में सैर सपाटे के लिए चले जाते। शादी तो हई नहीं थी इसलिए जवानी के दिनों में ख़ूब मौज की।
बाद में 1996-97 मैं आईटीआई मनकापुर में एजीएम (पी&ए) के पद पर आसीन था तो मैंने वहाँ के कई सालों से बंद पड़े स्विमिंग पूल को चालू कराया और आईटीआई ऑफिसर्स क्लब में बिलियर्ड टेबल की मरम्मत भी कराई। हमारे पड़ोसी मित्र जे के वर्मा जी और हमारी जोड़ी ख़ूब बिलियर्ड्स खेला करती थी। एक तकलीफ़ वहां बनी रही कि वहां कोई मार्कर नहीं मिला। जब मैं आईटीआई बंगलोर में कॉरपोरेट ऑफिस में पोस्टेड था तो वहां के दूरवाणी नगर स्थित क्लब में भी बिलियर्ड्स खेलने का ख़ूब अवसर मिला।
लेकिन जब मैं दिल्ली रिटायर होने के बाद आया तो स्विमिंग करने और बिलियर्ड्स खेलने की हूक बीच बीच में उठती रही। जब कुहू कुछ बड़ी हुई तो उसके खेलने कूदने के बहाने मैंने यमुना स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स की मेम्बरशिप ले ली और इस तरह एक बार फिर से स्विमिंग और बिलियर्ड्स के शौक़ पूरे करने का अवसर मिला। जैसे जैसे कुहू बड़ी होती गई पढ़ाई लिखाई के प्रेशर ने यमुना स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स को भी हमसे दूर कर दिया।
खेल तो खेल है वह चाहे प्यार मोहब्बत का हो या बिलयर्डस का। दोनों की ही बड़ी याद आती है। उन दिनों की बातें आज भी दिल में ख़लिश बन कर चुभती रहतीं हैं...अब तो बस एक ही शौक़ बचा है लिखना पढ़ना और अपनी यादों की बटोर कर आप लोगों से शेयर करना...
यादों का क्या वह तो सताती हैं। सताती रहेंगी....
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 11
बी एच ई एल के स्टेडियम के उस पार फॉरेस्ट रोड हुआ करती है। उस फॉरेस्ट रोड से लगे हुए शिवालिक पहाड़ियों की श्रंखला है। उन्ही पहाड़ियों में एक पहाड़ी ऐसी भी है जिस पर एक पुराना मंदिर नुमा स्ट्रक्चर दिखाई पड़ता है, जिसके बारे में रानीपुर में आम चर्चा यह रही है कि वह सुनार कोठी है जिसमें डाकू सुल्ताना (जी हां वही सुल्ताना डाकू, जो नौटंकी की गाथाओं में अमर रहेगा)। अपने साथियों के साथ लूट का सामान लेकर आता था। वहीं अपने आराम के दिनों में सोने के जवाहरात वग़ैरह हुआ करते थे, भट्टी में गलाया करता था और बाद में हरिद्वार, बिजनौर और सहारनपुर के बाज़ारों में बेच दिया करता था। उसके बदले में गोला बारूद खरीदा करता था।
ऐसी कोई चीज पता लगे और फिर भी आप उसे देखने न जाएं यह तो मेरे लिए मुमकिन नहीं था। इसलिए एक दिन हम अपने मित्र डीसी सक्सेना और अनुपम अवस्थी के साथ रानीपुर फॉरेस्ट रेंज में फॉरेस्ट गेस्ट हाउस के पास से घाटी में घुसे और सुनार कोठी को देखकर ही देर शाम तक लौट सके।
एक घटना जो जेहन से नहीं निकल पाती है कि जंगल में रहने वाले मुस्लिम गुर्जरों के घर की औरतें और उनकी लड़कियां जो देखने में गोरी चिट्ठी ऐसी कि आप अपना दिल दे बैठें लेकिन आप क्या बोलते हैं उसे वह न समझ पाएं और जो वो बोलें उसे आप नहीं। दरअसल हरिद्वार को दूध की सप्लाई उस ज़माने में इन्ही गुर्जरों के हाथों होती थी। इन्हीं जंगलों में यह काम मुस्लिम गुर्जर लोग किया करते थे।
दरअसल हुआ यह कि जब हम थके मांदे सुनार कोठी से लौट रहे थे तो हमारे पानी का स्टॉक ख़त्म हो गया और मज़बूरन हमें इन गुर्जरों के गांव में जाकर पानी मांगना पड़ा। तब पता लगा कि भाषा कितनी अहम हो जाती है तब कुछ और काम नहीं करता बस बात कहनी पड़ती है तो अपने हाथ और आंख के इशारों से। ज़िंदगी सब कुछ देती है बस उसे प्राप्त करने की चाहत होनी चाहिए।
उस दिन जब रात को में अपने बिस्तर पर आराम से लेटा हुआ था तो मेरे ज़ेहन में महापंडित राहुल सांकृत्यायन जी की 'मालिनी के वनों' की कहानी याद हो आईं जिसमें गंगा पार शिवालिक की घाटियों में घूमते घूमते जब उन्हें एक वन कन्या मिलती है और वह उससे प्यार करने लगते हैं। उस कहानी को अंत भी हरिद्वार की हर की पौड़ी पर ही हुआ था। मैं नहीं कह सकता कि वह कहानी राहुल सांकृत्यायन जी के जीवन में वास्तविक रूप में घटी थी या उनकी कल्पना की उड़ान भर थी। मुझे इतना अवश्य याद है कि इस घटना के बाद मैंने राहुल सांकृत्यायन जी की बहुतेरी रचनाएं पढ़ डालीं थीं। मैं विशेषकर उनकी यात्रा संस्मरणों से बेहद प्रभावित हुआ था विशेषकर 'वोल्गा से गंगा', 'किन्नर के देश में' , 'बाईसवीं सदी' इत्यादि।उनके घुमक्कड़ स्वभाव ने उन्हें भारत में ही नहीं बल्कि उन्हें अन्य देशों तक ले गया...
ओह उन दिनों की यादें इतना सताती क्यों हैं....
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 12
(वैलेंटाइन सप्ताह के लिए विशेष)
जिस बात की चर्चा मैं आज आप सभी से करने जा रहा हूँ दरअसल में यह बात 1966-67 की है। मैं उन दिनों में मार्टिन बर्न लिमिटेड के आगरा पावर हाउस में बतौर मैनेजमेंट ट्रेनी के अपने कैरियर की शुरूआत ही की थी।
हमारे एक पुराने मित्र थे जो वह भी आगरे में ही आ गए थे, नाम था उनका राम सेवक शर्मा। आगरा की न्यू आगरा कॉलोनी में वह किराए के मकान में रहा करते थे। मकान मालिक आर टी ओ दफ्तर में काम करने वाले एक पंडित जी ही थे। राम सेवक के पास काम धाम कोई विशेष नहीं था बस इधर उधर बैठना और नेता गीरी करने का नया नया शौक़ था। खाते पीते अच्छे घर के पुत्र रत्न थे। उनके घर शिकोहाबाद (जो कि हमारा कस्बा है) में गल्ले की आढ़त का काम था। उनके पिता ने उन्हें एक Willy's की खुली छत वाली जीप भी खरीद कर दे रखी थी। उन दिनों आगरा रईस लोगों की ऐशगाह हुआ करता था। अबतो यह स्टेटस वहाँ का शायद न रहा हो मैं नहीं जानता।
जिस मकान में राम सेवक रहा करते थे उसी मकान मालिक की एक जवान पुत्री भी थी। जिस कमरे में राम सेवक रहते थे उसी कमरे के बगल वाले कमरे में पंडित जी की पुत्री का भी निवास था। दोनों कमरों के बीच एक खिड़की हुआ करती थी जिसे पंडित जी ने मकान किराए पर देते वक्त ताला लगा कर बंद कर दिया था।
मैं एक रात के लिये राम सेवक के घर पर खाना खा पीकर रह गया था। मैं तो खाना खा कर सो गया था जब रात को मेरी आँख खुली तो देखा कि राम सेवक खिड़की के साथ चिपक कर कुछ कह रहा है। मैं आँखें मींचे लेटा रहा। राम सेवक और पंडित जी की पुत्री में खिड़की के माध्यम में प्रेमा लाप चल रहा था। खिड़की के उधर से आवाज़ आई, "आप कुछ लिखते नहीं हैं"
"तुम बताओ न", राम सेवक ने पूछा।
"एक लव लेटर तो मेरे नाम लिखिए तब पता चले कि आप कितना प्यार करते हैं"
"ठीक है रात तक इंतजार करना"
उसके बाद राम सेवक भी सो गया। जब सुबह बम दोंनो उठे तो राम सेवक मेरे पीछे ही पड़ गया कहने लगा, "ठाकुर इज़्ज़त का सवाल है। तू लिखता-पढ़ता ही नहीं बहुत बढ़िया लिखता है। बस आज मेरे लिये एक ख़त लिख दे उसके नाम"
मैंने बनते हुए पूछा, "किसके नाम"
राम सेवक ने फिर अपने इश्क़ की दास्ताँ मुझे सुनाई। मैंने उन दोंनों की कहानी सुन ही ली थी। मैंने राम सेवक से कहा, "पार्टी दोगे"
राम सेवक ने फिर मुझे पार्टी देने का वायदा किया। उसके बाद ही मैं उसके लिये ख़त लिखने बैठा।
उसके आगे की कहानी क्या बताऊँ बस उन दोंनों की दीवानगी का आलम यह था कि पूछो नहीं। कभी-कभी तो दिन में दो-दो ख़त भी मिलने लगे और हर ख़त का जवाब मुझे ही लिखना पड़ता। दोस्तों मेरी यह बात मान लीजिए कि जो लिख नहीं पाता वह अपने दिल की बात किसी से कह भी नहीं पाता। लिखिए न सही अपने लिये अपने करीबियों के लिए लिखिए लेकिन लिखिए।आपका कुछ लिखा हुआ किसी ज़िगरी के काम आ जाये तो पैसा वसूल...
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 13
बचपन की बात है शिकोहाबाद में जहां हम लोग रहते थे वहां केसी क्लब हुआ करता था जिसमें स्पोर्ट्स फैसिलिटीज के साथ साथ बहुत बढ़िया लाइब्रेरी भी हुआ करती थी। मैनें वहीं टेबल टेनिस, लॉन टेनिस और बैडमिंटन ख़ूब खेला और वहां की लाइब्रेरी में मैगज़ीन्स और पुस्तकों को ख़ूब पढ़ा। वहीं से लिखने पढ़ने का शौक़ शुरू हुआ। केसी क्लब में अन्य मैगज़ीन्स के साथ साथ एक मैगज़ीन आया करती थी जिसका नाम हुआ करता था 'स्क्रीन'। स्क्रीन अँगरेज़ी में छपती थी और भारतीय सिनेमा के बारे में चटपटी खबरें छपा करतीं थीं। उसमें लगभग 15-20 पेज हुआ करते थे। जहाँ तक याद पड़ता है शायद हर शुक्रवार को इस मैगज़ीन का नया इशू आता था।
इस मैगज़ीन का (पता नहीं यह मैगज़ीन अब छपती भी है या नहीं) का ज़िक्र करते हुए मुझे इसलिए बहुत अच्छा लग रहा है क्योंकि इसके साथ जुड़ीं हैं, हमारे बचपन की यादें तो कहना शायद ठीक नहीं होगा वरन जवानी के दिनों की बातें तो कहा ही जा सकता है।
जब कभी देवानंद की कोई भी फ़िल्म रिलीज होने को होती तो उसके महीने दो महीने पहले ही से स्क्रीन मैगज़ीन का तीसरा आधा पन्ना हमारा ध्यान आकर्षण का कारण हुआ करता था। उस पेज पर नवकेतन फ़िल्म्स का advertisement campaign शुरू हो जाता था। नवकेतन फ़िल्म्स का advertisement भी देव साहब की तरह सबसे अलग और अनूठा ही होता था।
मैं यहाँ जिस फ़िल्म के advertisement कैंपेन की बात उठाने जा रहा हूँ वह थी अमरजीत द्वारा निर्देशित 'तीन देवियां'। यह फ़िल्म जब floor पर जाने लगी तभी से इसकी चर्चा गरम थी कि देव साहब की यह फ़िल्म बहुत ही ज़ोरदार होने वाली है इसकी मुख्य वजह थी इस फ़िल्म की तीन-तीन हीरोइनें थीं जिनके बारे में कोई भी नहीं जानता था कि वे कौन हैं? अमरजीत और देव साहब ने मिल कर एक निश्चित योजना के अंतर्गत सीक्रेट तरीके से फ़िल्म की शूटिंग की और उसी तरह उनका campaign भी चला। जब फ़िल्म सिनेमा हॉल में चलने की तैयारी में थी और रिलीज की तारीख़ क़रीब आने लगी तो प्रीमियर वाले दिन ही लोगों को पता लगा कि इस फ़िल्म के लीड रोल में हैं नंदा, कल्पना और सिम्मी ग्रेवाल। इस फ़िल्म में संगीत था एस डी बर्मन दादा का। एक से बढ़ कर एक गाने और देव साहब की बेहतरीन अदाकारी।
देव साहब के हम तब भी दीवाने थे और आज भी....टेक्निकली भले ही फिल्में अब बहुत उम्दा बनने लगीं हों लेकिन गीत, संगीत और अदाकारी में जो छाप पुराने ज़माने की फिल्में छोड़तीं थीं आजकल की फिल्में उनके पासंग में कहीं नहीं नज़र आतीं थीं
इसीलिए तो कहा गया है कि 'गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा....."
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 14
जिस बच्चे ने अपने बचपन में बदमाशियां न कीं हों और जो अपने माता पिता के हाथों कभी पिटा न हो तो समझ लीजिए कि उसने सही मायनों में ज़िंदगी जी ही नहीं है।
हम लोग भी अपने आसपास के बच्चों के साथ खेलते कूदते रहते थे। कौन सा ऐसा गेम रहा होगा जो खेला न हो। गर्मियों में फुटबॉल,बॉलीबॉल, कबड्डी वगैरह, सर्दियों में हॉकी और क्रिकेट, बरसात में भीगने का अपना अंदाज़ ही हुआ करता था पर उसी मौसम में फुटबॉल खेलने का भी अपना ही मज़ा था।
अब तो लगता है कि बहुत कुछ पीछे छूट गया जो अब पकड़ना भी चाहें पर दोबारा पकड़ नहीं पाएंगे। स्वप्न सी लगने लगी है ज़िंदगी जो अपने बचपन और बाद में जवानी के दिनों में कर गुज़रे थे।
फुटबॉल के सीजन में हम लोग अपने यहाँ तो खेलते ही थे और आसपास के दूसरे शहरों में भी जाकर खेला करते थे। वह दिन मेरी आँखों के सामने आ जाता है जैसा कि हमने जिया था। उस दिन हमें फिरोज़ाबाद में फुटबॉल का मैच खेलने जाना था। शिकोहाबाद से फिरोज़ाबाद जाने के लिये सबसे बढ़िया साधन रेल हुआ करती थी।
हमारी कॉलोनी की पूरी टीम तैयार हो कर सवा बारह बजे ही स्टेशन पहुँच गई थी। सबके घरवाले बच्चों को आने जाने के लिये और खाने पीने के लिए पूरा पैसा दे दिया करते थे आर हम सभी बदमाश बच्चो ने यह निर्णय क्या कि आज कोई भी रेल टिकेट नहीं खरीदेगा। जैसे ही अपने निश्चित समय पर ट्रेन रेलवे स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर आकर रुकी। पूरी की पूरी टीम इंटर ( सेकंड ) क्लास के डिब्बे में चढ़ गई। उस डिब्बे में कोई और दूसरी सवारी थी नहीं। निश्चित समय पर रेलगाड़ी चल पड़ी। शिकोहाबाद और फिरोज़ाबाद के बीच एक स्टेशन पड़ता है मख्खनपुर। हमारी रेलगाड़ी मख्खनपुर आकर खड़ी हुई थी कि वहाँ किसी ने ख़बर उड़ा दी कि मजिस्ट्रेट का छापा पड़ गया है। हम लोग समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या किया जाय? इतने में एक लड़के ने सुझाया कि अपने कॉम्पेटमेंट के दोंनों दरवाज़े बन्द कर लो तो मजिस्ट्रेट अंदर आ ही नहीं पायेगा तो फिर हमको कैसा ख़तरा। तुरंत हम लोगों ने दोंनों दरवाज़े अंदर से बंद कर लिए। साथ में जितनी भी खिड़कियां थीं वे भी बंद करदीं। उसके बाद हम लोगों ने हनुमान जी की प्रार्थना की कि वे हम सभीको सुरक्षित फिरोज़ाबाद पहुँचा दें फिर ऐसी गलती कभी भी नहीं करेंगे।
ले दे कर किसी तरह हमारी रेलगाड़ी फिरोज़ाबाद रेलवे स्टेशन पर आकर रुकी। जैसे ही रेलगाड़ी रुकी हम सभी लोग तेजी से प्लेटफार्म पर भागते हुए मालगोदाम की ओर भागे जहाँ से फेंसिंग टूटी हुई थी वहाँ से निकल कर जब बाहर आ गए तब साँस में साँस आई।
उस दिन के बाद जीवन में कभी विदाउट टिकेट यात्रा नहीं की।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020


एपिसोड 15
अपने बी एच ई एल, रानीपुर के दिनों के प्रवास की एक बात जो अत्यंत महत्वपूर्ण है मैं आपसे शेयर करना चाहता हूँ।
शायद आप लोगों ने सुना होगा कि हरदुआगंज, पावर हाउस, अलीगढ़ में एक बार एक एक्सीडेंट क्या हुआ जिसकी रिपोर्टिंग अगले दिन देश के कुछ महत्वपूर्ण अखबारों ने यह कहकर अपनी हैडलाइन बनाई कि 'At Harduaganj Turbine bursted like a pumpkin'
इस घटना के बाद मुझे श्री एस एन सिंह , चीफ इंजीनियर साहब के साथ हरदुआगंज जाने का अवसर मिला तो उन्होंने एक बात कही जो मेरे जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन गई और वह थी कि 'एस पी जीवन में ज़रूरी नहीं है कि तुम हर उस मशीन पर काम कर सको जिसे तुम देख रहे हो लेकिन अगर तुम अपनी आंख और कान खुले रख सको तो बहुत कुछ सीख सकते हो'।
जब मैं रानीपुर वापस पहुँचा तो मैं एक दिन गैस प्लांट सिर्फ़ देखने के लिये गया कि उसका कंस्ट्रक्शन का काम कैसा चल रहा है। बी एच ई एल, रानीपुर का गैस प्लांट हंगरी से आया था और उसके इरेक्शन के दौरान कई हंगेरियन एक्स्पर्ट्स आये हुए थे। गैस प्लांट ख़ुद में इतना विशाल था कि क्या कहा जाए। उसके बड़े बड़े गैस होल्डर टैंक देखकर ही रोमांच पैदा हो जाता था। गैस प्लांट के लिए स्टीम की ज़रुरत थर्मल पावर प्लांट के बॉयलर से ही पूरी होती थी। अगर आपको यह अहसास हो कि एक हैवी इलेक्ट्रिकल इक्विपमेंट प्लांट (HEEP) के लिए गैस की आवश्यकता कितनी अहम होती है जिसके सहारे पूरा का सारा मैन्युफैक्चरिंग प्रोसेस चलता है। गैस के साथ साथ ऑक्सिजन प्लांट भी बहुत आवश्यक होता है जिससे गैस कटर्स काम कर सकें।
सिंह साहब की बात मेरे जेहन में ऐसी बैठ गई कि उसे मैंने अपने जीवन में मूलमंत्र बना लिया। बाद में जब बी एक ई एल में जब ऑक्सिजन प्लांट का इनॉगरेशन हुआ तो मैं भी उसे देखने गया। मुझे आज भी याद है कि ऑक्सिजन प्लांट के कंप्रेसर को चलाने के लिए 6.6KV के synchronus motor की आवश्यकता होती थी जिससे कि constant speed मिल सके। यह सब ज्ञान देखने और सुनने से ही प्राप्त हुआ जो बाद के दिनों में मैं जब मोदी स्टील्स, मोदीनगर में डिप्टी चीफ इलेक्ट्रिकल इंजीनियर की तरह काम करता था बहुत सहायक सिद्ध हुए।
जब मैं रानीपुर में था उस समय ही वहां सेंट्रल फाउंड्री फोर्ज प्लांट (CFFP) का काम शुरू हो चुका था पर मेरे वहां रहते हुए उसमें प्रोडक्शन शुरू नहीं हुआ था। रानीपुर के BHEL Complex को जिसमें HEEP और CFFP दो प्लांट्स हैं। दोनों प्लांट्स को आज भी आप जाकर देखिए तो आपकी आंखें खुली रह जाएंगी। उस ज़माने में बी एच ई एल जैसे ही अन्य स्टील प्लांट भी लगाए गए जिनमें महत्वपूर्ण रहे भिलाई, दुर्गापुर इत्यादि जो उस वक़्त देश में प्रगति के हिस्सेदार बने।
इसीलिए लोग कहते हैं कि बड़े आदमी की कही हुई हर छोटी सी बात के पीछे उसके जीवन की साधना का राज छुपा हुआ होता है। रानीपुर में रहते हुए मैंने जो सीख ली उसी के नाम पर बाद में आईटीआई रायबरेली, मनकापुर और कॉरपोरेट ऑफिस में काम करने का अवसर मिला जो मेरे लिए संतुष्टि का कारण बना।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 16
ज़माना चाहे जितना आगे बढ़ गया हो लेकिन शादी ब्याह के मुआमले में आज भी वही दुल्हिन और दूल्हा हैं, वही सास ससुर हैं, वही रंग बिरंगा चटकीला पहनावा है, वही गाने बजाने हैं, वही बारात और बाराती हैं अगर कुछ बदल गया है तो इनका स्वरूप और एक ज़माने में लोगबाग़ घर बनबाते थे तो विशेष ख़्याल रखते थे कि घर में आँगन हो और घर का दरवाज़ा नक्कासी दार पत्थर का बना हुआ हो और उस पर सागौन की लकड़ी का मजबूत दरवाज़ा और देहलीज़ बनी हो। घर के मुखिया की यही इच्छा रहती थी कि उनके घर में किसी बेटी का व्याह हो तो बारात घर के दरवाज़े पर आए। दूल्हा घोड़े पर सवार होकर आए और घर के लोग बारात का खुले दिल से स्वागत करें।.....और जब बेटी ब्याह कर जाए तो मंगलगान के बीच वह अपने दुल्हेराजा के साथ घर की चौखट से बाहर जाए। ऐसे ही जब किसी बेटे के व्याह हो तो बहू घर की चौखट को लाँघ कर ही घर में प्रवेश करे।
ऐसी ही एक ठाकुर साहब के घर में उनके बेटे की शादी थी, नई नई बहू आई थी। देखने में अब्बल। घर के कुँवर उसकी खूबसूरती देखकर पहले ही से फ़िदा हो चुके थे। रही बात सास ससुर जी की तो वह भी बहुत ख़ुश थे कि रिश्ता एक अच्छे परिवार से हुआ है सभी को बहू पसंद भी आ रही है।
घर में एक बड़ी बूढ़ी भी थीं जो लड़के की दादी सा थीं। एक दिन उनकी बहूरानी ने जब अपनी बहूरानी के तारीफ़ के पुल बांध दिए तो बड़े ही सधे स्वर में दादी सा ने कहा, "बहूरानी तो हमारी भी आई थी। देखने में सुघड़ भी थी। खाना पीना भी बढ़िया बना लेती थी। सास ससुर जी की ख़ूब सेवा भी करती थी। उसने कभी कुछ कहने का मौक़ा नहीं दिया", फिर कुछ सोचते हुए बोलीं, "हमारा तो समय आ गया है न जाने कब भगवान बुला लेकिन बहू तू सुन अब ज़माना बदल गया है। पहले जैसा नहीं रहा। पहले एक जन कमाता था तो दस जन परिवार के बैठकर खाते थे। एक रेडियो हुआ करता था उस पर गाने सुन लिया करके दिल बहला लिया करते थे। अब तो मुआ जबसे ये डिब्बा टीविया आ गवा है सबकी ज़िंदगी एक कमरे में सिमट गई है। किसी को किसी से बात करने का समय ही नहीं है। दुख दर्द बांटने की बात तो हवा हुई। इसलिए बहू तू मेरी बात ध्यान से सुन। तेरी बहू तबतक अच्छी है जबतक तेरा बेटा तेरा है। तेरी बहू तबतक अच्छी है जबतक तेरे हाथ में पैसा है। तेरी बहू तबतक अच्छी है जबतक तू अपने बेटे के सहारे नहीं है। जिसदिन ये सब नहीं रहेगा तब तुझे अपनी बहू में ही चंडी दिखने लगेगी"
सासू जी का बात सुनकर घर की मलकिन चिंता में आ गईं और देर रात जब वह अपने पति से मिलीं तो उन्होंने वही सब बातें अपने पतिदेव को हूबहू सुना दीं।
पतिदेव ने धर्मपत्नी की बातें ध्यान से सुनीं और बोले, "देखो भाई मेरी मां सा आज भी मेरी मां सा हैं, कल भी थीं और कल भी रहेंगी। लेकिन तुम सुनो अगर मेरो मां सा ने तुम्हें ये सब कहा है तो इसका मतलब साफ है कि उनको सोने के हाथों के कड़े और गले की सोने की मटर माला के अलावा भी बहुत कुछ है जो उन्हें मालूम है जिसका ज्ञान मुझे बिल्कुल नहीं है। इसलिए भाग्यवान तुम उनकी सेवा करो"
फिर कुछ देर बाद हंसते हुए बोले, "बस यही वह चाभी है जिसके सहारे यह संसार चल रहा है"
शादी व्याह के ऐसे ही न जाने कितने कहानी किस्से बताए जा सकते हैं बस बताने वाले का दिमाग़ चलना चाहिए।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 17
यह उस वक़्त की बात है जब हम लोग 2017 में मकाऊ और हांगकांग घूमने गए हुए थे। कुहू का बड़ा मन था कि डिजनीलैंड ज़रूर ज़रूर चलना है। अतः हम लोग जिस दोपहर फ़ेरी से मकाऊ से हांगकांग पहुंचे तो उसके अगले दिन ही डिजनीलैंड की बुकिंग करा कर अपने होटल से सुबह सुबह ही निकल पड़े। लगभग साढ़े दस बजे के आसपास हम मेट्रो के डिजनीलैंड स्टेशन पर थे। वहां से एप्रोच रोड के किनारे चलते चलते हम डिजनीलैंड के गेट के सामने तक आ पहुंचे। अपने हिंदुस्तान की तरह वहां भी एंट्रेंस गेट पर लंबी लाइन लगी हुई थी। टूरिस्ट सीजन था तो भीड़ होना लाज़िमी था। कुछ देर इंतज़ार करना ज़रूर पड़ा और हम डिजनीलैंड के एरिया में थे।
वहां से डिजनीलैंड की लोकल ट्रेन में सवार होकर उस ओर चल दिये जिधर पैविलियन्स बने हुए थे। एक एक करके हम लोग पैविलियन्स देखते हुए आगे बढ़ते रहे। एक पैविलियन में 3डी का शो हो रहा था इसलिए हम लोग कुछ देर वहां बिताकर एक रेस्ट्रॉन्ट पर आगये। आइसक्रीम वग़ैरह खाई और अपना सफ़र जारी रखा। दोपहर के दो से अधिक बज गए तो लंच के लिए हम एक जगह और रुके। जल्दी पल्दी में उल्टा सीधा जो मिला वह खा पी लिया। मैं तो चलते चलते तक गया था इसलिए मैं वहीं रुक गया। कुहू अपनी मॉम रमा के साथ रोलर कॉस्टर राइड्स और दूसरे खेलों का मज़ा लेने के लिए आगे चले गए।
जब मैं रेस्टोरेंट में बैठकर वक़्त गुज़ार रहा था तो अचानक ही मेरी नज़र अपने, जी अपने देश की गौरइया पर पड़ गई। गौरइया कभी इधर तो कभी उधर कूदती फूदती रही। मुझे और तो कोई काम था नहीं इसलिए मेरी नज़र गौरइया पर ही लगी रही। धीरे धीरे कूदती फूदती गौरइया मेरी सीट के सामने पड़ी खाली चेयर पर आकर बैठ गई। उसकी निग़ाह मुझ पर और मेरी निग़ाह उस पर लगी हुई थी और मैं सोच रहा था कि दो देशों के लोग जब एक अन्य देश की धरती पर मिलते हैं तो प्यार हो जाना एक मामूली सी बात है। उस गौरइया को देखकर मुझे अपने गांव के घर का आँगन याद हो आया जहां चिड़ियां इधर उधर फुदके दिल जीत लेतीं थीं।
वह गौरइया तब उड़ गई जब उस सीट पर एक दूसरी गौरइया (मेरा मतलब है कि एक सुंदर सी कन्या वहां आकर बैठ गई), पहली ही नज़र में मैं पहचान गया कि नई गौरइया अमेरिका से है इसलिए उसको मैंने दाएं हाथ से वेव किया और हाइ कहा। उसने अपना धूप का चश्मा उतारते हुए मुझे भी हाइ कहा। एक बार बातों का सिलसिला जो शुरू हुआ तो तभी खत्म हुआ जब कुहू अपनी मॉम के साथ वहां लौट कर आ गईं। मैंने उसकी मुलाकात कुहू और रमा से कराई। हम सभी लोगों ने मिल बैठ कर कॉफी पी। साथ साथ डिजनीलैंड की कलरफ़ुल परेड देखी और शाम को हम लोग जब अपने होटल लौटने लगे तो मैंने उसे अपना विज़िटिंग कार्ड दिया और अलविदा कहा।
मैं जब इंडिया वापस लौट आया और एक दिन तकिए के सहारे आंखे बंद किये अपने हांगकांग विजिट के बारे में सोच रहा था मुझे उस गौरइया और चिड़िया की याद हो आई। मुझे लगा कि चलते फिरते कुछ मुलाकातें ऐसीं होतीं है जो मानसपटल पर गहरी छाप छोड़ जातीं हैं। एक दिन मैं जब ऑफिस में था तो उस गौरइया का फोन आया। मैंने उससे कहा हो सकता है कि मैं अमेरिका आऊँ।
2019 के समर वेकेशन्स में कुहू तो अमेरिका घूमने स्कूल से स्पॉन्सर्ड एडुकेशन ट्रिप पर चली गई। हम इंतज़ार ही करते रह गए। देखिए अब मेरा अमेरिका जाना कब होगा। क्या पता यह कोई एक नए सफ़र की शुरूआत हो। घुमक्कड़ का क्या चलते फ़िरते कोई न कोई टकरा जाता है और कहानी बन जाती है।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 17
राजा रजवाड़ों की चर्चा हो तो हम मनकापुर की बात न करें यह तो हो ही नहीं सकता। मनकापुर जहां हमने अपने जीवन का बहुमूल्य समय बिताया है। मनकापुर निवास के दौरान तमाम छोटे बड़े लोगों से मुलाक़ात हुई। आईटीआई की मनकापुर इकाई के अडिशनल जनरल मैनेजर (पर्सनेल एंड एडमिनिस्ट्रेशन) होने के नाते डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन से भी अच्छे ताल्लुक़ात रहे।
मनकापुर में पोस्ट होने के पहले ही से कुँवर अनिल कुमार सिंह के माध्यम से मंगल भवन के राजपरिवार के सदस्यों से बहुत अंतरंग सम्बंध रहे। उन्ही के बुलावे पर रायबरेली से मनकापुर आना जाना लगा रहा। मंगल भवन, मनकापुर, गोंडा, पूर्वी उत्तर प्रदेश कुँवर देवेंद्र प्रताप सिंह जी (जिन्हें प्यार से वहां के लोग लल्लन साहब कह कर पुकारते थे), मैं उन्ही लल्लन साहब की बात कर रहा हूँ जो larger than life जी कर हम लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बने रहे।
लल्लन साहब के दादाश्री राजा रघुराज सिंह जू देव ने मनकापुर कस्बे में राजभवन के अलावा मंगल भवन, मनुवर कोठी तथा अन्य भवनों का निर्माण कर मनकापुर को महत्व बढ़ाया। वहीं राजा आंनद सिंह जी ने आईटीआई लिमिटेड मनकापुर की स्थापना में महत्वपूर्ण रोल अदा कर मनकापुर की शान में इज़ाफ़ा ही नहीं किया वरन वहां संचार विहार कॉलोनी के निर्माण के साथ साथ वहां के लोगों के रहन सहन में आमूलचूल परिवर्तन किया। जिस धरती पर विदेशी आया तो करते थे राजा साहब की मेहमाननवाजी के लिए उसी मनकापुर में एक नहीं अनेक फ्रेंच एक्सपर्ट्स आकर लंबे अरसे तक रुके। Dust bowl कहे जाने वाले क्षेत्र में उच्च तकनीकी फैक्ट्री के लगने से वहां वन संपदा में भी बढोत्तरी हुई। सागौन के जंगलों को उनके नए मेहमान मिले। आईटीआई की स्थापना के पश्चात शुगर मिल खुलवाई, मत्स्य पालन को नई पहचान दी, आसपास के वन क्षेत्र के रखरखाव के कारण वातावरण के प्रति अपनी जागरूकता का प्रदर्शन किया।
आज उन्हीं की बताई हुई कुछ बातें यादों के पिटारे से निकाल कर आप तक पहुंचाने का मन किया। एक घटना याद हो आई जो उस ज़माने को दर्शाती है जब एक बालक को उसके आने वाली ज़िंदगी के लिए तैयार होना होता था। कुँवर साहब ताल्लुकेदार कॉलेज, लखनऊ के छात्र रह चुके थे। मैंने अपनी एक मुलाकात में जब उनसे पूछा, "आपको कैसा लगा जब आप वहां पढ़ते थे"
उनका जवाब बहुत ही सहज था लेकिन अपने आप में बहुत कुछ कहता था। उन्होंने बताया, "यह उस ज़माने की बात है जब भारत स्वतंत्र नहीं हुआ था। उन्हें भी पढ़ने के लिए ताल्लुकेदार कॉलेज में भर्ती कराया गया। ताल्लुकेदार कॉलेज में उस वक़्त अंग्रेज प्रिंसिपल और अधिकांश टीचर हुआ करते थे। ताल्लुकेदार कॉलेज की ज़िंदगी बहुत ही रॉयल हुआ करती थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश की रियासतों के बच्चे वहां पढ़ने आया करते थे। पढ़ाई लिखाई में अंग्रेज़ी पर जोर तो रहता था लेकिन उसके साथ जोर रहता था घुड़सवारी, खेलकूद में जिससे कि बच्चों का स्वास्थ्य ठीक रहे और उनमें लीडरशिप की भावना जगाई जा सके। साथ ही साथ मेस में जोर इस बात पर रहता था कि जब आप डाइनिंग हॉल में पहुँचे तो आपकी ड्रेस ठीक हो और आपको टेबल मैनर्स का ज्ञान हो"
इतना कह लेने के बाद पल भर के लिए वे चुप हो गए और फिर बहुत ही नपे हुए शब्दों में कहा, "ताल्लुकेदार कॉलेज में हम लोगों को तैयार किया जाता था कि हम ज़िंदगी में आने वाले चैलेंजेस को कैसे निपट पाएंगे और अपनी रियाया मार्गदर्शन कर सकेंगे। उनके भले के लिये काम कर सकेंगे"
कुँवर साहब को सुबह सुबह सैर का शौक़ था। इसलिए वे मंगल भवन से मनवर कोठी तक हर रोज़ सैर के लिए जाया करते थे। उनके पीछे पीछे उनके सेवक रहा करते थे जिन पर उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी हुआ करती थी। पुराने दिनों की यादों को बांटते हुए उन्होंने जिस बात का ज़िक्र किया वह हमारे लिए अज़ीब सी थी। उन्होंने बताया कि एक वक्त ऐसा भी था कि जनता जनार्दन में अपने राजा के प्रति कितना प्रेम एवम आदर भाव होता था जब कोई राजमहल के गेट के सामने से गुजरता था तो वह सवारी से आदर सत्कार भाव से उतर जाता और नमन कर ही आगे बढ़ता था।
उनकी इस बात पर मैंने कहा, "मैनें सुना है कुछ इसी प्रकार का आदर भाव भूटान में भी जनता अपने राजा के प्रति रखती है और कोई वहां के राजमहल की ओर नहीं देखता"
एक दिन की बात है जब सुबह सुबह हम राजभवन में नाश्ते के लिए इनवाइटेड थे। हम अपने मित्र केडी सिंह और टीपी शर्मा जी के साथ राजमहल में सही समय जा पहुंचे। उस दिन नाश्ते में हमें मटन पूड़ी जो विशेषरूप से बनाई गई थी अन्य आइटम के साथ परोसी गई। नाश्ते में ब्रेड बटर भी थी। जब बात पुराने वक़्त की चली तो ब्रेड की उपलब्धता पर चर्चा हुई। बातों ही बातों में से एक बात और निकली कि उस ज़माने में रियासतें अधिकतर देहाती इलाकों में हुआ करतीं थीं और परिवार भी वहीं रहा करते थे जहां मूलभूत सुविधाएं नाममात्र की ही हुआ करतीं थीं। मनकापुर भी एक ऐसे इलाके में पड़ा करता था जहां सुबह नाश्ते के लिये ब्रेड नहीं मिला करती थी। इसलिए हर रोज़ जो रेलगाड़ी लखनऊ से सुबह सुबह पहुँचा करती थी वही राजपरिवार के लिए ब्रेड लेकर आती थी। नाश्ते में ख़ानसामा एक से एक बढ़कर डिशेज़ तो बनाते ही थे लेकिन एक दो पीस ब्रेड होना अत्यंत आवश्यक होता था जो एक आदमी के खाने पीने से कुछ हटकर हुआ करता था और इस बात का द्योतक भी कि बड़े लोग अंग्रेजो के बहुत क़रीब हैं।
पुराने ज़माने की बातें सुनकर कहाँ आश्चर्य होता है वहीं नई नई जानकारी मिलने पर मन रोमांचित भी होता है। कभी कभी लगता है कि वह भी कैसा वक़्त रहा होगा जब एक आम व्यक्ति में और राजपरिवार के सदस्यों में ज़मीन आसमान की दूरी हुआ करती थी।
मैं यहां एक बात स्पष्टरूप से कहना चाहूँगा कि मनकापुर का राजपरिवार भारतीय राजनीति में शुरू से एक्टिव रहा इसलिए उन्होंने अपनी ओर से भरसक कोशिश की कि वे आम जनता में अपनी पैठ बना सकें। उनकी इसी सोच ने उन्हें राजनीति में सम्मानजनक स्थिति प्राप्त हुई। मनकापुर के राजपरिवार में अधिकांशतः कोई न कोई सदस्य विधानसभा अथवा लोकसभा का निर्वाचित सदस्य बना रहा। इसी सूझबूझ के चलते कुँवर कीर्ति वर्द्धन सिंह वर्तमान लोकसभा में गोंडा जनपद का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और अपने क्षेत्र के सर्वांगीण विकास में जी जान से लगे हुए हैं।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020


एपिसोड 18
बचपन की बात है शिकोहाबाद में जहां हम लोग रहते थे। वहां केसी क्लब हुआ करता था जिसमें स्पोर्ट्स फैसिलिटीज के साथ साथ बहुत बढ़िया लाइब्रेरी भी हुआ करती थी। मैनें वहीं टेबल टेनिस, लॉन टेनिस और बैडमिंटन ख़ूब खेला और वहां की लाइब्रेरी में मैगज़ीन्स और पुस्तकों को ख़ूब पढ़ा। वहीं से लिखने पढ़ने का शौक़ शुरू हुआ। केसी क्लब में अन्य मैगज़ीन्स के साथ साथ एक मैगज़ीन आया करती थी जिसका नाम हुआ करता था 'स्क्रीन'। स्क्रीन अँगरेज़ी में छपती थी और भारतीय सिनेमा के बारे में चटपटी खबरें छपा करतीं थीं। उसमें लगभग 15-20 पेज हुआ करते थे। जहाँ तक याद पड़ता है शायद हर शुक्रवार को इस मैगज़ीन का नया इशू आता था।
इस मैगज़ीन का (पता नहीं यह मैगज़ीन अब छपती भी है या नहीं) का ज़िक्र करते हुए मुझे इसलिए बहुत अच्छा लग रहा है क्योंकि इसके साथ जुड़ीं हैं, हमारे बचपन की यादें तो कहना शायद ठीक नहीं होगा वरन युवा होने तक के दिनों की बात कहा जा सकता है।
जब कभी देवानंद की कोई भी फ़िल्म रिलीज होने को होती तो उसके कुछ महीने पहले ही से स्क्रीन मैगज़ीन का तीसरा आधा पन्ना हमारा ध्यान आकर्षण का कारण हुआ करता था। उस पेज पर नवकेतन फ़िल्म्स का advertisement campaign शुरू हो जाता था। नवकेतन फ़िल्म्स का advertisement भी देव साहब की तरह सबसे अलग और अनूठा ही होता था।
मैं यहाँ जिस फ़िल्म के advertisement कैंपेन की बात उठाने जा रहा हूँ वह थी अमरजीत द्वारा निर्देशित 'तीन देवियां'। यह फ़िल्म जब floor पर जाने लगी तभी से इसकी चर्चा गरम थी कि देव साहब की यह फ़िल्म बहुत ही ज़ोरदार होने वाली है इसकी मुख्य वजह थी इस फ़िल्म की तीन-तीन हीरोइनें थीं जिनके बारे में कोई भी नहीं जानता था कि वे कौन हैं? अमरजीत और देव साहब ने मिल कर एक निश्चित योजना के अंतर्गत सीक्रेट तरीके से फ़िल्म की शूटिंग की और उसी तरह उनका campaign भी चला। जब फ़िल्म सिनेमा हॉल में चलने की तैयारी में थी और रिलीज की तारीख़ क़रीब आने लगी तो प्रीमियर वाले दिन ही लोगों को पता लगा कि इस फ़िल्म के लीड रोल में हैं नंदा, कल्पना और सिम्मी ग्रेवाल। इस फ़िल्म में संगीत था एस डी बर्मन दादा का। एक से बढ़ कर एक गाने और देव साहब की बेहतरीन अदाकारी।
मित्रों यह फ़िल्म मैंने अपने बड़े मामा जी के साथ इलाहाबाद के चौक वाले निरंजन सिनेमा हॉल में देखी थी, पता नहीं कि अब वह सिनेमा हॉल बचा है या वहाँ भी कोई मॉल बन गया।
विकास धीरे-धीरे ही सही सब पुरानी चीजों को खा जाएगा और रह जाऐंगी तो बस यादें....इसीलिए तो कहा गया है कि 'गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा....."
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 19
सरकारी नौकरी में खासतौर पर जब आप कॉर्पोरेट मार्केटिंग में कार्यरत हों तो आपको अपने सरकारी काम के सिलसिले अक्सर ही यात्रा करनी पड़ती है। सरकारी विभाग होने के कारण हमारे वक़्त में हर किसी को अपनी टिकेट पब्लिक रिलेशनस डिपार्टमेंट के माध्यम से बुक करानी होती थी। उस वक़्त भारत सरकार के आदेश थे कि सभी सरकारी अधिकारी इंडियन एयरलाइन्स से ही यात्रा करेंगे। असाधारण परिस्थितियों में सरकारी अधिकारी अपनी बुद्धिविवेक का प्रयोग करते हुए देश की दूसरी एयरलाइन्स में भी यात्रा कर सकते थे। मित्रों, यह वह समय था जब देश में निजी एयरलाइन्स का चलन जोर पर था। जिसमें मुख्य निजी एयरलाइन्स थीं जेट, सहारा, किंगफ़िशर वगैरह।
अधिकतर अधिकारी किंगफ़िशर या जेट से यात्रा करना पसंद करते थे। वे हमेशा इस कोशिश में रहते कि अगर वे दस यात्रा एक महीने में करते थे तो कम से कम 50% यात्रा किंगफिशर, सहारा या जेट से करें। क्यों? आप समझ सकते हैं कि इस चलन के प्रति क्या बात रही होगी। इंडियन एयरलाइन्स का स्टाफ वही पुराने स्टाइल का बहन जी वाले आउट लुक का हुआ करता था (एयर इंडिया के घाटे में चलने के पीछे अन्य कारणों के साथ साथ यह भी एक मुख्य कारण रहा है), एयर इंडिया के ठीक विपरीत जेट, एयर सहारा या किंगफ़िशर में एक से एक सुंदर रंग रूप की परिचालिकाएं हुआ करतीं थीं (प्राइवेट सेक्टर ने नई राह तो दिखाई। इन एयरलाइन्स का मैनेजमेंट ओपेरेशनल एरिया में सैटिस्फैकट्री काम नहीं कर पाई इसलिए किंगफिशर, जेट, एयर सहारा एक एक करके बंद होती चलीं गईं)।
मैं अधिकतर खिड़की वाली सीट लेने की कोशिश करता था। इसके पीछे एक कारण यह था कि हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी महोदय ने मुझे यह सिखा दिया था कि 'एक काम करने वाले अधिकारी के पास इतना काम रहता है कि भागमभाग में उसकी नींद पूरी नहीं हो पाती है इसलिए जीवन में एक उसूल बना लो कि स्टाफ कार हो या एयरक्राफ्ट का सफ़र उसमें सो जाने की आदत डाल लो'। मैंने उनकी इस सलाह को जबतक नौकरी में रहा अपनी आदत में शुमार कर लिया।
मैं आराम से सो सकूँ इसलिए मैं अधिकतर खिड़की वाली सीट ही लिया करता था। हमारे एक मित्र obious reasons के लिए हमेशा गलियारे के पास वाली सीट लिया करते थे।
अभी हाल में अपनी गोवा की यात्रा के दौरान जब कुहू को खिड़की वाली सीट दिलाई और धर्म पत्नी को बीच वाली सीट में बिठाया और मैं स्वयं गलियारे वाली सीट पर बैठा तो उन दिनों की बात मैंने धर्मपत्नी जी को सुनाई तो वह मंद - मंद मुस्कुराहट देते हुए बोलीं, “मर्द सभी एक जैसे होते हैं, नॉटी कहीं के"
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 20
जिस घटना का हम यहाँ ज़िक्र कर रहे हैं वह हमारे साथ 1982 में घटित हुई थी। हम लोग फ़्रंकफ़र्ट पर लैंड करने के बाद रात को वहाँ ‘ले-ओवर’ प्रणाली के अंतर्गत एअरपोर्ट के पास ही एक होटल में रुके क्योंकि हमको अगले दिन सुबह ही हनोवर के लिए निकलना था जहाँ हमारी एक मशीन मेनुफेक्चरर के साथ मीटिंग थी उसके बाद हमलोगों को वहाँ का जग प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय मशीन टूल्स मेला देखना था।
हनोवर एअरपोर्ट पर हम लोगों के स्वागत के लिए पहले ही से एक टीम तैयार थी। फ्लाइट के लैंड करते ही कुछ मिनटों में हम लोग उनकी कार में बैठ कर उनके प्लांट की ओर जा रहे थे। रास्ते में किसी भी व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने वाले द्रश्य दिखाई पड़ रहे थे। कुछ ही देर में हम लोग उनके प्लांट में थे।
रिसेप्शनिस्ट हम लोगों को लेकर मैनेजिंग डायरेक्टर के ऑफिस में ले गई वहाँ उनके साथ हमलोगों की जो मशीन टूल्स की आवश्कता थी उस विषय पर बात हुई बाद में वे हमें अपनी फैक्ट्री दिखाने ले गए।जब हम लोग उनके साथ नीचे फैक्ट्री की और जा रहे थे उन्होंने मजाक-मजाक में कहा कि क्योंकि हम लोग हिन्दुस्तानी हैं इसलिए वे हमें अपना प्लांट दिखाने ले जा रहे हैं अगर कोई जापानी होता तो वे उसे अपना प्लांट कभी भी नहीं दिखाते। हमने उनसे पूछा इसका कोई खास कारण। इस पर उनका जवाब था, “हाँ, जापानी लोगों का दिमाग इतना तेज होता है कि वे लोग जहाँ एक बार जाते हैं उनके दिमाग में उसकी हुबहू फोटो बनती चली जाती है जैसे कि हम लोग किसी कंप्यूटर में कोई डाटा फीड कर रहे हों। नकल करने में उनसे बेहतर कोई और हो ही नहीं सकता”
कहने का मतलब उस ज़माने में भी भारतियों की बिसनेस के मुआमले में विदेशों में ‘फेयर प्ले प्रैक्टिसेज’ की वजह से बहुत इज्ज़त थी। भगवान करे यह इज्ज़त और नाम एक अरसे तक कायम रहे बदलते हुए समाज में वैसे लगता तो नहीं कि यह मान्यता हम लोग बहुत दिनों तक कायम रख पाएंगे क्योंकि ‘इंडियन ट्रेड एंड कॉमर्स’ में बहुतेरे बेईमान घुस गए हैं।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 21
आईटीआई लिमिटेड, रायबरेली के प्रोजेक्ट के शुरूआती दिनों (1975/76) की बात है। हमारे सबसे पहले जनरल मैनेजर रमाकांत साहब हुआ करते थे। वह भारत सरकार के संचार मंत्रालय में वरिष्ट अधिकारी के पद पर रहने के बाद आईटीआई में आये थे। आईटीआई हाउस यानी यूनिट हेड का बंगला उस समय तक बनकर तैयार नहीं हुआ था। हमारे जनरल मैनेजर साहब को कुछ महीने रायबरेली की स्टेट गवर्नमेंट के अधिकारियों की कॉलोनी में एक बंगले में रहना पड़ा।
जनरल मैनेजर साहब की धर्मपत्नी जी बहुत ही सौम्य, शांत चित्त की पारवारिक महिला तो थीं हीं साथ में गज़ब की मेजबान भी हुआ करतीं थीं।
जब कभी कोई मीटिंग जनरल मैनेजर साहब अपने घर पर रखते तो हम लोगों को खाने पीने को एक से एक बढ़िया डिश मिला करतीं थीं। एक बार की बात है जनरल मैनेजर साहब की धर्मपत्नी ने हम सभी उन अफसरों के लिए जो उस दिन मीटिंग में उपस्थित थे के लिए अरबी ( घुईयाँ ) के पत्तों की पकौड़ियां (घुईयाँ रिकंवच) बनाईं।
सही में मैंने कभी पहले इस प्रकार की घुईयाँ रिकंवच नहीं खाईं थीं। घुईयाँ रिकंवच खाने के बाद मुझे जब प्यास लगने लगी तो मैंने एक ग्लास पानी की गुहार लगाई। इस पर हमारे जनरल मैनेजर साहब ने मुझे ताक़ीद किया कि अरबी के पत्तों की घुईयाँ रिकंवच खाने के बाद पानी नहीं पिया जाता है। गले में ख़राश हो जाती है।
जनरल मैनेजर साहब की इस बात पर मुझे एक घटना याद हो आई। एक बार हम अपने बड़े मामू सा के साथ अपनी माँसी सा से मिलने इलहाबाद गए हुए थे। हमने एक मिठाई की दुकान पर गरमागरम जलेबी और समोसे खाये। मैंने दुकान वाले से जब पानी मांगा तो उसने वही बात कही कि भइय्या मिठाई और समोसा खाने के बाद इलाहाबाद में कभी पानी नहीं पीना। हम लोग रहने वाले ब्रज भूमि के उस क्षेत्र के हैं जहां दूध दही और देशी घी का इस्तेमाल खाने पीने में ख़ूब हुआ करता है और आज भी अधिकतर मिठाई की दुकानों पर देशी घी की मिठाइयां मिला करतीं हैं। मेरे मामू सा को ताज़्ज़ुब हुआ तो उन्होंने पूछा, "वह भला क्यों"
मामू सा की बात का जवाब देते हुए हलवाई ने कहा, "हमारे इलाहाबाद में मिठाई वग़ैरह बनाने में महुए के तेल का इस्तेमाल किया जाता है और कोई मिठाई खाने के बाद पानी पी लेता है तो गले में ख़राश हो जाती है"
मित्रों, यहां यह बताना महत्वपूर्ण है कि यह उस जमाने की बात है जब अपने मुल्क़ में खाने पीने के लिए डालडा वग़ैरह बमुश्किल मिला करता था। खाने वाले तेलों की उपलब्धता बहुत कम हुआ करती थी। इलाहाबाद के आसपास महुआ बहुतायत में हुआ करता था और खाने पीने के समान के लिए महुआ के तेल ही ज्यादातर इस्तेमाल किया जाता था।
जब महुआ की बात आ ही गई है तो मुझे यह बताने में कोई संकोच नहीं है मैनें इलाहाबाद के ही हिंदी के सहित्य के बहुचर्चित हस्ताक्षर कुशवाहा कांत जी की तमाम रचनाओं और उपन्यासों को बहुत चाव से पढ़ा है। कुशवाहा कांत जी की रचनाओं में जिस क़दर जमींदारी के दिनों और महुए का ज़िक्र हुआ है, वह देखते ही बनता है।
इलाहाबाद, प्रतापगढ़, रायबरेली जिले के ग्रामीण अंचल में खासतौर पर होली के आसपास जब महुआ फलता है तो उसकी मदमस्त महक दूर दूर तक मस्त कर देती है। जब महुआ टपकने लगता है तो लोग उसके फल को बीन कर विभिन्न प्रकार से इस्तेमाल करते हैं।
अब तो हालात बहुत बदल गए हैं खाने पीने के सामान की कोई कमी नहीं है। जिन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि अपने देश में स्वतंत्रता के बाद स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। कपड़े धोने के लिए मोटी वाली लोकल बनी हुई बट्टी सेर/पसीरे के हिसाब से मिला करती थी, मंजन के नाम पर नीम की दातून अथवा बमुश्किल उदयपुर गौ आश्रम का काला दंत मंजन, खाने पीने में लोगों को मोटा अनाज (मटर, बाजरा, ज्वार, जुंडरी) ही अधिकतर मुहैया हुआ करती थी। गेंहूँ की रोटी उडद की दाल रईसों के यहां और गरीबों के घरों में अरहर की दाल रोटी और मोटा चावल बना करता था। भला हो हरित क्रांति का जिसके बाद ही खेती किसानी की हालत सुधरी। खाने पीने की चीजों की उपलब्धता ठीक हो सकी। अब देश का क्या कहना खाने पीने का समान इफ़रात में मिलने लगा है। कुप्रबंधन के कारण कभी कभी प्याज़, हरि सब्जियों की कमी होती भी है तो उसकी भी काट देर सबेर निकल ही आती है।
इलाहाबाद में भी अब मिठाई बनाने के लिए महुए के तेल का उपयोग नहीं होता है। वहां की कुछ मिठाइयों का तो कहना ही क्या। अब तो हाल यह है कि जब कोई जान पहचान वाला इलाहाबाद जाता है तो मैं वहां से हरी के यहां की देशी घी की नमकीन और सुलाखी के यहां की बालूशाही मंगाना नहीं भूलता। भगवान की कृपा से हमारे यहां मिठाई ख़ूब शौक़ से खाई जाती है और कोई रोकटोक नहीं है। एक किलो बालूशाही अगर दो तीन दिन से अधिक चल जाये तो मैं इसे ताज़्ज़ुब ही मानता हूँ।
ज़माने ज़माने की बात है। इसीलिए यह वह पुरानी फ़िल्म का गीत होठों पर उभरने लगता है "गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा, हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा"
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 22
आईटीआई, रायबरेली की यादों से....
सही सही याद नहीं आ रहा पर इतना अवश्य याद है कि उस दिन 1983 में शिवरात्रि का पावन पर्व था। यूनियन वाले किसी मुद्दे को लेकर झँझट कर रहे थे। उसी बीच किसी ने भीड़ में से गोली चला दी और आईटीआई लिमिटेड, रायबरेली का एक सिक्योरटी गॉर्ड मर गया। वह गॉर्ड अपने परिवार के साथ घोसियाना, मलिक मऊ रोड पर एक छोटे से किराए के मकान में रहा करता था। उस गॉर्ड का चेहरा आज भी याद हो जाता है। उस बेचारे की तो जान फ़िजूल में चली गई। उसके बाद यूनियन वालों ने जो हंगामा काटा उसकी तो बात ही नहीं करिये। उस हंगामें को कंट्रोल करने के लिये जिला प्रशासन ने पीएसी की एक कंपनी भेजी। उसके बाद तो कर्मचारियों की वो धुनाई हुई कि पूछिये नहीं उनका क्या हाल हुआ। इसी लफड़े में कई वरिष्ठ अधिकारी भी लपेटे में आ गए उनकी भी पीएसी ने पूजा कर दी (उनमें से अब कुछ तो इस दुनियां में भी नहीं रहे, प्रभु उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।
कहते हैं न जिसका कोई नहीं उसके शिव शम्भू। क़िस्मत की बात उस दिन शिवरात्रि के पर्व पर पूजन के लिये हम खजूरगाँव कोठी (वही खजूरगाँव जिसका जिक्र मैंने अपनी पुस्तक ‘एक थे चन्द्रचूड़ सिंह’ में भी किया है) राणा जी के यहां पूजन के लिये गए हुए थे। खुजूरगाँव राणा परिवार के कुल देवता शिव जी रहे हैं। हमें वहीं ख़बर मिली कि आईटीआई में कांड हो गया। पहली प्रतिक्रिया तो मेरी अन्य लोगों की भाँति यही रही कि इसमें कौन सी नई बात है वहाँ तो आये दिन कोई न कोई कांड होता ही रहता है।
चितां तो जब हुई जब पता लगा कि गोली चल गई और फैक्ट्री का एक आदमी मर गया। पीएसी ने प्लांट एरिया और एडमिन बिल्डिंग में घुस कर खूब तुड़ाई की। हमारे श्रीमान कुँवर वीरेन्द्र सिंह साहब ने कहा, "भाई साहब जो होना था हो गया अब आप शांत मन से पूजा करिये"
शाम को हम घर पर थे कि हमारे सुपर बॉस का फ़ोन आया और बोले, "भइय्या अपना किसिंजर बैग लेकर आईटीआई हाउस में आओ और हम लोग नैनी चल रहे हैं"
जब हम रास्ते में थे तो सुपर बॉस कहने लगे, "रायबरेली में अब हमारे लिये कोई काम तो रह नहीं गया। फ़ैक्टरी में लॉकआउट तो कर ही दिया इसलिए सोचा क्यों न नैनी ही घूम आएं"
जब हम लोग इलाहाबाद पहुंचे तो सुपर बॉस के एक रिश्तेदार, जो हाई कोर्ट के माननीय जज थे, लॉक आउट के सिलसिले पर उन्होंने उनसे कुछ राय मशविरा किया। उन्हीं के यहाँ हम लोगों ने डिनर किया और देर रात आइटीआई नैनी गेस्ट हाउस पहुँच गए।
हमारे सुपर बॉस ने भोर के चार बजे उठ कर अपनी अतिसुन्दर हस्तलिपि में एक रिपोर्ट लिखी और एक लिफ़ाफ़े में रख कर अपने पास रख ली। सुबह वो जब मुझे मिले तो सुपर बॉस बोले, "भइय्या यहाँ एक राजन हैं, उन्हें ज़रा बुला लेना"
यह वह राजन वर्मा नहीं जो कालांतर में फेसबुक पर संपर्क में आने पर बहुत अच्छे दोस्त बने बल्कि एक और राजन खन्ना जो ईडीआर ऑफिस में पीएस हुआ करते थे। जैसे ही राजन खन्ना मिलने आये उनके हाथ में वह लिफ़ाफ़ा देते हुए बोले, "राजन यह लिफ़ाफ़ा आज ही कोरियर कर देना जिससे कि यह कल हर हालत में चेयरमैन की टेबल पर हो"
राजन खन्ना मेरी जान पहचान के थे जिनके पिताश्री हिन्द लैम्प्स शिकोहाबाद में एकाउंट्स डिपार्टमेंट के हेड हुआ करते थे और इनके बड़े भाई राज कुमार खन्ना हमारे इंटरमीडिएट क्लास तक सहपाठी और मित्र रहे। उनसे मिलकर हम बहुत खुश हुए।
जब राजन चले गए उसके बाद हम लोगों ने ब्रेकफ़ास्ट किया और तैयार हो कर हम लोग रायबरेली के लिये निकल पड़े। सरारे प्लास्टिक वालों के यहाँ शिव पूजन का कार्यक्रम चल रहा था जहाँ हवन पूजन के बाद भोजन इत्यादि की व्यवस्था थी और सुपर बॉस को उनके यहां जाना था।
सुपर बॉस हमसे बोले, "चलो हम लोग सरारे प्लास्टिक दिवेदी के यहाँ चलेंगे और शाम को आईटीआई गेस्ट हाउस में प्रेस कांफ्रेंस करेंगे"
शाम को प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने लॉकआउट को उठाने की घोषणा कर दी। तीसरे दिन से प्लांट दोबारा से सुचारू रूप से काम करने लगा।
यह वृतांत यहाँ इसलिये लिखा जिससे कि लोग यह समझ सकें कि जो लोग प्रशासन में होते हैं, वह किसी भी विषम परिस्थिति में अपना धैर्य नहीं खोते हैं और शान्त चित्त स्वभाव से अपना काम करते हैं। उनके लिये गोली चल जाना, मारपीट हो जाना, सड़क पर जाम लग जाना, यहाँ तक कि दो वर्गों में मारपीट हो जाना एक सामान्य प्रक्रिया के अंग होते हैं। जहां साधारण लोग उत्तेजित होने लगते हैं, वहीं प्रशासनिक अधिकारी शान्त चित्त से काम करते हैं।
बाद में जब मुझे मनकापुर में एडिशनल जनरल मैनेजर (पी एंड ए) का पद भार मिला तो इस प्रकार की घटनाओं से निपटने की अलौकिक शक्ति मिली। अब तो ये बातें सब गुज़रे ज़माने की होकर गईं हैं...
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 22
कल के रोज़ जब शेव करते वक़्त ध्यान से चेहरा देखा तो महसूस हुआ कि सिर के बाल कुछ बढ़ गए हैं और उन पर सफ़ेदी कुछ अधिक ही नज़र आ रही है। दरअसल जब साइड के और पीछे के बाल बढ़ जाते हैं तो सफ़ेदी कुछ अधिक ही दिखाई देने लगती है। इस लिहाज़ से सोचा कि चलो भाई बहुत दिन हुए सैलून में चल कर हेयर ड्रेसिंग करा ही ली जाए।
मैंने हेयर ड्रेसर से कहा कि भाई मीडियम रेंज में हेयर ड्रेस कर दो। उसने बड़े अदब से बिठाया और धीरे धीरे अपनी कैंची से बाल ड्रेस करने शुरू किए। आपने महसूस किया होगा कि हेयरड्रेसर अक़्सर बातूनी हुआ करते हैं और अपने कस्टमर का दिल बहलाने के लिए इधर उधर की बातें करने लगते हैं। मेरे हेयरड्रेसर ने भी मुझे याद दिलाते हुए कहा, "सर जी अब तो आपके बाल बहुत कम रह गए हैं और सफ़ेदी झलकने लगी है। कहिए तो कलर कर दूँ"
उसकी बात सुनकर न जाने कितनी ही बातें याद हो आईं। सबसे पहले तो अपने गांव की जब कभी हम अपनी ननिहाल में मां सा के साथ जाते तो अगले ही दिन नाना सा सबसे पहले नाई को बुलवा कर बाल बनवा देते। वह हमेशा कहते कि बाल छोटे छोटे रहते हैं तो गर्दन लंबी लगती है नहीं तो बढ़े हुए बालों में छुप जाती है। छोटे थे तो कुछ कह नहीं सकते थे इसलिए चुपचाप बाल बनवा लिया करते थे।
लेकिन जब बड़े हुए तो बालों के प्रति प्रेम और बढ़ गया। उस वक़्त हमारे बाल भी बहुत काले और लहरियादार हुआ करते थे। हम अपनी ख़ुद तारीफ़ कैसे करें पर इतना ज़रूर याद है कि क्लास में साथ पढ़ने वाली लड़कियों को हम बेहद पसंद थे।
जैसे जैसे बड़े होते गए बाल धीरे धीरे गिरने लगे। चिंता सताने लगी कि क्या करें? एक दिन अपने चाचा जी से पूछ बैठे कि चाचा क्या किया जाय? चाचा के ख़ुद के बाल बहुत कम रह गए थे इसलिए मज़ाक उड़ाते हुए बोले, "लल्लू बाबू गिरते हुए बाल बस ज़मीन पर जाकर रुकते हैं इसलिए चिंता नहीं करो और मस्त रहो"
भला भरी जवानी में किसी के बाल गिरें और चिंता न की जाए ऐसा भी होता है। इसलिए तरह तरह के तेल जैसा जिसने बताया लगाने लगे। उस ज़माने में कैथेराइनडीन तेल आया करता था उसे भी लगाया। लेकिन जिसे गिरना था वह गिरता रहा। जब गिरते बाल नहीं रुके तो यह सोचकर तसल्ली कर ली कि जवाहर लाल नेहरू, जो एक रईस बाप के शहज़ादे थे, जब उनके बाल गिरने से नहीं बचे तो भला कोई क्या कर सकता है।
हेयरड्रेसर की बात याद आई तो घर आकर एलबम से कुछ पुरानी फोटो निकालीं। उन्हें बड़ी हसरत भरी नजरों से निहारा। एक ज़माने में हम भी कभी खूबसूरत और दिलकश हुआ करते थे। वह फ़ोटो रमा को दिखाई तो यह सुनने को मिला, "अब क्या फ़र्क पड़ता है। क्या अभी दिल भरा नहीं?"
रमा की बात पर हमें 'हम दोनों' फ़िल्म का वह दो गाना याद आ गया जो देवानंद और साधना पर फिल्माया गया था "अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं"
अपनी जवानी के दिनों में देव साहब हमारे चहेते अदाकार हुआ करते थे। उनकी अदाएं, उनकी अलग अलग तरह कैप्स (टोपियां), उनकी कमीजों के पीछे से उठे हुए कॉलर ने किसका दिल न जीता होगा। उनका एक टूटा हुआ दांत उनकी पर्सनालिटी का वो हिस्सा था कि जब वे हंसते थे तो न जाने कितनी ख़ातूनों के दिल मचल जाया करते थे।
वो भी क्या दिन थे और अबके क्या दिन हैं। एक दिन इंडियन आइडल देखते समय हमारे मुँह से निकल गया, "हिमेश रेशमिया को देखो कितने घने बाल हैं"
रमा ने तुरंत याद दिलाया कि उसने हेयर इम्प्लांट कराए हैं। अभी आपकी कुछ और तमन्नाएं बाक़ी रह गईं हों तो आप भी हेयर इम्प्लांट करा लो। एक बार सोचा भी पर फिर सोचा हटाओ छोड़ो भी अब किसके लिए हेयर प्लांट करके देवानंद बनना है। जब तमन्ना उठती है तो कोई न कोई 'तमन्ना' मिल ही जाती है और कहानी बन जाती है..अपना काम चल रहा है।
कोई कुछ भी कहे लेकिन गुज़रा हुआ ज़माना यादों में आते ही मन में कुछ कुछ होने लगता है।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 23
उस समय रायबरेली इकाई ने क्रॉस बार प्रोजेक्ट के तहत आईटीआई ने बेल्जियम की बेल टेलीफोन मैनुफैक्चरिंग कंपनी के साथ एक एग्रीमेंट किया था। प्रोजेक्ट इम्प्लीमेंटेशन की रिव्यु मीटिंग के लिए मुझे एंटवर्प, बेल्जियम भेजा गया। हमारे साथ कंपनी के अन्य बरिष्ट अधिकारी भी गए थे।
एंटवर्प में हमारे जान पहचान के गुजराती कुछ भारतीय भी रहते थे जो अधिकाँशरूप में हीरों के व्यापार में संलग्न थे। उन्होंने एक दिन शाम को हम सभी को अपने घर डिनर पर बुलाया था। जब हम लोग विदेश टूर पर निकल रहे थे तो एक पेप टॉक सेशन में हमारे सुपर बॉस ने यह साफ-साफ बता दिया था कि जब हम अपने देश को किसी दूसरे देश में रिप्रेजेंट करते हैं तो हमको शालीनता और समय के प्रति विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। इसको ध्यान में रखते हुए हम लोग अपने मेहमान के घर उचित समय से पहुँच गए।
मेहमानों की अच्छी ख़ातिरदारी के लिये सदा से ही भारतीय जाने जाते हैं। हम लोगों की भी खूब ख़ातिरदारी हुई। हमारे मेजबान ने हमको 'रॉयल सैलूट' ड्रिंक आफर की गई। मुझे ड्रिंक बहुत अच्छी लगी और स्कॉच के ट्रेडिशन को फॉलो करते हुए ऑन द रॉक्स पी। लेकिन हमारे बॉस ने मेजबान से कहा, "मैं जानता हूँ कि जो मैं आपसे मांग रहा हूँ उसके लिए आप मुझे अपने घर की खिड़की से बाहर फेंक देंगे पर मैं उसे वगैर मांगे रह नहीं सकता इसलिए काइंडली मुझे एक सोडा दे दीजिए। मैं ड्रिंक लाइट करके ही पीना पसंद करता हूँ"
हमारे मेजबान ने बॉस को सोडा तो दे दिया लेकिन हंसते हुए यह टौंट भी कस दिया कि यह रॉयल सैलूट की बेइज़्ज़ती है। उस दिन हमारी टीम के एक सदस्य ने भी ड्रिंक ली जो कभी ड्रिंक लेते नहीं थे। रॉयल सैलूट का जादू जो सबके ऊपर चढ़ कर बोल रहा था।
मेजबान ने एक पेग की समाप्ति पर सभी को एक ड्रिंक और दी। अपने वरिष्ठ अधिकारी के निर्देशों का पालन सही प्रकार से हो यह ध्यान करते ही मैंने दूसरी ड्रिंक लेने से हाथ जोड़ कर माफ़ी मांग ली। जब हमारे मेजबान खाना तैयार है या नहीं देखने घर की किचेन में अंदर गए तो हमारे वरिष्ठ अधिकारी ने हमसे कहा, "भैय्या यह विदेश है यहाँ हिंदुस्तान की तरह कोई दोबारा जोर देकर नहीं पूछेगा की एक और थोड़ी सी ही सही। जो पीना हो या खाना हो उसे बेझिझक होकर खाओ पियो"
उनकी बात सुनकर मुझे बड़ा अफसोस हुआ कि आज ड्रिंक मस्त थी हम बेमतलब ही मारे गए गुलफ़ाम। मैं जब-जब यह घटना याद करता हूँ तो लगता है कि उस दिन बहुत बड़ी गलती हो गई। जो मन करे उसे समय कर लेना चाहिए। सब कुछ भूल कर करने में ही आनंद है और फिर कसम खाई कि जीवन में यह गलती दोबारा नहीं करूँगा। जब अपने उस ट्रिप के आखिर में लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे से फ्लाइट लेनी थी तो वहाँ की ड्यूटी फ्री शॉप पर मुझे रॉयल सैलूट की बोतल दिखाई पड़ी तो उसे बग़ैर खरीदे चैन नहीं आया। लौट कर जब वापस हिंदुस्तान आए तो वही रॉयल सैलूट हमारी वाइन चेस्ट को एक लंबे समय तक सुशोभित करती रही। जब परिवार में एक ख़ास अवसर आया तो उस दिन वही रॉयल सैलूट की बोतल खुली। रॉयल सैलूट की खाली बोतल भी नशा देती है इसलिए उस बोतल को आजतक बहुत सम्हाल कर रखा है। आजकल उस बोतल में मोरपंखी सज रही है और वह एक शो केस की शोभा बनी हुई है....
...अभी तो और भी हैं अफ़साने जो आगे भी आते रहेंगे और आपके दिलों को गुदगुदाते रहेंगे।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 24
हम लोग उस दिन फ़्रंकफ़र्ट, जर्मनी में थे। उस रोज हमने मेहमानवाज़ों से यह कह कर मुआफ़ी मांग ली कि आज हम लोग उनके साथ कहीं नहीं जा पाएंगे और कुछ शॉपिंग वग़ैरह करेंगे। हमारे बॉस ने अपने लिए एक कैमरा खरीदा और मैंने एक शॉपिंग मॉल में जाकर अपने लिए एक ट्वीड का सूट खरीदा। मॉल से चलते वक़्त जब हम लोग वहां के वाइन स्टोर में थे तो हमारे बॉस ने कहा, "भइय्या आज डिनर हम लोग अपने होटल रूम में ही क्यों न करें, क्या कहते हो?"
"बेहतर होगा सर"
उन्होंने कहा, "एक काम करो, कोई एक ड्रिंक ले लो"
वाइन स्टोर की रैक में रखीं हुईं उन अनेक बोतलों में से हम कौन सी ड्रिंक लें यह तय नहीं कर पा रहे थे तब हमारे बॉस ने जो कहा वह आजतक मेरे कानों में गूँजा करता है। उनके शब्द थे, "When you are vague ask for Haig"
उसके बाद मैंने बढ़कर Haig स्कॉच की एक बोतल खरीद ली। उस दिन हम लोगों ने रूम सर्विस की सलाह पर कुछ डिशेज़ आर्डर कीं और Haig को एन्जॉय किया।
आज भी जब कभी मैं ड्यूटी फ्री एरिया से गुज़रता हूँ तो उनके कहे हुए शब्द कानों में गूँजने लगते है, "When you are vague ask for Haig"
कुछ बातें ऐसी रहतीं हैं जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता...
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 25
जब आईटीआई लिमिटेड, मनकापुर, की स्थापना नहीं हुई थी उस ज़माने में जंगल के रास्ते कंकड़ी वाली सड़कों से मोटर कार का सफ़र भी बड़ा अजीब हुआ करता था। जैसे जैसे मोटर कार सरपट आगे बढ़ती और पीछे पीछे धूल का गुब्बार छोड़ती जाती।
एक बार की बात है जब हम एक बार 1978 में कार से कुँवर अनिल कुमार सिंह के साथ रायबरेली से मनकापुर जा रहे थे तो हमने अयोध्या पार करते ही वह रास्ता लिया जो गांव गांव होकर जाता था। इसका कारण मुख्य रूप से यह था कि मैं उस क्षेत्र की माली हालत के बारे में जानकारी करना चाह रहा था।
जब हमारी मोटर कार किसी गाँव के के किनारे होकर गुज़रती तो वहाँ के लोग एक हसरत भरी निग़ाह से हर आने जाने वाली मोटर कार को देखा करते थे कि न जाने आज राजा साहब के कौन से मेहमान पधारे हैं। ऐसा हुआ करता था सफ़र एक वक्त में उस जगह का जिस जगह हमने अपनी ज़िन्दगी का अहम वक़्त बिताया, मनकापुर।
उसी ट्रिप में कुँवर साहब ने जब हम टिकरी जंगल से गुजरने लगे तो बताया कि एक बार वे रात को कार से मनकापुर लौट रहे थे कि अचानक एक हिरण उनकी कार के सामने आ गया। उन्होंने उतर कर हिरण की हालत देखी तो पता चला कि वह ज़िंदा था। फिर क्या था ड्राइवर ने उसे कार की डिक्की में डाला। जब वे मंगल भवन पहुंचे तो अपने आदमियों से कहा कि कुछ भी करो हिरण को बचाओ। हिरण का इलाज़ किया गया और बाद में वह हिरण कई साल ज़िंदा रहा। चोट के कारण बस चलने में उसे तकलीफ़ रहती थी। उसकी एक टांग जो चोटिल हो गई थी। कई बार वह बूढ़ा हिरण मनवर के किनारे दिख जाता था। कभी वह रास्ता भटक जाता था तब महल के सेवक उसको ढूँढने निकलते और उसे फिर महल तक पकड़ कर लाते। ठीक उसी तरह जब आप बूढ़े और असहाय हो जाते हैं तो आपको ज़िंदगी दूसरों के सहारे गुजारनी होती है।
मनकापुर क़स्बे को पार करने पर एक तरफ़ राजा साहब का महल जहां माहौल वही 1947 से पहले वाला हुआ करता था। महल के सामने की सड़क पर भी क्या मजाल कोई जो साइकिल से जा रहा हो उतर कर महल की ओर देखकर नमन न करे, पैदल चलने वालों की बिसात क्या।
कुछ आगे ही मनवर नदी को सरकार विभाग एक बरसाती नदी मानता था इसलिए मनवर कोठी के पास उस समय में एक 'कॉज वे/ causeway' हुआ करता था। नदी पार करते ही हम लोग घूमते हुए फिरोज़पुर फार्म की ओर चले जाते थे।
बाद में जब आईटीआई की स्थापना का काम तेजी से चला तो causeway के स्थान पर मनवर नदी पर उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा पुल बनबाया गया। सड़क पर रौशनी रहे और किसी आने जाने वाले को तकलीफ़ न हो इस लिहाज़ से आईटीआई ने सड़क पर स्ट्रीट लाइट का इंतज़ाम किया। संचार विहार के बसने के बाद तो मनवर पार एक नया शहर ही बस गया। आईटीआई में पूरब- पश्चिम, उत्तर-दक्षिण से सभी जाति और सम्पद्रायों के लोगों के आ जाने से गंगा जमुनी तहजीब पर संचार विहार फला फूला और दूर दूर तक महका। मनवर कोठी में फ्रेंच लोगों के लिए कुछ दिनों तक क्लब चलाया गया।
बावजूद इन सबके संचार विहार में रहने वाले लोगों के लिए महल एक अजूबा हुआ करता था। शरू-शुरू में लोगों को लगा कि यह दूरी कभी ख़त्म न होगी। वक़्त ने पलटी मारी धीरे धीरे जैसे ही चुनाव करीब आने लगे तो यह दूरी भी कम होने लगी। राजा साहब लोकसभा के चुनाव में प्रत्याशी बन कर मैदान में थे इसलिए उन्हें संचार विहार में पैंठ बनानी पड़ी। उनके इस कदम से लगा कि भारत में लोकतंत्र के आने से एक नई लहर आ गई हो।
न बदला तो बड़ी बड़ी चारदीवारी के भीतर रहने वालों का अकेलापन। पोता, पोती, नाती और नातिन जब भी महल में आएं तो उनको अकेलापन इतना काटता था कि वे कहां जाएं, किसके साथ खेलें। आज भी महलों में रहने वाले नितांत अकेले जीवनयापन करते हैं। यही हक़ीक़त है। मनकापुर का राजमहल इस लिहाज़ से कहीं बेहतर है क्योंकि जनताजनार्दन अपनी गुहार लगाने के लिए अभी भी वहां पहुंच ही जाती है।
ज़माना लाख बदल गया हो पर भारत में अभी भी कुछ लोग ऐसे हैं जो रहते तो महलों में हैं पर बाहरी दुनियां और समाज से कटे कटे से ...
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 26
कल जब आईटीआई रायबरेली के पुराने दिनों के ज़माने की बात हुई तो उन्हीं रमाकांत साहब के ज़माने की एक बात और याद हो आई। जब जनरल मैनेजर साहब आईटीआई हाउस दूरभाष नगर में शिफ्ट कर गए तो उन्होंने एक पार्टी दी। चूँकि उस दिन अफसरों और उनके परिवारों को भी बुलाया गया था इसलिए उस दिन के खाने पीने की व्यवस्था गेस्ट हाउस इंचार्ज के पास थी।
आईटीआई हाउस के पिछबाड़े में एक खूबसूरत आँगन था उसी में पार्टी आयोजित थी। हम लोग उस ज़माने में अपने जनरल मैनेजर साहब को पिता तुल्य माना करते थे। उस दिन पहली बार हम लोगों ने अपने जनरल मैनेजर के सामने धृष्टता करते हुए ड्रिंक ली। उनकी नज़र जब हम लोगों पर पड़ी तो उन्होंने अपनी निग़ाह दूसरी ओर कर ली और उधर चले गए जहां कुछ उच्च अधिकारी लोग बैठे हुए थे।
बाद में जब भोजन का समय हुआ तो जनरल मैनेजर साहब की धर्मपत्नी यह पूछते हुए हम लोगों के पास आईं कि खाना पीना कैसा है? हम लोगों ने पूरे इंतज़ाम की दिल खोलकर खूब तारीफ़ की। अपनी धर्मपत्नी को हम लोगों के पास खड़ा देखकर जनरल मैनेजर साहब हम लोगों के पास आये और धीरे से अपनी धर्मपत्नी के कंधे पर हाथ रखा और उन्हें हम लोगों से दूर करने के लिए लेडीज के पास भेज दिया जिससे कि हम लोग दावत का पूरा लुत्फ़ उठा सकें।
बड़े लोगों की जैसी बड़ी बातें होतीं थीं वैसे ही उनका व्यवहार भी हुआ करता था। हम लोगों की तो छोड़िए लेकिन आजकल के बच्चों की अपने से अधिक उम्र के लोगों से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।
जब बात चल ही रही है तो उन्हीं जनरल मैनेजर साहब के यहां की एक और बात याद आ गई। उनके यहां जब किसी काम के सिलसिले में उनके यहां आना जाना होता था तो वगैर कुछ खिलाये तो उन्होंने अपने घर से आने नहीं दिया। अक़्सर ही गर्मिगों में शरबत और सर्दियों में चाय या कॉफी पीने को मिलती थी। उनके यहां के घर के बने मगज के लड्डू ख़ूब खाने को मिले। एक बात और उन्होंने कभी भी किसी भी किचेन में काम करने वाले सेवक को कोई चीज नहीं परोसने दी। उनकी धर्मपत्नी समान लातीं थीं या उनकी बेटी रेखा।
कुछ चीजें तहज़ीब के दायरे में आतीं हैं तो कुछ सामाजिक दायरों के अंतर्गत बहरहाल बड़ों की इज़्ज़त करना सभी के लिए आवश्यक है और दूसरों के यहां की अच्छी परिपाटियों को जीवन में अपनाने की भी जिम्मेदारी आज के युवा की ही है।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 27
पिछली बार दिसंबर में एक अरसे बाद लखनऊ जाना हुआ। बड़े मन से हम (मैं और कुहू) टुंडे के कवाब खाने के लिए घर से अमीनाबाद के लिए निकल पड़े। लखनऊ की सड़कों पर भीड़ इस क़दर हो गई है कि वहां कार चलाना खतरे से खाली नहीं। इस ख़्याल से एक टैक्सी लेना ही बेहतर लगा। कैशरबाग़ तक तो ड्राइवर ने पहुंचा दिया और बोला, "हजूर अब आगे जाना मुमकिन न हो सकेगा"
कैशरबाग़ के राउंड अबाउट पर भीड़ इस क़दर थी कि टैक्सी से नज़ीराबाद की सड़क तक पहुंच पाना बहुत मुश्किल था। हमें महसूस हुआ कि पैदल तो हम सड़क पार नहीं कर पाएंगे। उसके आगे के सफ़र के लिए रिक्शे का ही सहारा लेना पड़ा। बाद में टुंडे की दुकान के सामने जब उतरना हुआ तो कुहू ने मुझे रोका और बोली, "दादा एक मिनट"
कुहू घूम कर बाएं आई और फिर उसने मेरा हाथ थामा और धीरे से रिक्शे से उतारा। तब मुझे महसूस हुआ कि चलते फिरते हुए भी इंसान की ज़िंदगी में एक वक़्त ऐसा आता है जब उसे किसी के सहारे की ज़रूरत पड़ती है। बस उस वक़्त मेरे मुंह से एक ही दुआ निकली कि हर किसी को बढ़ती उम्र में कोई ऐसा मिले जो उनका हाथ थाम सके।
गुज़रे वक़्त में जिन सड़कों पर भागते चले जाते थे अब उन्ही सड़कों पर भीड़ भड़ाके में चलने में दिल घबराता है। तब यही कहने का मन करता है "गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा.."
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 28
'Tomorrow never comes' पर गुज़रे पल बहुत याद आते हैं। खास तौर पर जब आपकी उनके साथ कुछ अच्छी यादें जुड़ीं हों तो।
हम लोग साल दो साल में एक बार बाहर घूमने चले ही जाते हैं। कहीं और नहीं जाना हो पाता है तो अपने गाँव ही सही पर घर से निकलते ज़रूर हैं। हमारी धर्मपत्नी को फ़ोटो खीँचने का बेहद शौक़ है यहाँ तक कि इस चक्कर में वह कई बेहतरीन दृश्यों को भी नहीं देख पातीं हैं। एक बार की बात है हम लोग होंग कोंग के चाइना पीक के आसपास थे। बड़े ही मनलुभावन दृश्य थे। मैंने उन्हें देखते हुए कहा कि देखो नीचे घाटी और उसके पीछे होंग कोंग शहर का दृश्य कितना अच्छा लग रहा है। बस दृश्य को तो देखा नहीं लगीं उस ओर की फ़ोटो खीँचने। इस बात पर उन्हें मेरा क्रोध भी झेलना पड़ा पर उनका कहना था जो पल आँखों के सामने हैं वो तो गयाब हो जाएंगे लेकिन जो कैमरे में कैद हो जाएंगे वे सदा के लिय अपने साथ रहेंगे।
ऐसे ही एक और घटना याद आ रही है हम लोग जब कभी बाहर निकलते हैं तो एक सिध्दांत मन में लेकर चलते हैं कि उस ट्रिप में अच्छी जगह रहेंगे, बढ़िया से बढ़िया ड्रिंक पियेंगे और अच्छे से अच्छा खाना खाएंगे जिससे कि उन पलों की उनकी यादें साथ बनी रहें। ऐसे मौकों पर अक़सर मैं जो एक बात कहता हूँ वह है कि जिस दिन आपकी डी डेट है उस दिन आप सबसे बढ़िया कपड़े पहनिए, सबसे बढ़िया परफ्यूम लगाइए और उसके बाद ही घर से मिलने को निकलिए पता नहीं कल आये न आये। इन चीजों को किसके लिये बचा कर रखना है।
'Tomorrow never comes' जो पल बीत गए सो बीत गए। जो अपने साथ चले वही अपने रहे।
@सुरेन्द्रपालसिंह2020



एपिसोड 29
विदेशों में महिलाएं अक़्सर हाई हील के शूज या सैंडल पहनना पसंद करतीं हैं। हाई हील जब वह पॉइंटेड हो तो चलते समय टक टक की जो आवाज आती है वह मनचलों को बहुत पसंद आती है।
ये घटना हम लोगों की नज़रों के सामने यूक्रेन के शहर खारखोव की है जिसे मैं आजतक भुला नहीं पाया। मैं अपनी धर्मपत्नी के साथ तैयार होकर किसी काम से पास के ही शॉपिंग सेंटर जा रहा था।
हम लोगों से कुछ दूरी पर आगे आगे एक अधेड़ उम्र (आजकल किसी भी महिला की सही उम्र पता करना बहुत मुश्किल है। विदेशों में तो यह अंदाज़ लगाना और भी मुश्किल हो जाता है चूँकि किसी के बाल सफ़ेद तो किसी के रंगीन गुलाबी रंगे हुए होते हैं) की महिला थीं जो कि हाई हील्स के शूज पहने हुईं थीं। पता नहीं क्या हुआ कि अचानक ही वह सड़क पर गिर गईं। वहां कई यूक्रेनी महिलाएं और पुरुष थे लेकिन किसी ने भी उस महिला की मदद नहीं की बल्कि उसकी ओर ऐसे देखा कि कुछ हुआ ही नहीं। यह देख मुझसे और मेरी धर्मपत्नी को बहुत बुरा लगा और हम उस महिला की मदद के लिए आगे बढ़ने लगे। मैं तो हतप्रभ रह गया जब एक यूक्रेनी ने हमारा हाथ पकड़ कर रोक दिया और इशारे करके बताया कि यह सब यहां होता रहता है और हमको परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है। कुछ देर बाद उस महिला ने हिम्मत दिखाई और धीरे से खड़ी हुई। अपने पैर को सहलाया और फिर अपने काम पर लंगड़ाती हुई चली गई।
मेरी समझ में आजतक नहीं आया कि यूक्रेनी लोगों ने इस तरह का व्यवहार क्यों किया? क्या पता यह वहाँ की रीत ही ऐसी हो जो लोगों को अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ने के लिए प्रेरित करती हो....
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

एपिसोड 30

आज अपनी कोई बात नहीं बस पिछले दिनों की वह याद जब हम अपने मित्र कवि श्रेष्ठ श्री एस एन गुप्ता साहेब से मिले थे और उन्होंने फेसबुक पर यह पोस्ट डाली थी:

पांच वर्ष पूर्व 27 सितम्बर 2014:

लेखनी के धनी ,सहृदय ,साहित्यकार आदरणीय एस पी सिंह सर से पहली बार मिलना हुआ !

यादगार पल !

"स्वार्थ ना कोई इसमें स्नेह का दरिया है
यह फेसबुक का नहीं है रूह का रिश्ता है
कहने को बहुत दूर है नज़रों से भी है दूर
गुमनाम सा तो है पर मासूम ये रिश्ता है
हैं दूर क्या हुआ हर सुख दुख में साथ हैं
उँगलियों ने संवारा नाजुक सा ये रिश्ता है"

एस एन गुप्ता
27/09/2014

###########

"जीवन की आपाधापी में
वक़्त सरकता गया
मारा-मारी करते
न जाने कहाँ से कहाँ आ गया !!!

इस राकिंग चेयर पर बैठकर
अच्छे बुरे की याद कर लेता हूँ
कुछ और नहीं तो
यादों के सहारे जी लेता हूँ !!!

//सुरेन्द्रपालसिंह ©2014//



एपीसोड़ 31

अपनी गांव वाली हवेली:

"तुम चाहे शहर जाकर जितने भी बड़े आदमी बन जाना, चाहे जितना पैसा कमाना, चाहे जितना बड़ा मकान बना लेना लेकिन हमें कभी भी न भूल जाना", यह बात एक बार गांव की यात्रा पर मुझे किसी और ने नहीं बल्कि अपनी गांव की हवेली की एक ख़स्ता हालात टूटती हुई दीवार की ईंट ने कही। बस उस दिन से दिल में एक बेचैनी सी थी। दो एक बार जब फिर बीच में गांव आना जाना हुआ। ....और उसके बाद जब - जब मैं हवेली की ओर गया उसकी ज़र्ज़र होती हुई हालात पर रोना आया। बार - बार हवेली की उस ईंट की कही हुई बात याद हो आती थी कि 'तुम चाहे शहर जाकर जितने भी बड़े आदमी बन जाना, चाहे जितना पैसा कमाना, चाहे जितना बड़ा मकान बना लेना लेकिन कभी भी हमें न भूल जाना'। 
जब एक बार मन पक्का किया कि चलो हवेली को कुछ ठीक ठाक करा दिया जाए तो हमेशा यही पाया कि ठीक ठाक कराने का बजट इतना ज्यादा हो जाता था, जो सही कहूँ आजकल की बढ़ती हुई महंगाई के हालात में इस बात का इज़ाज़त नहीं देती थी कि हवेली के रख रखाव के काम को हाथ में लिया जाय। 
जब यह हवेली पूर्वजों ने बनाई होगी उस वक़्त के ज़माने में जमींदारी से इतनी आय होती रही होगी कि इसका निर्माण हुआ और कई पीढ़ियों तक पूर्वजों ने यहां रह कर मौज की। जब संसाधनों की कमी होती गई और परिवार बड़े होते गए खेती पाती कमाई का ज़रिया नहीं रहीं तो लोगों ने शहर का रुख किया। नौकरी या व्यापार किया और देखते - देखते उन्हीं शहरों के बाशिंदे हो कर रह गए। 
अब जब कभी गांव आना होता भी है तो बस हवेली पर नज़र डालने भर के लिए। मन कसमसाता है लेकिन कुछ किया भी नहीं जा सकता। जब कभी भाइयों से बातचीत भी हुई कि पूरी हवेली न सही उसका कुछ हिस्सा ही सही करा लिया जाय तो सभी ने एक मत से कहा, "कोई ज़रूरत नहीं है भाई साहब। हम लोगों में से कौन यहां रहने आने वाला है? न तो यहां कोई नौकर चाकर मिलता है और न हीं बिजली की कोई ठीक ठाक व्यवस्था है। अब तो कस्बे में अच्छे होटल खुल गए हैं जब कभी आना हो तो वहां रुकिये, काम निपटाइये और फिर चले जाइये। न साफ सफ़ाई का चक्कर और न चौका बासन सम्हालने का चक्कर"।
मेरा मन फिर भी नहीं माना और उसके बाद अपनी दूसरी हवेली जिसका निर्माण 1878 हमारे पूज्य परदादा श्री ने बनबाई थी।उसके कुछ हिस्से ठीक ठाक करा ही लिए। एक बार विचार क्या बना नीचे बैठक, हॉल से लेकर से उपरी हिस्से के आँगन तक का कुछ हिस्सा रिपेयर ही नहीं कराया बल्कि 2 KW सोलर प्लांट, पम्प वग़ैरह सब लगवाया। कुछ साल तक आना जाना बना रहा। 
बस उस वक़्त ये ध्यान नहीं दिया कि इन पुरानी हवेलियों के जीने जो होते हैं उनको इस्तेमाल करने की ताक़त बढ़ती उम्र के साथ ख़त्म होती जाती है चूँकि हर सीढ़ी की ऊँचाई कम से कम 9" से अधिक ही मिस्त्री लोग बनाया करते थे। दूसरा, सब के सब जीने सीधे ऊपर की मंजिल तक के होते थे। उन दिनों में एक मंज़िल और दूसरी मंजिल की ऊँचाई भी कम से कम 15'/12' हुआ करती थी। अब जाते हैं तो भाइयों की कही बात याद आती है तो दिल मसोस कर रह जाता है।
यह कहानी हमारे जैसों की अकेली की नहीं बल्कि कई लोगों की है जिनका थोड़ा बहुत संबंध गांव देहात से बना हुआ है। लोगों को अपनों के दर्द का एहसास नहीं होता तो अब हवेली की ईंट का दर्द भला कौन सुनेगा?

@सुरेन्द्रपालसिंह2020


एपिसोड 32

अपने रायबरेली प्रवास के उन दिनों की दो घटनाएं भुलाए भी नहीं भूलतीं हैं। दोनों दुर्घटनाओं में हमने अपने मित्रों को खो दिया।
एक दुर्घटना में श्री छवि नाथ पांडेय जी को दूसरा वार्ष्णेय बंधुओ को। जिस दुर्घटना में श्री छवि नाथ पांडेय जी की मृत्यु हुई वह हमारे लिए अत्यंत दुःखद इसलिए थी क्योंकि उस दिन सुबह सुबह वह हमारे घर आये और प्रेमवत पूछने लगे, "बाबू साहब बताइए कि हम आपके लिए क्या लाएं"
पांडेय जी हमें हमेशा 'बाबू साहब' ही कह कर पुकारते थे।
मैंने पांडेय जी से यही कहा, "न तो मेरे लिये न किसी और के लिए कुछ भी लेकर नहीं आइयेगा। आपको अवसर मिला है विदेश जाने का तो आप ख़ूब घूमियेगा। जो पसंद आये वह खाइएगा। चलते चलते चलाते आपको कुछ अच्छा लगे तो मिसेज़ पांडेय जी के लिए और अपने बच्चों के लिए कुछ लेकर आइयेगा। हम तो बहुत बार जा चुके हैं। हमें कुछ नहीं चाहिए"
उन्होंने मेरी एक न सुनी और कहने लगे, "बाबू साहब ऐसा तो हो ही नहीं सकता। आपने हमारी बहुत मदद की है आपके लिए तो हम कुछ न कुछ अवश्य लाएगें"
"जैसी आपकी मर्ज़ी, वैसे मुझे कुछ नहीं चाहिए", मैंने उनसे कहा।
दोपहर के बाद पांडेय जी और श्री वीरेंद्र सिंह, महाप्रबंधक महोदय स्टाफ़ कार से लखनऊ एयरपोर्ट के लिए निकल गए। एक घँटा भी नहीं गुज़रा होगा कि उनकी कार के एक्सीडेंट की खबर मिली और श्री एस के खन्ना साहब, अधिशाषी निदेशक ने मुझे आदेश दिया, "एस पी, आरपी पांडेय को भेज रहा हूँ तुम उसके साथ जाकर देखो कि उनको क्या मदद देनी है"
कुछ समय गंवाए बिना हम लोग लखनऊ की ओर कार से चल पड़े। रास्ते में लालपुर माइक्रोवेव स्टेशन के ठीक सामने उनकी गाड़ी का एक्सीडेंट हुआ था। वहां पहुंच कर लोगों से जानकारी हासिल की तो पता लगा कि ड्राइवर समेत दोनों साहब लोगों को बहुत चोट लगी थी इसलिए उन्हें तुरंत एक बस द्वारा मेडिकल कॉलेज लखनऊ भेज दिया है। मेडिकल कॉलेज पहुंच कर देखा तो वीरेंद्र सिंह साहब को सबसे अधिक चोट लगी थी। पांडेय जी को भी चोट लगी थी लेकिन ड्राइवर को कुछ अधिक नहीं। तीनों लोग मेडिकल कॉलेज के फ़र्श पर पड़े हुए थे क्योंकि इमरजेंसी में बेड खाली नहीं थे। तब अहसास हुआ था कि क्या राजा क्या रंक, प्रभु के दरबार में सब एक समान होते हैं। 
किसी तरह इमरजेंसी में जो उपचार संभव उसका इंतज़ाम किया। उसके बाद हम अलीगंज वीरेंद्र सिंह साहब के घर गए वहां से उनके छोटे डॉक्टर भाई को लेकर मेडिकल कॉलेज वापस आए। तब जाकर सांस में सांस आई। वीरेंद्र सिंह साहब और ड्राइवर लाल सिंह तो कुछ दिनों में घर लौट आए लेकिन पांडेय जी वापस नहीं लौटे। उनके फेफड़ों में जो चोट आई थी उसमें इंफेक्शन हो गया जिससे वह उभर न पाए। कुछ लोगों ने यहां तक कहा कि उनकी मृत्यु का कारण उनके भक्त बने जो दिन भर उनके रूम में घुसे रहते थे और उनके ज़रिए से ही पांडेय जी में इंफेक्शन फैला।
कुछ इसी तरह की दुर्घटना वार्ष्णेय बंधुओं (महावीर एवम किशन, हम उन्हें प्यार से एमपी और केपी कह कर बुलाया करते थे) के साथ घटी। दोनों भाई हमसे जाने के पहले मिले और बताया था कि उनके मामा के घर में शादी है इसलिए वह अलीगढ़ जा रहे हैं। अलीगढ़ से महावीर की ससुराल से कार लेकर वे लोग एटा शादी में शरीक़ होने के लिए निकल जाएंगे। बदकिस्मती से जी टी रोड पर उनकी कार एक ट्रक को ओवरटेक करने के चक्कर में दूसरी ओर से आ रहे एक ट्रक के चपेट में आ गई और दोनों भाइयों की असामयिक मत्यु हो गई। किस्मत से दोनों की धर्मपत्नियाँ और छोटी बहू के दो जुड़वां बच्चे उनके साथ थे वे सभी बच गए। एमपीऔर केपी, दोनों ही वार्ष्णेय भाई हमारी बहुत इज़्ज़त करते थे और क़रीबी थे।
जब कभी सोचते हैं तो यही लगता है कि थोड़ी सी सावधानी बर्ती गई होती तो किसी का बालबांका भी न होता। कोई कर भी क्या सकता है प्रभु की जैसी मर्ज़ी। 
@सुरेन्द्रपालसिंह2020

"गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा..."

एपिसोड 33

इधर उधर कुछ वर्षों से मोबाइल का चलन बहुत बढ़ गया है। जिसके हाथ में देखो एक से बढ़ कर एक मोबाइल देखने को मिलते हैं। अब तो लगने लगा है कि मोबाइल बातचीत करने का ज़रिया नहीं है बल्कि सिंबल स्टेटस बन गया है।
एक दिन फैशन एक्सेसरीज के सेमिनार में एक महिला से मुलाकात क्या हुई कि मैं उनकी ओर खिंचता चला गया। बातचीत करने की इच्छा ने मुझे वह सवाल पूछने के लिए मज़बूर कर दिया जो एक मॉडर्न आउटलुक की महिला के दिल के बहुत क़रीब होते हैं। मैंने उस भद्र महिला से पूछ ही लिया, "वैल मैम आपका मोबाइल तो मोस्ट रीसेंट मॉडल है"
"कुछ दिन पहले ही लांच डे पर खरीदा था", बड़ी सादगी से उन्होंने कहा।
मुझे तो कुछ न कुछ मसाला चाहिए था बातचीत करने का इसलिए मैं पूछ बैठा, "मैम एक प्लीज एक चीज बताइए कि मोबाइल ख़रीदते वक़्त आजकल लोग किन किन बातों को ध्यान में रखते हैं"
पलट कर बड़े नख़रे के साथ उक्त महिला ने जवाब देते हुए कहा, "वैल, मुझे दूसरों का तो पता नहीं लेकिन मुझे अपने लिए मोबाइल लेटेस्ट चाहिए। जिसको देखते ही लोगों में उत्कंठा हो और वे बात करने के अवसर ढूंढने लगें"
"क्यों क्या वैसे लोग आपसे बात करने के लिए उत्सुक नहीं होते"
अपने मुंह को टेड़ा करके बडी अदा से उन्होंने कहा, "वैल आप समझ सकते हैं..."
"आप क्या कहना चाह रहीं हैं?"
"हर कोई आप जैसा थोड़े ही होता है"
महिला की यह बात सुनकर हमारा एक हाथ अपने सिर की ओर ऐसे उठा जैसे कि हम अपनी जवानी के दिनों में अपने घने बालों के बीच उंगलियां घुमाया करते थे। लेकिन फिर हक़ीक़त का एहसास करते हुए हमने धीरे से उनसे कहा, "आप का क्या कहना। आप तो आज भी गज़ब की खूबसूरत लगतीं हैं"
महिला ने तुरंत कहा, "क्या कहते हैं हम कॉफी पिएं"
"चलिये"
हम उनके साथ होटल की लॉबी में एक टेबल पर आमने सामने बैठ गए। उनकी नज़रें हमारे ऊपर तो कभी हमारे ड्रेस की ओर लगीं रहीं। असली बात तो तब समझ आई जब मैंने अपनी जेब से कार की चाभी निकाल कर टेबल पर यूँही रख दी। मेरी कार की चाभी को बड़े ध्यान से देखते हुए उन्होंने पूछा, "आपके पास कौनसी लिमोजिन है"
"हौंडा"
"ओह नो! इटज वेरी ऑर्डिनरी क्लास"
मैं उनके चेहरे की ओर देखता रह गया तब उन्होंने धीरे से कहा, "मोबाइल और कार दोनों ही आजकल स्टेटस सिंबल माने जाते हैं। मेरे पास शोफर ड्रिवेन ऑडी है"
......अब मेरे पास उनसे कहने के लिए कुछ बचा ही न था। महसूस हुआ कि ज़माना किस तेजी से बदल रहा है....

@सुरेन्द्रपालसिंह2020



आजकल बाज़ार में कीनू और संतरों की बहार आई हुई है। रेट भी ठीकठाक हैं। सही मायने में मैंने कीनू के बारे में दिल्ली आने के बाद ही जाना। हमारे छोटे से शहर शिकोहाबाद में जब मौसमी फलों का सीज़न होता तो संतरे, फालसे, शहतूत, आम, अमरूद वग़ैरह बहुतायत में मिलने लगते थे। हम जिस स्कूल में पढ़ते थे उसका नाम था नारायण इंटर कॉलेज। कॉलेज बिल्डिंग के ठीक पीछे अमरूद का बहुत बड़ा बाग़ होता था (अब पता नहीं)। सर्दियों के मौसम में अमरूद ख़ूब खाने को मिलते थे। उन बागों में तीन अमरूद के पेड़ ऐसे भी थे जिस पर काटने पर गुलाबी रंग के अमरूद पैदा होते थे। उनके स्वाद का क्या कहना। उनको खाकर ऐसा लगता था जैसे कि कोई मिठाई का टुकड़ा मुंह में डाल लिया हो।
आज दोपहर का खाना खाने के बाद जब मैं संतरे को छीलने लगा तो बचपन की कुछ यादें ताज़ा हो गईं। कहने को तो हमारे छोटे से शहर में चार डिग्री कॉलेज थे। भगवानी देवी महेश्वरी गर्ल्स डिग्री कॉलेज में वही लड़कियां पढ़ने जाया करतीं थीं जिन्हें बीए, एमए करना होता था। जिन लड़कियों को साइंस से पढ़ना होता था वह कोएडुकेशन प्रणाली के अंतर्गत उनको बाकी के तीन कॉलेजेज में ही जाना पड़ता था।
मैं इस मुआमले में अपने आप को लकी मानता हूं कि मेरी क्लास में हमेशा ही लड़कियां रहीं। दोपहर में हम सभी लड़के लड़कियों अपने अपने घर से लंचबॉक्स लेकर आते थे और क्लास रूम्स के बीच में पार्क में बैठकर ही लंच किया करते थे। उन लड़कियां में एक लड़की बहुत ही शोख़, तेज़ तर्रार थीं और छोटे बड़े मौकों पर लड़कों से छेड़छाड़ करती रहती थी। एक दिन की बात है मैं अपने दोस्तों के साथ लंच के बाद धूप का मज़ा ले रहे थे कि पीछे से वही लड़की आई और संतरों के छिलकों का रस हमारी आंखों में छिड़क दिया। संतरे के छिलके के रस की वजह से आंखों में जब जलन होने लगी तो मैंने चीखते हुए कहा, "तूने ये क्या किया लगता है कि आंखे फूट ही जाएंगी"। हंसते हुए उस लड़की ने कहा, "आंखे फूटेंगी नहीं आंखों की सफ़ाई हो जाएगी तब तुझे साफ दिखने लगेगा"।
बचपन की बातें जब याद आतीं हैं तब लगता है कि काश हम उन दिनों को दोबारा जी सकते। ऐसा निश्छल प्यार अब कहाँ देखने को मिलता है...
@सुरेन्द्रपालसिंह2020
#होली के दिन की शैतानियां
एक बार की बात है, बचपन में हम मित्रों ने जम के होली खेली। होली के खेलने के बाद हम लोग अपने क़स्बे से लगी हुई लोअर गंगा कैनाल में नहाने चले गए। हरेक ने अपने रंगों से रंगे हुए कपड़े उतारे और नहर में फेंक दिए। तौलिया और बदल कर पहनने वाले कपड़े पुल की सीढ़ियों पर रख दिये। तैरना हम सभी को आता था इसलिए नहर के पुल से कूद पड़े। मज़ा तो जब आया जब हमारे बीच ही के एक मित्र अरुण कुमार सिंह (बाबू) ने हम लोगों के बदल कर पहनने वाले सभी कपड़े नहर में फेंक दिए। उसके बाद सभी लोगो को नंग धड़ंग (मात्र अंडरवियर) स्थित में बाज़ार के बीच से होते हुए घर तक पहुंचना पड़ा।

उस दिन तो हम लोगों का जुलूस ही निकल गया। आज जब वह घटना याद आती है तो बचपन की शरारतें रोमांचित कर जाती हैं।






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