साधु
एस पी सिंह
समर्पण
माँ सा और बाबू सा की स्मृति में
अस्वीकारोक्ति
मैं एतदद्वारा घोषणा करता हूँ कि इस पुस्तक में
वर्णित व्यक्ति और घटनाएँ काल्पनिक हैं। वास्तविक जीवन से इनका कोई सरोकार नहीं
हैं। तथापि पुस्तक में उल्लिखित यदि किसी व्यक्ति या घटना का
वास्तविक जीवन से सम्बन्ध है, तो यह मात्र संयोग माना जाये।
सम्पादक की कलम से दो शब्द...
मुझे खुशवंत सिंह का जुमला (जो कि उनके लेखन का शीर्षक भी था) याद आ रहा है *ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर* ठीक इसी
तर्ज पर कहना चाहूंगा कि *साधु की
दोस्ती व दुश्मनी दोनों बुरी* साधुवाद
समाज की सांस्कृतिक धार्मिक धरोहर होता हैं इनका प्रशिक्षण अभ्यास बड़ा ही कठोर
होता है जिस कारण ये सामाज के सामान्य जीवन से हमेशा एक खास दूरी बनाकर ही चलते
हैं.
जो भगवाधारी अथवा श्वेतवस्त्रधारी येन् केन्
प्रकारेण् समाज को भीड़ स्वरूपा बना चेलों की कतार से चरणवन्दना के पिपासु होते
हैं बस यहीं से सारा खेल,
खेला रूप में रूपान्तरित हो जाता है...
ऐसे सैकड़ों उदाहरण आज हमारे सामने हैं कि धार्मिक पुराण शास्त्रों को कंठस्थ
कर कुछ वाकपटुऔं ने लाखों लोगों को भ्रमित किया तथा भगवान बन बैठे।
बस यहीं से हमारी सनातनी विरासत *साधु समाज* की छवि को इन धनपिपाशुओं तथा इनके अंधभक्तों/भक्तिनों ने पूरी तरह से शक, शंका व अपराध के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया...
वह समय 1977-1978 का था मुझे अपने मामा जी के साथ एक श्वेतवस्त्रधारी बाबा/भगवान/संत/राजनीतिक/मन्त्री के गुरू पर्व व बाद में उनकी शादी
में जाने का अवसर प्राप्त हुआ...
तीन दिन गुरूपर्व चला हर रोज शाम को प्रवचन होते जिनका अन्त इस जुमले से होता "गुरू के चरणों में आओ, गुरू ही तुम्हें ज्ञान करायेगें", "हरि ॐ तत्सत" प्रतिदिन यह जुमला ज्ञानवान मूर्ख भीड़ के दिमाग में ठूंसा
जाता। इसके बाद अपने - अपने ग्रुप के साथ ( ग्रुप लीडर बाबा पुरूष व महिला जो कि गेरूवें
वस्त्र में ही रहेगें व शादी हरगिज नहीं करेगें ) हो लेते तथा बाकि बचा माईन्डवास करते व तरकीब बताते कि सुबह
गुरूपूजा पॉव पखारना व धन देना सब कैसे करना है जिससे गुरू महाराज की कृपा दृष्टि
तुम पर बनी रहेगी।
यह सब आडम्बर मैंनें अपनी 17-18 वर्ष की आयु में देखे व समझे। यह वो साधु हैं
जिन्होने वास्तविक साधुता को पूरी तरह से केवल ढक ही नहीं लिया अपितु हमारी यादों
से वास्तविक बाबाओं के स्वरूप को ही खंड-खंड कर मिटा डाला...
*बच्चा मेरे पास आओ, मैं तुम्हें ज्ञान दूंगा*
'हरि ॐ तत्सत्'
सब कुछ भागा चला जा रहा था, मैं 1981
से 1984
तक का लहूलुहान पंजाब को छोड़ पंजाब
टैक्ट्रर्स लिमिटेड़ पंजाब से रिफ्यूजी की हैसियत से आई टी आई लिमिटेड मनकापुर 1984 के
उत्तरार्ध में ज्वाईन कर लिया कि 30 नवम्बर को वही हुआ जिसको यदा कदा उड़ते - उड़ते सुना करते थे "इंदिरा" जी की सुरक्षा गार्डों द्वारा हत्या...
अभी तक मैं मानसिक रूप से यह जानने की स्थिती में नहीं था कि *राम की नगरी अयोध्या* का क्या बवाल है, वैसे भी 1700सौ सालों तक आक्रान्ताओं से लड़ते - लड़ते हमारा खून जो बवाली हो चुका था वह कुछ
शान्ति की तलाश में था...
इसी कशमकश में मैं यहॉ लोगों को अवधी व मिक्स भोजपुरी में बातें करता देखता जो
मुझे समझ नहीं आती थी. एक दिन चर्चा राम मन्दिर की चली तो मेरी भी उत्सुक्ता जगी तथा कान लगा सुनने व
समझने का प्रयास करने लगा, अन्तत: माह दिसम्बर को मैं एक दिन अयोध्या जा पंहुचा...
कोयला चलित रेलगाड़ी रोज मनकापुर से कटरा व
कटरा से मनकापुर तक सुबह से शाम रामभक्तों को
ढोया करती व मैं देखा करता सो ₹2 का टिकट ले राम का नाम, हो गया छुक...छुक...छुक...छुक...पींपींपीं पर सवार।
कटरा से लोकल सवारी ले पंहुचा सरयु जी के तट पर... ठन्ड़ी बहुत थी शीतल बयार बह रही थी...मुंहू व हाथ-पॉव धोये तथा चल पड़ा राम जी के दर्शनों को...
चलते - चलते पंहुचा हनुमान गढ़ी... क्या भव्यता थी कि सीढ़ी की पहली पैड़ी पर
क्या चढ़ा कि खड़ा का खड़ा ही रह गया...व निहारता रहा वहॉ की आलौकिकता को...
कुछ समय बाद होश हुआ व चल पड़ा जगत प्रिय हनुमान जी के दर्शनों को, मन में उतावलापन अपने चरम पर था...
अन्दर के आलौकिक दृश्य को देख मन बहुत ही हर्षित हुआ...वैसी शान्ति कभी महसूस नहीं की कभी जो हनुमान गढ़ी में मिली, पुजारी जी से प्रसाद ले वापस चल पड़ा जगत के आराध्य पुरूषोत्तम श्री राम के
दर्शनार्थ...
जब वहॉ पंहुचा तो देखा की बाहर रेलिंग लगी है तथा चबुतरे पर त्रिपुन्ड लगाये
कुछ श्रृद्धालू भजन कीर्तन कर रहे हैं...
मनुष्य, यदि बेकाबू जिद्दी गुस्सा करके अपने घर, गॉव,
माता,
पिता,
भाई,
बहन का त्याग ना करे तो कभी भी अपनो व अपनी
मातृभूमि के प्रेम को नहीं महसूस कर सकता...
(यह मेरा भी स्वयं का अनुभव रहा है जिन्दगी का...)
यही सास्वत सत्य है, बहुत ही भावनात्मक लिखा गया पूरा प्रकरण, पढ़ते - पढ़ते कौरों में कुछ गीलापन सा महसूस हुआ...
भाभी का मॉ स्वरूप, वह भी तब,
जब भईया नहीं रहे... अपने चरम को छूआ किरदार ने...
जब मैं सम्पादन कर रहा था तब यह सब भाव ना जाने कहॉ गायब थे, तब तो बस अवधी संवारने का ही लक्ष्य था सामने, जहॉ साथ में थे मदद के लिए मेरे मित्र
ज्योतिषाचार्य प्रकांड पंडित अयोध्यावासी आदरणीय विनोद कुमार दुबे जी...
लेखनी भी गुल खिला सकती है, महका सकती है दिलों को, यह सन्देश साफ मिला,
जब भौजी को देवर के पुत्रवत प्यार में उलझ
सेवा करते देखा...
बाबा का भौजाई को साथ ले जाने का आग्रह करना हमारे भारतीय समाज की वो थाती है
जिसको आज की पीढ़ी भुलाती चली जा रही है, तथा एकल परिवार की मुसीबत को सिर पर चढ़ाती
जा रही है...
लेखक यहॉ समाज को यह बताने में, सन्देश देने में सफल रहा कि परिवार में ही
प्रेम की पराकाष्ठा को पाया जा सकता है...
आज पैंतीस साल हो गये जब मैं प्रथम बार अयोध्या जी गया था, यूं तो जब भी कोई रिस्तेदार मॉ, भाई,
भाभी,
बहन,
साढू,
साली,
मामा,
दोस्त आदि आते तब मैं उनको लेकर पावन नगरी
अयोध्या अवश्य ही जाता... तथा जितनी भी दुखद घटनाएं 1984 के बाद
अयोध्या जी में हुई उनमें कोई ना कोई किरदार हमारा भी रहा...
मानवी : इस चरित्र
में कथानक की कोई आलौकिकता लेखक की कलम में मचलते हुए साफ दिखाई पड़ रही है। मानवी
की रूधिर वाहिकाओं में वही स्पन्दन मुझे आज दिख रहा है जो कि पावन नगरी अयोध्या जी
को लेकर आम भारतीय जनमानस में व्याप्त है...
मानवी की उत्सुकता आज के नौजवानों के लिए निश्चित ही एक प्रेरण स्रोत के रूप
में लेखक की कलम से उभर कर आई।
यहॉ बड़ी बात है समाज की रूढ़ियों को तोड़ता पिता का बेटी पर प्यार व अटूट
भरोसा ...
आम घर परिवारों में तो यह आज भी कतई सम्भव ही नहीं...
यह हमारे दूषित सोच के समाज पर एक तमाचे की तरह है...
लेखक की गजब की लेखनी सोच को लेकर मैं अभिभूत ही नहीं पुलकित व हर्षित भी हूं
कि किस झंझावत भरे हालात में भी नौजवानों व समाज के बीच अपनी आवाज पंहुचानें में
सफल रहे...
सकारात्मक सोच मन में मिठास भर ही देती है,
कहावत भी है कि *मन में हो
मिठास तो मीठी लगे घास*।
मानवी पुलकित थी इसके कारण साफ थे, मानवी भारतीय भावों से ओतप्रोत पाश्चात्य
जीवन शैली को नकारती हुई अपनी थाती से मिलन को आतुर थी,
सारे सवाल जहन में मचल - मचल कर लगा जैसे डिस्को कर रहे हों...
इन्हीं भावों से पूर्ण मानवी जैसे किसी स्वप्न में खोई पावन नगरी अयोध्या में
प्रवेश कर जाती है तथा अयोध्या की भव्यता देख हर्षित होती सुखद एहसास से कब सीता
राम मन्दिर पंहुच गयी जान ही नहीं पाई...
यहॉ पावन नगरी अयोध्या में राम ना हिन्दु के ना मुसलमान के यहॉ तो राम सबके
हैं, क्या गजब का संयोजन व सामंजस्य दिखता है...
ड्राईवर सब जानता है क्योंकि वह बराबर आता जाता रहता है सवारियों को लेकर, वह मुस्लिम होकर भी अपने प्रिय राम की ही
गाथाओं का संवाहक बना है।
मानवी, एक किरदार जो साफ सन्देश देने में सफल रही कि
हमारी संस्कृति ही हमें प्रेम की परिभाषा सीखाती है जो हमें बान्धकर रखती है...
लेखनी यहॉ सभी की रूचि का ध्यान रख न्याय करने में सफल रही...
लेखनी की आलोचना करना सम्पादक के लिये कितना कठिन होता है यह तब जाना जब
एपीसोड़ 17 से 18 होता हुआ 19 वे पर
पंहुचा. यहॉ लेखक व सम्पादक लगभग आमने सामने थे तथा मुद्दा था राम मन्दिर...
पूरा धारावाहिक अपनी रफ्तार को बनाये रहा कई बार लगा कि ना जाने कहीं कुछ
अनर्थ तो होने वाला नहीं है मगर जिस प्रकार से नवीन व मानवी ने आज की युवा पीढ़ी
को सन्देश दिया वह अनुकरणीय ही नहीं बल्कि आँखें खोलने वाला है कि माता पिता व
समाज का सम्मान करने वालों को किस प्रकार सर्वसमाज का साथ ही नहीं अपितु प्रेम भी
मिलता है...
लेखक ने बड़े साहस से काम लिया व जहॉ आज आधुनिकता की अन्धी दौड़ हो रही है
वहीं मुन्शी प्रेम चन्द की परम्परा को जीने की राह पकड़ी तथा वैल एजूकेटेड़ मानवी
व नवीन ने पुरखों की विरासत का दामन थाम लिया तथा ग्रामीण भारत के विकास के सपने
को ग्रामीणों के बीच साकार करने हेतु निकल पड़े बिलकुल सीमा पर तैनात सैनिकों की
तरह, आशा है एक नये भारत के निर्माण की कोई जलधार
यहॉ से जरूर निकलेगी।
समय की रफ्तार का तकाजा है कि लेखक केवल कहानी में ही नहीं असल में भी कुछ
कठिन व हटकर निर्णय ले तथा पुस्तक में कहानी का समायोजन चित्रों के साथ करें ताकि
पाठक, पुस्तक को केवल पढ़े ही नही बल्कि चरित्र में
खो जाये, भूल जाये सुध-बुध. चित्र से दिलों में स्मृति बनेगी जो विषय
वस्तु के सन्देश की अमिट छाप पाठक के अन्तर्मन पर अंकित करने में सहायक होगें, जहॉ अपनापन होगा जुड़ाव व लगाव पनपेगा जो सोचने पर मजबूर करेगा कि "चलो लौट चलें गॉव की ओर"।
पूरी रफ्तार को लेखक की पकड़ना सम्पादक के लिए कदापि सम्भव ही नहीं था एपीसोड़
23 के बाद लगा
कि लेखक ने ठान लिया था अब थ्रोटल फुल खींचना ही है तथा सम्पादक ने साफ महसूस किया
कि जैसे अब कोई भीमकाय बोईंग विमान अपनी पूरी गति से टेकऑफ के लिये रनवे पर दौड़
चला है...
कि अचानक महंत बाबा गुलाब दास के गम्भीर बीमार होने का समाचार प्राप्त होता है, मानवी व नवीन का कर्तव्य यहॉ संस्कारों को
खींच कर पूरी ऊंचाई पर ले जाता है जब वे सब छोड़छाड़ कर अयोध्या जी के लिये निकल
पड़ते हैं तथा मानवी बाबा से अनुनयविनय करती है,
बाबा तो अन्तर्यामी हो चले थे। जानते थे कि
बस अब ओर नहीं, बस जन्मभूमि की ललक मन में उभरती है तब साफ
महसूस होता है कि "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। यही तो है मातृभूमि का आकर्षण जो जीव के
रोम - रोम में रहता व्याप्त है। यही है प्रेम की पराकाष्ठा है।
यहाँ दो पीढ़ी की सोच व समझ को जो आलिंगनबद्ध किया है यह अभी तक के लेखन में
शायद ही कहीं मिले...
"पुरानी विरासत का आधुनिक स्वरूप" ग्रामीण जीवन के शान्त व शानदार आयाम, यह लेखक की सोच व समझ को व्यापकता के आयाम के उच्चशिखर पर ले जाकर खड़ा करने
में सफल रहा...
शुभकामनाओं के साथ,
सम्पादक
सुरेन्द्र पाल राणा
सुरेन्द्र पाल राणा
गाजियाबाद
+ 91 7007317909
+ 91 7007317909
साधु/बाबा/सन्यासी
कल हमने यह पोस्ट डाली यह जानने के लिए कि हमारे मित्र
क्या कहते हैं, “साधू बनकर गेरुआ
वस्त्र पहनने की सही उम्र????”
मुझे कुछ मित्रों के उत्तर बहुत पसंद आये
1 हीरा सिंह कुँवर, “श्रीमान सादर नमस्कार, आप भी बडे खतरनाक प्रश्न पूछ
लेते हैं। जय श्री राम “
हमारा उत्तर, “खतरनाक प्रश्न पूछने से ही भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ
और मोक्ष की प्राप्ति हुई। सहमत या असहमत”
2 सुरेंद्र पाल राणा, “प्रत्येक कार्य "ले राम का नाम" बोल कर शुरू करो, कपड़े चाहे जिस रंग के हों...”
वैसे आप एक क्रीम रंग साऊथइंडियन लुंगी व गेरूवीं
साऊथइंडियन हाफ बाजू शर्ट ले सकते हो कभी - कभी पहनने को !!!
हमारा उत्तर, “राम लला मंदिर के महंत की पदवी मिल जाये तो मुआमला बुरा नहीं
रहेगा”
3 सुदर्शन यादव, “जिंदगी के किसी भी उम्र में जब यह महसूस होने कि अब कहीं कोई स्कोप नहीं
है तो फिर गेरूवा”
हमारा उत्तर #########
4 जय चक्रवर्ती, “जब मौका मिले। अगर किसी मंदिर - वंदिर की संपत्ति अथवा और कोई फायदा मिलने
वाला हो तो तुरंत गेरुआ वस्त्र धारण कर लेना चाहिए।
हमारा उत्तर #########
5 सतीश पटेल, “ये
तो लौ लगने की बात है सर...जिसे लग गई वो साधु हो गया और उम्र का कोई लेना-देना
नहीं उससे.... गेरुआ तो औरों को बताने-दिखाने को पहनते हैं लोग...”
हमारा उत्तर #########
6 संजय बेदी, “जिस
समय ज़रूरत हो साधू बन जाना चाहिए”
हमारा उत्तर #########
7 अमरेंद्र मिश्र, “जन्मजात या जब सत्ता मिल जाए”
हमारा उत्तर #########
8 बी एन पांडेय, “ये गेरुवा आज कल जरूरी नहीं की साधु/संत महात्मा लोग ही पहन रहे है इसके
अंदर बहुत सारे ...ढोंगी..धूर्त..बेईमान..लुटेरे..और छद्म बेष में अतांकबादियों का
समूह घुस गया हैअच्छा हो इनसे दूरी बना कर ही रहा जाय
जब तक पुराने परिचित लोग ना होनए पर विश्वाश करना
खतरनाक हो सकता है, जय श्री राम”
हमारा उत्तर, “जय हो महाप्रभु महोदय”
9 शिव प्रताप पांडेय, “क्या विचार बना रहे हैं क्या? सादर नमन”
हमारा उत्तर, “कुछ नहीं पाण्डेय जी कोई कहानी की तलाश में हूँ”
10 अशोक कुमार, “मन
ना रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा”
हमारा उत्तर, “भाई हम तो एक नए कथानक का प्लॉट ढूंढ रहे हैं। गेरुआ वेरुआ से
हमें कोई लेना देना नहीं। हम ठहरे कबाबी सबाबी गेरुआ वस्त्र में फिट भी नहीं आएंगे”
11 परमानंद मिश्रा, “उम्र का कोई बंधन नहीं आप जब से शुरू हो जाओ,भक्तों
की कोई कमी नहीं है,जितनी मेहनत इंजीनियरिंग पढ़ने में लगती
उससे कम मेहनत में अच्छी कमाई”
हमारा उत्तर #########
...और भी कई बहुत दिलचस्प उत्तर
प्राप्त हुए। यहां आज इसे पोस्ट करने के पीछे केवल एक उद्देश्य कि हम कभी अपने
दूसरे मित्रों ने क्या विचार व्यक्त किये हैं उन पर भी नज़र डाल लिया करें तो कम से
कम यह तो पता लगेगा कि समाज क्या सोचता है अन्यथा हम अपनी धूनी लगाए रहते हैं
दूसरों के विचार नहीं जानना चाहते। एक बात और जब हम अधिकतर लोग यह महसूस करते हैं
कि बाबा, योगी, गेरुआ वस्त्रधारी सब के
सब भोगी और नौटंकी हैं इसके बाबजूद पाँव हम इन्ही के पकड़ते हैं
खैर हम लौटते हैं अपने वास्तविक मुद्दे पर। तलाश करते
करते आख़िर मुझे एक प्लॉट मिल ही गया। उसकी भूमिका मैंने जब सुरेन्द्र पाल राणा को
भेजी है जिस पर उनकी प्रतिक्रिया अभी तक मिली नहीं है।
प्रस्तावित कथानक का प्लॉट:
"बाबा गुलाब दास, फैज़ाबाद के रहने वाले थे। पूरब से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वह हमारे यहाँ
शिकोहाबाद एक बार क्या आये कि यहीं के ही बन कर रह गए। एक दिन रामायण पढ़ते पढ़ते न
जाने क्या उचंग चढ़ी कि सब कुछ छोड़छाड़ कर अयोध्या चले गए। जब कुछ वर्ष बाद लौटे तब
तक वह अयोध्या के एक जाने माने मंदिर के महंत बन गए थे...."
इतना बहुत है भूमिका के लिए। बाकी स्टोरीलाइन और
पात्र अभी सोचे नहीं हैं। देखते हैं आगे क्या होता है...
दोस्तो के लिए एक शेर
सब यार फिर ज़िन्दगी की मझधार में मिले,
जो आते थे साईकिल पे, वो सारे कार में मिले,
वह बचपन, फिर खिल उठा जब
बोर्नवीटा पीने वाले भी, सारे बार में मिले....
एस पी सिंह
15/11/2019
अपनी बात: भाई एस पी राणा के दो शब्द संबल
देते हुए साथ ही इस विचार को और मजबूत करते हुए कि विषयवस्तु ठीक है इस पर कुछ
लिखा जा सकता है। बस एक दुविधा बनी हुई है एक साधू की कहानी कहते हुए युवा हृदयों
के प्रेम की बात को कैसे पिरोया जाए।
देखते हैं कुछ न कुछ उत्तर तो निकलेगा ही....
लेखन, सुधी पाठकों से मेरा विमर्श:
लेखक द्वारा किसी भी कथानक का लेखन विचारना बिलकुल
वैसा ही है जैसे बरसात का मौसम बनने से पहले हवाओं, तेज हवाओं, अन्धड़-तूफान
व काले बादलों के घूंघट से हल्की चमक से चलते चलते विकरालता से बिजली की
तड़तड़ाहड़ भयंकर गर्जना के साथ होना व पीछे से फिर ठन्डी ठन्डी फुहार के साथ भूरे
मेघों का जल बरसाना...
यह लेखन का शुरू व है अन्त...
लेखक की इस मनोदशा का अहसास है मुझे कि वह जब बरस कर
थक जाता है तब धूंप खिलती है बिलकुल वैसे ही खूसट बुढ्ढे की अन्तिम कड़ी लिखते
लिखते लेखक ने अपनी बात: में अपने थके होने व मन में शून्य हो जाने का प्रकटीकरण
किया था जिससे टिप्पणी में कुछ पाठकों ने दुख भी जताया था, जो कि स्वाभाविक प्रतिक्रिया ही थी,
मगर ज्यों ही अगली पोस्ट गेरूंये वस्त्रधारण की आई एक
बहुप्रतिभाशाली युवती के साथ तो मेरे चक्षु खुल गये व साफ सन्देश पढ़ा लेखक के मन
का कि कलम मचल रही है।
तथा आज की इस पोस्ट ने सारी लेखनीयव्यथा स्पष्ट कर दी
व कुछ भी बाकी नहीं रहा...
यह लेखन का शुरू व है अन्त...
लेखक का विषय तैयार
लेखक की वस्तु तैयार
लेखक पृष्ठभूमि कमोबेश तैयार
बस धमाका होना है कि पात्र कौन?
हॉलाकि यह सब होगा धर्मयुद्ध पर आधारित जहाँ तमाम
सामाजिक मानकों का निर्माण होगा तथा तमाम रूढ़ियों की बेडियां टूटती पायेगें
पाठक...
हमारे लेखक की कुछ विशेषताएं भी हैं कि लेखक ने अपनी
आत्मा को कभी एक सहिष्णु चरित्र में प्रवेश कराया था जहॉ प्रेम का आधिक्य रहा व वह
आज तक मौजूद है...
यही पाठको की रूचि को नीरस नहीं होने देने का मुख्य
तत्व है।
मेरा विश्वास है कि पर्याप्त गर्मी के बाद समुद्र
आपनी छाती से बरसने वाले बादलों का निर्माण जरूर कर चुका होगा !
जो कभी भी कहीं भी फट पड़ेगें या रिमझिम बरसेगें यही
देखने वाली बात होगी...
पुनः नमन के साथ
आप सबका अनुज
एस पी राणा
प्रस्तावना:
साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ 'सज्जन व्यक्ति' से है लघुसिद्धान्तकौमुदी में कहा
गया है 'साध्नोति परकार्यमिति साधुः' (जो
दूसरे का कार्य कर देता है, वह साधु है)। वर्तमान समय में
साधु की परिभाषा में कुछ बदलाव देखने को मिलता है। अब साधु उनको कहते हैं जो
सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है। साधु (सन्यासी) का मूल उद्देश्य
समाज का पथप्रदर्शन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त करना है। साधु
सन्यासीगण साधना, तपस्या करते हुए वेदोक्त ज्ञान जगत को देते
है और अपने जीवन को त्याग और वैराग्य से जीते हुए ईश्वरीय भक्ति में विलीन हो जाते
हैं।
उपरोक्त सिद्धान्त की बात है, असल जिंदगी में होता क्या है वह
बिल्कुल अलग बात है।
पता नहीं क्यों अचानक ही मन किया कि अबकी बार कुछ लीक
से हट कर लिखूँ। यह निर्णय हो सकता है कि राष्ट्रीय चेतना को उद्धरत करता हुआ
माननीय सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय 'राम लला विराजमान' के हक़ में करोड़ों
देशवासियों की श्रद्धा को देखते हुए लिया गया हो अथवा 'आस्था'
को महत्व प्रदान करते हुए प्रभु की महानता को उनका उचित स्थान देने
की एक सटीक कोशिश हो। कुछ लोगों की सोच यह भी है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने
अपना निर्णय ज़मीन के मालिकाना हक के सिद्धान्त पर किसी एक पक्षकार के हक़ में नहीं
दिया जो भारतीय संविधान संगत प्रतीत नहीं होता है। बहरहाल हाल फिलहाल के लिए तो
अभी यही आदेश मान्य है कि विवादित ज़मीन जिस पर कभी एक ढांचा था वह अब राम लाल
विराजमान की हो गई।
उपरोक्त विचार को केंद्र में रखकर इस कथानक का ताना
बाना बुना गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है पूर्व की भांति मुझे आप सभी मित्रों का
प्यार मिलेगा और अंतत: आप सभी सुधी पाठकों के प्यार से मैं अपने प्रयासों में सफल
हो सकूँगा।
धन्यवाद सहित,
एस पी सिंह,
20/11/2019
राम की नगरी अयोध्या
जब "साधु" कथानक लिखने
का मन किया तो याद आया कि हमने राम की नगरी अयोध्या का विस्तृत वर्णन किया था, अपनी सबसे पहली पुस्तक जो कि आंग्ल
भाषा में लिखी गई थी जिसका टाइटिल था "Indian Tiger Caged in Cupboard" जो
कि मुख्यतः एक फेंटेसी थी मनकापुर के राजघराने के कुँवर दुष्यंत और इंग्लैंड की
फ्लोरेंस के प्यार की कहानी पर आधारित। जिस - जिस ने यह उपन्यास पढ़ा उसने इसकी
हृदय से तारीफ़ की। इसलिए उसके बारे में कुछ भी कहना व्यर्थ ही होगा।
अबकी बार मैं उस अयोध्या के बारे में बात करूंगा
जिसको लेकर आजकल थाईलैंड के धार्मिक टूरिज्म को अचानक बढ़ावा दिया जा रहा है। वैसे
और भी कई कारण थाईलैंड जाने के हो सकते हैं लेकिन मैं आज उन कारणों की चर्चा नहीं
करूँगा। आज बस चर्चा होगी तो इस बात पर कि क्या रघुकुलवंश का कभी कोई ताल्लुक़
थाईलैंड के उस स्थान से रहा है जिसे वहां की भाषा में लोग "Ayutthya" कहते हैं। प्रचलित
कथानुसार थाईलैंड की "Ayutthya" क्या वास्तविक
अयोध्या थी और क्या प्रभु श्री राम का जन्म वहां हुआ था।
मुझे स्मरण हो रहा है कि हमारे एक मित्र श्री एस के
यादव ने फ़ेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी जिसमें यही दर्शाने की कोशिश की गई थी कि
वास्तव में रघुकुलवंश का ताल्लुक़ थाईलैंड की धरती से बहुत प्राचीन काल से है और
श्री राम की जन्मस्थली वहां की "Ayutthya" नगरी है। उस पोस्ट में एक नक्शा भी दिखाया गया
था जिसमें और भी कई ऐसे बिंदुओं की चर्चा थी जिससे लगे कि प्रभु श्री राम का जन्म
"Ayutthya" में ही हुआ था। मैं प्रयत्न करूँगा कि
मैं उस पोस्ट के कंटेंट को आपके समक्ष प्रस्तुत कर सकूँ। इसका बस एक कारण मेरे पास
है कि "अयुत्थया" एक अवधी संस्कृति से उपजा शब्द है, यह प्रमाणिकता के कितना करीब है पात्रों की अवधी वार्तालाप से यह जानकारी
अवश्य सामने आने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। मगर...
मैंने भरसक प्रयास किया कि जितनी अधिक जानकारी में
प्रभु श्री राम के बारे में ज्ञात कर सकूं जिससे इस बात का कोई ठोस सबूत मिल सके
कि थाईलैंड ही वास्तविक अयोध्या नगरी रही होगी पर कुछ ऐसा प्राप्त न हो सका। हाँ, इतना प्रमाण अवश्य मिला कि रामायण का
प्रभाव थाईलैंड के लोगों पर अवश्य रहा होगा। शायद इसी कारण वहां के राजा अपना नाम
"राम" रखते थे। यह क्रम प्रारंभ हुआ चकरी राजवंश के फ्रा फुट्ठायोत्फ़
चुलालोक ( Phra Phutthayotfa Chulalokब) जिन्होंने वहां 27
वर्ष तक शासन किया ( 1782-1809 ), जिन्हें
वहां के लोग राम प्रथम के नाम से पूजते थे। यह क्रम बराबर अभी तक चला आ रहा है और
अभी के राजा महा वजिरालोंगकोर ( King Maha Vajiralongkorब)
जो कि 2016 से राजगद्दी पर विराजमान हैं जिन्हें लोग
राम-दसवें के स्वरूप में अपने हृदयों में स्थान प्रदान करते हैं।
मुझे एक दृष्टांत और याद आ रहा है जिससे सरयू किनारे
बसी अयोध्या को पुनर्जीवित करने का श्रेय जाता है महाराजा विक्रमादित्य प्रथम को
जिन्होंने कलियुग में त्रेता युग की कहानियों के अनुरूप दोबारा अयोध्या को बनाया
और बसाया। राम की नगरी अयोध्या उस समय से ही भारतीय जनमानस के हृदय पर श्री राम की
अयोध्या बसी हुई है।
अयोध्या में जहां एक ओर मंदिरो की भीड़ है तो दूसरी ओर
स्थित है अयोध्या राजवंश का राजमहल। इस राजमहल में आज भी मिश्रा परिवार के लोग
रहते हैं और अयोध्या के लोग उन्हें प्यार से राजा साहब कह कर पुकारते हैं। एक
कहावत जो इस क्षेत्र में प्रचलित है कि अयोध्या राज्य की राजकुमारी ने 2000 वर्ष पूर्व काया राज्य ( जिसे
क़िम्बे शहर के नाम से जाना जाता है जो दक्षिणी कोरिया में स्थित है ) की यात्रा की
और अपनी यात्रा के दौरान वह वहां के शासनाध्यक्ष किम सुरो से प्रेम कर बैंठी और
बाद में किम सुरो के साथ ही राजकुमारी का विवाह हो गया। यहां यह भी कहना सर्वथा
उचित होगा कि जब 2017 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री
माननीय श्री योगी जी ने सर्वप्रथम दीपावली के अवसर सरयू के घाट पर पर दीपोस्ताव को
विशाल रूप देते हुए मनाया था तो उस अवसर पर भी दक्षिणी कोरिया की प्रथम महिला
अयोध्या पधारीं थीं।
टिकरी के घने जंगलों से अपनी राह तलाशते हुए मुझे याद
है कि हम लोग अम्बेसडर कार से कंकड़ी वाली सड़क पर चलते हुए मनकापुर पहुँचे थे। बाद
में हमने कई बार मनकापुर की यात्राएं मंगल भवन के कुँवर अनिल कुमार सिंह के साथ उस
समय पर कीं जब वहां कुछ भी नहीं था। था तो बस धूलधूसरित बाज़ार, भव्य राजमहल "मनकापुर कोट"
तथा मंगल भवन। मंगल भवन में मेरी पहली मुलाकात लल्लन साहब ( कुँवर देवेंद्र प्रताप
सिंह जी ) से और उनके ज्येष्ठ पुत्र कुँवर डॉक्टर विवेक कुमार सिंह से हुई थी।
लल्लन साहब उस समय उत्तर प्रदेश विधान परिषद के डिप्टी स्पीकर के सम्मानित पद आसीन
हुआ करते थे।
हमको अपनी वे तमाम यात्राएं याद आतीं हैं जब हमारे आई
टी आई लिमिटेड़ ( भारत सरकार का एक उपक्रम ) ईकाई रायबरेली प्रवास के दौरान
अयोध्या आना जाना होता रहता था। बाद में जब आईटीआई लिमिटेड़ की प्रथम इलेक्ट्रॉनिक
स्वचिंग यूनिट के लिए मनकापुर को चयनित किया गया तब उसके शुरूआती दौर में कई बार
अयोध्या से ही आना - जाना हुआ। जून,1982 में जब हम एक बार अपने अधिशाषी निर्देशक श्री योगेंद्र
नारायण तिवारी जी के साथ बुढ़वा मंगल के दिन मनकापुर जाते हुए अयोध्या सर्किट हाउस
में रुके थे और उसी यात्रा के दौरान राम लला के दर्शनार्थ पहुंचे थे तो वहां
मस्ज़िद का ढांचा बाक़ायदा था और बीच वाले गुम्बद के ठीक केंद्र में राम लला की
मूर्तियां रखीं हुईं थी तथा मस्ज़िद के बाहर एक चबूतरे पर भजन कीर्तन किया जा रहा
था। अनागत भविष्य में जब हमारा ट्रांसफर रायबरेली से मनकापुर हो गया तब बहुत बार
अयोध्या जाने का अवसर हमें प्राप्त हुआ। जब - जब अयोध्या जाना हुआ तो प्रचलित
किवदंतियों के अनुरूप हम सबसे पहले हनुमानगढ़ी जाते थे और बाद में कनक महल, चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के महल, सीता रसोई इत्यादि
मंदिरो में भी जाया करते थे। अयोध्या नगरी के मंदिरों की बात करें तो हमें हमेशा
से प्रिय रहा राजमहल का शिवालय। वहां भी हम अक़्सर जाकर अपनी श्रृद्धानुसार पूजा
अर्चना किया करते थे।
राम की नगरी अयोध्या हमारे नव नूतन कथानक
"साधु" की कर्मस्थली रहने वाली है तो इसकी चर्चा तो बीच बीच में आती ही
रहेगी। आज बस इतना ही।
एस पी सिंह
21/11/2019
पात्र परिचय 1
बाबा गुलाब दास। बाबा गुलाब दास राय पट्टी गांव, फैज़ाबाद जनपद, उत्तर
प्रदेश के रहने वाले थे। उनके पिता श्री राम सिंह अपने इलाके के जाने माने व्यक्ति
हुआ करते थे। गुलाब सिंह उनकी द्वितीय संतान थे। गुलाब सिंह की अपने बड़े भाई
देवेंद्र सिंह से कुछ कहा सुनी क्या हो गई बस गुलाब सिंह ने अपना गांव छोड़ दिया।
गुलाब सिंह पूर्वी उत्तर प्रदेश से चलते - चलाते, घूमते -
घुमाते हमारे यहां शिकोहाबाद - उत्तर प्रदेश क्या आये फिर तो हमारे यहां के ही
होकर रह गये। हमारे बाबू सा ने उन्हें पास ही की हिंद लैम्प्स लिमिटेड में नौकरी
दिलवा दी। अब गुलाब सिंह दिन में नौकरी करते और रात्रिकाल हमारी हवेली के अहाते
में ही रहते, बनाते-खाते, भजन गाते व
सो जाते। गुलाब सिंह नित-नियम अपने खाली समय में प्रभु श्री राम की पूजा प्रार्थना
करते। इस प्रकार से गुलाब सिंह को तुलसीदास रचित रामचरित मानस कंठस्थ हो गई थी।
हिंद लैम्प्स लिमिटेड में काम करते समय एक दिन ग्लास
फैक्ट्री इंचार्ज से कुछ कहा सुनी क्या हुई कि गुलाब सिंह का मन ही उखड़ गया और
हमारे बाबू सा के पास आकर बोले,
"ठाकुर सा अब हम यहां नहीं रहेंगे। प्रभु राम हमें अयोध्या
बुला रहे हैं। अब हम यहॉ नहीं रुकेंगे, अब आप हमें जाने
दीजिए"
हमारे बाबू सा ने गुलाब सिंह को बहुत समझाया-बुझाया
लेकिन एक बार गुलाब सिंह का मन क्या उचटा कि फिर उन्होंने किसी की नहीं सुनी। फिर
बोरिया-बिस्तर समेट गुलाब सिंह अयोध्या क्या पहुंचे तथा रामधुन में ऐसे समा गए कि
फिर वे गुलाब सिंह से हमेशा के लिये बाबा गुलाब दास ही हो गये और हो गये गेरुआं
वस्त्रधारी।
साधु का यह कथानक, बाबा गुलाब दास जो कि बाद में चलकर सरयू घाट के निकट एक
प्राचीन श्री सीताराम मंदिर के महंत हो गए थे के आसपास ही घूमेगा।
बाबा गुलाब दास बीच-बीच में हमारे बाबू सा से मिलने
भी आया करते, बाबा गुलाब दास को
हमने भी बहुत करीब से देखा व जाना है। इसलिए वही इस कथानक के मुख्य पात्र बनकर
रहेंगे।
एस पी सिंह
22/11/2019
पात्र परिचय 2
प्रभु श्री राम के मंदिर के निर्माण का रास्ता एक बार
सुप्रीम कोर्ट ने साफ क्या किया कि अयोध्या आने वालों के लिए राम की नगरी ने जैसे
बाहें पसार दीं। अयोध्या में भीड़ इस क़दर बढ़ गई है कि वहां की गलियां अब छोटी पड़ने
लगीं हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर वैसे भी वहां बहुत कुछ न था। अब तो लोगों को
खाने पीने के होटलों की दिक्कतें होने लगीं हैं। बहरहाल जो भी हो आने वाले दिनों
में अयोध्या में टूरिस्म को लेकर अपार संभावनाएं अवश्य दिखने लगीं हैं। साधू-संतों
की बात क्या करनी उनकी दुकान चलनी ही नहीं दौड़ेगी। छोटे-मोटे व्यापारियों की बांछे
भी खिलने लगीं हैं। मेरा यह मानना है कि अयोध्या जैसे स्थानों का विकास होना
अत्यंत आवश्यक है नहीं तो आने दिनों वाले दिनों में वहां के लोग आखिर करेंगे क्या? खाएंगे क्या पियेंगे क्या?
विकास के साथ-साथ आता है समाज में झूठ, उच्चकेपन, कमीनेपन
का व्यवहार। भारत के किसी भी धार्मिक स्थान का आप भृमण कर लीजिए आप हर जगह पाएंगे
कि समाज के विकृत मष्तिष्क वाले वहां ख़ूब फल फूल रहे होते हैं। अयोध्या क्या इन
विकारों से बची रहेगी, यह एक बड़ा प्रश्न है? राम राज्य की कल्पना तो की जा सकती है लेकिन उसे हासिल करना बहुत मुश्किल
है ठीक वैसे ही जैसे कि राम के नाम पर वोट मांग लेना तो आसान है लेकिन जनता की
आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करना बेहद मुश्किल है। हमारे देश का यही दुर्भाग्य
रहा है। हमको इसी सीता राम और राधेश्याम की दुनियां में रहना है यहीं जीना है। यह
एक कटु सत्य है।
इस सत्य की खोज में बहुतेरे लोग इस कथानक के माध्यम
अपने देश के ही नहीं विदेशों से भी जुड़ेंगे। जैसे-जैसे यह कथानक आगे बढ़ेगा
वैसे-वैसे ही आपसे उनका परिचय होता जायेगा। ज्यों-ज्यों आप कथानक के पात्रों से
मिलते जायेगें कथानक का रोमांच सुधि पाठकों को उद्वेलित करता जायेगा।
फ़िलहाल के लिए बस अभी इतना ही कि अमेरिका से हाल ही
में पीएचडी हासिल करके भारत लौटी दिल्ली के करोलबाग के निवासी जगदीश प्रसाद माथुर
एवं मृणालिनी माथुर की बेटी मानवी इस कथानक की नायिका बनी रहेगी। मानवी जो कि इधर
कई वर्षों तक देश से बाहर रही भारत के बारे में अनिभिज्ञ है। लेकिन बाबरी मस्ज़िद
और राम लला मंदिर के ज़मीन के अधिकार के मामले में जिस प्रकार का निर्णय सुप्रीम
कोर्ट के द्वारा दिया गया उसने उसके अन्तर्मन को अवश्य झकझोरा है। मानवी एक बार
अयोध्या जाने का मन क्या बनाती है कि मृणालिनी उसकी अयोध्या यात्रा को लेकर कई
किस्म के पूर्वाग्रहों से परेशान है वहीं उसके पिता जगदीश प्रसाद माथुर अपनी बेटी
के मन की बात पढ़कर उसे रोकना नहीं चाहते हैं। मानवी अपनी अयोध्या की पहली यात्रा
में सरयू घाट पर प्राचीन सीताराम मंदिर जाती है और उसकी मुलाकात बाबा गुलाब दास से
मुलाक़ात से होती है। बाबा गुलाब दास से मिलने के बाद मानवी के जीवन में क्या-क्या
परिवर्तन होने को हैं उसकी जानकारी करेंगे इस कथानक के माध्यम से अत: मानवी हमारे
इस कथानक की नायिका बनी ही रहेगी,
अभी तक के लिए बस इतना ही।
एस पी सिंह
23/11/2019
अपनी बात :
कल से हम अपना नया धारावाहिक "साधु"
प्रारंभ कर रहे हैं। इस नए धारावाहिक में हम जहां कोई नई दुविधा पैदा नहीं करेंगे
किन्तु वहीं कुछ मुद्दे ऐसे अवश्य रहेंगे जो हमारे कुछ पाठकों को शायद पसंद न आएं।
ऐसे सभी पाठकों से हमारी करबद्ध प्रार्थना है कि धैर्यपूर्वक कथानक के साथ जुड़े
रहें जैसे कि आप सभी टीवी के आजकल प्रदर्शित होने वाले सीरियल के साथ जुड़े रहते
हैं तथा आप वह बातें सुनते और देखतें हैं जो हमारी संस्कृति और विरासत के बिल्कुल
विरुद्ध होतीं हैं। लेकिन अंततः उन कथानकों को देखने में एक दर्शक भरपूर मनोरंजन
प्राप्त करता है।
हमारे इस धारावाहिक में भी जहाँ एक तरफ पवन का वेग
होगा वहीं शांत मन के ठहराव की शीतलता भी होगी। साथ ही आकाश में छाये काले-काले
बादलों की गड़गड़ाहट तो होगी ही लेकिन, सन्नाटे को चीरती सूनी-सूनी गलियों और गलियारों की भी बातें
होंगी।
वैसे भी हम तो बिना पैसे का मनोरंजन प्रदान करते ही
रहते हैं बस एक आस लगी रहती है कि पाठक अपने विचार बीच-बीच मे रखेंगें जिससे हमें
अपने लेखन में सुधार करने का भी अवसर प्राप्त हो सकेगा। तो चलिये और इस धारावाहिक
जिसका नाम है "साधु" से जुड़िए ताकि आप सब सुधी पाठकों के विचारों का साथ
हमारी लेखनी को मिलता रहे।
हार्दिक धन्यवाद।
एस पी सिंह
24/11/2019
एपिसोड 1
कई वर्षों पहले अयोध्या आये हुए बाबा गुलाब दास अपने
कक्ष में आराम से आंखें बंद किये हुए अपने जीवन की यात्रा पर एक नज़र डाल रहे थे तब
उन्हें यकायक महसूस हुआ कि वह तो अयोध्या आने के बाद कभी अपने गांव गये ही नहीं।
उन्हें तो यह भी पता नहीं था कि उनके पिता राम सिंह अब इस दुनिया में है भी या
नहीं। उनके बड़े भाई देवेंद्र सिंह ठीक से हैं या नहीं। यही सब सोचकर उनके मन में
कई प्रश्न उठ रहे थे। बाबा गुलाब दास का जब गला सूखने लगा तो उन्होंने महंत कक्ष
में बनी रसोईघर में काम कर रही अधेड़ उम्र की सेविका रमिया से पानी मांगते हुए कहा, "हे रमिया जल तो देना, हमारा गला बहुत सूख रहा है"
रमिया ने रेफ्रिजरेटर से एक बोतल से पानी एक ग्लास
में निकाला उसमें कुछ सदा पानी मिलाया। तथा वह बाबा गुलाब सिंह के पास आई और पूछा, "महाराज सब ठीक से तो है"
"सब ठीक है रमिया पता नहीं क्यों
आज चित्त स्थिर नहीं हो पा रहा है"
"कोई विशेष कारण महाराज"
"आज वह हो रहा है जो हमने चालीस -
पैंतालीस सालों में कभी महसूस नहीं किया। पता नहीं क्यों आज हमें अपने गांव की याद
आ रही है!!! पता नहीं हमारे कक्का अभी ज़िंदा हैं भी कि भगवान को प्यारे हो गए।
नहीं जानते कि हमारे भइय्या कैसे हैं। आज अपना परिवार अचानक से याद आ रहा है"
"तो महाराज जाइये घूम आइये। आपका
गांव तो पास में ही है"
"सोच तो रहे हैं"
"अगर आप बहुत सोचेंगे तो कहीं
आपकी तबियत न बिगड़ जाए"
बाबा गुलाब दास मुस्कुराते हुये बोले, "अभी हम इतने भी कमजोर नहीं कि
हमारी तबियत ही बिगड़ जाए"
"फिर भी महाराज..."
"अच्छा तुम कहती हो तो हम कल ही
अपने गांव जाएंगे", कहकर बाबा गुलाब दास ने रमिया का
मुँह बंद किया। अपने अंदर की बात तो वह ही बेहतर समझते थे इसलिए उठे व हाथ मुँह
धोया और मंदिर में आ प्रभु के सामने ध्यान मुद्रा में बैठ गये। कुछ देर तक आंख बंद
कर भगवान की प्रार्थना की और अपने मन की दुविधा को प्रभु से कहते हुए पूछा,
"हे प्रभु आपसे तो कुछ छुपा नहीं है आप तो सब जानते हैं अब आप
ही कोई राह दिखाइये"
जब मन अशांत हो तो प्रभु को अपनी दुविधा बताने से
प्रभु कुछ न कुछ राह निकालते ही हैं। प्रभु राम ने जिनकी पूजा पाठ बाबा गुलाब दास पूरी
श्रृद्धा से पिछले तीस साल से कर रहे थे अंत में जागे और बाबा गुलाब दास को आदेशित
किया कि वह अपने गांव जायें और अपने परिजनों से मिलकर आयें। प्रभु के आदेश पर बाबा
गुलाब दास अगले ही दिन गाड़ी में बैठ अपने गांव की ओर चल दिये। बाबा का गांव
फैज़ाबाद- जौनपुर राजमार्ग पर खजुराहट रियासत के पास पड़ता था। खजुराहट आते ही बाबा
गुलाब दास ने एक धूलभरी सड़क पर गाड़ी मोड़ने के लिए अपने ड्राइवर से कहा, "धीरे - धीरे चलना और किसी
राहगीर से पूछना कि क्या यही सड़क राय पट्टी गांव जाती है या नहीं"
"जी महाराज"
कुछ दूर आगे जाकर एक युवक साइकिल से आता दिखाई दिया
तो ड्राइवर ने उससे पूछा, "भइय्या क्या
राय पट्टी गांव जाने का यही रास्ता है"
"बस आप इसी सड़क से जाएं दो गांव
बीच में पड़ेंगे तीसरा गांव राय पट्टी ही है। किसके यहां जाना है?"
ड्राइवर ने युवक के प्रश्न का कोई उत्तर तो नहीं दिया
लेकिन उसका शुक्रिया अदा करते हुए, "धन्यवाद", कहा और आगे बढ़
लिया। उस युवक के बताए हुये रास्ते पर चलते हुये गाड़ी जब राय पट्टी गांव पहुंची तो
बाबा गुलाब दास ने ड्राइवर से कहा, "तुम रुको, हम यहां से पैदल ही जायेंगे"
अपने बचपन की यादों को ताजा करते हुए जब वह अपने घर के
घेर के सामने पहुंचे तो पुराने दिनों की एक - एक बात उनकी निगाहों में घूम गई।
जैसे ही बाबा गुलाब दास ने घेर के गेट को खोला और आगे बढ़े तो देखा एक महिला अपने
सिर पर पल्लू रखे हुए सामने आई और पूछा, "कवन हुवे"
बाबा गुलाब दास ने जब अपनी भाभी को सामने सूनी मांग
में देखा तो समझ गए कि भइय्या अब इस दुनिया में नहीं रहे। बाबा गुलाब दास अपनी
भाभी के पांव छूने के लिए झुके और बोले, “.........
क्रमशः
25/11/2019
एपिसोड 2
"......भौजी, हम गुलाब होई"
बाबा गुलाब दास कै भौजी प्यार से उनकै मूड़े पै हाथ
फेरि कै बोली "भैय्या पहचान नाहीं पायन बहुत दिन से आयव नाहीं, कहाँ चला गयव रहा"
बाबा गुलाब दास बरसों बाद इतना प्यार पाकर आत्मविभोर
हो गए और उनकी आंखों से गंगा यमुना सी अश्रुओं की दो बूंद गालों पर आकर ऐसे रुक
गईं जैसे कि क्षणभर को वक़्त रुक गया हो। बरसों बाद उन्हें किसी ने उनकी माँ की तरह
जो प्यार किया था। जल्दी से एक खटिया खींच कर बिछाते हुए भाभी बोलीं, "सधुवाय गयव का"
"हाँ भौजी"
"अच्छा एही मारे अम्मा दादा काका
काकी भैय्या भौजी सबका भुलाय गयव"
बाबा गुलाब दास की नज़र घर के आँगन से होती हुई अंदर
की ओर गई तो पाया कि गारे - मिट्टी की ईंटों का बना हुआ दो कमरों का मकान वैसे ही
था। वही आँगन था जिसमें उन्होंने अपना बचपन धूल मिट्टी में खेलते हुए बिताया, इसी आँगन में बड़े भइय्या की शादी का
मंडप गाड़ा गया था, यहीं उनकी तेल ताई हुए थे। छत के ऊपर
बैठकर गांव की औरतों ने ढोलक पर मंगल गीत गाये थे। आँगन के दाईं ओर मूँज फूंस का
छप्पर था जिसमें गाय और भैंस बंधी रहती थी, अम्मा दूध दुहा
करती थी। छप्पर के एक के बाहरी वाली दीवार के किनारे कुइया थी जिससे पानी खींच कर
सब की प्यास बुझती थी। बरामदे के बीच के पिलर के पास ही में बरोसी थी जिसमें कंडो
की आग रहती और दूध उबला करता था। कितना आनंद आता था गुड़ के साथ दूध पीने में। अजीब
सी सौंधी-सौंधी ख़ुशबू आती थी। बरामदे में ही कमरे के बगल से चौका था। चौके की
दीवार से सटी हुई लगी थी दो पाटों की आटे की चक्की जिसमें उनकी अम्मा घर भर के लिए
आटा पिसा करती थी। गेंहू का आटा तो मुश्किल से मिलता था लेकिन जौ, बाजरा, मक्कई तो अपने खेतों से ही मिल जाया करते थे।
अरहर की दाल बटलोई में मिट्टी के बने चूल्हे पर अरहर के खेत से निकली लकड़ियों पर
अक़्सर ही बना करती थी। जब कभी कोई मेहमान आ जाता था तो उडद की दाल भी बन जाया करती
थी। देशी घी दूध की कभी कमी नहीं रही। अम्मा के हाथ की बनी हुई दाल रोटी
का स्वाद ही अलग हुए करता था।
बाबा गुलाब दास की निग़ाह जिस ओर जाती उस ओर उन्हें
अपनापन बचपन ही दिखाई देता। कुछ देर घर के हर कोने को देखने के बाद उन्होंने भाभी
के माथे की ओर देखा और सुहाग की निशानी न देख कर पूछा, "भइय्या..."?
"तोहार भैय्या तौ अम्मा के गये के
बदियय मा चला गये तब से हमही ललुवा का पालेन पोसेन पढ़ायन लिखायन बहुत मुश्किल से
कौनौ मेर एंह तक पहुचेन"
बाबा गुलाब दास पूक्षि परे ,"अब ललुवा कहाँ है"
भैय्या ललुवा कै बियाह यही भिटैरा कै ठाकुर राम नरायन
सिंह कै बिटिया से कै दिहेन रहा अब ललुवा अपने दुलहिनी के साथे बम्बई मा रहत
है"
"तब तौ भौजी तू अकेलय रहि
गैयु"
"अब का करी भैय्या हम घर दुवार
छोड़ि कै कहाँ जाईं। अब तौ हमार लहासिय हिंया से जाये"
"यस बात ना करौ भौजी तू हमरे साथे
चलव वहीं रहव"
"तौ तू कहां रहत हौ अब"
"हम तौ अब अजुध्या जी माँ रहित
है"
"भैय्या अबहीं तौ ना चलि पाईब
कबहूँ बादी मा देखा जाई"
कुछ देर बाद बाबा गुलाब दास ने खेती बाड़ी के बारे में
जब पूछा तो उनकी भाभी ने बताया कि खेती बाड़ी करे वाला जब कोई नहीं रहा तो खेती आध
बटाई पर उठा दी जाती है। जो उससे मिलता है उसी में घर का गुज़ारा चल जाता है।
कभी-कभी ललुआ कुछ रकम भेज देता है उससे मदद हो जाती है। बाबा गुलाब दास भाभी के
सामने बैठे उनकी राम कहानी सुनते रहे। भाभी को भी अपने दिल की बात कहकर बहुत राहत
मिली।
कुछ देर बाद भाभी उठीं और बरोसी में रखी हंडिया से एक
पीतल के बड़े वाले ग्लास में दूध निकाल कर अपने देवर के हाथ में देते हुए बाबा
गुलाब दास के हालचाल के बारे में पूछा। बाबा गुलाब दास ने भाभी को अपनी पूरी कहानी
शुरू से लेकर अंत तक की सुनाई और उन्हें बताया कि अब वह सीताराम मंदिर के महंत
हैं।
कुछ देर में ही भाभी ने बाबा गुलाब दास को दाल रोटी
बना कर खिलाई और बिछौना बिछा दिया जिससे कि वह आराम कर सकें। देर शाम जब बाबा
गुलाब दास ने कहा अच्छा तौ हम अब जाईत है भौजी...
"अरे यतना कौन जल्दी है,
यक रात तौ रूकतेव भैय्या"
"नाहीं भौजी अब चलबै, भौजी पांयलागी"
बड़ी मुश्किल से समझा बुझा कर और फिर से आने का वायदा
कर बाबा गुलाब दास देर रात अयोध्या वापस लौट आये। टते समय बाबा गुलाब दास की आंखे
नम थीं और उन्हें अहसास हो रहा था कोई चाहे जितना दूर चला जाये लेकिन एक बार घर
आने का मन तो करता ही है। इंसानी रिश्ते नाते इतनी आसानी से नहीं भुलाए जा सकते
हैं। बाबा गुलाब दास मन में सोचते हुए अपने आप से बोले, "यही है मातृभूमि का प्यार भरा
आवेग"
क्रमशः
क्रमशः
26/11/2019
एपिसोड 3
सुप्रीम कोर्ट के बाबरी मस्ज़िद-राम लला मंदिर, अयोध्या मुकद्दमे में निर्णय आने से अचानक
ही तमाम जिज्ञासु लोगों के दिलों में अयोध्या के प्रति जानकारी हासिल करने की
भावना प्रबल हुई जो पहले कुछ अधिक नहीं जानते थे। इनमें से एक थी करोलबाग के राणा
प्रताप रोड़ पर रहने वाले जगदीश प्रसाद माथुर साहब तथा मृणालिनी माथुर की बेटी
मानवी जो कुछ रोज़ पहले ही अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी हासिल करके
वापस लौटी थी। एक दिन वह अपने घर में अपनी माँ और पिता श्री के साथ डिनर कर रही थी
तो उसने अयोध्या के बारे में अपनी उत्सुकता ज़ाहिर करते हुए पूछा, "पापा आप कभी अयोध्या गए हैं"
"हाँ, एक
बार बहुत सालों पहले जब तुम्हारे दादू का जब स्वर्गवास हो गया था तो उनके फूल लेकर
मैं व तुम्हारे चाचा दोनों अयोध्या गये थे"
"तकरीबन कब"
"यही कोई 1980 के आसपास"
"इसका मतलब तब बाबरी मस्ज़िद वहां
थी"
"रही होगी, हमारे
पास इतना समय नहीं था कि हम इधर उधर के चक्कर लगाते। हम लोगों की रेलगाड़ी अयोध्या
स्टेशन पर पंहुची ही करीब दस बजे के आसपास थी, अत: हम सीधे
अपने पुरोहित महंत राम प्रसाद के पास सीताराम मंदिर, सरयू
घाट पर जा पहुंचे और उन्हीं के कहे अनुसार सब काम काज कर शाम पांच बजे की रेलगाड़ी
से दिल्ली को वापस लौट आये"
"पापा, मुझे
लगता है तब से सरयू घाट के किनारों से लगता हुआ ढेर सारा पवित्र जल बह चुका होगा।
वैसे भी अभी मुझे कुछ करने धरने के लिए यहाँ पर कुछ है नहीं, इसलिए सोचती हूँ कि इसी बीच मैं एक चक्कर अयोध्या का ही क्यों न लगा
आऊँ"
मानवी की माँ मृणालिनी ने उसे टोकते हुए पूछा, "तू अयोध्या जाएगी"
"जी माँ, बहुत
मन कर रहा है"
"बेटी वह भी अकेले"
"अकेले ही तो। मेरे साथ और कौन
जाएगा"
"कोई भी नहीं। न तो मुझे फुर्सत
है और न ही तेरे पापा को"
मानवी ने अपनी माँ से कहा, "तो मैं अकेले ही चली जाऊँगी,
मुझे कौन खाये जा रहा है"
"नहीं, सुना
है वहां बहुत चोर उच्चके आते जाते रहते हैं मैं तुझे वहां अकेले तो नहीं जाने
दूँगी"
मानवी ने अपनी माँ के गले में अपनी बाहें डालीं और
बोली, "आपकी बेटी
अकेले अमेरिका जाकर पीएचडी हासिल कर लौट आई है और एक आप हैं कि उसे अपने ही देश
में अयोध्या नहीं जाने दे रहीं हैं"
"अमेरिका की बात और है। अयोध्या
तो बिल्कुल नहीं जाने दूँगी"
मानवी फिर अपने पापा के पास गई और उनकी आंखों में
अपनी आंखें डालकर पूछा, "पापा"
माथुर साहब अपनी बेटी की आंखों में अयोध्या जाने की
प्रबल इच्छा को साफ देख रहे थे और उन्हें ख़ुशी भी हो रही थी कि इतने साल अमेरिका में
रहने के बाद भी मानवी को अपनी सभ्यता और धार्मिक स्थलों के प्रति सद्भाव की भावना
बनी हुई है। यही सब सोचकर उन्होंने मानवी से कहा, "मुझे लगता है कि राम की नगरी अयोध्या
में बहुत कुछ नहीं बदला होगा। पता नहीं वहां होटल वग़ैरह भी हैं या नहीं। तू जाकर
वहां रुकेगी कहाँ"
"पापा मैं नेट से ढूंढ
लूँगी"
माथुर साहब को याद आया कि वह मानवी से सीताराम मंदिर
के महंत जी के यहां ही क्यों न रुकने को कह दें। सीताराम मंदिर के महंत जी से
हमारे परिवार के पुराने सम्बंध भी रहे हैं और वह हमारे कुल पुरोहित भी रहे हैं। यह
सोचते हुए माथुर साहब मृणालिनी की ओर देखते हुए कहा, "सीताराम मंदिर के महंत जी का हमारे
मदनपुर गांव वाले मंदिर से बहुत पुराना नाता रहा है उन्ही के कहने पर हमारे मंदिर
में केरल के पुजारी सालों से देखभाल कर रहे हैं। मानवी उनके मंदिर में जाकर आराम
से रुक जाएगी और वही इसे अयोध्या में घुमाने का इंतज़ाम भी कर देंगे"
मृणालिनी ने देखा कि बेटी की बात सुनकर उसके पापा
एकदम पिघल गए हैं और अब उसके लाख कहने के बाद भी मानवी मानेगी तो है नहीं इसलिए
माथुर साहब से बोली, "जो आप बाप
बेटी ठीक समझिये। मेरी भला कभी चली है इस घर में"
"मृणालिनी यह न कहो। चली तो हमेशा
से तुम्हारी ही है"
"उहुं"
"माँ, मान
भी जाओ न, मेरी स्वीट -बस्वीट माँ"
हंसते हुए मृणालिनी ने मानवी को 'हाँ' कह दिया।
बस फिर क्या था मानवी अपनी अयोध्या के जाने की तैयारी में लग गई। दो तीन दिन तक
नेट पर अयोध्या के बारे में पूरी जानकारी हासिल की और एक रोज़ फ्लाइट से लखनऊ और
फिर वहां से अयोध्या सीताराम मंदिर के लिए निकल पड़ी।
क्रमशः
27/11/2019
एपिसोड 4
मानवी की टैक्सी फैज़ाबाद के पुराने हिस्सों से गुज़रती
हुई जब अयोध्या में पहुंची तो उसने ड्राइवर से कहा, "भैया किसी से पूछ लो कि सीताराम
मंदिर किधर पड़ेगा"
अमानत हुसैन टैक्सी ड्राइवर लखनऊ का वाशिंदा था नज़ाकत, नफ़ासत की जगह का रहने वाला। उसने बड़े
अदब से कहा, "मेम साहब आप फ़िक्र न करें मैं आपको सीधे
वहीं ले जाऊँगा और बाक़ायदा आपकी मुलाकात सीताराम मंदिर के महंत जी से करा कर ही
चैन लूँगा"
"शुक्रिया, क्या
आप सीताराम मंदिर जानते हैं किधर है"
"मेम साहब इस इलाके का हर आदमी
सीताराम मंदिर के बारे में सब कुछ जनता है। मैं सवारियों को लखनऊ से अक़्सर सीताराम
मंदिर लेकर आता जाता रहता हूँ"
"इसका मतलब यह हुआ कि सीताराम
मंदिर का ख़ूब नाम है"
"जी मेम साहब, बहुत ही भव्य मंदिर है"
मानवी ने महसूस किया कि वह सही जगह जा रही है और उसे
अयोध्या नगरी में बहुत कुछ देखने को मिलेगा। सरयू घाट की ओर जाते हुए रास्ते में
मानवी की निगाह वहां के रेलवे स्टेशन पर पड़ी। देखने से स्टेशन तो छोटा ही दिखा पर
स्टेशन की बिल्डिंग बड़ी साफ सुथरी और आकर्षक थी। कुछ आगे बढ़ने के बाद बाएं ओर
हनुमान गढ़ी थी। अयोध्या के बाज़ार में पहुंच कर उसकी निगाह दाईं ओर पुराने ज़माने की
बड़ी सी इमारत पर पड़ी तो वह तुरंत समझ गई कि वह वहां का राजमहल है। मानवी ने महसूस
किया कि इंटरनेट से आजकल सब जगह की सटीक जानकारी मिल जाती है। कुछ आगे जाकर बाएं
हाथ पर एक पार्क देखा जिसमें तुलसीदास जी की मूर्ति लगी हुई थी। उसके कुछ आगे ही
दुकानों की श्रंखला के बाद ठीक सामने था सरयू घाट। वहां पहुंच कर ड्राइवर ने
टैक्सी पार्किंग स्टैंड पर खड़ी की। मानवी का सामान निकाला और और कुछ दूर पैदल चलकर
सीताराम मंदिर के अहाते में ले आया। मानवी ने एक पुजारी से महंत जी के बारे में
जानकारी की और उनसे मिलने के लिए उनके कक्ष तक उसे टैक्सी ड्राइवर छोड़ गया। बाबा
गुलाब दास महंत जो अपने आसन पर विराजमान थे। मानवी ने उन्हें देखते हुए दोनों हाथ
जोड़कर नमस्कार किया। महंत जी ने राम-राम कहकर उत्तर देते हुए पूछा, "तुम माथुर साहब की बेटी मानवी
ही हो ना"
"जी"
"लखनऊ से सीधी आई हो थक गई होगी
जाओ अपने रूम में जाकर आराम करो। हम लोग बाद में मिलेंगे", इतना कहकर महंत जी ने एक सेवक को इशारा किया जो मानवी को गलियारे से ले
जाता हुआ उस स्थान पर ले आया जहां मानवी के रुकने की व्यवस्था की गई थी।
मानवी ने जैसे ही रूम में प्रवेश किया तो उसने पाया
कि रूम की साफ-सफ़ाई, सजावट, बेड वग़ैरह किसी भी प्रकार से स्टार होटल से कम नहीं हैं। मानवी को पहले तो
विश्वास ही नहीं हो रहा था कि एक मंदिर में रुकने का इतना अच्छा इंतज़ाम भी हो सकता
है। सेवक ने जाने से पहले मानवी से पूछा, "बहन जी आप
चाय पीना चाहेंगी"
"क्या चाय पीने को मिल
सकेगी"
"जी, बहन
जी। आप दूध वाली चाय पियेंगी या ब्लैक लेमन टी लेंगी"
मानवी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या कहे उसने
बहुत सोच समझ कर इतना ही कहा,
"मैं सुबह-सुबह लेमन टी लेती हूँ और दिन में तो दूध वाली
चाय"
"जी, ठीक
है। मैं कुछ ही देर में हाज़िर होता हूँ"
मानवी आराम से आंखे मूंद कर बेड पर कुछ देर के लिए
लेट गई। लेटते ही उसकी आंख लग गई। जब सेवक ने दरवाज़े पर नॉक कर अंदर आने की इजाज़त
मांगी तो उठते हुए उसने दरवाज़ा खोला। सेवक चाय सेंट्रल टेबल पर रख कर यह कहते हुए, "दोपहर का भोजन लगभग एक बजे
होगा। महंत जी आप से भोज पर मिलेंगे"
"ठीक है, मुझे
किधर आना होगा"
"रसोई के बगल में ही हमारा भोजन
कक्ष है आप वहीं पधारियेगा"
"ठीक है"
चाय पीकर मानवी जल्दी से तैयार हो गई और रूम में रखे
हिंदी के अख़बार पर जब उसकी निग़ाह पड़ी तो उसने पाया कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के
बाद अयोध्या में साधु-संतो के बीच टकराव की स्थिति बन रही है। उसने यह भी पढ़ा कि
अयोध्या में कई संत ऐसे हैं जो भारत सरकार के द्वारा गठित होने वाले राम लला मंदिर
ट्रस्ट की मेम्बरशिप को लेकर गुटबंदी करने में जुटे हुए हैं।
एक बजने के कुछ मिनट पहले ही मानवी मंदिर के भोजन
कक्ष में जा पहुंची। भोजन के लिए बाक़ायदा ज़मीन पर आसन लगे हुए थे। सेवक ने उसे
उसके आसन पर विराजमान होने को कहा, "आप विराजिये बस महंत जी भी पधारने ही वाले हैं"
क्रमशः
28/11/2019
एपिसोड 5
महंत जी और मानवी के लिए भोजन कक्ष में जहां आसन बिछे
हुए थे उनमें से एक आसन पर बैठकर मानवी महंत जी के पधारने का इंतज़ार करने लगी। कुछ
देर पश्चात ही महंत जी भोजन कक्ष में पधारे और अपना आसन ग्रहण करते हुए मानवी से
बोले, "कुछ देर
आराम कर लेने के बाद मुझे लग रहा है कि तुम अब बेहतर महसूस कर रही हो"
"जी, सुबह
की फ्लाइट जिस दिन पकड़नी हो उस रात किसे नींद आती है भला और फिर लखनऊ से अयोध्या
तक का कार से सफर भी क़मर तोड़ देता है। किन्तु अब मैं ठीक हूँ", मानवी ने उत्तर देते हुए कहा।
इसी बीच भोजन परोसने वाले सेवक रसोईघर में भोजन की
तैयारी में जुट गए। सबसे पहले वे लोग एक पीतल की थाली और ग्लास दोनों के समक्ष रखी
हुई चौकियों पर सजा गए। उसके बाद एक-एक कर वे भोज्य पदार्थ लाते रहे और थाली में
रखी कटोरियों में परोसते रहे। जब थाल पूर्णरूप से सज गया तो महंत जी ने पानी का
ग्लास बाएं हाथ में लेकर उससे कुछ जल अपने दाएं हाथ में लिया और चौकी के चारों ओर
छिड़का और फिर दोनों हाथ जोड़कर प्रभु का नाम लेते हुए भोजन ग्रहण करना शुरू किया।
महंत जी बीच-बीच में मानवी को यह बताना नहीं भूले थे कि जितनी भी शाक-भाजी वह देख
रही है वह उनके अपने खेतों में जैविक प्रणाली से पैदा की गई है। देशी घी और
दूध-दही उनकी मंदिर की गौशाला का है इसलिए पूर्ण रूप से खाना शुद्ध और सात्विक है।
इशारे से मानवी को महंत जी ने भोजन शुरू करने के लिए कहा।
मानवी ने भी महंत जी के आदेशों का पालन करते हुए
सुरुचिपूर्ण तरीक़े से बने भोजन के स्वाद को चखते हुए खाना शुरू किया। बीच-बीच में
महंत जी मानवी के प्रोग्राम की जानकारी भी लेते जा रहे थे। महंत जी ने मानवी को
सुझाया कि वह आज सबसे पहले हनुमान गढ़ी जा सकती है और यह कथा भी सुनाई कि जब लंका
विजय के पश्चात सीता, लक्ष्मण, विभीषण तथा हनुमान जी को लेकर अयोध्या पधारे। श्री राम के राजतिलक में सभी
लोग खुशी - खुशी शरीक़ हुए। कुछ दिन वहां रहने के बाद जब विभीषण ने लंका जाने की
अनुमति चाही तो प्रभु श्री राम ने उन्हें दुःखी मन से विदाई दी। उस समय हनुमान जी
ने श्री राम से पूछा, "प्रभु मेरे लिए क्या आदेश है',
तब श्री राम ने हनुमान जी को अपने गले लगा कर कहा कि वह संसार में
उनके सबसे अधिक प्रिय हैं और आदिकाल तक प्रिय बने रहेंगे। उस समय से यह मान्यता है
कि प्रभु श्री राम ने हनुमान जी को हनुमान गढ़ी में आदरपूर्वक स्थान दिया और यह
आशीष भी दिया कि हर अयोध्या आने वाला व्यक्ति सबसे पहले उनके दर्शन करेगा और उसके
बाद ही वह अयोध्या में प्रविष्ट होगा।
"मानवी तभी से यह रीति चली आ रही
है कि जो अयोध्या आता है वह पहले हनुमान गढ़ी जाकर उनके दर्शन करता है। इसलिए मानवी
तुमको मेरी सलाह है कि तुम भी सर्वप्रथम हनुमान गढ़ी जाकर हनुमान जी के दर्शन करने
के बाद कनक महल, चक्रवर्ती सम्राट दशरथ का राजमहल, सीता रसोई और अंत में राम लला के दर्शन करो"
मानवी ने महंत जी की बात ध्यानपूर्वक सुनी फिर कहा, "महाराज जी कृपया यह बताने का
कष्ट करें कि क्या अयोध्या में कोई मस्ज़िद भी है जहां मुस्लिम भाई जाकर नमाज़ अदा
करते हैं"
"हां, अयोध्या
में बहुतेरी मस्ज़िद भी हैं जहां मुस्लिम भाई नमाज़ अदा करते हैं लेकिन तुम यह बात
क्यों पूछ रही हो"
"कुछ नहीं महंत जी मेरे हृदय में
एक उत्कंठा थी कि जब हिंदू-मुस्लिम अयोध्या में हाल फिलहाल से नहीं बल्कि बरसों से
साथ रहते आ रहे हैं तो बाबरी मस्ज़िद को लेकर इतना बवाल क्यों"
महंत जी को तब अहसास हुआ कि मानवी मात्र अयोध्या
घूमने और मंदिरो में भगवान के दर्शन करने के लिए नहीं आई है बल्कि उसके दिल में
कुछ अहम प्रश्न हैं जिनका उत्तर पाने के लिए वह अयोध्या आई है। यह जान लेने के बाद
महंत जी ने कहा, "बेटी मैं
जान गया तेरे हृदय में अयोध्या में जो कुछ सतह पर दिखाई देता है तू उससे अधिक
जानने के प्रयत्न में यहॉ आई है"
मानवी महंत जी की बात सुनकर मुस्कुराई और बोली, "महाराज जी मेरी शिक्षा-दीक्षा
ही कुछ इस प्रकार से हुई है जो कि मुझे आम व्यक्तियों की निगाह से परे जाकर चीजों
को देखने समझने पर पर मजबूर करती है"
"तुम्हारे बारे में मुझे यह बात
तुम्हारे पिता जी श्री माथुर साहब ने पहले ही यह बता दी थी" कहकर महंत जी ने
मानवी से पूछा, "अयोध्या तुम कितने दिन रुकोगी"
"महाराज अभी कुछ तय नहीं किया है,
बाद में सोचूँगी। अभी तो मेरे दिल में जो प्रश्न हैं मुझे उनके
उत्तर ढूँढने हैं"
"ठीक है। बस मुझे एक बात कहनी है
कि अयोध्या को जानने और समझने के लिए युग चाहिए फिर भी जब तुम यहाँ आ ही गई हो और
तुम्हारा मंतव्य जो मैं जान सका हूँ वह एक आम आदमी से बहुत कुछ हट कर है तो तुम एक
काम करो पहले फैज़ाबाद में कुछ दिन बिताओ। अयोध्या प्राचीन अवश्य है लेकिन उसके साथ
फैज़ाबाद भी अयोध्या के लिए बहुत अहम है यह समझ लो कि दो दिल एक जान हैं"
मानवी यह सुनकर कुछ परेशान सी दिखी तो महंत जी ने
उससे कहा, "तुम किसी
प्रकार की चिंता नहीं करो हमारे एक घनिष्ट मित्र हैं, मिर्ज़ा
साहब तुम कुछ दिन उनके यहां रह कर देखो। मैं उन्हें कहकर तुम्हारे रुकने और घूमने
की व्यवस्था करा दूँगा"
"आप जैसा ठीक समझें"
"तुम्हारे पिता श्री माथुर साहब
को भी मैं यह बता दूँगा कि तुम मेरे कहने पर मिर्ज़ा साहब के यहां कुछ दिन
रुकोगी"
मानवी कुछ भी नहीं बोली और चुप ही रही। इस पर महंत जी
ने उसे उसके पिता श्री के साथ सम्बन्धों के बारे में बताते हुए कहा, "मैं जब छोटा था तो अपने घर से
रूठकर अपने लिए रुकने की जगह ढूंढ रहा था तो एक व्यक्ति के कहने से मैं शिकोहाबाद
के पास "अमौर गांव" के ठाकुर साहब से मिला। जिन्होंने मेरे लिए नौकरी की
व्यवस्था ही नहीं की बल्कि अपनी ही हवेली में मेरे रहने की भी व्यवस्था की,
जहाँ सुख पूर्वक मैं अपने ही घरपरिवार की तरह रहा। मैं दिन भर काम
करता और रात को उन्हीं की हवेली के एक कमरे में सो जाता। एक दिन मैं ठाकुर साहब के
साथ तुम्हारे ख़ानदानी मदनपुर के मंदिर में पूजा पाठ के लिए गया। वह मंदिर पता नहीं
क्यों मुझे बहुत अच्छा लगा और मैंने वहां के पुजारी से बातचीत की तथा उनके कहने पर
ही प्रभु राम की पूजा करने लगा। मेरे पास फ़ैक्टरी में काम करने के अलावा और कोई
काम न था और मेरे जीवन में समय ही समय था तो मैंने प्रभु श्री राम की पूजा करना
शुरू कर दिया। ठाकुर साहब ने प्रभु श्री राम के प्रति मेरे श्रद्धाभाव को देखकर
मुझे तुलसीदास जी की रामचरित मानस लाकर दे दी। मैं सुबह शाम रामचरित मानस पढ़ता और
पूजा पाठ करता। कुछ ही दिनों में मुझे रामचरित मानस कंठस्थ हो गई"
इतना कहने के बाद महंत जी कुछ देर तक रुकने के बाद
बोले, "एक दिन की
बात है कि हमारे ग्लास फ़ैक्टरी के मैनेजर से मेरी कुछ कहा सुनी हो गई और मैं ठाकुर
साहब से यह कहकर कि मैं अब यहां नहीं रहूँगा। उन्हें बगैर बताए हुए मैं अयोध्या
चला आया। यहां एक बार क्या आया कि फिर मैं इस मांटी का ही होकर रह गया। धीरे-धीरे
समय ने करवट लिया और मैं इस सीताराम मंदिर का पुजारी बन गया और यहां के महंत जी के
स्वर्गवास होने के पश्चात मुझे यहाँ का महंत बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आज
तुम्हारे सामने मैं आज जो भी हूँ जैसा भी हूँ यह सब गांव आमौर शिकोहाबाद के ठाकुर
साहब (तुम्हारे पिता जी के दोस्त) की ही माया है वरना ना जाने कब का व कहाँ मर-खप
गया होता"
"इंटरेस्टिंग स्टोरी, पर मुझे मेरे पापा ने आपके बारे में कभी कुछ भी नहीं बताया। यहां आने के
पहले बस इतना कहा था कि आप अभी भी हमारे मदनपुर वाले पुजारी के चुनाव वग़ैरह में
मदद करते रहते हैं"
"बेटी तुम्हें मदनपुर के बारे में
पता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम। मदनपुर, सिरसागंज - बटेश्वर मार्ग पर स्थित है। मैं तुम्हें बताऊँ कि अंग्रेजो के
वक़्त में मदनपुर माथुर कायस्थों की पूरे हिंदुस्तान में एक मात्र जमींदारी हुआ
करती थी। तुम्हारे परिवार की आज भी वहां बहुत बड़ी हवेली है। हिंदुस्तान के हर
तीसरे माथुर की निकासी मदनपुर से ही है। वे स्वयं यह बात जानते हों या नहीं।
तुम्हारे परिवार के सभी सदस्य चैत्र माह के मेले में वहां जाकर रहते हैं और प्रभु
श्री राम की अपने ख़ानदानी मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं। ठाकुर जी के नाम से
मशहूर तुम्हारा मदनपुर का मंदिर पूरे इलाक़े में इतना मशहूर है कि वहां के लोग यह
कहते हैं कि जितनी दूर तक मंदिर के घँटे की अवाज़ सुनाई देती है आजतक कभी भी वहां
तक ओलों की बरसात नहीं हुई है जबकि पास के अन्य क्षेत्रों में अक़्सर ही फसल की
बर्बादी होती रहती है"
"महाराज जी, मगर पापा तो मेरी याददाश्त में कभी मदनपुर नहीं गए"
"तुम्हारे पिता श्री एक बार
दिल्ली क्या जा बसे तुम्हारे परिवार ने मदनपुर अाना - जाना ही छोड़ दिया लेकिन
तुम्हारे परिवार के अन्य सदस्य जो आगरे, लखनऊ, जयपुर वग़ैरह में जा बसे हैं वह अभी भी मदनपुर आते जाते हैं। उन्ही के
माध्यम से मैं तुम्हारे पिता श्री के सम्पर्क में आया था"
"ओह! सो इंटरेस्टिंग"
"मुझे खुशी हुई कि यह कहानी
सुनाने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ"
जब भोजन समाप्त कर महंत जी और मानवी उठने लगे तो
मानवी ने रसोइयों और भोजन परोसने वालों का आभार व्यक्त किया। मानवी को साथ ले महंत
जी के मंदिर परिसर घूमने के लिए निकल पड़े। चलते -चलते महंत जी सीताराम मंदिर की
महिमा का बखान करते रहे जिसे सुनकर मानवी आश्चर्यचकित रह गई।
अगले दिन, दोपहर के बाद मानवी महंत जी की कार से मिर्ज़ा साहब के यहां
कुछ दिन रहने के लिए निकल गई फैज़ाबाद।
क्रमशः
29/11/2019
एपिसोड 6
जैसे ही महंत जी की कार मानवी को ले फैज़ाबाद में एक
बड़ी सी कोठी के गेट के सामने आकर रुकी तो मानवी ने नेमप्लेट को गौर से पढ़ा, जिस पर लिखा हुआ था 'हबीबुर्रहमान मिर्ज़ा, एडवोकेट', गेट खोलकर ड्राइवर ने कार कोठी के पोर्च में लगाई और दरवाज़े पर लगी कॉल
बेल दबाई तो मिर्ज़ा साहब खुद मानवी को लेने के लिए बाहर आये और ड्राइवर से बोले,
"मेम साहब के सामान को लेकर आओ", फिर
पलट कर मानवी का खैरमकदम करते हुए कहा, "आइये - आइये
मोहतरमा"
"जी", कहते
हुए मानवी उनके साथ हो ली।
जैसे ही मिर्ज़ा साहब मानवी को साथ लेकर कोठी में आये
तो बेग़म साहिबा पहले ही से वहां मौजूद थीं। मिर्ज़ा साहब ने अपनी बेग़म का तार्रुफ़
कराते हुए कहा, "ये हैं
हमारी बेग़म ज़ाहिदा"
मानवी ने बेग़म साहिबा की ओर बढ़ते हुए, "आदाब" कहा और उनसे हाथ
मिलाया। बेग़म साहिबा ने मानवी को अपने पास बिठाते हुए उसकी ठुड्डी पर हाथ लगाकर
उसके चेहरे को अपनी ओर करते हुए कहा, "मेरी बेटी का
क्या कहना। माशाअल्लाह, लगता है जैसे कि ख़ुदा ने फ़ुर्सत के
वक़्त में बनाया हो"
मानवी यह सब सुनकर शर्मा गई और बोली, "आंटी आप भी ना, बस रहने भी दीजिये। आज भी हमसे ज्यादा तो आप खूबसूरत लगतीं हैं"
मिर्ज़ा साहब ने बीच में बेग़म को टोकते हुए कहा, "बेग़म अब एक दूसरे की तारीफ़ हो
गई हो तो आगे की बात करें"
"जी बोलिये"
"बेटी घर आई है इसको ले जाओ तथा
इसे कमरा दिखाओ और कुछ नाश्ते पानी का इंतज़ाम कराओ"
"जी", कहकर
बेग़म साहिबा ने मानवी का हाथ पकड़ा और उसे उसके कमरे में लेकर गईं। उसे कमरा दिखाते
हुए बेग़म साहिबा ने कहा, "जब तक तेरा मन करे तो हमारे
यहां रह। महंत जी हमारे बेहद क़रीबी हैं उनकी कही हुई हर छोटी-बड़ी बात हमारे लिए
उनके हुक्म से कम नहीं। बेटी यह तेरा कमरा है। शाम को जब नर्गिस और क़मर आ जाएंगे
तो तेरी मुलाकात उनसे करा दूँगी। मुझे उम्मीद है कि तेरा बहुत अच्छा वक्त
गुजरेगा"
मानवी ने मुस्कुरा कर बेग़म साहिबा को उत्तर दिया, "नर्गिस और क़मर..."
"नर्गिस हमारी बेटी है और क़मर
हमारे चचाजात भाई के बेटे हैं।
दोनों ही जेएनयू, दिल्ली में नौकरी कर रहे हैं"
"जी। वे जेएनयू में हैं इसका मतलब
मेरे शहर से हैं फिर तो मुझे उनसे मिलकर बहुत मज़ा आएगा", मानवी ने यह कहते हुए कि, "वे क्या जेएनयू में
पढ़ते हैं"
"नहीं बेटी, उनकी पढ़ाई लिखाई तो बहुत पहले पूरी हो गई थी। वो दोनों के दोनों वहाँ
प्रोफ़ेसर हैं"
"प्रोफ़ेसर, वाओ
फिर क्या कहना। बहुत बढ़िया, लगता है कि मेरा उनके साथ बहुत
अच्छा वक़्त गुजरने वाला है"
बेग़म साहिबा ने जब मानवी के चेहरे पर ख़ुशी के भाव
देखे तो उन्हें लगा कि बच्चों के आने के बाद इनमें बहुत अच्छा वक़्त गुजरने वाला है
यही सोचते हुए उन्होंने मानवी से कहा, "ज़ाहिर सी बात है आजकल के बच्चों को हम उम्र लोगों के
बीच अच्छा लगता है"
"आंटी मुझे बहुत कुछ पता करना है
जिसमें आपका और अंकल का रोल भी बेहद ज़रूरी होगा"
"मालूम है नबाव साहब ने हमें सब
कुछ बता दिया है"
"नवाब साहब..."
"वैसे तो हम अब कुछ भी नहीं हैं
लेकिन एक वक़्त में हमारा खानदान भी नवाबों से ताल्लुक़ रखता था। हमारे पुरखों ने एक
बार फैज़ाबाद क्या छोड़ा वे हमेशा के लिए लखनऊ के होकर रह गए। अब तो कुछ लोग कोलकता
भी चले गए हैं"
मानवी को याद आया कि उसने इंटरनेट पर फैज़ाबाद के
इतिहास के बाबत पढ़ा था कि दरअसल नवाबी फैज़ाबाद से ही शुरू हुई थी और बाद में अवध
के नवाब शुजा-उद्-दौला जो कि शौक़ीन ख़यालात के इंसान थे वह लखनऊ चले गए। लखनऊ को ही
उन्होंने अवध की राजधानी बनाया।
फ़ैज़ाबाद सैकड़ों वर्ष पूर्व एक ऐसे बड़े साम्राज्य की
राजधानी था जो जनसंख्या और विस्तार में यूरोप के किसी भी देश (रूस को छोड़कर ) से
बड़ा था और वैभव तथा संपन्नता में दिल्ली दरबार से होड़ करता था। उसका ऐश्वर्य और
शान - शौकत इस बुलंदी पर थे कि उत्तर में पेशावर और कश्मीर, पश्चिम में गुजरात, दक्षिण में हैदराबाद और पूरब में बंगाल और ढाका तक के कलाकार, शिल्पी, विद्यार्थी, बहादुर
सिपाही और व्यापारी खिंचे हुए वहाँ चले आते थे। कहते हैं कि फ़ैज़ाबाद के अनेक रमणीक
उद्यानों में से लालबाग की यह शोहरत थी कि स्वयं दिल्ली के शाहंशाह शाहआलम एक बार
इलाहाबाद से लौटते हुए इस बाग़ की सैर की लालसा से फ़ैज़ाबाद होते हुए दिल्ली लौटे
थे।
मानवी इतिहास के पन्नो को पलटते - पलटते सत्रहवीं
सत्रहवीं शताब्दी के अंत में आ पहुंची जब नवाब अमीनुद्दीन खाँ बुरहानुलमुल्क मुगल
दरबार की तरफ से अवध के सूबेदार नियुक्त हुए। उन्होंने लखनऊ के पुराने शेखों को
हराया और अवध के पूरे सूबे को आक्रान्त करके प्राचीन अयोध्या नगर की बस्ती के बाहर
सरयू के तट पर स्थित एक टीले पर अपना शिविर बनाया। वह ऐसा संक्रमण काल था कि
बुरहानुलमुल्क को इमारतें बनवाने का समय न था। वे प्रायः छप्परों के शिविर में
रहे। कुछ समय के बाद शिविर के बाहर कच्ची दीवारों का एक बड़ा घेरा बना दिया गया और
उसके चारों कोनों पर किलेबंदी और पास-पड़ोस के क्षेत्र की निगरानी के लिए चार बुर्ज़
बना दिए गए। इस विशाल चहार दीवारी के अंदर बेग़मात के निवास हेतु कुछ कच्चे मकान भी
बनवाए गए। यही शासन केंद्र कालांतर में 'बंगला' के नाम से विख्यात हुआ।
लगभग 50 वर्ष पहले तक आसपास के बड़े लोग फैजाबाद को 'बंगला' ही कहते थे। बंगला का नाम आते ही मानवी के
दिमाग़ में उमराव जान फ़िल्म का वह हिस्सा घूम गया जिसमें शौक़त कैफ़ी आज़मी बेग़म (
ख़ानम जान ) पूछने पर फ़ैज़ाबाद को बंगला क्यों कहा जाता था, बताया
था।
कच्चे आहाते का उत्तर-पश्चिम दिशा का फाटक दिल्ली
दरवाजा कहलाता था, जो आज भी फैजाबाद
शहर का एक मोहल्ला है। नवाब बुरहानुलमुल्क के बाद नवाब सफदर जंग गद्दीनशीन हुए।
फ़ैज़ाबाद नाम उन्हीं का दिया हुआ है। कच्ची चहार दीवारों के किनारों पर सेना के
अनेक सरदारों ने अपने मनोरंजन के लिए बाग और रंग महल बनवाने आरंभ किए। सिविल
प्रशासन के अधिकारी और कर्मचारियों ने भी अपने भवन बनाने आरंभ किए। तथा धीरे -
धीरे नगर की रौनक बढ़ने लगी।
सफदर जंग की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र शुजाउद्दौला
अवध के नवाब हुए जिनके राज्यकाल में फ़ैज़ाबाद उन्नति और वैभव के शिखर पर पहुँच गया।
अपने शासन काल के प्रारंभिक वर्षों में वे लखनऊ में रहना अधिक पसंद करते थे और ऐसा
लगा कि फैजाबाद की राजधानी उपेक्षित हो जाएगी, लेकिन 1764 में बक्सर के युद्ध के बाद
उन्होंने फ़ैज़ाबाद को ही अपना शासन केंद्र बनाया।
बक्सर का निर्णायक युद्ध शुजाउद्दौला के लिए बहुत बड़ी
पराजय थी। अँग्रेजों से पराजित होकर वे भागते हुए फ़ैज़ाबाद आए, फिर लखनऊ और फिर रोहेल खंड के पठानों
की शरण में। कई महीनों के बाद अँग्रेजों से उनकी संधि हुई। संधि के बाद
शुजाउद्दौला ने लखनऊ को छोड़ दिया और पूरी तरह से फ़ैज़ाबाद को अपनी राजधानी बनाया।
उन्होंने नए सिरे से अपनी सेना को संगठित किया।
राजधानी को मजबूत पक्की प्राचीर से सुरक्षित किया और
इमारतों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया। इन बातों की खबर फैलते ही फ़ैज़ाबाद में आने
वालों का ताँता बँध गया। दूर - दूर से साहित्यकारों, विद्वानों, शिल्पियों,
व्यापारियों, शौर्य से जीविका वृत्ति वाले
योद्धाओं और सरदारों ने आकर फैज़ाबाद को अपना निवास और कार्यक्षेत्र बनाया।
आने वाले लोग जमीन का कोई टुकड़ा लेकर यहाँ बसने को
उत्सुक रहते हैं। देखते - देखते नगर में चौड़ी - चौड़ी अनेक सड़कें और कई बाजार बन
गए। चौक का सर्वाधिक आकर्षक बाजार, जो इस समय भी नगर का केंद्र बिंदु है, तभी
बना। राजधानी की कुछ सड़कें इतनी चौड़ी थीं कि सामान से लदे हुए दस - दस जानवर सड़क
पर बराबर-बराबर चल सकते थे।
नवाब शुजाउद्दौला को अपने शहर को सुंदर और सुडौल बनाए
रखने का ऐसा शौक था कि नित्य सुबह - शाम घोड़े पर सवार होकर निकलते और सड़कों एवं
इमारतों का निरीक्षण करते थे। साथ में मजदूरों की टोली पीछे-पीछे चलती थी। यदि कोई
इमारत एक बालिश्त भी सड़क का अतिक्रमण करती हुई पाई जाती तो उसे उसी समय गिरवा दिया
जाता था।
राजधानी में अनेक मनोरंजन उद्यान बनाए गए थे जो रईसों
और शहजादों की सैर और मनोरंजन के लिए थे। अंगूरीबाग, मोतीबाग, लालबाग आज
भी फैज़ाबाद में मौजूद हैं, पर अब वे धनी बस्तियों वाले
मोहल्ले बन गए हैं। अंगूरीबाग पार्क किले के अंदर स्थित था। मोतीबाग चौक में था।
तीसरा पार्क लालबाग सब पार्कों से बड़ा था और जिसने दिल्ली के मुगल सम्राट तक को
आकृष्ट किया था। लालबाग उद्यान की प्रसिद्धि इतनी थी कि दूर - दूर के रईसों,
अमीरजादों और बादशाहों की यह अभिलाषा रहती थी कि एक रंगीन शाम लाल
पार्क में बिताएँ।
शहर के बाहर पश्चिम की ओर नदी के किनारे तक का एक बड़ा
क्षेत्रफल शिकारगाह के रूप में विकसित किया गया था, जिसमें हिरन, चीतल,
नीलगाय आदि पशु लाकर छोड़े गए थे। 1765 से 1774
ई. तक नौ वर्ष फैज़ाबाद अवध नरेश शुजाउद्दौला की राजधानी रहा। उसके
इस उत्कर्ष काल में शहर के अंदर ऐसी भीड़ और नागरिकों का ऐसा जमघट लगा रहता था कि
चौक आदि बाज़ारों से गुजरना मुश्किल था। नगर क्या था, मनुष्यों
का पारावार था। उसके बाज़ारों में देशी और विदेशी सामानों का ढेर था। व्यापारियों
के काफिले के काफिले दूर - दूर से चले आते थे। ईरानी, काबुली,
चीनी और अँग्रेज सौदागर बहुमूल्य माल लाते और बेचते थे। लगभग 200
फ्रांसीसी भी नवाब शुजाउद्दौला की नौकरी में थे जो सिपाहियों को
सैनिक शिक्षा देते थे। बाद में ये फ्रांसीसी असुफद्दौला के वक़्त में लखनऊ चले गए।
फ़ैज़ाबाद के ख्याति के बारे में जानकर मानवी का मन
हिलोरें लेने लगा कि उसे इन स्थानों का भ्रमण अवश्य करना चाहिए। फ़ैज़ाबाद के वैभव, उसकी शान शौकत और नृत्य, गायन तथा विलासिता के जीवन को जिन लोगों ने देखा, वे
मुग्ध हो गए। सन् 1773 में शुजाउद्दौला ने विजय यात्रा पर
पश्चिम की ओर प्रस्थान किया। इस यात्रा को इतिहासकारों ने एक चलते फिरते शहर की
संज्ञा दी है।
शुजाउद्दौला ने इटावा को मराठों से छीन लिया और
रुहेला शासक हाफिज़ रहमत खाँ को हराकर बरेली पर अधिकार कर लिया। अवध का शासन इस समय
चरम उत्कर्ष पर था। पर दुर्भाग्यवश सन् 1774 में एकाएक नवाब शुजाउद्दौला की मृत्यु हो गई और उनकी
मृत्यु के साथ ही फैजाबाद के भाग्य सूर्य का भी अवसान हो गया। इटावा और बरेली की
जब बात चली तो मानवी को बचपन में पढ़ा इतिहास याद हो आया कि पूना के पेशवा के
मराठों का अधिकार उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से तक हो गया था।
नवाब शुजाउद्दौला की मृत्यु के उपरान्त मलिका बहू
बेगम अपने जीवन के अन्त तक फ़ैज़ाबाद में ही रहीं। इस त्याग मूर्ति, पतिपरायण और स्वातंत्र्य प्रेमी
महारानी के प्रति भारतीय जनमानस में बड़ा सम्मान है। बक्सर के युद्ध में जब
शुजाउद्दौला अँग्रेजों से पराजित हो गए और अँग्रेजों ने सन्धि की शर्तों में 50
लाख रुपए हरजाने की माँग की, उस समय उनके पास
एक पैसा न था। नवाब शुजाउद्दौला और अवध की सल्तनत दोनों का अस्तित्व खतरे में था।
ऐसे संकट के समय में बहू बेगम ने अपना सारा व्यक्तिगत पैसा, अपने
सारे आभूषण, अपने नाक की नथ तक उतार कर दे दी। इस तरह
अँग्रेजों का हर्ज़ाना अदा करके बहू बेगम ने अपने पति को और अवध के राज्य को बचा
लिया।
शुजाउद्दौला के बेटे आसफउद्दौला को फ़ैज़ाबाद मे रहना
रुचिकर न लगा। वस्तुतः वह अपनी माँ बहू बेगम से दूर - दूर रह कर स्वच्छन्द, विलासिता का जीवन बिताना चाहते थे।
बहू बेगम अन्त तक फैजाबाद में ही रहीं। उनके जीवनपर्यंत फ़ैज़ाबाद की रौनक और उसकी
मर्यादा भी बनी रही। उनकी मृत्यु सन् 1815 में हुई।
मृत्योपरांत बहू बेगम वहीं दफनाई गईं। उनका मक़बरा जवाहर बाग़ में उनके द्वारा कायम
किए गए ट्रस्ट से बनाया गया।
आज भी यह मक़बरा फ़ैज़ाबाद की एक दर्शनीय इमारत और
मुगलकालीन स्थापत्यकला का उत्कृष्ट नमूना है। आसफउद्दौला ने लखनऊ में रहना शुरू
किया और फैज़ाबाद के गौरव के इतिहास पर पटाक्षेप हो गया। किसी उल्का के उदय और अस्त
की भाँति नौ वर्षों की अल्पावधि में इस नगर का उत्कर्ष और अवसान इतिहास की एक
रोमांचकारी घटना है।
मानवी के सामने हिदुस्तान की तवारीख़ के वे रोमांच
पैदा करने वाले दिनों की बातें एक फ़िल्म की तरह घूम गए और उसने मन ही मन ठान लिया
कि वह फैज़ाबाद के बारे में पूरी जानकारी हासिल करके ही चैन की सांस लेगी। लेकिन वह
जब सोचती कि फ़ैज़ाबाद के इतने पास रहते हुए किसी भी जगह अयोध्या के नाम तक की चर्चा
नहीं हुई तो उसका माथा ठनका और उसने तय किया कि जब कभी मौका मिलेगा तो वह नवाब
साहब और बेग़म साहिबा से इस इतिहास की भूल के बारे में अवश्य बात करेगी...
क्रमशः
30/11/2019
एपिसोड 7
शाम के वक़्त जब नर्गिस और क़मर आये तो बेग़म ज़ाहिदा
बेग़म ने उनकी मुलाकात मानवी से कराई। कुछ देर की ही मुलाकात में मानवी को लगा कि
उसकी नर्गिस और क़मर के साथ अच्छी पटरी खाएगी। बातों ही बातों में मानवी ने अपने
अयोध्या और फ़ैज़ाबाद आने का मक़सद बता दिया और यह भी बता दिया कि वह सीताराम मंदिर
के महंत जी की इच्छानुसार ही उन लोगों के घर आई है। मानवी ने आगे कहा,"मैं फ़ैज़ाबाद और अयोध्या के बारे
में कोई रिसर्च करने के इरादे से तो नहीं आई हूँ लेकिन मेरे मन में इन दोनों जगहों
के बारे में बहुत कुछ जानने की तमन्ना ज़रूर है"
मानवी की बात सुनकर नर्गिस ने कहा, "फ़ैज़ाबाद की बहुतेरी यादें हैं
हमारे अब्बा हुज़ूर और अम्मी के पास। हम तो बस आजकल के फ़ैज़ाबाद को जानते हैं जिसमें
हमें तो पहले वाली कोई बात नहीं नज़र आती है'
क़मर ने भी नर्गिस की बात पर कहा, "मानवी जी आप अब्बू और अम्मी के
साथ कुछ देर बैठिये और फिर देखिए कि पुराने एलपी रिकॉर्ड की तरह एक बार बजना जो
शुरू हुए तो फिर वे रुकने वाले नहीं हैं। रही बात फ़ैज़ाबाद की तो यहां अब पुरानी
कककिया ईंटों की कुछ टूटी फूटी इमारत ही बचीं हैं। जो थोड़ा बहुत हम जानते हैं उसे
दिखाने हम आपको कल ही ले चलते हैं। क्यों नर्गिस ठीक रहेगा न। कल इतवार है छुट्टी
का दिन भी। बाहर चलेंगे कुछ मटरगस्ती करेंगे"
"हां यह ठीक रहेगा", नर्गिस ने कहा।
दोनों की बातें सुनकर मानवी को लगा कि उसे अपना
अधिकतर समय नवाब साहब और बेग़म साहिबा के साथ ही गुजारना चाहिए चूँकि क़मर ने कल के
रोज़ घूमने का प्रोग्राम बना ही लिया तो कोई बात नहीं, यही सोचते हुए वह बोली,
"यह ठीक रहेगा। हमें एक दूसरे को जानने और समझने का मौक़ा भी
मिलेगा"
मानवी की बात सुनकर नर्गिस ने कहा, "यह तय रहा कि हम लोग कल नास्ते
के बाद ही निकल लेंगे"
"हां यही ठीक रहेगा",
कहकर क़मर ने भी नर्गिस की बात को वजन दिया।
रात को जब खाने के लिये वे दोबारा मिले तो नर्गिस ने
अब्बा हुज़ूर से दरख्वास्त की,
"अब्बू आपके बारे में मैंने मानवी को सबकुछ बता दिया है,
अब आपको ही फ़ैज़ाबाद के पुराने वक़्त की कहानी सुनानी पड़ेगी"
"तू फ़िक्र न कर"
"अब्बू वैसे हम लोग कल सुबह निकल
कर फ़ैज़ाबाद की वो टूटी फूटी इमारतों को दिखाने की कोशिश करेगें लेकिन उनके बाबत
बताना आप ही को पड़ेगा"
"ठीक है बाबा", नवाब साहब बोले, "फ़िलहाल तो तुम कवाब, पराठे और बिरयानी के स्वाद की बात करो"
खाना पीना देर रात तक चला और कुछ तो नवाब साहब ने तो
कुछ बेग़म साहिबा ने फैज़ाबाद के पुराने ज़मानें की बातें बताते हुए सबको बहुत
हंसाया। बाद में नवाब साहब बोले,
"मानवी तुम कल इन लोगों के साथ फ़ैज़ाबाद का सैर सपाटा करो बस
मुझे डर है तो यही कि हो सकता है तुम्हें यह भीड़भाड़ वाला शहर अमेरिका के शहरों की
टक्कर में पसंद न आए"
"अंकल जो भी होगा देखा जाएगा।
मुझे जो महसूस होगा मैं आपको बताऊंगी जिससे आप मुझे हक़ीक़त से रूबरू करा सकें"
गपशप लड़ाते जब बहुत देर हो गई तो बेग़म बोलीं, "बच्चो जाओ अब आराम करो कल सुबह
तुमको निकलना भी है"
शब्बाखैर, कह कर सभी लोग अपने - अपने कमरों में चले गये।
अगली सुबह नाश्ते के बाद क़मर और नर्गिस मानवी को कार
से अपने साथ लेकर कलकत्ता क़िले को देखने पहुंचे। क़मर ने कलकत्ता किले के बारे में
बताते हुए कहा, "फैजाबाद
नवाबों की राजधानी हुआ करता था और अपने शासनकाल में उन्होंने कई शानदार इमारतें
बनवाई। इन्ही में से एक था यह कलकत्ता किला जिसका निर्माण अंग्रेजों द्वारा सन् 1764
में बक्सर के युद्ध में हार के बाद शुजाउद्दौला ने करवाया था। किले
का निर्माण इस बात का सूचक था कि युद्ध में हारने के बाद भी उनकी क्षेत्र पर पकड़
कम नहीं हुई थी। इतिहास के अनुसार नवाब और उनकी पत्नी अपनी मृत्यु तक किले में
रहे। किले की दीवारें स्थानीय मिट्टी की बनी हुई हैं। रहे तो महल - वहल भी
होंगे लेकिन अब उनकी जगह बस पुरानी ईंटों की बुनियाद ही दिखाई पड़ती
है। वैसे बताने वाले बताते हैं कि वे सब इमारतें वास्तुकला के लिहाज़ से विशेष रूप
से मुगल शैली में बनाईं गई रही होंगी"
कलकत्ता किले के बाद नर्गिस और क़मर मानवी को गुलाब
बाड़ी दिखाने ले गए जिसके बारे में मशहूर था कि जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है
कि गुलाब बाड़ी का मतलब है गुलाब का बगीचा। यह विशाल बगीचा शुजाउद्दौला और उनके
परिवार की कब्रों को घेरे पूरे क्षेत्र में फैला है। इस बगीचे को सन् 1775 में स्थापित किया गया था और इसमें
कई प्रजातियों के गुलाब पाये जाते हैं। गुलाब के पौधों को बड़ी सतर्कता के साथ
लगाया गया है और पूरे बगीचे को परालौकिक दृश्य प्रदान करता है। इसी परिसर में एक
इमामबाड़ा या इमाम की कब्र भी स्थित है जो स्वंय में एक आकर्षण है।
नवाब शुजाउद्दौला का मकबरा गुलाब बाड़ी जिसका शाब्दिक
अर्थ है ‘गुलाबों का बाग़’
फैजाबाद में स्थित है। यहाँ विभिन्न प्रजातियों के गुलाब फौव्वारे
के चारों तरफ लगाये गये हैं। अवध के तीसरे नवाब शुजा-उद-दौला की कब्र भी इसके
प्रांगण में स्थित है। यह स्मारक चारबाग़ शैली में बनाया गया है जिसके केंद्र में
मकबरा व चारो तरफ फौव्वारे एवं पानी की नहरें है। गुलाब बाड़ी मात्र ऐतिहासिक
स्मारक ही नहीं अपितु इसका सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व भी है। आसपास के लोग इसे
पवित्र स्थान मानते हैं। मान्यता है कि यहाँ से एक सुरंग लखनऊ के पोखर को जाती थी
जिसका उपयोग नवाब द्वारा छुपने के लिए किया जाता था।
फ़ैज़ाबाद शहर के आसपास नवाबकालीन तीन इमारतें जैसीं
हैं जिन्हें पुरातत्व विभाग की ओर से संरक्षित किया गया है। इनमें नवाब
शुजाउद्दौला का मकबरा, बहू बेग़म का मकबरा
व बनी खानम का मकबरा भी शामिल है।
बहू बेग़म का मकबरा नवाब शुजा-उद-द्दौला ने अपनी प्रिय
पत्नी की याद में बनवाया था। मकबरा मुगल स्थापत्य कला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
इतिहास गवाह है कि सन् 1816 में इस मकबरे
को ताजमहल की भव्यता के साथ बनाने का प्रयास किया गया। चन्द्रमा की दूधिया रौशनी
में सफेद संगमरमर अपनी चमक धारण कर लेता है और ऐसा लगता जैसे कि मकबरे को अमरत्व
की चमक मिल जाती है। 42 मीटर की ऊँचाई के साथ यह पूरे
फैजाबाद शहर और उसके आसपास का रंग-बिरंगा दृश्य प्रस्तुत करता है।
मोती महल या पर्ल पैलेस नवाब शुजा-उद-द्दौला की पत्नी
बहू बेगम का निवास था। यह शानदार इमारत मुगल स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
मुग़ल कालीन इमारतें देख चुकने के बाद नर्गिस और क़मर, मानवी को ऋषभदेव राजघाट उद्यान
दिखाने के लिए ले आये। फ़ैज़ाबाद का एक प्रमुख तीर्थस्थान और ऐतिहासिक स्थान है। यह
थोड़ा आश्चर्य की बात है कि यह प्रतिदिन हजारों की संख्या में पर्यटकों को आकर्षित
करता है। इनके मनोरंजन की आवश्यक्ताओं की पूर्ति के लिये ऋषभदेव राजघाट उद्यान को
आम जनता के लिये सन् 1989 में खोला गया था। इसके हरे भरे
मैदान की भलि-भाँति देखरेख की जाती है जिससे कि क्षेत्र में सबसे सुन्दर और घना
है। सजावटी पौधों के अलावा इसका प्रमुख आकर्षण प्रथम जैन तीर्थांकर ऋषभदेव जी की पद्मासन
योग मुद्रा में एक विशाल 22 फीट की प्रतिमा है।
यहां से निकल कर तीनों लोग गली गलियारों से होते हुए
शहर के मुख्य चौक शाही बाज़ार,
जिसे यहां के लोग त्रिपोलिया बाज़ार भी पुकारते हैं, में आ पहुंचे जो हमेशा भीड़भाड़, रिक्शे, कारों, ठेलों - ठिलिया और ट्रैफिक की चिल्लपों के
बाद भी आज फ़ैज़ाबाद के हर निवासी के दिलों पर राज करता है। शुजाउद्दौला के ज़माने का
तीन मेहराब का बना हुआ मुख्य द्वार आज भी यहां की रौनक बना हुआ है। चौक के बीचोबीच
एक मीनार और गुलाई में बनी हुईं पान, तम्बाकू वग़ैरह की
दुकानें चौक की शोभा बनीं हुईं हैं। शहर के लोगों के लिए एक मस्ज़िद और उससे लगा
हुआ एक मेहराब का द्वार आज भी देखने वालों का दिल जीत लेता है। त्रिपोलिया बाज़ार
में लगता है कि शहर के हर कोने से एक सड़क आकर मिल जाती है। कहा जाता है कि नवाबी
वक़्त में इसी बाज़ार में दुनियां भर से आकर वस्तुएं बिकने के लिए आतीं थीं।
मानवी, क़मर और नर्गिस के कहने पर त्रिपोलिया के रेस्टॉरेंट जा बैठे।
वहां उन्होंने गरम - गरम समोसे, जलेबी और इलायची वाली चाय का
ज़ायका भी लिया। मानवी के दिल में कुछ अहम प्रश्न उठ रहे थे जिन्हें पूछने के पहले
उसने क़मर से पूछा, "अगर बुरा न लगे तो मैं एक सवाल पूछ
सकती हूँ"
क़मर ने कहा, "पूछिये - पूछिये, अगर हमें उसका
जवाब आता होगा तो हम आपको जवाब ज़रूर देंगे"
"मुझे ताज़्ज़ुब होता है कि उस वक़्त
के शहंशाहों और नवाबों ने बाज़ार, महल, मक़बरे,
इमामबाड़े तो बनवायें लेकिन हिंदुओ के लिए एक भी मंदिर नहीं बनवाया
जब कि वे बादशाह मुसलमानों के भी थे और हिंदुओं के भी"
"मानवी जी, सवाल
आपका बेज़ा है लेकिन हमारी समझ के बाहर है। बेहतर होगा कि ये सवाल आप अब्बा हुज़ूर
से जरूर से जरूर पूछियेगा शायद उनके पास इसका कोई मुफ़ीद जवाब हो"
क्रमशः
01/12/2019
एपिसोड 8
"कहो भाई कैसा रहा तुम लोगों की
फ़ैज़ाबाद एक्सप्लोरेशन विजिट", नवाब साहब ने पूछा।
क़मर ने उत्तर देते हुए कहा, "अब्बा हुज़ूर वैसे तो सब कुछ
ठीक ही रहा। टूटे - फूटे महलों को दिखा दिया, गुलाबबाड़ी,
बहू बेग़म का मकबरा मतलब जो भी दिखाने लायक चीजें थीं सबकी सब दिखा
दीं"
"त्रिपोलिया भी ले गए थे कि
नहीं"
"आपके अज़ीज़ त्रिपोलिया को भी दिखा
लाये हैं"
"मानवी को कुछ खिलवाया या
नहीं"
अबकी बार नर्गिस ने जवाब दिया, "आपके फैज़ाबाद में मिलता ही
क्या जो खिलवाते, न तो कोई कायदे की जगह है बैठने की और न
कुछ खास खाने - पीने को मिलता है"
"अरे बेटा, फ़ैज़ाबाद
नवाबों के दिनों का शहर है, जब इसके नवाब ही इसे छोड़कर चले
गए तो कोई क्या कर सकता है"
"अब्बू वो सबके सब आपको अपना
रिप्रेजेंटेटिव बना कर जो बिठा गए हैं इसीलिए आप फ़ैज़ाबाद कहाँ छोड़ पा रहे हैं।
मानवी के कुछ सवालात हैं जिनके जवाब हमारे पास नहीं थे अब आप ही उनके सवालात जवाब
दीजिये"
"बता बेटी"
मानवी को लगा कि नवाब साहब को कहीं उसके सवालात अच्छे
न लगे तो बिलावज़ह ही मूड खराब होगा इसलिए उसने कहा, "छोड़िये भी अंकल, फिर कभी बाद में सही"
"जैसी तेरी मर्ज़ी", कहकर नवाब साहब ने नर्गिस को इशारा किया कि अंदर जाकर कहो कि जब कभी कोई
बाहर से आये तो कम से कम उनकी खिदमत में पानी - वानी तो पेश किया करें।
"जी अब्बू"
बेग़म साहिबा के साथ दो नौकरानियां बाक़ायदा चाय - शाय
के इंतजाम के साथ आईं और बेग़म साहिबा ने खुद अपने हाथ से सबको चाय बनाकर दी।
नर्गिस ने खाने पीने के सामान वाली प्लेट्स सभी की ओर बढ़ाते हुए कहा, "लो भाई लो अच्छा लगे लो अपने
ही घर का माल है"
नर्गिस की बात सुनकर सबके चेहरे पर ख़ुशी की एक लहर
दौड़ गई। जिसको जो अच्छा लगा उसने वह लिया मानवी ने बस एक बिस्किट लिया। इस पर बेग़म
साहिबा बोल पड़ीं, "बेटी कुछ और
भी ले ले"
बेग़म साहिबा के कहने पर मानवी ने कुछ टुकड़े काजू और
अख़रोट के भी अपनी प्लेट में रख लिए और बोली, "आंटी अभी कुछ देर पहले ही तो हम सभी ने चाय के साथ गरम
- गरम समोसे और जलेबी खाईं थीं"
"चलो ठीक है ज़्यादा ज़िद भी न करो
जो उसे अच्छा लगेगा वह खुद -ब- खुद ले लेगी", नवाब साहब
ने कहा।
कुछ देर इधर - उधर की बातचीत अवश्य हुई लेकिन मानवी
ने अपने मन की उलझन के बारे में कुछ भी बात नहीं की। रात को जब दूसरे लोग टीवी पर
सीरियल देख रहे थे और नवाब साहब हुक्के का शौंक फरमा रहे थे तब मानवी उनके पास आ
बैठी और उसने कहा, "अंकल क्या
यह सही वक़्त है आपसे कुछ बातचीत करने का"
"अरे बोल तो सही तुझे क्या पूछना
है"
"मुझे आप अपने इतिहास के बारे में
कुछ बताइए"
नवाब साहब ने एक ठंडी सांस ली और बोले, "बेटी सही मायने में कहे तो
हमें भी कुछ ज्यादा नहीं मालूम लेकिन हमारे मरहूम दादा नवाब शफ़ीकुर्रहमान साहब
बताया करते थे कि जब इस्लाम हिंदुस्तान में अपने पैर पसार रहा था तब हमारे पुरखे
एक ज़माने में ईरान से आये थे। वह मुझे लगता है वही वक़्त रहा होगा जब कि पठान लोग
यहां आए और उन्होंने यहाँ के राजाओं और महाराजाओं को लड़ाई में हराकर अपनी हुकूमत
कायम करी होगी। हम लोग शिया मुसलमान हैं दूसरे मुसलमान सुन्नी होते हैं।
हिंदुस्तान में शियाओं की तादाद सुन्नियों के लिहाज से केवल 25 - 30 फ़ीसद होगी। बहुत पुराने ज़माने की बातें तो अब किसी को पता नहीं लेकिन जो
इधर कुछ लिखा हुआ इतिहास जो मिलता है उससे तो यही अंदाज़ा लगता है कि सत्रहवीं शताब्दी
के अंत में नवाब अमीनुद्दीन खाँ बुरहानुलमुल्क मुग़ल दरबार की तरफ से अवध के
सूबेदार नियुक्त हुए। उन्होंने लखनऊ के पुराने शेखों को हराया और अवध के पूरे सूबे
पर कब्ज़ा हासिल किया। उसके बाद गिरते - पड़ते कभी हारते तो कभी जीतते हुए फ़ैज़ाबाद
को उन्होंने अपनी अवध की राजधानी बनाया। तभी से हमारे खानदान की हुकूमत यहां रही
लेकिन नवाब अासुफद्दौला के ज़माने में उनको फ़ैज़ाबाद रास नहीं आया और वो मय बीबी
बच्चों और असबाब के लखनऊ चले गए और उसी को अवध की राजधानी बना लिया। बाकी तो
तुम्हें पता ही है कि बाद में किस तरह लखनऊ के नवाबों ने अंग्रेजों की हुकूमत मानी
और बाद में खुद बेदखल होकर कोई नेपाल चला गया तो कोई दिल्ली तो कोई कलकत्ता। बस
बचे तो हम जो अभी तक नवाबी का ढोल पीटते फ़ैज़ाबाद में पड़े हुए नवाबी झंडे को बचाये
हुए हैं"
"किसी भी कौम को दूसरे मुल्क में
जाकर पांव ज़माने में एक लंबा अरसा लग जाता है। कभी सब कुछ सही ढंग से चलता रहता है
तो कभी मुआमला बीच में गड़बड़ा जाता है तो सबके सब ख़्वाब यहीं के यहीं धरे रह जाते
हैं", मानवी ने अपने दिल की बात करते हुए कहा,
"अंकल एक बात बताइए कि आपको कभी किसी ने अयोध्या के बारे में
कुछ बताया"
नवाब साहब सोचते रह गए कि वह मानवी को अब क्या बताएं
लेकिन जब उन्हें यह अहसास हुआ कि महंत जी ने मानवी को उनके पास भेजा है तो मतलब
साफ़ है कि मानवी के दिमाग़ में अयोध्या को लेकर कुछ और जानने की ललक है यही सब
सोचते हुए नवाब साहब बोले, "कह नहीं
सकता कि यह कहाँ तक सच है या झूठ है पर मुझे लगता है कि फ़ैज़ाबाद से भी पुरानी
अयोध्या है"
"अंकल फिर क्यों यह बात इतिहास की
किताबों से ज़ाहिर नहीं होती कि मुसलमानों की हुकूमत जब सरयू के इस पार फ़ैज़ाबाद में
थी तो वे लोग अयोध्या कैसे जा पहुंचे और उन्हें नमाज़ अदा करने के लिए मस्जिदों की ज़रूरत
वहां ही महसूस हुई"
क्रमशः
02/12/2019
एपिसोड 9
नवाब साहब, मानवी की बात सुनकर पहले तो क्रिकेट की गुगली पर बोल्ड हो गए
लेकिन फिर अपने आप को सम्हालते हुए बोले, " बेटी तेरे
सवाल का कोई सीधा जवाब तो है नहीं। मैं बस इतना ही कह सकता हूँ कि इंसानी ज़रूरतें
उसे कभी इधर तो कभी उधर ले जातीं हैं। वैसे अयोध्या और फ़ैज़ाबाद में कोई ख़ास दूरी
नहीं है। दोनों ही शहर एक दूसरे के पूरक रहे हैं। रही बात मस्ज़िदों के व़जूद की तो
यह बड़ा उलझा हुआ सवाल है हम उससे दूर ही रहें तो अच्छा होगा"
नवाब साहब का जवाब सुनकर मानवी को लगा कि वह जो सोचकर
यहां आई थी उसका तो कोई जवाब उसे मिला ही नहीं। बहरहाल उसने इस मुद्दे को हाल -
फिलहाल के लिए भूल जाने का मन बनाया और उसने नवाब साहब से पूछा, "अच्छा अंकल यह बताइए कि जो लोग
ईरान की तरफ से यहां आए थे उनके खाने पीने में तो कुछ फ़र्क रहा होगा"
"था, न।
बहुत ज़्यादा अंतर था वहां के लोगों के खाने पीने में व यहां के खाने पीने में।
यहां के मूल निवासी जो हिंदू थे उनका मुख्य भोजन दाल, सब्ज़ी
और चावल हुआ करता था लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो मछली को "जल तरोई" समझ
कर खाते थे। कुछ लोग ऐसे भी रहे होंगे जो अन्य जानवरों का शिकार कर खाया करते
होंगे"
"कुछ और भी बताइए न"
"रोटी का चलन इस्लामिक देशों के
लोगों के यहाँ आने के बाद आया होगा यह मेरा अंदाज़ा है चूंकि हम लोगों के यहां खमीर
उठाकर बनने वाली रोटीनुमा शीरमाल खाने का चलन था। बकरे, भेड़
यहाँ तक कि बड़े जानवरों के शिकार का भी हमारे यहां खाने पीने का चलन था"
मानवी को यहां के लोगों के खाने पीने के बारे में
अच्छी खासी जानकारी थी इसलिए उसने नवाब साहब से पूछा, "अंकल आपको कभी खाना बनाने का
शौक़ नहीं पड़ा"
"बेटी मैंने खानसामों को लज़ीज़
खाना बनाते हुए तो बहुत देखा है पर कभी बनाने का शौक़ नहीं पाला", नवाब साहब ने मानवी से पूछा, "तुम यह बात क्यों
पूछ रही हो"
"बस ऐसे ही"
"नहीं तुम्हारे मन में कुछ ना कुछ
तो है"
"दरअसल मेरे पापा को बिरयानी
बनाने का बड़ा शौक़ है और वह अक़्सर ही दिल्ली, लखनऊ और
हैदराबादी बिरयानी की बातें करते ही रहते हैं। मुझे ख़्याल आया कि मैं आपसे जानूँ
कि क्या आपने भी अपने हाथ से कभी कुछ बनाया है"
मानवी की बात सुनकर नवाब साहब बोले, "भाई हमें तो अपने अवध की
बिरयानी के सामने सब किस्म की बिरयानी बे-स्वाद लगती है। वैसे एक डिश और है जो
हमें बहुत पसंद है और वह है मुर्गमुसल्लम"
जब नवाब साहब मुर्गमुसल्लम की बात कर रहे थे तभी उनकी
बेग़म उनके पास आईं और पूछ बैठीं,
"मुर्गमुसल्लम की बात भला कैसे उठी"
नवाब साहब ने बेग़म साहिबा को जवाब में कहा, "हमारे बीच खाने - पीने के बाबत
ही बातचीत चल रही थी इसलिए मुर्गमुसल्लम की बात बीच मे आई"
"अरे मुर्गमुसल्लम ऐसी कौनसी
नायाब चीज है हम कल ही बनाने का हुक्म दे देते हैं", बेग़म
साहिबा ने मानवी से पूछा, "तेरा कुछ और भी मन कर रहा हो
तो बता दे वह भी बनवा देंगे"
बेग़म ने जब यह कहा तो नवाब साहब ने अपनी फ़रमाइश भी
पेश कर दी, "बेग़म ऐसा
करना कि थोड़ा शाही शीर खुरमा और शीर माल भी बनवा देना बहुत दिन हुए हम तो स्वाद ही
भूल गए गए"
"मैं अपनी बेटी से पूछ रही हूं और
मियां जी की लार टपकने लगी", बेग़म ने नवाब साहब की ओर
देखते हुए कहा, "तू बता तुझे और क्या पसंद है"
"आंटी मुझे ईद पर जो सूखी सिवइयां
बनतीं हैं वह बहुत पसंद हैं"
"चल तेरे स्वाद की दोनों और मियां
जी के स्वाद के लिए सभी चीजें कल बनवा दूँगी"
इतना सुनकर, मानवी, बेग़म साहिबा के ऐसे गले से ऐसे
जा लगी जैसे कि वह अपनी माँ के गले से लग जाती थी।
क्रमशः
03/12/2019
एपिसोड 10
मानवी को जब कई रोज़ गुज़र गये नवाब साहब के यहां रहते
हुये और उसे लगने लगा कि उसके करने के लिए कुछ और नहीं है तो उसने वह कड़वा प्रश्न
नवाब साहब से आखिर पूछ ही लिया जिससे वह अब तक बचती आ रही थी, "अंकल मैंने कुछ रोज़ पहले आपसे
यह जानना चाहा था कि अयोध्या में ही खास मस्ज़िदों के बनाने की क्या ज़रूरत आन पड़ी
थी तो आपने इंसानों की बढ़ती हुई ज़रूरतों को ज़िक्र किया था"
नवाब साहब समझ रहे थे कि मानवी उन्हें कुछ ऐसे
सवालातों की ओर ले जा रही है जो इतिहास के लिए भी नासूर बन कर रह गए लेकिन वह करते
भी तो भला क्या! इसलिए बड़ी सादगी भरे लहज़े में बोले, "हां मुझे याद है। तू आगे बोल कि आखिर
तू जानना क्या चाहती है"
"मुझे ताज़्ज़ुब होता है कि उस वक़्त
के शहंशाहओं और नवाबों ने बाज़ार, महल, मकबरे,
इमामबाड़े तो बनवायें लेकिन हिंदुओ के लिए एक भी मंदिर नहीं बनवाया
जब कि वे बादशाह मुसलमानों के भी थे और हिंदुओं के भी"
नवाब साहब मानवी के सवाल को सुनकर कुछ परेशान हुए
लेकिन जब उन्हें यह ख़्याल आया कि मानवी ने अपनी इसी नेचर की वजह से पीएचडी की
डिग्री हासिल करके दिखाई है तो उन्होंने कुछ हल्कापन महसूस किया और जवाब में कहा, "बेटी मैं नहीं कह सकता कि
इस्लाम के मानने वाले शासकों ने वह चाहे हिंदुस्तान में रहे हों या दुनियां के
किसी और भाग में उन्होंने वहां के रहने वालों के लिए उनके पूजा के स्थलों को क्यों
नहीं बनबाया। उल्टे जो लागों के मंदिर थे उनका विनाश किया और अपने लिए मस्जिदें
बनवाईं। ऐसी कई मिसाल तुम्हें अपने यहां मुल्क़ में ही नहीं बल्कि इजिप्ट, टर्की, इज़राइल वग़ैरह में भी देखने को मिल जाएंगी।
मैं जब इस मसले पर सोचता हूँ तो मुझे यही लगता है कि यह अपनी सत्ता के नशे में की
गईं कारगुज़ारियां रहीं होंगी और दूसरा उन सरज़मीं पर अपने पांव जमाने के लिए उन्हें
ज़रूरी लगा हो। यह भी हो सकता है कि उनके मन के भीतर यह शक़ घर कर गया हो कि जब तक
वे लोग यहां के रहने वालों को इस्लाम धर्म का अनुयायी नहीं बनाते तो उनकी जनसंख्या
कैसे आगे बढ़ेगी। तीसरा कारण यह भी रहा होगा कि वे सब बाहर से आए थे जो बहुत अधिक
तादात में नहीं थे। युध्द लड़ने के लिए लड़ाके चाहिए होते थे इसलिए उन्होंने उन कौम
के लोगों को जो यहां के बाशिंदे थे और लड़ाके भी उनको ज़बरन इस्लाम धर्म को अपनाने
पर मज़बूर किया होगा पर हक़ीक़त क्या रही होगी यह सब लोग अपने - अपने अंदाज से बयां
करते रहे हैं। कुछ कहते हैं कि मुग़ल हुक्मरानों ने कई मंदिरो को जागीर देकर उनके
रख रखाव में मदद पहुँचाई। यहां तक भी कि अकबर तो अपने महल में जोधाबाई के साथ
कृष्णजन्माष्टमी का त्योहार भी मनाते थे"
"मेरे ज़हन में एक सवाल बना हुआ है
कि क्या यही ज़रूरी होता है कि किसी मुल्क़ की विरासत को तोड़ - मरोड़ कर ही हम अपनी
बातें लोगों से मनवायें"
"बेटी, मैं
यह दावे से तो नहीं कह सकता हूं कि किसी दूसरे मज़हब के लोगों ने कभी यह काम किया
होगा या नहीं, लेकिन हम मुसलमानों पर यह तोहमत ज़रूर लगती रही
है कि अपने निज़ाम को बढ़ाने की तमन्ना के कारण दूसरों की इबादतगाहों को नुकसान
पहुंचाया गया। यह केवल अपने ही मुल्क़ में नहीं हुआ अपितु इतिहास गवाह है कि यह
एशियाई और अफ़्रीकी मुल्कों में बेशुमार हुआ"
"अंकल, आपका
मानना क्या है, कि यह करना ज़ायज़ था"
"शायद नहीं, हाँ यदि ऐसा न हुआ होता तो बहुत अच्छा होता लेकिन जो हो चुका, उसको कौन मिटा सकता है"
"अंकल मैं जब - जब इन सवालों के
बाबत सोचती हूँ तो मुझे समझ नहीं आता कि जब आप अपने मुल्क़ को छोड़कर किसी और जगह
जाकर बसने की बात सोच रहे हों तो भला कोई कैसे सोच सकता है कि वहाँ के मूल रहने
वालों से दुश्मनी करके आराम से जिया जा सकता है"
"बेटी इसी सोच ने तो हमारे मुल्क़
में ही नहीं कई और जगह भी कई अनसुलझे सवालात खड़े किए हैं, जिसकी
वजह से आज भी इंसान कभी एक दूसरे से मिलकर नहीं रह पाया और उसके मन में एक सौतिया
डाह का ख़्याल चलता ही आ रहा है"
मानवी ने अपने मन की बात करते हुए कहा, "कितना अच्छा होता कि हिंदुओ के
मंदिरों में तोड़फोड़ न की गई होती। मस्ज़िदें बनाते अपनी इबादत के लिए बस उन्हें कुछ
हट के तामीर कराईं होतीं तो हिंदू और मुसलमान आज भाई - भाई की तरह रह रहे
होते"
"बेटी मैं नहीं जानता कि क्या हुआ
क्या नहीं या ये सब कहानी किस्से हैं बस अब तो यही कहना ठीक लगता है जो कुछ हुआ उस
पर हम सिर्फ़ आँसू ही बहा सकते हैं। बस मेरी तो ख़ुदा से इतनी ही दुआ है कि अब भी सब
लोग इस बात को समझें और बेहतर इंसान बनें", नवाब साहब
ने यह कहकर मानवी के सवालों पर मिट्टी डालने की कोशिश की लेकिन मानवी तो उनके
ख्यालातों से भी चार क़दम आगे की सोच रही थी इसलिए सुप्रीम कोर्ट के बाबरी मस्ज़िद -
राम लला मंदिर के मुकद्दमे के जजमेंट को लेकर बोल उठी, "अंकल मुझे कभी - कभी लगता कि सुप्रीम कोर्ट ने महीनों इस मुक्कदम्मे की
सुनवाई करने के बाद भी जजमेंट जल्दबाजी में लिख दिया। बहुत से प्रश्न ऐसे हैं जो
उलझे हुए ही रह गए। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ऐसे लगता है जैसे किसी आर्बिट्रेटर ने
पूरे मुद्दे को इस तरह निपटाने की कोशिश की हो जिससे दोनों तरफ के लोगों को यह
महसूस हो कि उनके साथ कोई बेज़ा बात हुई हो और देश में
अमन चैन बना रहे। अब तो ठंडे मन से सोचने पर यही लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने बहुत
ही सुलझा हुआ फ़ैसला दिया है जो आने वाले दिनों में इस्लाम धर्म के अनुयायियों को
यहां के अन्य धर्मों को मानने वालो के साथ भाईचारे के माहौल में रहने के लिए
प्रोत्साहित करेगा"
"बेटी अपने यहां दो सोच के लोग
रहते हैं। एक वो जो सुप्रीम कोर्ट की राय से इत्तेफाक रखते हैं और एक वे जो यह
सोचते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला उनके लिहाज़ से हक़ीक़त के उसूलों को दरकिनार
करके जल्दबाजी में किया गया फ़ैसला है"
"अंकल आपको नहीं लगता कि जो हुआ
वह हुआ अब हम आगे की सोचें और मिलजुल कर रहें", मानवी
ने अपने मन की बात कहते हुए नवाब साहब के सामने एक सवाल खड़ा कर दिया।
"बेटी जैसा कि मैंने कहा किसी भी
समाज में दो क़िस्म के लोग होते हैं, कुछ प्रोग्रेसिव ख़्यालात
के तो कुछ पुराने वक़्त के हिसाब से चलने वाले। हम शिया मुसलमानों ने बहुत चाहा कि
यह मसायल अब ख़त्म हो लेकिन सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड अभी भी अपनी बात पर अड़ा हुआ है और
सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के ख़िलाफ़ रिव्यु पिटीशन फ़ाइल करने की सोच रहा है। कुछ लोग
बता रहे थे कि जमायते उलेमा - ए - हिंद ने शायद रिव्यु पिटीशन लगा भी दिया
है"
"अंकल आपको क्या ऐसा लगता है कि
आप लोगों में भी इस सवाल को लेकर दो राय चल रहीं हैं"
"बिल्कुल लगता है"
नवाब साहब की बात को सुनकर मानवी को यह एहसास तो हो
गया कि कुछ लोग अभी भी ऐसे हैं जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दिल से नहीं मान पाए
हैं इसलिए उसके मन में सवाल उठा कि आख़िर वह ऐसी कौनसी बात है जिस पर वे लोग अड़े
हुए हैं। मानवी ने नवाब साहब से पूछा, "अंकल मैंने यह तो पढ़ा है कि ज़नाब अंसारी तो यहीं के
रहने वाले हैं जो इस मुकद्दमे के सबसे पुराने लड़ने वाले हैं उनके अलावा क्या कुछ
और भी लोग हैं जो इस मुकद्दमे से ताल्लुक़ रखते हों और यहीं रहते हों"
"तू यह सवाल क्यों पूछ रही
है"
"अंकल मेरा मन कर रहा है कि मैं
उनसे मिलकर उनके दिल की बात जान सकूँ"
"बेटी छोड़ भी। तू कहाँ इन चक्करों
में पड़ी है जो होना है होगा और मुझे लगता है कि कुछ महीनों की बात है मुल्क़ के
सामने सही तस्वीर उभर कर सामने आ ही जायेगी"
मानवी हृदय से नवाब साहब की बात को पचा नहीं पा रही
थी इसलिए वह सोचे जा रही थी कि वह क्या करे जब नवाब साहब ने उससे पूछा, "एक बात बता तू दिल्ली से
अयोध्या - फ़ैज़ाबाद किस मक़सद से आई थी"
"अंकल आई तो थी मैं राम लला और
अयोध्या के दूसरे मंदिरों को देखने"
"तो तू उन मंदिरो को देख और कुछ
दिन महंत जी के साथ गुज़ार। वह तेरे सभी सवालों का जवाब दे सकेगें और तेरे मन की आग
को शांत भी कर देंगे"
मानवी को भी लगा कि शायद यही सही रहेगा लिहाज़ा शाम को
वह टैक्सी करके सीताराम मंदिर लौटने के लिये निकल गई।
क्रमशः
04/12/2019
एपिसोड 11
रास्ते में जब मानवी ने फैज़ाबाद से गुजरते हुए
अयोध्या नगरी में प्रवेश किया तो मानवी के दिमाग़ में अभी भी वे प्रश्न अहम बने
हुये थे जो उसने नवाब हबीबुर्रहमान मिर्ज़ा साहब से फ़ैज़ाबाद प्रवास के दौरान पूछे
थे। मानवी कुछ हद तक तो नवाब साहब की बातों से सहमत थी लेकिन कुछ पर नहीं भी इसलिए
उसको लगा कि वह वही सवाल महंत जी से पूछेगी। रास्ते में उसे एक बोर्ड दिखाई दिया
जो यह इंगित करता था कि वह रास्ता राम लला के मंदिर की ओर जाता है लेकिन उस रास्ते
पर पुलिस और सीआरपीएफ़ के जवान मुस्तैदी से पहरा दे रहे थे। मानवी ने कार रुकवाई और
एक जवान से पूछा, "राम लला के
दर्शन का समय क्या है"
जो उस जवान ने बताया उसे सुनकर मन ही मन उसने यह
निश्चय किया कि वह महंत जी की स्वीकृति प्राप्त कर शीघ्र ही वह जगह देखने आएगी जहां हिंदुओं के
श्रेष्ठ श्री राम टेंट के नीचे आंधी - बरसात में रहते हैं।
कुछ ही देर में मानवी की टैक्सी सरयू घाट के पास थी।
मानवी ने ड्राइवर से पूछा कि क्या वह उसे फैज़ाबाद - अयोध्या - गोरखपुर बाईपास वाले
सरयू नदी के पुल पर ले जा सकता है चूंकि उसे शाम के ढलते सूरज की घाट पर बने
मंदिरों के पीछे की छवि को जो देखना था। वहॉ से जो सीन उसे दिखाई दिया उसे देखकर
उसका मन प्रसन्न हो गया।
जैसे ही उसने सीताराम मंदिर में कदम रखा कि एक सेवक
ने उससे कहा, "महंत जी
आपसे मिलना चाहेंगे"
"ठीक है मैं कमरे तक जा रही हूँ
सामान रखने और फ़्रेश होने के बाद मैं महंत जी से मिलने आती हूँ"
मानवी जैसे ही मंदिर में लौटी तो उसने देखा कि महंत
जी प्रभु की पूजा में तल्लीन थे और जोर - जोर से रामायण की चौपाइयों को बोलते जा
रहे थे। आरती की समाप्ति पर भोग लगाने के बाद महंत जी ने मानवी की ओर रुख़ किया।
मानवी ने उनकी ओर देखते हुए कहा,
"महाराज आपने मुझे याद किया"
"हां बेटी, मैं
जानना चाहता था कि तुम्हारा वक़्त मिर्ज़ा साहेब के परिवार के साथ कैसा गुज़रा"
"बहुत बढ़िया। नवाब साहब और बेग़म
साहिबा का कोई जवाब नहीं दोनों ही गज़ब के इंसान हैं"
"मुझे अच्छा लगा कि तुम उनके साथ
कुछ रोज़ गुजार सकी और फ़ैज़ाबाद की तहज़ीब से वाकिफ़ हो सकी"
"धन्यवाद महाराज, नवाब साहब से मेरी कई विषयों पर लंबी बातचीत हुई और उन्होंने अपने शौक़ के
बारे में बताया"
"तुमने वहां क्या - क्या
खाया"
"सब कुछ महाराज। आप तो जानते ही
हैं कि कायस्थ लोग खान-पान के मामले में आधे मुसलमान होते हैं इसलिए उन्होंने मुझे
जो खाने के लिए दिया उसे मैंने बहुत ही स्वाद से खाया"
मानवी की बात सुनकर महंत जी थोड़ा हँसे और बोले, "हमारे यहां तो तुम्हें शाक -
भाजी और चावल ही मिल सकेगा"
"आप चिंता न करें महाराज। मैं सभी
हालात में रहने की आदी हूँ"
इसके बाद महंत जी और मानवी के बीच फ़ैज़ाबाद और नवाबी
वक़्त को लेकर देर तक बात होती रही। मानवी ने उन्हें बताया कि वह वो सभी स्थान देख
चुकी है जो वहां के दर्शनीय स्थल कहे जा सकते हैं। महंत जी ने उससे पूछा, "क्या तुम त्रिपोलिया भी गई
थी"
"चौक न महाराज। जी महाराज वहां भी
गई थी, वहां की मशहूर दुकान की जलेबी और समोसे भी खाए। बहुत
ही अच्छे थे"
"मस्ज़िद के मेहराब के पीछे सब्ज़ी
मंडी है, जहां ताज़ी सब्ज़ी बेचने के लिये यहाँ के आसपास के
किसान ले जाते हैं। वहीं पीछे कई दुकानें भी हैं। तुम्हें एक बात बताऊँ कि हमारे
भइय्या और हम जब कभी साथ - साथ अयोध्या आते और सर्दियों के लिये लिहाफ़ ख़रीदने होते
तो हम हमेशा फ़ैज़ाबाद ही जाते और वहीं की एक दुकान से लिहाफ़ ख़रीदा करते थे"
"वह दुकानदार क्या ख़ास लिहाफ़ ही
बेचा करता था"
"हां उसकी थोक की दुकान जो थी।
वहां लिहाफ़ बेहद ही सस्ते रेट पर मिल जाते थे"
बातों ही बातों में मानवी ने महंत जी से उनके घर
परिवार के बारे में पूछ लिया। महंत जी की आंखे कुछ भी कहने के पहले नम हो गईं
क्योंकि वह अभी कुछ दिन ही पहले गांव गए थे। उन्होंने अपने परिवार के बारे में
बताते हुआ मानवी से कहा, "अब हमारे
गांव में हमारी भाभी जी के अलावा और कोई भी नहीं है"
"ओह"
"जब मैंने भाभी से कहा कि वह
हमारे साथ चलें तो उन्होंने यही कहा कि वह अब वहां से कहीं और नहीं जायेंगी। जिस
दहलीज पर से वह पाँव रखकर, ब्याह के बाद आईं थीं अब वह वहां
से अर्थी पर ही निकलेगी"
मानवी महंत जी की बात सुनते - सुनते भावुक हो गई और
उसे लगा कि अभी भी गांव में भारतीयता की तस्वीर झलकती है जिसे शहरों में नहीं देखा
जा सकता है....
क्रमशः
05/12/2019
एपिसोड 12
अगले दिन मानवी महंत जी से आज्ञा लेकर अयोध्या जी के
मंदिरों के लिए निकल पड़ी। जैसा कि महंत जी ने उसे बताया वह सबसे पहले वह हनुमान
गढ़ी पहुंची। मंदिर में प्रवेश के पहले वहां के लोगों ने उसे बताया कि मंदिर के
बाहर ही वहां प्रसाद मिलता है और वह वहीं अपनी चप्पल वग़ैरह भी छोड़ सकती है। मानवी
ने अपने लिए प्रसाद लिया और मंदिर की ओर बढ़ चली।
हनुमान गढ़ी एक ऊँचे स्थान पर क़िले की तरह दिख रही थी।
एक - एक सीढ़ी चढ़ करके वह मंदिर के दरवाजे से होती हुई मंदिर के अहाते में आ
पहुंची। चौकोर बने हुए मंदिर के केंद्र में हनुमान लला की मूर्ति प्रतिस्थापित थी।
हनुमान लला के दर्शन करने के बाद मानवी ने प्रसाद वहां के पुजारी को दिया। पुजारी
ने उस प्रसाद को हनुमान लला की मूर्ति के चरणों में कुछ देर के लिए रखा। कुछ अपने
मन ही मन
बुदबुदाया और प्रसाद का कुछ भाग निकालकर मंदिर में रखे बर्तन में
डाल दिया। फिर एक दूसरे बर्तन में रखे प्रसाद का कुछ भाग मानवी के प्रसाद के दोने
में रखकर वापस कर दिया। पुजारी के कथनानुसार मानवी ने मंदिर की परिक्रमा की।
हनुमान लला की मूर्ति के सामने की ओर एक भवन में वहां कुछ साधू पहले ही से बैठे
हुए थे। मानवी के परिक्रमा करने के दौरान राजस्थान के लोगों का एक झुंड भी था। वे
सब साधू - संतो के साथ उसी भवन के एक भाग में बैठ कर उनकी बातें सुनने लगे। एक
साधू तुलसीकृत राम चरित मानस की कुछ चौपाइयां सुना रहा था और उनका भावार्थ भी बता
रहा था। मानवी भी उन लोगों के साथ कुछ देर के लिए बैठ गई। कुछ देर बाद मंदिर में
रहने वाले पुजारियों में से एक युवक मानवी के पास आया और बोला, "महंत जी आपसे कुछ बात करना चाहते हैं"
अचानक इस तरह से उस पुजारी के प्रस्ताव को सुनकर पहले
तो मानवी कुछ चकराई फिर हिम्मत जुटा कर उसने पूछा, "महंत जी कहाँ विराजमान हैं"
उस युवक पुजारी ने बताया कि वे सामने ही बैठे हुए
हैं। युवक पुजारी के कहने पर वह महंत जी के सामने जा बैठी और उनको प्रणाम किया।
महंत जी अच्छे खासे मोटे ताज़े सफ़ेद धोती लपेटे हुए बैठे थे। महंत जी ने मानवी से
पूछा, "पुत्री कहाँ
से पधारी हो"
मानवी ने महंत जी को अपने अयोध्या आने के मंतव्य से
ज्ञात कराया और यह भी बताया कि वह सीता राम मंदिर के महंत जी गुलाब दास जी को
जानती है और वहीं आश्रम में रुकी हुई है। महंत जी को यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई
और वे देर तक मानवी से हनुमान गढ़ी के बारे में चर्चा करते रहे। मानवी ने भी उनसे
अपने जिज्ञासु मन के प्रश्नों के बारे में चर्चा की। जब काफी देर हो गई तो मानवी
ने महंत जी से चलने की अनुमति ली। मंदिर की सीढ़ी के पास लगे पानी के नल से अपनी
प्यास बुझाई और धीरे - धीरे एक - एक करके सीढ़ी उतरने लगी। वह कुछ सीढ़ी ही नीचे
उतरी थी कि एक बंदर ने झपट्टा मार कर उसके हाथों से प्रसाद का दौना छीन लिया। इस
अप्रत्याशित घटना से मानवी एक दम सिहर गई। खाली हाथ वह धीरे - धीरे सीढ़ियों से
उतरती हुई उस दुकान पर आई जहां से उसने प्रसाद लिया था। दुकानदार ने मानवी के हाथ
खाली देखकर उससे पूछा, "बेटी
तुम्हारा प्रसाद कहां है"
मानवी ने हंसते हुए कहा, "उसे तो हनुमान जी छीन कर ले
गए"
मानवी जे उत्तर देने से वह दुकानदार जान गया कि बंदरो
ने प्रसाद छीन लिया होगा। दुकानदार ने मानवी से पूछा, "एक दौना और दूँ घर ले जाने के
लिए"
"नहीं भइय्या रहने दो कोई बात
नहीं मुझे ज्ञान नहीं था इसलिए ऐसा हो गया। कोई बात नहीं आप बताइए कि मुझे कितने
पैसे देने हैं"
दुकानदार ने जितने पैसे बताए उसको देते हुए मानवी ने
चलने के पहले दुकानदार से पूछा कि कनक भवन महल का कौन सा रास्ता है। मानवी सधे
कदमों से कनक महल की ओर बढ़ चली। कनक भवन पहुँच कर जैसे ही मानवी मंदिर में दाख़िल
हुई तो उसे लगा कि कनक महल का भवन अद्वितीय स्थापत्य की निशानी है।
मानवी को यह तो समझ आ गया था कि मर्यादा पुरुषोत्तम
भगवान श्रीराम की पावन नगरी अयोध्या में तो प्राचीन मंदिरों और सिद्ध स्थानों की
कोई कमी नहीं है लेकिन कुछ ऐसे मंदिर भवन और महल हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध अयोध्या के राजा
श्रीराम से रहा होगा। उन्ही में से एक है अयोध्या का प्राचीन कनक भवन मंदिर।
सुन्दर निर्माण शैली और विशाल प्रांगण में बना यह महल स्थापत्य कला का अद्भुद
उदाहरण है। मानवी को अपनी यात्रा के दौरान एक भक्त ने बताया, "इस भवन के बारे में कथा प्रचलित है कि कनक भवन राम विवाह के पश्चात माता
कैकयी के द्वारा सीता जी को मुंह दिखाई में दिया गया था। बाद में जिसे भगवान राम
तथा सीता जी ने अपना निजी भवन बना लिया। उस समय का यह भवन चौदह कोस में फैली अयोध्या
नगरी में स्थित सबसे दिव्य तथा भव्य महल हुआ करता था, अब
जो मंदिर है वह तो बहुत बाद में ओरछा के महाराजा सवाई महेन्द्र प्रताप सिंह की
पत्नी महारानी वृषभानु कुंवरानी की देखरेख में कराया गया था। सन 1891 ई. को उनके द्वारा प्राचीन मूर्तियों की पुन:स्थापना के साथ ही राम सीता
की दो नये विग्रहों की भी प्राण प्रतिष्ठा करवाई गई"
प्राचीन धार्मिक ग्रंथो के अनुसार, कनक भवन का निर्माण महारानी कैकेयी
के अनुरोध पर अयोध्या के राजा दशरथ द्वारा विश्वकर्मा की देखरेख में श्रेष्ठ
शिल्पकारों के द्वारा कराया गया था। मान्यताओं के अनुसार, कनक
भवन के किसी भी उपभवन में पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। भगवान के परम भक्त हनुमान
जी को भी बहुत अनुनय विनय करने के बाद आंगन में ही स्थान मिल पाया था। इसी
मान्यता के तहत कनक भवन के गर्भगृह में भगवान श्रीराम - जानकी के अलावा किसी अन्य
देवता का विग्रह स्थापित नहीं किया गया है। जैसे - जैसे मानवी मंदिर में प्रविष्ट
होती जाती उतनी ही वह मंदिर की प्राचीन दंत कथाओं को जानती जाती।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कई बार कनक भवन का जीर्णोधार कराया
गया जिसमे त्रेता युग में भगवान राम के श्रीधाम जाने के बाद उनके पु्त्र कुश ने
कनक भवन में रामसीता के मूर्तियां स्थापित कीं। समय का चक्र घूमने के साथ ही
अयोध्या के समाप्त होने के साथ यह भवन भी जर्जर हो गया। प्राचीन पुस्तकों में इस
भवन का जिक्र पाया जाता है। इसी स्थान पर कनक भवन से विक्रमादित्य कालीन एक
शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसपर द्वापर युग का वर्णन अंकित
था। उसमें लिखा था कि जब कृष्ण जरासंध का वध करने के उपरान्त प्रमुख तीर्थों की
यात्रा करते हुए अयोध्या आए तो कनक भवन के टीले पर एक पद्मासना देवी को तपस्या
करते हुए देखा। उन्होंने उस टीले का जीर्णोद्धार करवाकर मूर्तियां स्थापित की थीं।
इसी शिलालेख में ही आगे वर्णन है कि संवत 2431 यानी आज से
लगभग 2070 वर्ष पूर्व को समुद्रगुप्त ने भी इस भवन का
जीर्णोद्धार करवाया था। सन 1761 ई. में भक्त कवि रसिक अलि ने
कनक भवन के अष्टकुंज का जीर्णोद्धार करवाया था।
जिस काल में भगवान श्री राम की माता कैकेयी ने अपनी
बहू सीता को यह भवन मुहं दिखाई में दिया था, वह त्रेता युग की घटना थी। समय बीतने पर यह भवन नष्ट हो गया,
लेकिन शास्त्रों और प्राचीन धार्मिक इतिहास के आधार पर इसी स्थान को
कनक भवन महल माना गया।
मानवी ने जब कनक भवन के बारे में वहां के पुजारी जी
से कुछ जानना चाहा तो उन्होंने बताया, "अयोध्या के प्राचीन कनक भवन का महत्व इतना है कि संतों
का मत है कि आज भी भगवान श्री राम सीता माता के साथ इस परिसर में विचरण करते हैं।
इस आस्था पर विश्वास करते हुए संतजन और श्रद्धालु इस परिसर में आकर अपने आप को
प्रभु के समीप अनुभव करते हैं। मंदिर परिसर में भगवान श्री राम का प्रकटोत्सव बड़ी
ही धूम धाम से मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त भगवान श्री राम को सजीव स्वरूप मानकर
सावन में उन्हें झूला झुलाया जाता है। वर्ष में पड़ने वाले अन्नकूट, दीपावली, श्रीहनुमंत - जयन्ती, महालक्ष्मी पूजन, अन्नकूट तथा देव उत्थानी एकादशी
आदि पर्व तीज त्यौहार बड़ी ही आस्था के साथ हर्ष और उल्लास के साथ मंदिर परिसर में
मनाये जाते हैं"
मानवी को कनक महल देखकर एक अजीब सा सुकून लगा जैसे कि
अतृप्त आत्मा की बरसों की प्यास बुझ गई हो। मानवी मंदिर में लंबे समय तक बैठी रही
और देर शाम संध्या आरती हो जाने के बाद ही उसने वहां से प्रस्थान किया।
क्रमशः
06/12/2019
एपिसोड 13
मानवी
जब सीताराम मंदिर पहुंची तो बेइंतहा थकी हुई थी लिहाज़ा वह सीधे अपने कमरे में गई
और आँखें मूंद कर आराम करने लगी। उसकी आँख तब खुली जब एक सेवक उसके लिए चाय लेकर
आया और उसने कहा, "आपके बारे
में महाराज पूछ रहे थे"
"कोई खास
वजह"
"मैं नहीं कह
सकता लेकिन आप रात्रिभोज के समय उनसे मिल अवश्य लीजिएगा"
"ठीक है",
कहकर मानवी फिर आँख मूंद कर लेट गई। जब रात्रि भोज का समय हुआ तो से
ख़्याल आया कि उसे तो महंत जी से मिलना है इसलिए जल्दी से उसने अपना मुंह धोया,
बाल ठीक किये और तैयार होकर भोजन कक्ष में आ गई। कुछ ही देर बाद
वहां महंत जी अपने एक मित्र राम भरोसे के साथ आ गए। राम भरोसे का तार्रूफ़ कराते
हुए महंत जी ने मानवी को बताया कि वह उनके बचपन के मित्र होने के साथ - साथ उनके
गांव के भी रहने वाले हैं। मानवी ने उन्हें नमस्कार करते हुए महंत जी से पूछा,
"आपकी भाभीजी की क्या ख़बर है"
"राम प्रसाद
बता रहे हैं कि वे ठीक हैं। मैंने इनसे कहा है कि जब वह अगली बार अयोध्या आएं तो
उनको अपने साथ लिवाकर ही आयें"
"यह तो और भी
श्रेयस्कर होगा"
महंत
जी ने दुःखी मन से कहा, "प्रभु से
यही प्रार्थना है कि वह किसी तरह अयोध्या आ जाएं"
"आएंगी,
ज़रूर आएंगी मुझे विश्वास है"
मानवी
की बात सुनकर महंत जी ने राहत की सांस ली। जैसे ही सेवकों ने भोजन परोस दिया वैसे
ही महंत जी ने पूजा की और उनके साथ सभी ने भोजन करना शरू कर दिया। भोजन करते -
करते महंत जी ने मानवी से पूछा,
"तुम्हारी अयोध्या यात्रा कैसी रही"
“ठीक रही महाराज।
आपने जैसे कहा था मैं वैसे ही सबसे पहले हनुमान गढ़ी गई और बाद में कनक भवन"
"कैसी लगी
हमारी अयोध्या"
"सुंदर,
बहुत सुंदर। हनुमान गढ़ी देखने के बाद बहुत अच्छा लगा लेकिन वहां की
साफ सफाई की व्यवस्था देखकर थोड़ा मन दुःखी हुआ। गलियारे में जहां देखिए वहां
प्रसाद की बूंदी टपकी पड़ी थी जो पाँव में चिपक कर गंदा कर रही थी। पता नहीं हमारे
मंदिरो में साफ सफाई की व्यवस्था कब सुधरेगी"
महंत
जी ने मानवी की बात सुनकर कहा,
"मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ कि मंदिरो में साफ सफ़ाई और
अच्छे ढंग से होनी चाहिए। इसमें सारा दोष मंदिरों की व्यवस्था करने वालों का ही
नहीं है कुछ तो दोष अपनी जनता का भी है कि वे साफ सफ़ाई के प्रति उतना जागरूक नहीं
हैं"
"बात तो आपकी
ठीक है महाराज लेकिन धीरे - धीरे हमें अपनी सोच में बदलाव तो लाना ही पड़ेगा"
"बेटी हमारे
ग्रामीण अंचल में लोगों में साफ सफ़ाई रखने के लिए जन जागरण करने की आवश्यकता
है"
"महाराज कुछ तो
हम दूसरे मंदिरो से भी सीख ले सकते हैं जैसे कि तिरुपति के मंदिरों में व्यवस्था
है कि हर व्यक्ति को अपने पांव पानी की एक नाली से गीले करके ही मंदिर में जाना
होता है। लगभग यही व्यवस्था हर गुरुद्वारे में भी देखने को मिलती है। काश् हम इस
प्रकार के छोटे - मोटे सुधार अपने यहां के मंदिरो में कर सकें तो अंतरराष्ट्रीय
जगत के लोगों को भी मंदिरो में आने के लिए आकर्षित कर सकते हैं"
"बेटी तेरा यह
सुझाव मुझे बहुत पसंद आया। अयोध्या का कोई और मंदिर यह काम करे या न करे मैं यह
काम अपने मंदिर में कराकर ही चैन लूँगा"
मानवी
को लगा कि चलो महंत जी को उसका सुझाव अच्छा लगा। बाद में जब महंत जी ने कनक भवन के
बारे में पूछा तो मानवी ने कहा,
"महाराज कनक भवन का क्या कहना। उसकी महिमा और इतिहास के बारे
में कुछ कहना सूर्य को दिया दिखाने के समान होगा। मुझे तो वहां मंदिर में बैठकर
बहुत शांति और सुख का अनुभव हुआ"
"बेटी, कनक भवन है ही इतना मनभावन"
"महाराज मैं तो
देर शाम तक कनक भवन में ही रही"
मानवी
की बात पर महंत जी बोले, "इसका मतलब
तुम अभी तक अयोध्या के किसी और मंदिर में नहीं गई"
"गई न महाराज,
मैंने सबसे पहले तो आपका सीताराम मंदिर देखा और मुझे वह बहुत मन
भाया"
मानवी
की बात सुनकर महंत जी को अच्छा लगा और बोले, "बेटी एक काम करो जब कभी तुम अपने पिता श्री अथवा माता
श्री से बात करो तो उनसे कहना कि तुम्हारे रहते हुए वे लोग भी एक बार अयोध्या घूम
जाएं"
मानवी
को महंत जी का यह सुझाव बहुत पसंद आया और उसने निश्चय किया कि वह आज रात ही माँ से
बात करके महंत जी की ओर से उन्हें निमंत्रित करने की कोशिश करेगी।
क्रमशः
7/12/2019
एपिसोड 14
भोजन
के उपरांत मानवी जब अपने कमरे में आई तो सबसे पहले उसने अपनी माँ से बात की और
उन्हें महंत जी की कही बात बताई। माँ से उसकी बहुत देर तक बात हुई जब उन्होंने अयोध्या
घूमने आने की बात पर कुछ नहीं कहा उल्टे उससे पूछा कि वह कितने दिनों में लौटकर आ
रही है तो मानवी ने मां से कहा,
"माँ, पापा आपके पास ही हैं या कहीं बाहर
हैं"
"क्यों"
"मुझे उनसे एक
बात करनी थी"
"ले मैं उन्हें
फोन दे रही हूँ तू बात कर", कहकर मृणालिनी ने फोन माथुर
साहब के हाथों में थमा दिया। माथुर साहब ने मानवी से देर तक बात की और आख़िर में जब
उन्होंने अयोध्या आने की बात मान ली तो मानवी को बहुत ख़ुशी हुई और मानवी ने माथुर
साहब से पूछा, " पापा आप कब तक आओगे"
"बेटी मैं
फ्लाइट देख लेता हूँ जब बुकिंग हो जाएगी तो मैं तुझे फोन करूँगा"
"पापा मैं राम
लला मंदिर आप लोगों के साथ ही देखने चलूँगी'
"ठीक है बाबा।
हम लोग जल्दी ही आएंगे"
माता
पिता से बात हो जाने पर मानवी ने राहत की सांस ली। थकी मांदी मानवी उस रोज ख़ूब
खर्राटे भर कर सोई जब तक उसे एक सेवक ने चाय देने के लिए दरवाज़े पर दस्तक नहीं दी।
मानवी उठकर तैयार होती है और नाश्ते के लिए भोजन कक्ष में आ पहुंची। महंत जी अपने
मित्र राम प्रसाद के साथ वहां पहले ही से बैठे हुए थे। महंत जी ने मानवी से पूछा, "बेटी तुम्हारा आज का क्या
प्रोग्राम है"
"महाराज मैं आज
कुछ समय अयोध्या राज भवन में बिताना चाहूँगी। सुना महल देखने योग्य है और बाद में,
मैं चक्रवर्ती सम्राट दशरथ महल देखते हुए राम लला मंदिर भी
जाऊँगी"
"अयोध्या राज
भवन उस काल की रचना है जब यहां पूजा पाठ के अलावा मनोरंजन के लिए कुछ भी खास नहीं
था। अयोध्या राज भवन के चार द्वार हैं। राज भवन का भव्य मुख्य द्वार जिसे लक्ष्मी
द्वार पुकारा जाता है जिसके बाएं - दाएं हाथ पर बहुत ही आकर्षक मूर्तियां बनी हुईं
हैं। मुख्य द्वार से प्रवेश करने के साथ ही बनी है रंग भूमि जहां नानाप्रकार के
खेल कूद के आयोजन के साथ - साथ रंगमंच के कार्यक्रम भी किये जाते थे। उसके बाद तीन
और द्वार हैं नरसिंह द्वार, पुरंदर द्वार तथा उपवन द्वार।
राज भवन के भीतरी भाग मुख्य राज सदन है जो आज भी लोगों का दिल जीत लेता है। राज
महल के भीतरी आँगन में एक बहुत ही सुंदर शिवालय भी है जो राजपरिवार के लोगों के
लिए ही था। राजभवन में रानी महल, महाराजा महल के अलावा और भी
कई भवन हैं जिनमें आज भी अयोध्या का राज परिवार रहता है"
"पता नहीं मुझे
राज भवन में अंदर जाने की परमिशन मिलेगी भी अथवा नहीं'
"हमारे मित्र
राम प्रसाद बहुत ही अच्छे मौके पर अयोध्या पधारे हैं और आज इनका भी प्रोग्राम
अयोध्या नरेश से मिलने का प्रोग्राम है तुम इन्ही के साथ चली जाओ यह तुम्हारी भेंट
राजा साहब से भी करा देंगे और राज भवन दर्शन की भी व्यवस्था करा देंगे"
महंत
जी की बात पर राम प्रसाद ने कहा,
"गुलाब सुना है कि अब राज भवन के विशाल प्रांगण के कुछ हिस्से
को शीघ्र ही हैरिटेज होटल में परिवर्तित किया जाएगा जिससे यहां अंतराष्ट्रीय
टूरिस्ट भी आकर रुक सकें और अयोध्या के मंदिर इत्यादि देख सकें। उतर प्रदेश सरकार
से इसकी अनुमति मिल गई है। मैं इसी सिलसिले में राजा साहब से मिलने जा रहा
हूँ"
"बहुत सुंदर
समाचार है जा बेटी तू इन्हीं के साथ निकल जा"
"जी
महाराज"
राम
प्रसाद के साथ मानवी महंत जी की नेम प्लेट लगी कार से अयोध्या राज भवन पहुँची तो
उसकी आवभगत बहुत अच्छे ढंग से हुई। राजा साहब से मिलकर वह बहुत प्रसन्न थी। राम
प्रसाद जी ने और राजा साहब ने देर तक आपस में राज भवन के मॉडर्नाइजेशन प्लान पर
बातचीत हुई। बाद में राजा साहब ने खुद मानवी को राज भवन के विभिन्न भवनों की
जानकारी दी। वे भवन भी खुलवा कर दिखाए जो राज परिवार अभी इस्तेमाल नहीं कर रहा था
जो बरसों से बंद पड़े थे। राम प्रसाद जी ने जब पूछा, "राजा साहब क्या यही हिस्से पर्यटकों
के लिए तैयार कराए जाने की योजना है"
"राम प्रसाद जी
अभी तक तो यही योजना अगर हेरिटेज होटल सफल हो जाता है तो बाद में राज भवन के कुछ
हिस्सों में पुराने भवनों के साथ - साथ कुछ नए भवन भी बनवाये जा सकते हैं"
बाद
में वे तीनों राज भवन के प्रांगण में स्थित शिवालय गए और पूजा अर्चना की। वहीं
राजा साहब ने मानवी से कहा, "हमारा एक
शिव मंदिर और है जो ठीक हनुमान गढ़ी के सामने है अगर समय हो तो उसे भी राम प्रसाद
जी आपको दिखा देंगे"
राम
प्रसाद जी ने मानवी को बताया,
"बेटी तुम्हें पता है कि नहीं प्रभु राम के ईष्ट भगवान शिव थे
इसी कारण अयोध्या राज परिवार के शिव ही पूज्य और कुल देवता हैं। राम की नगरी में
भगवान शिव के मंदिर इसी राजपरिवार ने बनबाए हैं। यह शिवालय राज परिवार के सदस्यों
के लिए और हनुमान गढ़ी के ठीक सामने वाला जनता जनार्दन के लिए"
"बहुत सुंदर
जानकारी दी राम प्रसाद जी आपने", मानवी ने कहा,
"मुझे कनक भवन देखते समय बताया गया था, कनक
भवन से विक्रमादित्य कालीन एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसपर
द्वापर युग का वर्णन अंकित था। उसमें लिखा था कि जब कृष्ण जरासंध का वध करने के
उपरान्त प्रमुख तीर्थों की यात्रा करते हुए अयोध्या आए तो कनक भवन के टीले पर एक
पद्मासना देवी को तपस्या करते हुए देखा। उन्होंने उस टीले का जीर्णोद्धार करवाकर
मूर्तियां स्थापित की थीं। इस तरह तो भगवान कृष्ण ने भी अयोध्या के पुनर्निर्माण
में हाथ बटाया"
"तुम सही कहती
हो मानवी इसीलिए आदि काल से अयोध्या देवों के देव के लिए भी पूज्यनीय रही है आगे
भी रहेगी", राजा साहब ने कहा।
कुछ
देर बाद राम प्रसाद जी और मानवी ने राजा साहब से चलने की अनुमति ली और वे कार से
हनुमान गढ़ी जा पहुंचे।
क्रमशः
8/12/2019
अपनी बात :
यह
शायद 1980-81 की बात रही
होगी। हम तब आईटीआई लिमिटेड रायबरेली में पोस्टेड थे और एक बड़ी बस करके अयोध्या
पिकनिक मनाने के इरादे से आये हुए थे। हम लोगों के ग्रुप में श्री सुरेंद्र बहादुर
सिंह भी थे, जिन्हें हम सभी लोग प्यार से 'दाढ़ी' कहकर बुलाते थे। जब हम दशरथ महल तथा सीता रसोई
देखने के लिये इन भवनों को देखकर बाहर निकले तो 'दाढ़ी'
ने कुछ ऐसा कहा जो अनायास ही इस एपिसोड का हिस्सा बन गया। लीजिये
पढ़िए और जानिए कि 'दाढ़ी' ने ऐसा क्या
कह दिया था।
एपिसोड 15
अयोध्या
राजमहल का शिव मंदिर देखने के बाद राम प्रसाद जी तो वहीं रह गए लेकिन मानवी ने आगे
बढ़ते हुए चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जी का महल देखा।
त्रेता
में भगवान राम ने राजा दशरथ के जिस महल में जन्म लिया था, उस विरासत की नुमाइंदगी आज भी होती
है। यह जिक्र है, चुनिंदा पीठों में शुमार दशरथ महल का जो
उसे एक बड़ा स्थान प्रदान करता है। यूं तो इस पीठ की प्राचीनता अनादि है पर सन् 1704
ई. में इसके जीर्णोद्धार का श्रेय पहुंचे हुए संत स्वामी
रामप्रसादाचार्य को जाता है।
उस
समय यह स्थान वीरान पड़ा था पर श्रुतियों के आधार पर लोग इस स्थल को दशरथ महल के
नाम से जानते थे। स्वामी रामप्रसादाचार्य ने इस स्थल पर धूनी तो रमाई पर निर्माण
के नाम पर घास-फूस की कुछ झोपड़ियां ही बनवाईं। उनकी मान्यता थी कि साधु को महल में
रहने की जरूरत नहीं है, उसे तो सिर छुपाने
के लिए नाम मात्र की छत चाहिए। हालांकि उनके शिष्य एवं दशरथ महल के दूसरे
पीठाधिपति स्वामी रघुनाथप्रसादाचार्य ने दशरथ महल को विरासत के अनुरूप आकार देने
का प्रयास किया। महल की तरह भगवान धनुर्धारी राम का भव्य मंदिर बनवाया और करीब 25
बीघे के परिसर में संत निवास, अतिथि गृह,
यज्ञशाला, उद्यान आदि का निर्माण कराया। दशरथ
महल का स्वरूप बाद के कुछ और पीठाधिपतियों के प्रयास से और भव्य होता गया। दशरथ
महल के बारे में विचार करते हुए मानवी के दिमाग़ में एक प्रश्न कौंध गया कि क्या
पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने दशरथ महल के नीचे ख़ुदाई की और उसे क्या इस बात के
प्रमाण मिले कि वहां हज़ारों साल पहले दशरथ महल रहा होगा। जैसा कि राम लला के
जन्मस्थल को लेकर किया गया। हालांकि फिर उसे लगा कि दशरथ महल को लेकर कोई
मुक़्क़द्दमा थोड़े ही चल रहा है जो यह सब काम किया जाना चाहिए।
वर्तमान
पीठाधिपति वदुगाद्याचार्य महंत देवेंद्रप्रसादाचार्य पीठ से पारंपरिक तौर पर जुड़े
उन स्थलों की ओर ध्यान दिलाते हैं, जिससे यह साबित होता है कि यह स्थल त्रेता युग से ही दशरथमहल
के रूप में प्रवाहमान है। त्रेता युग में राजा दशरथ के जिस मखौड़ा धाम पर
पुत्रेष्टि यज्ञ का जिक्र मिलता है, वहां रामजानकी मंदिर के
रूप में दशरथमहल की संपदा अभी भी पूरी जीवंतता से विद्यमान है।
दशरथ
महल के पास ही सीता रसोई को जब मानवी ने देखा तो उसे लगा कि वहां कभी सीता रसोई
रही हो या नहीं पर साधु - संतों ने राम सीता के नाम पर जगह - जगह छोटे - छोटे
मंदिर बना कर सीधी सादी ग्रामीण जनता के मानस में त्रेता युग की कथाओं को मजबूती
से बिठाने का प्रयास अवश्य किया है। जनता जनार्दन जब वहां पूजा भाव से आती है तो
जाहिर है कि दिल खोल कर दान दक्षिणा देकर जाते हैं। इस प्रकार इन मंदिरों से जो आय
होती है वह अयोध्या की गतिविधियों को चलाने में मदद करती है।
मानवी
के साथ चल रहे एक नवयुवक ने तो बातों ही बातों में एक ऐसा मुद्दा उठा दिया जिसको
नकारना या मानना दोनों ही परिस्थितियों पर प्रश्नचिन्ह बन कर रह गया। उस नवयुवक ने
कह डाला, "कहाँ
चक्रवर्ती सम्राट प्रभु राम के पिता महाराज दशरथ इस महल में कभी रहे होंगे यह सोच
कर ही मेरा माथा ठनक जाता है। भला कौन विश्वास करेगा कि सीता जी की यह रसोई रही
होगी। सीता जी रहती कनके भवन में थीं और भोजन बनाने वे यहां इतनी दूर आया करतीं
थीं", उस नवयुवक ने तो यहाँ तक कह दिया, "लगता है कि अयोध्या में झूठ ही नहीं केवल ख़ालिस झूठ का धंधा चल रहा है।
इन्ही लोगों के इस धंधे बाज़ी के चलते यही लगता है कि पता नहीं प्रभु राम का जन्म
स्थल वहीं रहा होगा जिस स्थान को लेकर इतना हो हल्ला मचा हुआ है"
मानवी
ने उस युवक की बातें ध्यान से सुनीं और वह पूरे विषय को एक नए नज़रिए से समझने के
लिए मजबूर हो गई। उसे लगा कि जिस श्रद्धाभाव से अभी तक वह जितने भी स्थान देखने गई
उनकी प्रमाणिकता है भी अथवा नहीं। इसी पेशोपेश में वह धीरे - धीरे चलती हुई राम
लला मंदिर के उस स्थान पर आ पहुंची जहां राम लला एक छोटे से टेंट के नीचे सर्दी
बरसात में लेटे हुए हैं।
जब
मानवी ने मंदिर के पुजारी जी से बात की तो उन्होंने अपनी व्यथा बताई, "रामजन्मभूमि मंदिर में मासिक
औसत करीब 6 लाख रुपये का चढ़ावा श्रद्धालु चढ़ाते हैं,
लेकिन मंदिर की व्यवस्था पर केवल 93 हजार
रुपये मासिक ही खर्च किया जाता है। उनका कहना है कि विवादित परिसर के रिसीवर
अयोध्या के कमिश्नर हैं। उनसे खर्च में बढ़ोत्तरी की मांग पर बस एक ही जवाब मिलता
है कि कोर्ट के आदेश की सीमाओं में रह ही खर्च की राशि बढ़ाने का अधिकार है। चार
हजार रुपये से ज्यादा सालाना बढ़ोतरी नहीं कर सकते"
बाद
में पुजारी जी ने बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने अब अयोध्या में अस्थाई राम मंदिर
के पुजारी और कर्मचारियों के भत्ते को बढ़ाने का फैसला किया है।
प्रधान
पुजारी जी के मुताबिक रामनवमी के अवसर पर हर साल रामलला के लिए सर्दी व गर्मी के
मौसम के हिसाब से अनुसार 7-7 सेटों में ड्रेस
तैयार करवाई जातीं हैं जिन्हें तैयार यहां के हमारे मुस्लिम भाई करते हैं। इन्हीं
को साल भर बदल-बदल कर पहनाया जाता है। रोजाना ड्रेस की धुलाई भी नहीं की जाती। कभी
गंदी दिखने पर पुजारी लोग ही परिसर में धुल लेते हैं।
पुजारी
जी ने कहा, "जितना धन
राम नवमी के नाम पर मिलता है। उसी में राम जन्मोत्सव पर व्यवस्था करनी पड़ती
है"
राम
लला मंदिर से लौटते समय मानवी के दिलोदिमाग में हज़ारों नए प्रश्नों ने जन्म ले
लिया था कि कल को जब राम जन्मभूमि पर एक विशाल मंदिर बनेगा तो यहां की व्यवस्था
सुचारू रूप से चल पाएगी अथवा नहीं। क्या यहां के साधू समाज में एका बनी रहेगी अथवा
सिर फुटटुअल होगा। यही सब सोचते हुए मानवी सीताराम मंदिर वापस लौट आई।
क्रमशः
9/12/2019
एपिसोड 16
थकी
मांदी मानवी चाय पीकर बिस्तर पर एक बार क्या जा लेटी कि वह गहरी नींद में सो गई।
शाम के भोजन के समय जब सेवक उसे बुलाने आया तो उसके बार - बार 'बहिनी - बहिनी' पुकारने
पर भी जब वह नहीं उठी तो सेवक ने महंत जी को सूचित किया। महंत जी तब राम प्रसाद के
साथ बैठकर गप शप लगा रहे थे। सेवक की बात सुनते ही वे समझ गए कि चलते -चलते मानवी
आज थक गई होगी। महंत जी ने सेवक से कहा कि वह मानवी के लिए खाने का थाल सजा कर
उसके कमरे में रख दे। उसकी जब नींद खुलेगी उसका जो मन करेगा खा लेगी। राम प्रसाद
ने भी महंत जी की बात को दोहराते हुए कहा, "जब हम
इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ते थे, इम्तिहान से पहले तैयारी
करते समय रात को नींद न आ जाये इसलिए हम भी मेस में बोलकर कमरे में ही खाने का थाल
रखवा लिया करते थे। जब पढ़ते - पढ़ते थक जाते नींद आने को होती तब जाकर कहीं खाना
खाया करते थे"
सोते
- सोते नींद में मानवी को सपने में उसके पापा और माँ मिले और बोले, "मानवी हम लोग कल सुबह अयोध्या
आ रहे हैं"
"यह तो बहुत
अच्छी ख़बर है"
"हम लोग सीधे
सीताराम मंदिर ही आएंगे तुम कहीं निकल नहीं जाना। हमने अपना प्रोग्राम महंत जो को
बता दिया है"
"ठीक है
माँ", मानवी ने उत्तर में कहा, "मैं कहीं भी नहीं जाऊँगी"
मानवी
अभी सपना देख ही रही थी कि उसके दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। उनींदी आंखों से उसने
दरवाज़ा खोला तो उसने माँ मृणालिनी और पापा जगदीश प्रसाद माथुर को सामने खड़े देखा
तो ख़ुशी से पागल होकर उसने मृणालिनी को अपनी बाहों में लेते हुए कहा, "माँ मैं आप लोगों का ही सपना
देख रही थी। मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है कि आप लोग मेरे सामने हैं"
मृणालिनी
ने भी मानवी को अपने आगोश में लेकर उसे प्यार किया और बाद में मानवी अपने पापा के
गले से जाकर चिपक गई। जब मानवी अपने पापा से गले मिल रही थी तब मृणालिनी ने कहा, "अब अंदर भी आने देगी या हमें
दरवाज़े पर ही खड़ा रखेगी"
"नहीं माँ,
आइये अंदर आइये", कहकर उसने मृणालिनी से
पूछा, "माँ, आपका सामान कहाँ
है"
"हमारे कमरे
में और कहां"
"इसका मतलब
आपको आये हुए कुछ वक़्त हो गया है"
"हां हम लोग
करीब एक घंटे पहले आ गए थे। हम लोगों ने महंत जी के साथ चाय पी तुम्हारे बारे में
बातचीत की कि तुमने यहां आकर क्या - क्या किया"
"महंत जी ने
आपसे क्या कहा"
माथुर
साहब ने हंसते हुए कहा, "वही जो तूने
किया"
"पापा"
"उन्होंने हमें
बताया कि कुछ दिन फ़ैज़ाबाद में नवाब हबीबुर्रहमान साहब के यहां गुजारे और उसके बाद
अयोध्या के मंदिर - मंदिर की खाक़ छानी और क्या"
"जी पापा"
उसके
बाद बाप बेटी और मां बेटी के बीच देर तक बात हुई। बातों ही बातों में एक परिस्थिति
ऐसी भी आई जब मृणालिनी को पूछना पड़ा, "तू करना क्या चाह रही है मेरी तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा
है"
"माँ मैं बस वह
कर रही हूँ जो मुझे अच्छा लग रहा है"
"वह सब तो ठीक
है लेकिन अब कुछ तय कर कि आगे करना क्या है"
"फ़िलहाल तो आप
लोगों को अयोध्या के मंदिर दिखाने हैं और नवाब साहब से मुलाक़ात करानी है"
मानवी
की बात सुनकर माथुर साहब बोल पड़े,
"मानवी तुम तैयार हो जाओ हम लोग नाश्ते पर महंत जी के साथ
तुम्हारा इंतज़ार करेंगे"
"ठीक है
पापा"
जब
तीनों लोग भोजन कक्ष में महंत जी से मिले तो भजन-पूजन, मंदिर-मस्ज़िद के अलावा मदनपुर वाले
मंदिर की भी बातें हुईं। महंत जी ने बाद में कहा, "जब
से ठाकुर साहब गुज़र गए और उनके बच्चे बाहर जा बसे हम भी उस इलाके में नहीं गए।
बहुत मन करता है एक बार वहां जाने का"
महंत
जी की बात सुनकर माथुर साहब बोले,
"चलिये एक बार हम भी बहुत दिनों बाद अपनी हवेली इसी बहाने देख
लेंगे। मृणालिनी और मानवी तो आजतक कभी वहां नहीं गए, वे भी
हमारी मातृभूमि के दर्शन कर लेंगे"
महंत
जी माथुर साहब की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले, "यह प्रोग्राम सही रहेगा"
बातों
- ही - बातों में मृणालिनी ने जब मानवी के संबंध में कहा, "महाराज हम सभी मानवी को लेकर
चिंतित हैं कि यह आख़िर करना क्या चाहती है। अमरीका से पीएचडी करके भी कुछ नहीं कर
रही है। जब इसकी शादी की बात करो तो हर बार हमारी बात अनसुना कर देती है। हमारी
समझ में नहीं आ रहा कि हम आगे अब क्या करें"
माथुर
साहब और मृणालिनी की परेशानियों को समझते हुए महंत जी बोले, "मृणालिनी सुनो हर चीज का अपना
एक समय होता है और कुछ रुके हुए काम प्रभु की मर्ज़ी से ही होते हैं। इसलिए व्यर्थ
में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है", फिर मानवी के
चेहरे की ओर देखते हुए बोले, "मैं मानवी के ललाट को
देखकर कह सकता हूँ कि इसके जीवन में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव होने को ही हैं"
क्रमशः
10/12/2019
एपिसोड 17
महंत
जी की सलाह पर मानवी, माथुर साहब और
मृणालिनी को साथ लेकर अयोध्या के सभी दर्शनीय स्थलों को दिखाने ले गई। शाम को भोजन
के समय महंत जी से ढेर सारे प्रश्नों पर चर्चा हुई। एक प्रश्न जो मानवी को बहुत
दिनों से परेशान कर रहा था जो वह नवाब साहब से भी पूछ चुकी थी उसने महंत जी के
समक्ष भी रख ही दिया, "महाराज क्या मैं कुछ पूछ सकती
हूँ"
"पूछो - पूछो
अवश्य पूछो बेटी, अपने हक़ से पूछो"
"महाराज मैं
कोई इतिहास की स्टूडेंट तो नहीं पर फिर भी जो थोड़ा बहुत आप जैसे ज्ञानियों और गुणी
व्यक्तियों के मुँह से सुना है या जो थोड़ा बहुत पढ़ा है उसके हिसाब से तो यही
प्रचलित है कि हिंदुओं ने कभी किसी दूसरे देश पर अधिकार जमाने के हिसाब से युद्ध
नहीं किया"
महंत
जी बहुत विचार कर मानवी के प्रश्न का जवाब देते हुए कहा, "बहुत ही मुश्किल प्रश्न तुमने
एक सन्यासी से पूछ लिया जिसका सही उत्तर तो कोई इतिहासकार ही दे सकता है लेकिन फिर
भी तुम्हारे भीतर चल रहे द्वंद की शांति के लिए जो मुझे ज्ञान है मैं उसकी बात
करता हूँ"
माथुर
साहब बीच में बोल पड़े, "नहीं महाराज
आपने इतिहास चाहे भले ही न पढ़ा हो लेकिन भजन पूजन करने के साथ - साथ लोगों से
बातचीत में और गुरुजनों से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका कोई सानी नहीं है"
महंत
जी ने माथुर साहब की ओर देखा और फिर मानवी से बोले, "बेटी मैं नहीं कह सकता कि शक्ति
प्रदर्शन करते हुए किसी हिंदू ने किसी अन्य की सत्ता हथियाने के लिए युद्ध किया हो,
या बलात् किसी का धर्म परिवर्तन हेतु वैसा करने का कोई अनाधिकृत
प्रयास किया हो"
माथुर
परिवार महंत जी की बात सुनकर ताज़्जुब करने लगा और माथुर साहब ने महंत जी से पूछा, "भगवन आप ऐसा कैसे कह सकते हैं'
"प्रियवर युद्ध
केवल राजनीतिक सत्ता हथियाने के लिए लड़े जाते रहे हों यह सत्य नहीं है। इतिहास में
इस प्रकार की कई मिसाल मिलतीं हैं जो दर्शाती हैं कि युद्ध लड़ने के कई अन्य कारण
भी रहे हैं। युद्ध हमेशा मुख्यतः तीन कारणों से लड़े जाते रहे हैं"
"वो कौन - कौन
महाराज", मानवी ने महंत जी से पूछा।
"ज़र, जोरू और ज़मीन। यह मुख्य कारण रहे किन्तु बहुत बाद में कुछ विदेशी संस्कृति
के राजाओं ने लोगों को पद्दलित करने तथा स्थानीय निवासियों के सनातन ज्ञान
संस्कृति को धूल धूसरित कर उनके अपने रवाइयतों का फैलाव करने हेतु भी युद्ध को
साधन बनाया जिससे कई बार जुल्म की इंतहा आम जनों के साथ की गई"
"मतलब
महाराज"
"बेटी हर युद्ध
के पीछे कुछ न कुछ कारण रहे हैं। युद्ध चाहे त्रेता युग, द्वापर
अथवा कलियुग में जब - जब लड़े गए तो हमेशा इन तीन कारणों में से प्रमुखतः कोई न कोई
कारण रहा। बेटी, ध्यान करो कि लंका नरेश के पास धन दौलत
संपदा किस चीज की कमी थी लेकिन युद्ध हुआ। युद्ध हुआ वह भी अयोध्यापति प्रभु श्री
राम के विरुद्ध"
जब
महंत जी ने प्रभु राम को लेकर युद्ध की व्यख्या की तब माथुर परिवार को समझ आया कि
लंकापति और अयोध्यापति में युद्ध हुआ तो आख़िर क्यों? माथुर साहब के हृदय में एक शंका उत्पन्न
हुई तो उन्होंने महंत जी से पूछा, "महाराज अगर यह सच है
तो ऐसा क्यों कहा जाता है कि रावण ब्राह्मण श्रेष्ठ और वेदों का ज्ञाता होने के
बावजूद वह भली - भांति जानता था कि युद्ध होने की परिस्थिति में उसका तथा उसके
परिवार का अंत हो जाएगा तो उसने माता सीता का हरण करके प्रभु श्री राम के समक्ष
चुनौती क्यों रखी"
"बेटी तुम्हारे
प्रश्न में ही उत्तर निहित है। मुझे नहीं पता कि वास्तविकता में उस समय क्या स्थित
रही होगी लेकिन हम जैसे राम भक्तों ने राम की महिमा के गुणगान करने में कोई कमी
नहीं रखी जिसमें हमारे परमप्रिय तुलसीदास जी भी हैं जिन्होंने रामचरित मानस में इस
बात को कुछ यूँ दर्शाया है कि रावण को यह ज्ञान था कि प्रभु श्री राम ही उसको इस
जीवन में मुक्ति दिलाएंगे इसलिए वह प्रभु की लीला का एक पात्र बना और अंततः प्रभु
श्री राम के कर कमलों से उसे मोक्ष प्राप्ति हुई"
महंत
जी की बात पर मानवी ने पूछा,
"महाराज आपकी बात अगर सही मान ली जाए तो उससे यही प्रतीत होता
है कि यह सब पूर्व नियोजित कार्यक्रम था जिसमें रावण को प्राण त्यागने थे और प्रभु
श्री राम को यह लीला कर स्वयं को जनता जनार्दन के मन में मर्यादा पुरुषोत्तम की
छवि स्थापित करनी थी"
"बेटी अपनी
धार्मिक ग्रंथों में तो यही चर्चा की गई है"
"महाराज...",
कहकर मानवी चुप सी रह गई। उसपर महंत जी ने मानवी से कहा,
"तुम अपनी बात रखो मुझे प्रसन्नता होगी"
मानवी
ने अपनी माँ की ओर देखा और फिर बाद में अपने पिता श्री माथुर साहब की ओर देखा। उसे
जब लगा कि उसके प्रश्न पर उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं है तो उसने अपना प्रश्न पूछा, "महाराज, फिर
कृपया यह बताइये माना कि रावण को प्रभु श्री राम के हाथों ही मोक्ष प्राप्ति होनी
थी लेकिन उन सहस्त्रों नर - नारी, वानर - दानव का क्या जो
प्रभु श्री राम की सेना और रावण की सेना में युद्ध के कारण मारे गए। क्या आप यह
कहेंगे कि उन सबको मोक्ष प्राप्त हुआ एवमं यह सब भी पूर्व सुनियोजित था"
मानवी
के प्रश्न पर क्षण भर के लिए लगा कि महंत जी मानवी के प्रश्न को सुनकर व्यथित हुए
पर शीघ ही स्वयं को सम्हालते हुए बोले, "तुम प्रश्न अच्छे पूछती हो। यही कारण रहा कि तुमको
पीएचडी हासिल हुई लेकिन यह न भूलो कि धर्म वास्तविकता पर आधारित न भी हो लेकिन
उसकी आस्था की जड़ें बहुत गहरी होतीं हैं और 'सर्व जन हिताय -
सर्व जन सुखाय' सिद्धांत पर फलती - फूलतीं हैं, यहॉ यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि "होई
है वही, जे राम रचि राखा"
मानवी
को पल भर के लिए लगा कि धर्म और धार्मिक कार्यो से जुड़े लोगों के पास जब कहने के
लिए कुछ शेष नहीं रहता है तो अक़्सर ही वे आस्था का नाम लेकर छुटकारा पा जाते हैं।
यही सब सोचते हुए जब मानवी ने प्रश्न पूछने की कोशिश की तो उसकी माँ ने उसे रोकते
हुए कहा, "मानवी बस अब
कुछ और नहीं अन्यथा वह कुतर्क की श्रेणी में माना जायेगा"
मानवी
अपनी माँ के कहने पर चुप तो रह गई लेकिन उसके हृदय में अशांति ही बनी रही।
क्रमशः
11/12/2019
एपिसोड 18
मानवी
जब अपने माता पिता के साथ उनके कमरे में थी तो उसने अपनी माँ से कहा, "मुझे आपने प्रश्न करने से रोक
क्यों दिया? क्या मेरा प्रश्न पूछना ग़लत था"
"ग़लत था या
नहीं लेकिन मैं इतना जानती हूँ कि हम महंत जी के आश्रम में उनकी कृपा से हैं इसलिए
हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिसमें वे स्वयं को असहज समझें"
"माँ आपके कहने
का अर्थ यह हुआ कि चूँकि हम उनकी कृपा पर यहां हैं इसलिए कुछ भी न पूछें"
माँ
बेटी के बीच पड़ते हुए माथुर साहब ने कहा, "मानवी माना कि राम मंदिर की कहानी के पीछे कई राज़ हैं।
वहां कभी मंदिर था भी या नहीं कुछ नहीं कहा जा सकता। वैसे यह भी कटु सत्य है जब यह
देश प्रदेश आदि काल से हिंदुओं का गढ़ रहा हो तो ख़ुदाई में किसी मंदिर के भग्नावशेष
मिले भीं हों तो क्या? पता नहीं वे जैन मंदिर के थे, बौद्ध मठ के या किसी अन्य भवन के। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अब इसका फैसला
सुप्रीम कोर्ट से हो गया तो कहानी बंद"
मानवी
को अपने पापा की बात समझने में दिक्कत इसलिए हो रही थी क्योंकि उसके दिल में यह
बात घर कर गई थी कि राम जन्म भूमि का पूरा मुद्दा एक बनाया हुआ राजनीतिक मुद्दा है, कमाई का ज़रिया है और जन्मजन्मांतर तक
रहने वाला है। हिंदुओं की आस्था से जोड़कर इसे बबंडर बनाने का काम राजनेताओं ने
किया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी रामजन्म भूमि के मुद्दे को वास्तविक ज़मीन के
मालिकाना हक को न मानकर इसे आस्था से जुड़े होने की तरफ़दारी करते हुए अपना निर्णय
लिख दिया। वह इसी सोच में थी जब माथुर साहब उससे बोल पड़े, "मैं तुम्हारी कई बातों से सहमत होते हुए भी मैं इस प्रश्न पर तुम्हारा
समर्थक नहीं हो सकता हूँ"
"पापा मैं
महाराज जी का आदर सम्मान करती हूँ लेकिन मेरे मन में जो जिज्ञासा है क्या मैं उसके
बारे में भी कुछ न पूछूँ। भला यह कैसी बात हुई"
"बेटी यहीं
संस्कार की बात उठती है। हमें अपने संस्कार कभी नहीं भूलने चाहिए जब तक कि हम शांत
मन से प्रश्न पूछने के क़ाबिल न हों तो हमें प्रश्न नहीं पूछना चाहिए"
"इसका मतलब तो
मैं यह मानूँ कि मुझे प्रश्न पूछने का अधिकार है लेकिन मुझे उचित समय का इंतज़ार
करना चाहिए"
"मेरी बात अब
तुमने समझी", माथुर साहब ने यह कहकर मानवी को शांत किया।
मानवी
ने अपना मोबाइल उठाया और फेसबुक पर आई अपनी मित्रों की पोस्ट देखने लगी। इतने में
ही उसे डॉक्टर हरि नारायण सिंह,
जो कि उसके साथ अमेरिका में थे उनकी एक पोस्ट शिव करके नज़र आई तो
उसे वह ध्यानपूर्वक पढ़ने लगी :
"शिव
बड़ा
जटिल प्रश्न है। क्या आप जानते हैं कि आप समय और किस दिन पैदा हुए थे। डर लगता है
कि इसका ज़िक्र भी करूँ या न करूँ। न करुँ तो सवाल एक कीड़े की तरह दिमाग़ को कुरेदता
रहेगा और पूछ लूँ तो आप ज्यादा से ज्यादा यही तो कहेंगे कि पगला गया है। इसलिए पूछ
ही लेता हूँ।
आपको
अपना जन्मदिन याद है। किस दिन आप पैदा हुए थे?
माता
ने बताया कि अमुक दिन, पिता ने बताया कि
अमुक दिन और फिर बाद में पंडित जी (ज्योतिषचार्य) ने उसी आधार पर जन्मपत्रिका बना
दी। क्या अच्छा होगा, क्या बुरा होगा यहां तक कि कब होगा यह
भी लिख कर प्रमाणित कर दिया। हॉस्पिटल के बर्थ सर्टिफिकेट के आधार पर स्कूल में
एडमिशन लेते समय वही डेट ऑफ बर्थ एक बार दर्ज़ क्या हुई कि वही हमारा डीएनए बन गई।
कोई
यह नहीं पूछता कि इस जगत को बनाने वाले का जन्म कब हुआ था? पता नहीं वास्तव में हुआ भी था या
नहीं। शायद कोई सनकी यह भी कह दे कि यह सब निरी गप्पबाज़ी है और कुछ नहीं। देवों के
देव को कुछ सज़ा धजा कर हिंदुओं के मष्तिष्क में इस तरह बिठा दिया गया है कि वही
महाकाल हैं, वही रचियता हैं, वही
रखवाले हैं, वही पालनहार हैं, वही
विनाश लीला का सूत्रधार हैं। जीवन और मृत्यु के इस समागम के बारे में प्रश्न करने
का अधिकार किसी को भी नहीं है। ख़ाली यही नहीं सभी देवी देवताओं की कहानियां किसी
क़लमकार की कल्पना मात्र लगतीं हैं
वैज्ञानिक
इसके ठीक विपरीत बताते हैं कि मानवीय जीवन एक क्रमिक विकास की परिणीति है और
मानवीय जन्म उसकी सबसे सुंदर मिसाल है। अब आगे क्या होगा? उस पर विज्ञान शांत हो जाता है। जब
कोई वस्तु है ही नहीं उसके बारे में भला कोई कहे भी तो कैसे। फिर एकबारगी लगता है
कि इसी वैज्ञानिक सोच ने आज सुदूर अंतरिक्ष में कई नव नूतन खोज कर सिद्ध कर दिया
कि अपने जहां से आगे भी कई और जहां हैं। मानव खास तौर पर अपने ज्योतिष शास्त्र की
उस बात को और महाज्ञानी - ध्यानी गुण संपन्न लोगों की उस बात को नकार दिया कि चंदा
मामा एक भगवान है। एक चीज और बता दी कि इसी अंतरिक्ष में एक नहीं अनेक ब्लैक होल
हैं जिसमें हर क्षण कुछ न कुछ समाता जाता है। मतलब यह कि घूम फिरके वहीं के वहीं
कि आख़िर शिव का जन्म कब हुआ, कैसे हुआ और उनके माता पिता कौन
थे?
अब
जो कुछ भी रहा हो लेकिन यह सब सोचकर कभी - कभी यह अवश्य लगता है कि जिस किसी ने शिव की
रचना को साकार किया वह बहुत बड़ा कृतिकार है उसका कोई सानी न है और न होगा। सतयुग,
त्रेता, द्वापर और कलियुग तक वर्षों पुरानी
घटनाओं पर कहानी क़िस्सों पर कोई कितना विश्वास करे यह उसके अपने विवेक पर निर्भर
करता है।
मित्रों, इसलिए कुछ लिखिए बस वही इतिहास में
दर्ज़ होगा चाहे हार्ड कॉपी अथवा सॉफ्ट कॉपी में बाकी सब तो धरती के वातावरण में
गूँज कर कहीं अनंत में खो जाएगा, ब्लैक होल की भेंट हो
जाएगा।"
मानवी
की सोच को डॉक्टर सिंह की पोस्ट ने कुछ नए आयाम दे दिए और उसके सामने कई सवाल खड़े
कर दिये। मानवी ने मन में निश्चय किया कि वह डॉक्टर सिंह से इस विषय पर बात करेगी।
यही सोचते हुए उसने पोस्ट पर अपनी टिप्पणी लिख कर पोस्ट कर दी। कुछ ही देर बाद
डॉक्टर सिंह का फोन मानवी के पास आया और दोनों में बहुत देर तक बातचीत हुई। अंत
में मानवी ने यह कहकर फोन डिसकनेक्ट किया कि वह अभी अपने माता पिता को लेकर मंदिर
दिखाने ले जा रही है और वह उनसे बाद में बात करेगी।
कुछ
देर बाद तीनों लोग अयोध्या के विभिन्न दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए निकल पड़े और
देर शाम को जब सीताराम मंदिर लौटे तो महंत जी के पूछने पर मृणालिनी ने कहा, "कहने को तो अयोध्या में गली -
गली में राम जी के मंदिर है लेकिन हमको सबसे अच्छा मंदिर कनक भवन ही लगा"
"कनक भवन का
स्थापत्य और विकास हर युग, हर काल में कई लोगों द्वारा कराया
गया। मुझे उम्मीद है कि मानवी ने आपको उसकी महिमा का ज्ञान कराया होगा"
"जी महाराज,
हम जिन मंदिरों को देखना चाह रहे थे उसमें से कल हम लोग राम लला के
दर्शन करने जाएंगे। आज वहाँ नहीं जा पाए"
"कोई बात नहीं
आप आराम से रहिये और मंदिर देखिये और जब तक मन करे यहां रहिये। आप अब तभी यहां से
जा पाएंगे जब प्रभु श्री राम चाहेंगे", महंत जी बोले।
"प्रभु की
मर्ज़ी के बिना तो कुछ भी नहीं होता है महाराज", माथुर
साहब ने महंत जी से कहा।
"यह तो आपने
सही कहा माथुर साहब"
"क्या पता
प्रभु राम का आशीर्वाद मिला तो हम और आप मदनपुर चलें और आपके साथ वहां ठाकुर जी के
मंदिर में पूजा अर्चना करें"
"माथुर साहब
मैं आज शाम की बेला में प्रभु से प्रार्थना करूँगा कि काश वह हमें वहां जाने के
लिए प्रेरित करे"
महंत
जी की बात पर मृणालिनी ने भी उनसे सहमति जताते हुए कहा, "महाराज अबकी बार कुछ ऐसा करिये
कि हम भी मदनपुर घूमने जा सकें"
महंत
जी ने मानवी की ओर देखते हुए कहा,
"क्या बात है आज हमारी बेटी कैसे चुप - चुप सी है"
"नहीं महाराज
ऐसी कोई बात नहीं है। हमको मानवी ने अयोध्या के बारे में जो भी उसका अध्ययन रहा हो
उसके हिसाब से उसने हमें विस्तार से बताया", माथुर साहब
बोले।
"नहीं, मैं अच्छी तरह समझ रहा हूँ चूँकि उसके कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह गए इसलिए
उसके दिल दिमाग़ में अशांति का वातावरण बना हुआ है", महंत
जी ने कहा, "आप लोग जाइये चाय - शाय पीजिये और बाद में
प्रभु के दरबार में मिलिये, हम मानवी के सभी प्रश्नों का
उत्तर देना चाहेंगे"
क्रमशः
12/12/2019
एपिसोड 19
जब
मानवी को, प्रश्नों का सही
या ग़लत उत्तर मिल गया तो महंत जी ने माथुर साहब और मृणालिनी से कहा, "अगर आप ठीक समझें तो हम लोग कल सुबह सरयू घाट पर कुछ समय बिताएं आपको
अच्छा लगेगा।
मृणालिनी
ने पूछा, "कितने बजे
चलना होगा"
"सुबह - सुबह
साढ़े पाँच बजे"
"ठीक है हम लोग
तैयार हो जाएंगे बस एक कप चाय पिलवा दीजिएगा"
"अवश्य मैं
रसोइये से कह दूँगा", महंत जी ने माथुर परिवार को
आश्वस्त किया।
मानवी
इतनी सुबह नहीं उठना चाह रही थी तो उसने अपनी माँ से कहा,"इतनी सुबह। माँ आप लोग महाराज
जी के साथ चले जाईयेगा, मैं कमरे में ही रहूँगी"
"पिछले कई
दिनों से भाग दौड़ करते थक गई हो बेटी, तू आराम से उठना। कोई
जल्दी नहीं है", महंत जी बोले।
जब
अगले दिन सुबह में महंत जी से आकर माथुर साहब और मृणालिनी मिले तो उन्हें नमस्कार
किया और महंत जी के पीछे - पीछे चलकर वे तीनों लोग सरयू के घाट पर सीढ़ियों पर आकर
बैठ गए। पूर्व दिशा में पौ के सूर्य देवता की महिमा अपने पाँव पसार रही थी। इतना
सुंदर दृश्य देख माथुर परिवार को बहुत अच्छा लगा और माथुर साहब महंत जी से बोले, "महाराज कितना मनमोहक दृश्य है
लगता है कि हम यहीं रह जाएं"
महंत
जी कुछ न कहकर बस मुस्कुरा भर दिए। बाद में हंसते हुए बोले, "यह स्थान हम जैसे सन्यासियों
के लिए ठीक है। आप ठहरे परिवार वाले आपको अपने परिवार के साथ ही रहना है। अभी तो
आपको मानवी बिटिया के हाथ पीले करने हैं"
हाथ
पीले करने की बात सुनकर मृणालिनी ने महंत जी से कहा, "महाराज हम क्या करें, हमने मानवी को बहुत समझाया कि हर चीज की उम्र होती है। लड़कियों की शादी भी
उचित समय पर हो जानी चाहिए। लेकिन हर बार वह विवाह के प्रश्न को टाल जाती है"
"मानवी का कोई
दोस्त अमेरिका अथवा दिल्ली में है?", महंत जी ने पूछा।
मृणालिनी
ने कहा, "महाराज हमने
पूरी स्वतंत्रता दी हुई है कि वह जिस लड़के से विवाह करना चाहे करे, हमें कोई एतराज नहीं है"
"महाराज हम लोग
इस बात से भी चिंतित हैं कि जबसे मानवी अमेरिका से वापस आई है तब से न तो उसने यह
नहीं बताया कि वह करना क्या चाहती है और न ही कोई अपना काम शुरू किया है। इसीलिए
जब इसने अयोध्या घूमने की बात की तो हमने इसे आने दिया जिससे इसका दिमाग़ बिजी
रहे"
महंत
जी कुछ देर तक सोचते रहे फिर बोले, "माथुर साहब अभी आप अयोध्या कितने दिन और रुकने वाले
हैं"
"महाराज हम सोचते
हैं कि हम लोग परसों यहां से निकल जाएं"
"एक काम करें।
जब से मानवी यहां आई है तब से मेरा बहुत मन कर रहा है कि मैं कुछ दिनों के लिए
मदनपुर जाऊं। कुछ दिन गाँव के लोगों के बीच रहूँगा और वहां के पुजारी जी से
मिलूंगा तो मेरे भी मन को सकून मिल जायेगा"
"अरे यह तो
बहुत अच्छा रहेगा", माथुर साहब बोले, "आपके साथ हम लोग भी मदनपुर दर्शन कर लेंगे"
"तो यह पक्का
रहा कि हम लोग परसों सुबह कार से मदनपुर चलेंगे। अब तो सड़क भी अच्छी बन गई है तो
कोई दिक्कत नहीं होगी"
"महाराज आपका
बहुत - बहुत धन्यवाद"
तीनों
लोग एक नाव में बैठकर घाट के किनारे होते हुए सरयू की मनोरम छटा और अयोध्या को
सुबह - सुबह की किरणों में नहाई हुई छटा को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। कुछ देर घाट
पर बिता कर तीनों लोग सीताराम मंदिर लौट आये। तब सबने देखा कि मानवी मंदिर में
प्रभु की मूर्ति के सामने बैठी आँख मूँद कर तल्लीन थी। महंत जी ने उसे टोकने के
लिए सबको मना किया और उसके पीछे वे लोग भी शांत चित्त हो प्रभु की पूजा करने लगे।
कुछ
देर बाद मानवी की तन्मयता भंग हुई तो उसने महंत जी और अपने माता पिता को अपने पीछे
बैठे पाया तो बोल पड़ी, "आप लोग कब
वापस आये"
"बस कुछ देर ही
पहले", महंत जी बोल पड़े, "अच्छा
लगा कि बेटी आज प्रभु के दरबार में बैठकर उनसे कुछ अपने मन की बात कह रही है"
मुस्कुराते
हुए मानवी ने उत्तर दिया, "महाराज ऐसी
तो कोई बात नहीं वैसे प्रभु के दरबार में शांत मन से बैठकर अच्छा लगा। कल मैंने जो
आपसे अभद्रता की और प्रश्न पूछे उसके लिए मुझे कृपया उसके लिए मुआफ़ कर दें"
"प्रश्न नहीं
पूछोगी तो सत्य को जानोगी कैसे", महंत जी ने कहा। मानवी
और महंत जी में इसके बाद देर तक चर्चा हुई। जब वह अपने पापा से मिली तो माथुर साहब
ने उसे को बताया कि वे परसों सुबह मदनपुर के लिए कार से निकलेंगे।
क्रमशः
13/12/2019
अपनी बात :
कल
एक मित्र की टिप्पणी देखी जो इंगित कर रही थी कि लेखक मानवी के खोजी दिमाग़ को
प्रश्न पूछने भी नहीं दे रहा है,
उनकी यह कोशिश कहीं मुख्य प्रश्नों से बचने की लगती है। ठीक कहा गया
पर सुधी पाठको को यह ध्यान में रखना चाहिए कि एक धारावाहिक लिखने वाला लेखक कभी भी
सभी प्रश्नों के जवाब एक साथ नहीं दिया करता। अगर वह सभी प्रश्नों के उत्तर दे
देगा तो आगे क्या लिखेगा। धारावाहिक लेखकों के सामने सम्भावनाओं का विशाल भंडार
होता है बस उसे एक डुबकी लगाने की आवश्यकता होती है।
आज
का यह एपिसोड सुधी पाठक की चिंताओं का निराकरण करते हुए भविष्य की दशा और दिशा को
तय करेगा। ऐसा मेरा व्यक्तिगत विचार है।
एस पी सिंह
13/12/2019
एपिसोड 20
दिन
में माता पिता को लेकर मानवी दशरथ महल तथा राम लला का मंदिर दिखाने ले गई। चूंकि
मानवी यह दोनों मंदिर पहले ही देख चुकी थी इसलिए उसको यह स्थान दिखाने में अधिक
समय नहीं लगा लेकिन जब मृणालिनी ने प्रश्न किया कि इस छोटे से ज़मीन के टुकड़े को
लेकर अपने मुल्क़ में कितनी खींच तान मची हुई है तो मानवी से नहीं रहा गया और उसने
कहा, "माँ अभी तक जो
हुआ सो हुआ अभी तो आप देखते जाइये जो आगे चल कर होगा"
"क्या
होगा", मृणालिनी ने पूछा।
"सुप्रीम कोर्ट
में रिव्यु पिटीशन के फ़ाइल हो जाने के बाद प्रश्न यह उठेगा कि क्या कोर्ट उसे
एडमिट करता भी है कि नहीं"
माथुर
साहब जो माँ बेटी की बात सुन रहे थे बोल पड़े, "हिंदू होने के नाते कुछ लोग भले ही कुछ कहें लेकिन
मुस्लिम पक्षकारों की इस बात में दम है अब देखना है कि
सुप्रीम कोर्ट इस रिव्यु पिटीशन पर क्या निर्णय लेता है"
"पापा सुप्रीम
कोर्ट ने सम्पूर्ण केस को आस्था का प्रश्न मानकर निर्णय हिंदू पक्षकारों के हक़ में
निर्णय दिया है"
"बेटी क्या इसे
न्यायसंगत और संविधानसंगत माना जा सकेगा?"
"पापा अगर
सुप्रीम कोर्ट यह निर्णय नहीं करता तो आप यह तय मानिए कि देश को दंगो और फ़साद के
दौर में धकेल दिया गया होता। जो निर्णय आया है उसे मान लेने में ही सभी का हित
है"
"हां बेटी अब
तो यही कहा जा सकता है और शायद यही सही भी हो लेकिन ....."
".....लेकिन -
वेकिन को छोड़िये अब जो होना होगा वह होगा मंदिर बने और शांति बनी रहे उसी में सबका
भला है", मृणालिनी ने अपने विचार रखते हुए कहा।
"पापा मैंने
अयोध्या में रहते हुए यह महसूस किया है कि सभी लोग चाहते हैं कि राम लला का मंदिर
शीघ्र बने पर मंदिर के प्रश्न पर साधु संतो के बीच गुटबंदी भी बहुत है"
"बेटी एक बात
याद रखना कि अयोध्या सीता जी की शापित है यहां कोई काम उतना आसानी से न हुआ है और
न आगे होगा। एक धोबी के कहने पर इसी अयोध्या ने सीता को रात के अंधेरे में बहुत
दूर जाना पड़ा था। यहां संतों में, साधुओं में, राज नेताओं में मारकाट होनी ही है। जहां पैसे का खेल होता है वहां कुछ लोग
इस प्रकार के होते हैं जो इस सबके बीच अपना लाभ देखते हैं। कुछ को नाम चाहिए तो
कुछ को दाम। जब यह स्थिति बनती है कुछ ऐसे जटिल प्रश्न होते हैं जो अनुउत्तरति रह
जाते हैं। इसलिए अपने प्रश्नों को भूल कर जीवन में आगे बढ़ो"
"तुम रहने भी
दो अब धर्म प्रचारक बनने की कोशिश मत करो", मृणालिनी ने
माथुर साहब को टोकते हुए कहा।
"मृणालिनी यह
धर्म प्रचारक बनने की बात नहीं बल्कि अपनी बेटी के मन में उठ रहे बबंडर को शांत
करने के लिए मैं कहता हूँ कि मोक्ष तो उन्हें भी प्राप्त न हो सका जो स्वयं जगत के
स्वामी कहलाते थे। स्मरण रहे कि प्रभु राम को सीता माता के साथ किये गए
दुर्व्यवहार को देखते हुए सरयू में समाधि लेनी पड़ी। भगवान कृष्ण को राधिका को अधर
में छोड़कर जाने का मलाल जीवन भर सताता रहा, महाभारत की लीला
में पांडु पुत्रों के बीच युद्ध कराकर जन संहार की पीढ़ा ने कहीं न कहीं उनके मानस
को कुरेदा होगा और अंत में उन्हें भी एक बहेलिए के तीर का निशाना बनना पड़ा। मैं
इसको बहुत ही साधारण एक आमजन की भाषा में बता रहा हूँ हो सकता है कि कोई ज्ञानी
ध्यानी और गुणी साधु संत इन्हीं बातों को अपनी लच्छेदार भाषा में बता कर लोगों की
वाह- वाह लूट सकने में सफल हो", मानवी ने जब अपने पापा
को यह सब कहते सुना तो उसने अपनी माँ से कहा, "नहीं माँ
आज पापा को बोलने दो। आज वह कुछ ऐसा कह रहे हैं जो कोई साधु संत कहना भी न
चाहे"
"बेटी मैं बस
इतना ही जानता हूँ कि बौद्ध काल के पहले शायद मोक्ष का असली ज्ञान किसी को भी नहीं
था। लोग सिर्फ़ बात करते थे। हवा में बात करते थे। अगर मोक्ष का ज्ञान होता तो
भगवान बुद्ध को फिर से तपस्या करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। वह भी वही मार्ग
अपनाते जो पूर्व में अन्य लोगों द्वारा अपनाए गए थे। इस लिहाज़ से बुद्ध एक महान
व्यक्ति थे"
"वाह - वाह
पापा आज तो आपने कमाल की बात कह दी। अति सुंदर", कहकर
मानवी ने तालियां तो बजाईं हीं साथ में पापा के गाल को भी प्यार से चूम लिया।
"बेटी जीवन में
एक बात याद रखना कि जब तक गुरू स्वयं ज्ञानी नहीं होगा वह तुम्हें अंधकार की ओर ले
जाएगा। इसलिए अपनी बुद्धि विवेक का उपयोग कर धर्म कर्म की परिभाषा स्वयं तय करो।
तुमको अपनी सोच ही मोक्ष के राह ले जाएगी'
मृणालिनी
ने दोनों से कहा, "छोड़ो भी
मोक्ष - वोक्ष का चक्कर हम लोगों के लिए यह सब रहस्य भरी बातें हैं और हमें इनसे
दूर ही रहना चाहिए। चलो वापस सीताराम मंदिर चलो। चलते - चलते आज मैं तो थक
गई"
माँ
की तकलीफ़ को समझते हुए मानवी बोली, "चलिये चलते हैं"
मंदिर
में वापस लौट आने के बाद तीनों लोगों ने कुछ देर आराम किया। शाम की पूजा आरती के
समय महंत से मुलाक़ात में मदनपुर चलने के बारे में जानकारी हासिल की। महंत जी ने
माथुर परिवार को बताया, "हम लोग कल
प्रातः की आरती के बाद यहां से कार से मदनपुर के लिए निकलेंगे और उम्मीद है कि
दोपहर होने तक मदनपुर पहुंच जाएंगे"
"इतने कम समय
में", माथुर साहब ने पूछा। इसपर महंत जी ने सफाई में
बताया, "जब से लखनऊ - आगरा एक्सप्रेस वे बन गया है
मदनपुर जाने का रास्ता बहुत सुगम हो गया है"
"चलिये चला
जायेगा वहीं चल कर देखा जाएगा कि कहां रुकना है कहां खाना पीना है", माथुर साहब बोले।
"अरे भाई आप
ऐसा क्यों सोचते हैं वहां आपका मंदिर है न"
"मंदिर में
रुकने और खाने पीने की व्यवस्था कहाँ होगी"
"नहीं होगी तो
पुजारी जी कुछ करेंगे, यह कोई चिंता का विषय नहीं है"
क्रमशः
14/12/2019
अपनी बात:
पाठक
सोच रहे होंगे कि कथानक में बार - बार जिस मदनपुर का ज़िक्र आ रहा है वह आखिर है
क्या बला। वैसे तो हम मदनपुर के बारे में पहले ही बता चुके हैं कि सिरसागंज -
बटेश्वर राजमार्ग पर स्थित एक छोटा सा गाँव है जो अंग्रेजो के ज़माने में माथुर
कायस्थों की एक मात्र जमींदारी हुआ करती थी। मदनपुर में माथुरों के परिवार का बनवाया
हुआ ठाकुर जी का एक प्राचीन मंदिर भी है जिसके बारे में यह कहावत मशहूर रही है कि
ठाकुर जी के मंदिर के घंटे की आवाज़ जितनी दूर तक जाती है वहां तक कभी भी ओलों की बरसात नहीं हुई है।
ठाकुर जी के आशीर्वाद से उस इलाक़े के किसान ख़ूब फलते - फूलते आये हैं।
मदनपुर
के बारे में एक और जनश्रुति मशहूर है कि राजस्थान के माथुरों के अलावा अगर कोई और
माथुर आपको मिलेगा तो उसका सीधा सम्बंध मदनपुर के माथुर परिवार से अवश्य ही होगा।
जहां तक इस कथानक के इस हिस्से का प्रश्न है तो मदनपुर इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि
ठाकुर जी के मंदिर के पुजारियों के चयन प्रक्रिया में प्रथानुसार अयोध्या के
सीताराम मंदिर के महंत जी का अनुमोदन आवश्यक है। अपने महंत जी बाबा गुलाब दास साधु
बनने के पूर्व अमौर के ठाकुर साहब के साथ मदनपुर के मंदिर में आते - जाते रहते थे
उनके साथ पूजा पाठ किया करते थे।
इसलिए
महंत जी का मदनपुर से एक विशिष्ट संबंध रहा और उन्हें मदनपुर परिवार के सदस्यों के
साथ वहां आना उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण अवसर था।
आगे
आप स्वयं कथानक के माध्यम से जानिए कि क्या होने वाला है...
एस पी सिंह
15/12/2019
एपिसोड 21
महंत
जी ने अपनी इनोवा कार यात्रा के लिए पहले ही से तैयार रखने के लिए ड्राइवर से कह
दिया था अतः वे लोग सुबह - सुबह ही मदनपुर के लिए निकल लिये। अयोध्या के सरयू घाट
से फ़ैज़ाबाद बाईपास होकर वे क़रीब दो घंटे के सफर के बाद लखनऊ पहुंचे वहां एक
रेस्टोरेंट पर कुछ देर रूके व नाश्ता वग़ैरह किया चाय पी और फिर लखनऊ - आगरा
एक्सप्रेस वे से इटावा होते लगभग दो बजे के क़रीब पहुंच गए। वे जब मदनपुर के लिए
आगे बढ़ रहे थे तो महंत जी की आंखे लगता था कि अपने पुराने दिनों की यादों में से
कुछ खास ढूंढ रहीं थीं। जैसे ही लोअर गंगा कैनाल की भोगनीपुर ब्रांच का अमौर गांव
का पुल आया तो बच्चों की तरह खिलखिला कर हंसते हुए आंखों में नमी लिए हुए उन्होंने
कहा, "माथुर साहब
सामने जो ख़स्ता हाल हवेली आप देख रहे हैं उसमें हमने अपनी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा
गुज़ारा है"
"कब"
माथुर
साहब के पूछने पर महंत जी ने गुलाब सिंह से बाबा गुलाब दास बनने की पूरी कहानी
सुनाई और जैसे ही उनकी गाड़ी अमौर गांव के बगल से गुजरने लगी तो महंत जी ने ड्राइवर
से गाड़ी को गांव की पतली सी सड़क पर मोड़ने को कहा और फिर माथुर साहब से कहा, "माथुर साहब मैं बस दो मिनट
रुकूँगा उससे अधिक नहीं"
महंत
जी की गाड़ी जब हवेली के बड़े से गेट के भीतर दाख़िल हुई और भीतरी अहाते में आकर रुकी
तो महंत जी गाड़ी से उतर गए और नम आंखों से हवेली के चप्पे - चप्पे की ओर निहारते
हुए उन्होंने माथुर साहब से कहा,
"माथुर साहब उधर देखिए जिधर पोस्ट आफिस है, यही मेरा कमरा हुआ करता था जहां मैं रहा करता था। उधर देखिए जहां सस्ते
गल्ले की दुकान और आयुर्वेदिक दवाइयों के हस्पताल का बोर्ड लगा है उस वक़्त में भी
थे पर यह सब काम करते हुए होते थे। लोग आते और जाते थे। उधर देखिए वहां पहले एक बड़ा सा फाटक हुआ करता था जिसके दरवाज़े शाम होते ही
बंद हो जाते थे तो अगली सुबह ही खुलते थे। हवेली और उसके घेर के चारों तरफ नौकर
चाकरों के लिए कमरे हुआ करते थे। डाकुओं का जोर इस इलाके में शुरू ही से रहा।
दस्यु सम्राट कहे जाने वाले मान सिंह पास के गांव के ही रहने वाले थे। उस ओर
गाड़ियों के लिए गैराज से बने हुए हैं उनमें यहां ठकुरानी साहिबा के रथ वग़ैरह खड़े
होते थे। ठाकुर साहब हमेशा आने - जाने के लिए घोड़ों का इस्तेमाल किया करते थे।
घोड़ों का अस्तबल ठाकुर साहब के फार्म हाउस पर था जिससे घोड़ों की सेवा और कवायद ठीक
से हो सके"
हवेली
के बारे में बताते हुए महंत जी बोले,"यह हवेली ठाकुर साहब के दादा जी ने 1885 के आसपास बनवाई थी जब ब्रिटिश हुकूमत ने नहर निर्माण की योजना की शुरूआत
की थी। दो पीढ़ी तक आबाद रहने के बाद तीसरी पीढ़ी में इसके दरवाज़े एक बार बंद क्या
हुए उसके बाद कभी कोई यहां झांकने भी नहीं आया। हमारे जान पहचान के ठाकुर साहब शहर
में हवेली बनवा कर वहां शिफ़्ट हो गए। हवेली में ऊपर ठाकुर साहब और ठकुरानी साहिबा
के रहने के लिए कमरे बने हुए थे। भीतर तीन आँगन की हवेली के बीच वाले हिस्से में
बच्चों के कमरे थे। एक तरफ बड़ी सी बैठक और उसके पास ही रसोई थी। वहीं एक बड़ा सा
कुँआ होता था जो हवेली में रहने वाले लोगों की पानी की ज़रूरतें पूरी करता था। उस
ज़माने में ऐसा कौन सा सरकारी अफ़सर हुआ करता था जो यहां ना आया हो। तब यहां रौनक
हुआ करती थी। गांव के लोग इसी अहाते में आकर मिलते और रंगों का त्योहार मनाते।
वहाँ बैठकर स्वामी जी के प्रवचन सुनते थे। स्वामी जी के प्रवचनों को सुनते - सुनते
ही मुझमें वैराग्य भाव उठे और मैं गुलाब सिंह से बाबा गुलाब दास बन गया"
"जब सब कुछ
इतना अच्छा था तो अब क्या हुआ जो यह हवेली इस हालत में आ गई", माथुर साहब ने पूछा।
"आंधी - बरसात
और बेकद्री का दर्द कब तक सहती बेचारी। जिस घर पर मकड़ी और जालों का असर हो जाये
उसका हाल यही होता है। ठाकुर साहब जब गुज़र गए तो परिवार के सभी लोग शहर वाली हवेली
में चले गए और यह हवेली वीरान हो गई। बरसों तक किसी ने इसकी खोज ख़बर नहीं ली। बाद
में नाग - नागिनों, चमगादड़ों और कबूतरों ने इसमें अपना
साम्राज्य बना लिया"
"ओह",
अचानक ही माथुर साहब के मुंह से निकल गया उस पर महंत जी ने कहा,
"जिन हवेलियों की बुनियाद में नमी होती है उनकी कहानियां ही
कुछ और होतीं हैं। अब ठाकुर साहब के परिवार के लोग कहां हैं"
"उनके बच्चे
विदेश चले गए, बड़े पुत्र दिल्ली और उनसे छोटे आगरे में जाकर
बस गए"
"उनकी खेती
बाड़ी भी तो होगी", महंत जी ने माथुर साहब को बताया,
ठाकुर साहब के ज़माने से ही सामने के पुरवा का एक यादव परिवार उनकी
कारिंदा गीरी करता रहा है वही आज भी देखभाल करता होगा। बीच - बीच में आगरे वाले
भाई साहब आकर आध बटाई वालों से लगान का हिसाब किताब करने आते हैं और उन्हें इसके
अलावा कोई खास मतलब नहीं", महंत जी ने माथुर साहब को
बताया। महंत जी की बातों को सुनकर माथुर साहब को लगा पता नहीं मदनपुर में उनकी
हवेली का क्या हाल होगा? क्या पता वह भी टूट - फूट कर इसी
तरह ज़र्ज़र स्थिति में न आ गई हो।
जब
वे सब गाड़ी में बैठकर वहां से निकलने लगे तो उसी समय डॉक्टर हर नारायण सिंह का
मानवी को फ़ोन आया और वह कहने लगे,
"मानवी मैं तो तुम्हारे फोन का इंतज़ार ही करता रहा। क्या हुआ
फोन नहीं किया"
"जी डॉक्टर
साहब अयोध्या में इतनी भागमभाग रही कि फुर्सत ही न मिली"
"कोई बात नहीं
और बतातो आजकल क्या कर रही हो"
"अभी तो कुछ
नहीं। एक दिमाग़ी कीड़े का असर क्या हुआ कि अपने कंफ्यूज़नों को दूर कर रही हूँ"
"ऐसा क्या
हुआ", डॉक्टर हर नारायण सिंह ने पूछा।
"बाद में कभी
बात होगी तो बताऊँगी, अभी तो मैं अपने गांव जा रही हूँ"
"ठीक है मैं
बाद में कभी दोबारा फोन करूँगा"
"ओके डॉक्टर
साहब थैंक्स फ़ॉर कॉलिंग" , कहकर मानवी ने फोन बंद कर
दिया। जब मृणालिनी ने मानवी की ओर इस नज़र से देखा कि वह किससे बात कर रही थी तो
मानवी ने कहा, "माँ, डॉक्टर एचएन
सिंह का फोन था। वही सिंह साहब जो मेरे साथ अमेरिका में थे"
जब
मृणालिनी मानवी के उत्तर से संतुष्ट दिखी तो वे सभी लोग कुछ समय के बाद वे ठाकुर
साहब के गांव से निकलकर मदनपुर की ओर चल पड़े। बीच में दिल्ली- हावड़ा मेन लाइन पड़ती
थी जिस पर अब फ्लाई ओवर बन गया था उससे पहले वहां रेलवे की चौकी हुआ करती थी जिस
पर गाड़ियां, बसें, बैल - गाड़ियां वग़ैरह घंटो खड़े रहते थे। जब
महंत जी की गाड़ी फ्लाई ओवर के ठीक बीचोबीच पहुंची तो उन्होंने इशारा करके माथुर
साहब को दिखाते हुए कहा, "माथुर साहब लीजिये वह आ गया
आपका मदनपुर और आपका मंदिर"
माथुर
साहब ने कौतूहल वश पूछा, "हम लोगों की
हवेली नहीं दिखाई पड़ रही"
"आपकी हवेली
पेड़ों के झुरमुटों की वजह से दिखाई नहीं पड़ रही और वैसे भी वो गांव के दूसरी ओर जो
है"
कुछ
ही देर में महंत जी की गाड़ी मदनपुर के मंदिर पर आकर खड़ी हो गई। मंदिर के आँगन में
कुछ लोग बैठे हुए थे जो गाड़ी को देखकर बाहर आये। महंत जी को प्रणाम किया और यह
पूछने पर कि पुजारी जी कहां हैं,
उन्होंने बताया कि मंदिर के भीतरी हिस्से में अपने कक्ष में हैं।
महंत जी ने जब उनसे कहा, "उन्हें खबर करो कि हम अयोध्या
से आये हैं"
पुजारी
जी को जब यह बताया गया कि अयोध्या से महंत जी पधारे है तो वह दौड़े - दौड़े आये और
महंत जी के चरणों को पकड़ कर कहने लगे, "महाराज आप बिन बताए आए अरे एक बार फोन ही कर दिया होता
तो हम आपकी राह जोह रहे होते"
महंत
जी ने मुस्कराते हुए कहा, "कभी - कभी
मेहमानों को बिन बताए भी आना चाहिए", और फिर माथुर साहब
की ओर मुड़ते हुए कहा, "यह बिन्देश्वरी बाबू के पोते हैं
जगदीश प्रसाद माथुर और इनकी पत्नी मृणालिनी और बेटी मानवी"
"आइये - आइये
भीतर पधारिये", पुजारी जी ने उनका स्वागत करते हुए
निवेदन किया। चाय पानी के बाद जब बातचीत हुई तो पुजारी जी ने माथुर साहब को बताया
कि आजकल मिक़्क़ी बाबू हवेली में ही आकर रह रहे हैं तो माथुर साहब के मुंह से निकल
पड़ा, "बृज बिहारी चाचा के लड़के जो आगरे में रहते
थे"
"हां साहब अब
वह यहीं आकर गांव में ही रहने लगे हैं"
"क्या उन्होंने
आगरा छोड़ दिया", माथुर साहब ने पुजारी जी से पूछा।
"जी"
क्रमशः
15/12/2019
एपिसोड 22
आश्चर्यपूर्वक
हो माथुर साहब ने पुजारी जी से पूछा, "मिक़्क़ी बाबू आगरे से यहां कब आये"
"हुकुम उन्हें
तो आये हुये कई साल हो गए"
"हम लोगों को
तो इसकी ख़बर ही नहीं हुई"
"अब आप लोग आपस
में कोई बातचीत नहीं रखेंगे तो पता कैसे चलेगा"
"पुजारी जी यह
बताइए कि खत्राने मोहल्ले वाली शिकोहाबाद की हवेली में क्या कोई अभी भी रह रहा है
या वह भी आज तक से बंद ही पड़ी है"
"मिक़्क़ी बाबू
ही जाकर कभी - कभी वहां रुकते हैं, वैसे अधिकतर तो वह बंद ही
रहती है"
"आइये मंदिर के
भीतर तो चलिए। हम आपके रुकने की व्यवस्था कराते हैं", कहकर
पुजारी जी ने महंत जी और माथुर साहब के परिजनों की ओर देखते हुए कहा।
माथुर
साहब सोच में थे कि वह क्या करें?
तब तक हवेली से एक आदमी दौड़ता हुआ आया और उसने पुजारी जी से पूछा,
"महाराज मेहमान कहाँ से आये हैं भईय्या पूछ रहे हैं"
पुजारी
जी कुछ उत्तर दे पाते उससे पहले ही माथुर साहब बोल पड़े, "मिक़्क़ी बाबू से कहना, जगदीश चाचा दिल्ली से आये हैं"
जो
आदमी मंदिर आया था वह उलटे पॉव दौड़ा - दौड़ा हवेली गया और उसने जब मिक़्क़ी बाबू को
बताया कि दिल्ली वाले चाचा आये हैं तो मिक़्क़ी बाबू खुद मंदिर आये और माथुर साहब
तथा मृणालिनी के पाँव छुए। जब माथुर साहब ने मिक़्क़ी बाबू को बताया कि मानवी उनकी
बेटी है तो उन्होंने आगे बढ़कर उससे हाथ मिलाया। बाद में माथुर साहब के कहने पर
मिक़्क़ी बाबू ने महंत जी के भी पैर छुए और कहा, "मुझे आपका इंतजार था अच्छा हुआ कि चाचा जी के साथ आप भी
आ गए और आपके दर्शनों का लाभ मिला। मुझे तो आपसे मंदिर के सिलसिले में बहुत सारी
बातें करनी हैं"
इसके
बाद वे सभी मंदिर में लक्ष्मी नारायण के दर्शन करने गए। मंदिर की भव्यता माथुर
साहब के साथ - साथ मृणालिनी और मानवी के मन को भी छू गई। माथुर साहब ने दोनों की
ओर देखते कहा, "जो लोग अपनी
विरासत के बारे में कुछ नहीं जानते तो भला वो भगवान के बारे में क्या
जानेंगे"
कुछ
देर वहां रहने के बाद मिक़्क़ी बाबू सभी को अपने साथ लेकर हवेली आ गये और सभी के
रुकने की व्यवस्था की। हवेली में मिक़्क़ी बाबू ने अपनी धर्मपत्नी शैलजा की भेंट सभी
से कराई। बाद में तुरंत शैलजा ने आलू पूड़ी बना कर भोजन कराया और यह भी कहा, "आप लोग सुबह के चले हुए हैं
इसलिए जल्दबाजी में फिलहाल इतना ही शाम को पूरा भोजन बनेगा"
शैलजा
के कहने पर महंत जी ने कहा, "नहीं
बहूरानी आलू पूड़ी से ही मन तृप्त हो गया। मुझे सबसे अधिक तो यह अच्छा लगा कि तुमने
इस इलाके की लाज रखी क्योंकि मुझे याद है जब भी कोई मेहमान देर सबेर ठाकुर साहब के
यहां भी आता था उसे आलू पूड़ी और अचार खाने में अवश्य परोसा जाता था। उनके यहां कभी
कोई भूखा न सोया"
शैलजा
ताज़्ज़ुब से महंत जी की ओर देख ही रही थी कि माथुर साहब समझ गए कि शैलजा के मन में
ठाकुर साहब को लेकर कुछ चल रहा है कि महंत जी किसकी बात कर रहे हैं इसलिए वह बोल
पड़े, "बहूरानी तुम
परेशान न हो। महंत जी अमौर के ठाकुरों की हवेली में अपने रहने के वक़्त को याद कह
रहे हैं"
शैलजा
जब फिर भी नहीं समझ पाई तो मिक़्क़ी बाबू ने समझाया, "अरे नहर के पुल से दाएं हाथ पर जो
ख़स्ता हाल हवेली दिखती है वह अमौर के ठाकुरों की हवेली है। महंत जी कई सालों तक
ठाकुर साहब की हवेली में रह चुके हैं"
"ओह! वो हवेली
जो रास्ते में पड़ती है"
"जी हां वही
हवेली"
माथुर
परिवार के लोगों में जब अन्य रिश्तेदारों को लेकर बात होने लगी तो महंत जी बोले, "आप लोग बात करिये हम कुछ देर
विश्राम करके मंदिर जाएंगे"
"ठीक महाराज आप
आराम करिये। बाद में मंदिर हम सभी लोग आपके साथ चलेंगे"
क्रमशः
16/12/2019
एपिसोड 23
जब तय हो गया तो एक दिन माथुर साहब ने महंत जी को फ़ोन कर मानवी और नवीन के
विवाह के संबंध में बताया। महंत जी ने हंसते हुए माथुर साहब को बधाई दी और यह भी
कहा, "देखिए माथुर
साहब मैं न कहता था कि हर चीज का एक निश्चित समय होता है उसे जब होना होता है तभी
होता है। ठीक हमारे राम लला मंदिर के निर्माण की तरह"
"जी महाराज"
"अब अपने प्रयोजन में आगे बढिये और वैवाहिक
रस्मों को निभाइये"
"इसका मतलब सब ठीक रहेगा"
"प्रभु की भी यही इच्छा है प्रियवर"
"महाराज मैंने मन्नत मांगी थी कि मानवी का
विवाह तय हो जाएगा तो मदनपुर मंदिर में बड़ा भंडारा करूँगा। आप तारीख़ निश्चित कर
दीजिए। व्यवस्था मैं सब कर दूँगा। उन्ही दिनों में समस्त मदनपुर माथुर परिवार भी
उपलब्ध रहेगा। इलाक़े के सभी जाने माने व्यक्तियों को भी बुलावा भेजना है"
"अति उत्तम विचार", महंत जी ने माथुर साहब से कहा।
"महाराज तिथि आप बताइए। मुझे बस एक हफ़्ते का
समय चाहिए"
"प्रियवर अगले हफ़्ते मंगलवार को इस कार्यक्रम
को रखिये प्रभु सब ठीक करेंगे"
"जो इच्छा महाराज"
बाद में जो भी तारीख महंत जी ने सुझाई थी उसकी सूचना माथुर साहब ने मृणालिनी
और मिक़्क़ी बाबू को सूचित कर दी। मिक़्क़ी बाबू से यह भी कह दिया कि सचिव की तरफ़ से
सभी ट्रस्ट के सदस्यों को सूचित कर दो कि हम लोगों की मीटिंग अगले मंगलवार को
मदनपुर के मंदिर प्रांगण में सम्पन्न होगी। यह भी मिक़्क़ी बाबू से कह दिया कि सभी
को सपरिवार आने का निमंत्रण भी दे देना। इस पर मिक़्क़ी बाबू ने सुझाव दिया, "चाचाजी
सपरिवार आने का निमंत्रण आपकी ओर से जाना चाहिए आप परिवार के सबसे बुजर्ग सदस्य
हैं और ट्रस्ट के चेयरमैन भी"
"चलो मैं यह काम करता हूँ, बाकी की तैयारी तुम शुरू कर दो। देखना कि कोई
भी व्यक्ति छूटे नहीं। एक बात और अमौर वाले ठाकुर परिवार के सदस्यों की जानकारी
हासिल कर उन्हें भी आमंत्रित करना नहीं भूलना। महंत जी से मैं आने के लिए कह दूँगा"
"चाचा जी आप निश्चिंत रहें सब काम ठीक से हो
जाएगा"
"मिक़्क़ी बाबू मंदिर की पुताई और साफ सफाई भी
करवा देना"
"जी चाचा जी"
मृणालिनी को लगा कि माथुर साहब अब फुल स्पीड में आ गए हैं तो सब काम ठीक से हो
जाएगा। मृणालिनी ने भी अपनी ओर से सभी लोगों को फोन करना शुरू किया और सभी से
निवेदन किया कि उनको इस आयोजन में आना ज़रूर है। नई सड़क वाले भाई जी ने जब पूछा, "मृणालिनी
ऐसी क्या बात है जो आज तुम्हें यह काम करना पड़ा"
"यह तो आपको आपके बड़े भाई साहब ही बताएंगे
लीजिये उनसे ही बात कर लीजिए"
बाद में माथुर साहब ने सारे प्रयोजन के पीछे के मंतव्य को बताया।
क्रमशः
19/12/2019
क्रमशः
19/12/2019
अपनी बात :
जब से कृषि एक कमाऊ क्षेत्र नहीं रहा है तब से शहरों पर दवाब बढ़ता ही जा रहा
है। जो ज़मीन कभी दूर - दूर तक खाली पड़ीं रहतीं थीं वे भी आज करोड़ों में बिकने को तैयार हो चलीं हैं।
इस लिहाज़ से माथुर परिवार के मुखिया की यह सोच बिल्कुल सही लगती है कि उनके पुरखों
की शिकोहाबाद वाली पालीवाल डिग्री कॉलेज से लेकर
सिरसा नदी के मुहाने तक लगभग 20 एकड़ ज़मीन किसी वक़्त में बाग़ हुआ करती थी और
जिस पर पशु मेला लगा करता था उसे मार्किट रेट पर बेच दिया जाए।
वैसे भी अगर माथुर परिवार यह काम नहीं करता है तो फिरोज़ाबाद - शिकोहाबाद डेवेलपमेंट ऑथॉरिटी इस को
अधिग्रहित कर अपने कब्ज़े में कर लेती। उनकी सोच काम आई और आज वहां एक शानदार
कॉलोनी बस गई है जिसमें होटल, मेर्रिज होम्स,
रहने के लिए कोठियां और पार्क बन चुके हैं।
मेर्रिज होम और एक होटल तो मदनपुर के माथुर परिवार का ही है जो ख़ूब प्रॉफिट दे रहा
है और आय का परमानेंट ज़रिया बन गया है।
धन्यवाद।
एस पी सिंह
20/12/20/19
एपिसोड 24
महंत जी रविवार की दोपहर तक अयोध्या से मदनपुर पहुंच गए थे। माथुर साहब भी
सपरिवार मदनपुर पहुंच गये थे। महंत जी और माथुर साहब ने
मिक़्क़ी बाबू से की गई व्यवस्था के बारे में
सब जानकारी हासिल की। उन्हें जब सब ठीक ठाक लगा तो महंत जी ने मिक़्क़ी बाबू की यह
कहकर तारीफ़ की कि जो भी हो मिक़्क़ी बाबू ने यह सिद्ध कर दिया कि वह माथुर परिवार के
सभी गुण लेकर पैदा ही नहीं हुए हैं बल्कि जो कहते हैं उसे पूरा करने की क्षमता भी
रखते हैं।
तय शुदा कार्यक्रम के अनुसार पूरा का पूरा माथुर कुनबा सोमवार की शाम तक
मदनपुर पहुंच ही गया। अबकी बार जगदीश प्रसाद जी के छोटे भाई गोपाल नारायण, श्याम नारायण तथा प्रभु नारायण अपने पुत्रों - बहुओं, पुत्रियों - दामादों और उनके बच्चों के साथ मदनपुर में एक साथ मिले थे। बहरहाल बरसों बाद
माथुर हवेली में रौनक देख परिवार के सभी लोग ख़ुश थे तो दूसरी
ओर मदनपुर गांव के लोगों में भी गजब का उत्साह था। महंत जी भी वहां पहले ही पहुंचे
हुए थे जो मंदिर में होने वाले कार्यक्रम की व्यवस्था में पुजारी जी के साथ लगे
हुए थे।
रात को माथुर हवेली में जश्न का माहौल था जब सभी परिवार के सदस्यों ने मिक़्क़ी
बाबू से पूछा कि आख़िर क्या बात है तो मिक़्क़ी बाबू का जवाब था, "यह बात आपको
बड़े चाचाजी ही बताएंगे"
मिक़्क़ी बाबू के कहने पर माथुर साहब ने बताया,
"अबकी बार समस्त माथुर परिवार को एक साथ देखकर
बहुत ख़ुशी हुई। सबको सूचित करते हुए हमें बहुत ख़ुशी है कि प्रिय मानवी का विवाह
नवीन टंडन के साथ होना तय पाया गया है दूसरा यह कि हम लोगों को अब यह निश्चित करना
है कि शिकोहाबाद वाली ज़मीन का क्या किया जाय"
ज़मीन के बारे में हर किसी के प्रश्न थे उन सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए
माथुर साहब ने कहा, "उस ज़मीन पर फिरोजाबाद - शिकोहाबाद डेवलपमेंट ऑथॉरिटी की नज़र है। देर सबेर उस जमीन
को वे लोग एक्वायर कर लेंगे उस केस में हर्ज़ाना सरकारी रेट से मिलेगा। अगर हम उसे
दादा जी के नाम पर 'राजाजीपुरम'
के नाम से डेवेलप करवाएं तो दाम मार्किट रेट
के हिसाब से मिलेगा। दोनों में लगभग दुगने तिगुने का फ़र्क रहने की उम्मीद है"
आपस में बातचीत कर यही तय किया कि उस ज़मीन के लिए किसी अच्छे टाउन प्लानर से
बात कर प्लान डेवेलप करा लिया जाय और मिक़्क़ी बाबू इस काम को अंज़ाम दें। सभी लोगों
ने मिलकर यह भी तय पाया कि प्लाटिंग करके जितनी रक़म की उगाही होगी उसका आधा हिस्सा
सभी लोगों के बीच बराबर - बराबर बांट लिया जाएगा और बाकी का आधा हिस्सा ट्रस्ट के नाम से जमा कर दिया
जाएगा। इस पूरे काम की देखभाल जगदीश प्रसाद माथुर जो घर में सबसे बड़े हैं करेंगे।
इस निर्णय के बाद माथुर परिवार ने उस रात जम के जश्न मनाया।
अगली सुबह माथुर साहब ने महंत जी को माथुर परिवार के निर्णय से अवगत कराया।
महंत जी ने माथुर परिवार को बधाई देते हुए कहा,
"जब प्रभु चाहेंगे,
माथुर साहब सब ठीक होगा"
सोमवार के दिन मदनपुर गांव के प्रधान जी महेंद्र प्रताप सिंह और ग्राम पंचायत
के सदस्य जब जगदीश प्रसाद जी से मिलने आये और पूछा,
"हमारे लिए जो काम हो वह बताइए हमें आपके
कार्यक्रम भाग लेकर अच्छा लगेगा"
विनम्र भाव से माथुर साहब ने उनसे यही कहा,
"अरे आप हमसे मिलने आये यही बहुत है बस आपका
प्यार बना रहे यही काफी है"
"नहीं नहीं माथुर साहब हमने तय किया है कि
पंचायत कोष से मंदिर के भंडारे में इक्कीस हज़ार रुपये देंगे। दूसरा दूध - दही और देशी घी का पूरा इंतज़ाम हमारी तरफ से
ही होगा"
माथुर साहब ने मिक़्क़ी बाबू की ओर देखते हुए कहा,
"प्रधान जी इस सबकी कोई आवश्यकता नहीं हम लोग
इंतज़ाम कर लेंगे"
प्रधान जी ने हाथ जोड़कर फिर निवेदन किया,
"नहीं माथुर साहब हमारी प्रार्थना को ठुकराया
न जाये आख़िर मंदिर से हमारे गांव का भी पुराना नाता है और मंदिर के कारण ही हमारा
गांव पूरे इलाके में जाना जाता है"
"जैसी आप लोगों की इच्छा। इस सम्बंध में आप
मिक़्क़ी बाबू से बात कर लीजिए। मुझे इज़ाज़त दीजिये क्योंकि परिवार के अन्य सदस्य आये
हुए हैं मुझे उनसे कुछ ज़रूरी बात करनी है", माथुर साहब ने प्रधान जी तथा अन्य सदस्यगणों से यह कहकर इज़ाज़त मांगी।
बाद में मिक़्क़ी बाबू और प्रधान जी के साथ देर तक बातचीत हुई जिसमें यह तय पाया
गया कि किसको कौन सा काम करना है। चलते - चलते प्रधान जी ने मिक़्क़ी बाबू से कहा,
"भंडारे की सारी व्यवस्था वे लोग पुरानी
परिपाटी के अनुसार करेंगे और शहर से कोई भी हलवाई वग़ैरह इस काम के लिए नहीं
बुलवाया जाए"
मिक़्क़ी बाबू ने जब यह कहा, "...फिर व्यवस्था होगी कैसे?"
"आप बस देखते जाइये कि हम लोग मिलकर इस काम को
कितनी अच्छी तरह अंज़ाम देते हैं। बस तो हम चलते हैं कल आपसे भेंट होगी", कहकर प्रधान जी और पंचायत के सभी सदस्य हवेली से मंदिर की ओर चले गए।
क्रमशः
20/12/2019
20/12/2019
एपिसोड 25
सोमवार की शाम तक योजनाबद्ध तरीके से मंदिर में खाने पीने के लिए जो सामान
चाहिए था वह पहुंचने लगा। खाना कहाँ और किस प्रकार बनेगा किस तरह परोसा जाएगा
वग़ैरह मतलब सारी व्यवस्था को लेकर प्रधान जी ने मिक़्क़ी बाबू से अपनी योजना बताई।
मिक़्क़ी बाबू तो आश्चर्यचकित हो गए जब उन्हें यह पता लगा कि सभी काम काज बिल्कुल
सुचारू रूप से संपन्न हो सकेंगे। प्रधान जी ने मिक़्क़ी बाबू से बस इतना ही कहा, "मंदिर की
पूजा जो विशेषकर आपके परिजनों को करनी है उसकी व्यवस्था आप और पुजारी जी मिलकर कर
लें और भंडारे सम्बंधित सारी व्यवस्था हम पर छोड़ दीजिए"
मिक़्क़ी बाबू ने बाद में पुजारी से मिलकर पूजा सम्बंधित पूरी जानकारी हासिल की
और उन्हें जब लगा कि सब काम ठीक ठाक ढंग से चल रहा है तो वे शांत भाव से हवेली चले
गए और माथुर साहब को पूरा विवरण बताया।
देर रात में ही गांव के पुरुषों और महिलाओं ने मिलकर बूंदी के लड्डू बना दिये
थे। कुछ नमकीन भी जो खाने के साथ परोसा जाने वाला था वह भी बना दिया था। बचा था था
तो बस इतना ही कि गरमा गर्म पूड़ियाँ, कचौड़ियां,
सब्ज़ी वग़ैरह। जो सुबह अगले रोज़ बनाई जाने को
थी। दही - बूरे का भी इंतज़ाम हो गया था।
मंगलवार के दिन प्रातः काल की वेला में समस्त माथुर परिवार के सदस्य तैयार
होकर मंदिर प्रांगण में आ पहुंचे थे। महंत जी तथा पुजारी जी ने विधि विधान से पूजा
अर्चना, माथुर साहब को परिवार का मुखिया मानकर कराना
शुरू किया। माथुर साहब से उन्होंने संकल्प लेने के लिए कहा। माथुर साहब ने मन ही
मन माथुर परिवार तथा आसपास के गांव के लोगों के भले का संकल्प लिया।
माथुर साहब और मृणालिनी ने सर्वप्रथम लक्ष्मी नारायण जी के वस्त्र उतारे। अब उन्हें
शुद्ध जल से स्नान कराया। उन्हें पंचामृत से स्नान कराया। फिर से शुद्ध जल से
स्नान कराया। उन्हें नए वस्त्र पहनाए और आभूषण पहनाए। उन्हें फूलों का हार
पहनाया। दोनों ने मिलकर उन्हें गले में गुलाब की पंखुड़ी का हार पहनाया। इसके
पश्चात् सुगन्धित इत्र अर्पित किया। कुमकुम द्वारा उन्हें तिलक किया। दीपक
प्रज्वल्लित किया। अगरबत्ती, धूप आदि लगाये व पुष्प अर्पित किए। पान और
नारियल उनके चरणों में अर्पित किये। साथ में दक्षिणा स्वरूप पाँच सौ रुपये भी रखे।
भोग रूप में कुछ मिठाई व फल भी रखे। बाद में पुजारी के कथनानुसार दोनों पति - पत्नी श्री लक्ष्मी नारायण जी की प्रतिमा के आगे आसन बिछाकर
बैठ गए और 'ॐ श्री लक्ष्मी नारायणाभ्यां नमः' मंत्र का जाप किया और अंत मे लक्ष्मी नारायण
जी की आरती की। पूजा अर्चना की समाप्ति पर सभी उपस्थित लोगों को चरणामृत और प्रसाद
दिया। मंदिर से प्रस्थान करने के पूर्व माथुर साहब ने पुजारी जी को ग्यारह हजार एक
रुपये की दक्षिणा भी दी। पुजारी जी ने उन्हें आशीष देकर विदा किया।
नौ बजे प्रातः मंदिर के कपाट जनता जनार्दन के लिए खोल दिये गए। लोगों की भारी
भीड़ ने लक्ष्मीनारायण के दर्शन किये और प्रसाद ग्रहण किया। दोपहर के बाद शुरू हुआ
भंडारा जिसमें उन सभी गांवों के मुखिया और जाने माने पुरुष एवम महिलाएं, श्रद्धालु इकठ्ठा हुए जहां तक मंदिर के घंटे
की आवाज़ जाती थी। माथुर परिवार के विशिष्ट निमंत्रण पर अमौर के ठाकुर परिवार के
ज्येष्ठ सुपुत्र श्री एसपी सिंह और कनिष्ठ सुपुत्र वाईपी सिंहऔर उनका परिवार दिल्ली
और आगरे से आ चुका था।
जैसी कि इलाके में प्रथा थी सभी लोगों ने ज़मीन पर टाट पट्टी पर बैठकर भंडारे
के सुरूचिपूर्ण भोजन और मिठाइयों का स्वाद लिया। देशी घी में निर्मित गरमा गरम भोजन, दही - बूरा और लड्डू खा कर लोगों ने व्यवस्था की दिल से तारीफ की।
चलते - चलते अपनी ओर से श्रद्धानुसार मंदिर के नाम पर उन्होंने खुले दिल से दान दिया।
देर शाम जब माथुर साहब के परिवार के सदस्य और अमौर के ठाकुर परिवार के सदस्य
आपस में बैठे हुए थे तब माथुर साहब ने नवीन टंडन की मुलाक़ात यह कहकर कराई, "ये हैं
मिस्टर नवीन टंडन बाबू देवकीनंदन टंडन जी खत्राने मोहल्ले वालों के सुपुत्र और
हमारी बेटी मानवी के होने वाले पति। इन्होंने ने अपनी ऑस्ट्रेलिया की सॉफ्टवेयर
इंडस्ट्री की जॉब इसलिए छोड़ दिया कि इन्हें वहां का माहौल पसंद नहीं आया और हमारी
बेटी मानवी को अमेरिका का। अब दोनों का मन है कि वे यहीं रहकर कुछ काम करेंगे"
क्रमशः
21/12/2019
21/12/2019
एपिसोड 26
"मानवी मुझे तुमसे एक महत्वपूर्ण बात करनी है", नवीन ने मानवी से कहा।
मानवी ने कहा, "यहां नहीं चलो हम कुछ देर मंदिर परिसर और उसके आसपास के
खेतों में लहलहाती फ़सलों के बीच अपनी बात करें"
मानवी को लगा कि नवीन के मस्तिष्क में कुछ चल रहा है इसलिए उसने भी हामी भरी
और वे दोनों मंदिर की ओर चल पड़े। रास्ते में नवीन ने बात की शुरूआत करते हुए कहा, "मानवी मेरे
मन में एक विचार आया है कि हम क्यों न यहीं कुछ अपना काम शुरू करें जिससे इस
क्षेत्र के लोगों की तरक़्क़ी हो और हम भी ख़ुश रहें। आख़िर तुमको अमेरिका और मुझे
ऑस्ट्रेलिया रास नहीं आया तो क्यों?"
"इसलिए कि वहां लोग पैसे के पीछे अंधे होकर
भाग रहे हैं और उनकी ज़िंदगी में कोई अमन चैन नहीं शेष रह गया है और न कुछ करने की
चाहत"
"एग्जैक्टली। मैं भी यही सोचता हूँ। क्यों न
हम अपना वजूद यहीं पर तलाशें"
"बात तो तुम पते की कह रहे हो"
नवीन ने मानवी का एक हाथ अपने हाथ में लिया और खेत की मेंड़ पर चलते हुए अपने
मन में आये एक इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी सम्बंधित प्रोजेक्ट के बारे में बताया। उसकी
बात को सुनकर ख़ुद भी अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा,
"यह ठीक रहेगा हम शिकोहाबाद के चारों डिग्री
कॉलेजेज में अपने सेंटर के एक्सटेंशन काउंटर खोलकर यहां के बच्चों को उस एरिया में
ट्रेनिंग देकर तैयार कर सकते हैं और उन्हें जीवन में आगे बढ़ने के अवसर प्रदान कर
सकते हैं"
"क्या बात है,
यही पक्का रहा हम क्यों न अपने घर वालों से
इस विषय पर बात करें और उनकी सहमति प्राप्त कर आगे बढ़ें"ै
"ठीक है", कहकर मानवी ने नवीन को प्रोत्साहित किया। बाद में वे लोग मंदिर में प्रभु के
दरबार में बैठे और पुजारी जी के सानिध्य में कुछ समय बिताया।
हवेली लौटकर मानवी ने अपने पापा और माँ से और नवीन ने अपनी माँ से बात की।
दोनों परिवार के बड़े लोगों ने छूटते ही दोनों को इस तरह के किसी प्रोजेक्ट पर काम
करने से रोका ही नहीं अपितु उन्हें इस दिशा में सोचने के लिए भी मना कर दिया। नवीन
वाइपी सिंह की बातें सुनकर इतना प्रेरित था कि उसने भी ज़िद पकड़ ली कि वह अपनी माँ
को मनाकर ही रहेगा। यही विचार मानवी के मन में भी जड़ पकड़ चुका था कि अब तो वे अपनी
योजना पर काम करके रहेंगे। इसलिए उन्होंने यह तय किया कि अभी कुछ और इस विषय पर
बातचीत करके नया बखेड़ा शुरू नहीं करना है वे बाद में दिल्ली आकर अपने माता पिता के
साथ बैठकर बात करेंगे। जब नवीन और मानवी हवेली लौटकर वापस आये तो देखा कि पूरा
माथुर कुनबा और नवीन की माँ महंत जी के साथ किसी गूढ़ विषय पर चर्चा कर रहे हैं।
माथुर साहब ने मानवी और नवीन को भी चर्चा में शरीक़ होने के लिए कहा, "आओ नवीन बैठो"
"मानवी तुम भी बैठो"
हम लोग तुम्हारे ही बारे में बात कर रहे थे कि तुम्हारे विवाह का क्या
कार्यक्रम किस प्रकार से आयोजित करें"
मानवी ने नवीन और नवीन ने मानवी को देखते हुए कहा,
"आप बड़े हैं जो ठीक समझें करें हमें इस मसले
में कुछ नहीं कहना"
"नहीं बेटा अगर तुमको लगता है कि दो तीन
महीनों में तुमको जॉब मिल जाएगा तो हम आने वाले चैत्र माह की रामनवमी के दिन यहीं
अपने मंदिर में तुम लोगो की शादी कर देंगे"
नवीन ने मानवी को इशारा कर के समझाया कि अभी अपने परिजनों की बात को मान लेना
ही ठीक रहेगा और यह सोचकर दोनों ने कहा, "जी हमें नहीं लगता कि हमें जॉब मिलने में कोई
दिक़्क़त होगी"
"ठीक है फिर यही प्रोग्राम तय रहा", कहकर माथुर साहब ने अपनी संतुति प्रकट की और नवीन की माँ से भी इसके लिए सहमति
प्राप्त कर ली।
महंत जी ने भी इसी विचार को मानते हुए कहा,
"रामनवमी के दिन से अच्छा और दूसरा दिन क्या
होगा उसी दिन मानवी बिटिया की शादी नवीन के साथ कराना शुभकर रहेगा"
बाद में उस रात माथुर साहब ने मृणालिनी से पूछा,
"अब तो तुम ख़ुश हो मानवी अब अपनी ज़िंदगी में
सेटल हो जायेगी"
"जी, मैं बहुत ख़ुश हूँ कि सब बातें महंत जी के
समक्ष तय हुई हैं। हमें अब और क्या चाहिए"
"मैं भी आज की रात चैन की नींद सोऊंगा और
प्रभु के आशीर्वाद से सभी काम आराम से निपट गए। अच्छा हुआ कि अयोध्या से लौटते समय
हम महंत जी के कहने से मदनपुर आ सके"
"चलो अब सो जाओ यह मानो कि भगवान जो करता है
वह ठीक ही होता है", मृणालिनी ने माथुर साहब से कहा।
क्रमशः
22/12/2019
22/12/2019
एपिसोड 27
अगले दिन एक – एक करके सभी लोग अपने –अपने घर को विदा हुए। माथुर साहब ने अपनी
ओर से यह कहकर की सभो को विदा किया कि चैत्र के मेले पर और मानवी के ब्याह के
उपलक्ष पर एना ही है। महंत जी भी जब अयोध्या के लिए प्रस्थान कर गए तो बाद में
नवीन की माँ से बात करते हुए माथुर साहब ने कहा,
"बहन जी आप और नवीन प्रोग्राम बनाकर दिल्ली आ
जाएं जिससे हम इन दोनों के लिए गहने और कपड़ों के सेट वग़ैरह को फाइनल कर दें। अब
बहुत वक़्त कहाँ है। हमें सब काम तेजी से करने होंगे"
"ठीक है भाई साहब,
जैसा आप कहें"
मिक़्क़ी बाबू माथुर साहब तथा नवीन और उसकी माँ को लेकर शिकोहाबाद आ गए। एक दिन
रुकने के बाद माथुर साहब भी मृणालिनी और मानवी को लेकर दिल्ली चले आये। दिल्ली
पहुंचने के बाद जब एक रोज़ माथुर साहब ने मानवी से पूछा,
"बेटी तूने किस - किस जगह अप्लाई किया है बता तो सही देखूँ क्या हो सकता है? हो सकता है उनमें से किसी एक - दो जगह मेरी जान पहचान ही निकल आये"
मानवी ने बहुत सोच समझ कर अपने पापा को समझाया कि वह और नवीन दोनों मिलकर
शिकोहाबाद और मदनपुर से ही कुछ न कुछ ऐसा काम करेंगे जिससे हम वहां की जनता ने जो
प्यार दिया उनके प्यार के बदले हम कुछ वापस देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर के उनके
भले के लिए कुछ काम करें। मृणालिनी ने भी मानवी से एक लंबी बहस की और अपनी ओर से
उस हर बिंदु को जीत कर सिद्ध किया कि वह और नवीन एक सही रास्ता चुन रहे हैं। वह
अमौर के ठाकुर साहब के छोटे बेटे की उस बात को बताना भी न भूली कि बदलाव के लिए
कुछ बड़े फ़ैसले लेने पड़ते हैं जैसे कि वह भी वापस लौट कर केले की खेती और
मत्स्यपालन के काम की शूरूआत कर रहे हैं। मानवी के अकाट्य तर्कों को सुनकर माथुर
साहब ने कहा, "चलो जो
तुम्हें और नवीन को उचित लगे वह करो। हम तो बस यह चाहेंगे कि तुम जो भी करो वह
अपने भविष्य को देखते हुए करो। माता पिता होने के नाते जो तुम्हें हमसे जो चाहिए
समय रहते बता देना"
आखिर मानवी ने अपने माता पिता का दिल जीत लिया तब नवीन के साथ मिलकर एक
प्रोजैक्ट रिपोर्ट बना ली। रिपोर्ट तैयार हो जाने के बाद नवीन अपनी माँ के साथ दिल्ली
आया। दिल्ली आने के बाद उसने भी वही सब कहा जो मानवी पहले ही माथुर साहब से कह
चुकी थी। माथुर साहब ने नवीन के द्वारा बनाई रिपोर्ट पर बातचीत की और जब उन्हें भी
लगा कि मानवी और नवीन जो कह रहे हैं उसमें दम है तो उन्होंने प्रोजेक्ट रिपोर्ट के
वित्तीय मसलों पर बात की। अंत में यह तय पाया कि नवीन और मानवी इस प्रोजेक्ट को
मिलकर आगे बढ़ाएंगे। नवीन प्रोजैक्ट के फाइनेंसियल आस्पेक्ट्स/वित्तीय पहलू के बारे में बैंक से बात करेगा। जो वित्तीय मदद प्रोजैक्ट के शुरूआत के लिए चाहिए
दोनों परिवार मिलकर पैसा जुटा कर इन्हें देंगे।
रात को माथुर साहब ने महंत जी से मानवी और नवीन की योजनाओं के बारे में बात
की। महंत जी ने पूरी बात सुनकर माथुर साहब को यही कहा,
"जजमान उन्हें करने दीजिए जो चाहें। बच्चे
रिस्क नहीं लेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे। आप उनकी मदद कीजिये और बाकि सब भगवान की
मर्ज़ी पर छोड़िये"
"ठीक है महाराज जैसा आप कह रहे हैं हम अब वही
करेंगे। हम विवाह की तैयारी शुरू कर रहे हैं", माथुर साहब ने महंत जी से कहा।
"जी आप आगे बढ़िये"
महंत जी की बात मानते हुए माथुर साहब ने मृणालिनी से कहा, "मानवी और
नवीन को जो चाहिए उसको दिलवाने की तैयारी करो"
"ठीक है", कहकर मृणालिनी ने माथुर साहब से कहा, "अब सो भी जाइये"
अगले दिन से ही मृणालिनी नवीन की माँ के साथ मिलकर विवाह की तैयारी में जुट
गई। देखते - देखते चैत्र माह की दुर्गा पूजा भी आ गई। माथुर
परिवार ने मानवी और नवीन की शादी का प्रोग्राम शिकोहाबाद वाली हवेली से करने का मन
बनाया और यह भी तय किया कि गोद - भराई का कार्यक्रम मदनपुर से किया जाएगा जिससे वहां के लोग
भी शादी में शरीक़ हो सकें।
चैत्र माह की दुर्गा पूजा की शुरूआत के पहले ही महंत जी मदनपुर पहुंच गए। एक –
एक करके सभी करके वैवाहिक कार्यक्रम पूरे होते गए। अंत में राम नवमी
का वह दिन भी आ गया जब माथुर कुनबे ने सजल नयनों से मानवी को विदा किया। विवाह के बाद सभी मेहमान अपने – अपने निवास स्थान के लिए
वापस चले गए। महंत जी का अयोध्या वापस जाने का जब प्रोग्राम बना तो उनका मन किया
कि एक बार वह फिर से अमौर की हवेली को देख लें। जब महंत जी अमौर गांव पहुंचे तो
उनकी मुलाकात वहां किस्मत से ठाकुर साहब के कनिष्ठ सुपुत्र वाईपी सिंह से हो गई जो
अपनी दूसरी हवेली की मरम्मत कराकर इस हालत में लाने की कोशिश में थे कि जब कभी वह
गांव में रुकना चाहें तो रुक सकें। महंत जी को बड़ा अच्छा लगा कि ठाकुर साहब के
बच्चों ने एक बार फिर से गांव का रुख किया। वाईपी सिंह महंत जी को अपने साथ अपने
फार्म पर भी लेकर गये जहां महंत जी ने खेती पाती तो देखी ही साथ ही साथ मत्स्यपालन
के प्रोजैक्ट की प्रोग्रैस देखकर वाईपी सिंह को बधाई दी और आशीर्वाद देते हुए कहा, "आगे बढ़ो
अपने पुरखों के नाम को आगे बढ़ाते हुए के क्षेत्र की तरक़्क़ी में मददगार सिद्ध हो"
महंत जी जब अयोध्या सीताराम मंदिर वापस पहुंच गए तो प्रभु के दरबार में बैठकर
उन्होंने माथुर परिवार तथा ठाकुर साहब के परिवार के लिए प्रार्थना की कि वे सभी
जीवन में तरक़्क़ी करें और ख़ुश रहें।
क्रमशः
23/12/2019
23/12/2019
एपिसोड 28
नवीन और मानवी ने अपने वैवाहिक जीवन की शुरूआत शिकोहाबाद में रह कर ही शुरू
की। मानवी और नवीन ने शिकोहाबाद में रहते हुए अपने प्रोजैक्ट के अधीन अहीर
क्षत्रिय कॉलेज, नारायण डिग्री कॉलेज,
पालीवाल डिग्री कॉलेज एवं भगवानी देवी गर्ल्स
म्युनिसिपल डिग्री कॉलेज, चारों डिग्री कॉलेजों में अपने एक्सटेंशन
सेंटर तो खोले ही साथ ही साथ माथुर परिवार की हवेलियों में इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी
संबंधित कार्यक्रमों के लिए ऑफिस बनाये। उनके प्रयासों से क्षेत्र के छात्रों को
जीवन में आगे बढ़ने के अवसर प्रदान कराए। नवीन ने अपने पुराने कॉन्टेक्ट्स का उपयोग
करके इन सेंटर्स के लिए गूगल, माइक्रोसॉफ्ट,
टीसीएस,
विप्रो,
इंफोसिस इत्यादि कंपनियों से भी आर्डर
प्राप्त कर अपने काम को आगे बढ़ाया।
माथुर साहब और मृणालिनी एक बार अपने कॉलोनी वाले प्रोजैक्ट के शिलान्यास
फंक्शन के लिए शिकोहाबाद पधारे तो मिक़्क़ी बाबू के साथ मिलकर नवीन और मानवी के
सेंटर्स भी देखे। उनके काम को देखकर माता पिता दोनों का सीना चौड़ा हो गया। रात को
जब वे तीनों टंडन परिवार के यहां डिनर पर गए तो मृणालिनी ने नवीन की माँ से अकेले
में पूछा, "बहन जी एक
बात बताइए कि जब मानवी और नवीन के बच्चे होंगे तो उनकी पढ़ाई लिखाई कहाँ होगी?"
नवीन की माँ ने हंसते हुए कहा, "मृणालिनी जी बच्चों का कहना है कि 'हम दो - हमको रहने दो'
के सिद्धांत पर चलते हुए वे फ़िलहाल बच्चों के
बारे में कुछ भी नहीं सोच रहे हैं। अभी तो उनका पूरा ध्यान अपने काम में सफलता
प्राप्त करने में लगा हुआ है"
मृणालिनी ने नवीन की माँ से कहा, "बहन जी आपको नहीं लगता कि इन दोनों के बच्चे
हों जो आपके आँगन की बगिया के फूल बन कर महकें"
"बहन जी छोड़िये भी यह सब पुराने ज़माने की
बातें हैं। अब हमको बच्चों के हिसाब से रहना सीखना होगा न कि अपनी मर्ज़ी उन पर
थोपनी होगी"
"वाकई आप तो मोस्ट मॉडर्न महिला निकलीं, मैं ही अपने आप को मॉडर्न समझती थी लेकिन
आपका तो कहना ही
क्या"
धीरे - धीरे नवीन और मानवी ज़िंदगी
के नये - नये मुक़ाम तय करते गये और
दूसरी ओर मिक़्क़ी बाबू 'राजाजीपुरम' के काम को आगे बढ़ाते गए।
बीच - बीच में महंत जी को फोन कर माथुर साहब उनके हाल ले लिया
करते और शिकोहाबाद के हालचाल उन्हें बता दिया करते थे। समय अपनी द्रुतगति रफ्तार
से बढ़ा चला जा रहा था कि एक दिन जब माथुर साहब ने महंत जी को फोन किया तो सेविका ने बताया, "महाराज की तबियत खराब चल रही है और वह किसी भी
अस्पताल का इलाज़ भी नहीं ले रहे हैं"
माथुर साहब ने सेविका से कहा, "वे परिवार सहित तुरंत अयोध्या आ रहे हैं"
"आइये - आइये हो सकता है कि वह आपकी बात मान जायें"
माथुर साहब ने तुरंत मानवी और नवीन को फोन किया कि वे
तुरंत अयोध्या पहुंचे और वह भी फ्लाइट से लखनऊ होते हुए अयोध्या पहुंचने की कोशिश
करते हैं। मानवी - नवीन जब सीताराम मंदिर पहुंचे तो उन्होंने
पाया कि महंत जी की काया एकदम ज़र्ज़र हो चुकी थी और कई दिनों से कुछ भी न लेने के
कारण उनकी हालत और भी खराब हो चुकी थी। मानवी
ने महंत जी को बहुत समझाया लेकिन उन्होंने बस यही कहा, "अब तौ चला चली कै बेर है, भैय्या हमका चलै दियव, अब कौनौ फायदा नाहीं है"
मानवी की आंखों से आंसुओं की धार निकल रही थी और बहुत ही घबराई दशा में उसने
महंत जी से पूछा, "कोई आख़िरी इच्छा"
"बिटिया हमै हमार गांव देखाय दियव अउर हमै कुछ
नाहीं चाही"
मानवी नवीन सेविका और सीताराम मंदिर के अन्य लोगों के साथ महंत जी को लेकर
उनके गांव की ओर चल पड़ी। जैसे ही वह महंत जी के घर के दरवाज़े पर पहुंचे तो देखा कि
वहां तो बहुत बड़ा ताला लगा था। मानवी ने ताला देखकर महंत जी को बताया कि महाराज घर
के दरवाज़े पर तो ताला लगा है। महंत जी समझ गए कि उनकी भाभी नहीं रहीं बस यह ख़्याल
आते ही महंत जी ने अपने जीवन की आख़िरी सांस ली और उनके मुंह से निकला, "जय सियाराम"
गांव के लोगों से पूछ पाछ कर किसी तरह ललुआ को मुंबई में ख़बर कराई गई और उसके
आने तक महंत जी के शव को उनके घर के दरवाज़े पर ही रहने दिया गया। माथुर साहब ललुआ
को अपने साथ ले जब महंत जी के गांव पहुंचे तब उनका अंतिम संस्कार हुआ।
##########समाप्त##########
समापन पर लेखक की कलम से :
"गुज़र गाह" से "खूसट बुढ्ढे" के रास्ते होते हुए अंततोगत्वा आज "साधु" कथानक, जो एक धारावाहिक की तरह प्रस्तुत किया गया और जिसे पाठकों से भरपूर प्यार मिला, अपनी चरम सीमा पर पहुंच कर समाप्त हो गया। तथा इतिहास का पन्ना बन गया।
"गुज़र गाह" की शुरूआत क्या हुई एक के बाद एक कड़ी जुड़ती गई और एक साहित्यिक यात्रा की शुरूआत हो गई। पता नहीं अभी कितनी कहानियां इस गर्भगृह से और अवतरित होने को हैं। कुँवर शेखावत के सुपुत्र अजातशत्रु और अज़रा के बीच की इश्क़ की कहानी या मुखर्जी दादा की शर्मिष्ठा के बारे में अथवा अंकल और आंटी श्रीवास्तव के बारे में...। ख़ैर छोड़िये जो भविष्य के गर्भ में है उसके बारे में क्या कहना। अभी तो हम एक पड़ाव पर हैं कुछ दिन अच्छी खासी दिल्ली की सर्दी का मज़ा लेने के मूड में हैं और एक के बाद एक कप चाय सुड़क - सुड़क कर पी रहे हैं। कभी - कभी 'Chivas Regal Scotch' का शौक़ फरमा लेते हैं।
कुछ लोगों को शुरू में ऐसा
प्रतीत हुआ होगा कि शायद "साधु" किसी साधु - संतो के बीच के युद्ध की कहानी होगी। कुछ लोगों को यह लगा
होगा कि यह कथानक आम परिवार में देवर - भाभी, नंद - नंदोई, भाई - भाई, माता - बेटा, पिता - पुत्र इत्यादि के बीच के
विवादों को परिलक्षित करेगा लेकिन यहां कुछ भी ऐसा नहीं हुआ। ग्रामीण अंचल से शुरू
हुई कहानी छोटे - बड़े शहरों की कशमकश भरी
ज़िंदगानी को दर्शाता हुआ आने वाले समय के लिये कुछ मार्ग दर्शन कर हमें सकते में
छोड़ गया। हमें इस कथानक के बारे में आपसे बहुत
कुछ सुनने और जानने की आस बनी रहेगी। प्रशंसा अथवा कड़वी टिप्पणियां दोनों का ही
तहेदिल से स्वागत।
धारावाहिक का लेखन कार्य
बड़ी लगन और श्रद्धा से करना पड़ता है जिसमें कोई छुट्टी नहीं है। एक बार धारावाहिक
शुरू हुआ नहीं कि उसे फिर आपको अंत तक निभाना है। कहानी के रास्ते एक मोड़ पर आकर
जब बंद हों भी जाएं तो चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि आगे कथानक को कैसे आगे बढ़ाना
है इसका तोड़ भी पाठकों की प्रतिक्रिया से प्राप्त हो जाता है अन्यथा आपको उनका
निदान निकालना ही है। वास्तव में धारावाहिक लेखन एक पूजा के समान निभाई गई
प्रक्रिया होती है। पता नहीं मैं यहां इस कसौटी पर भी खरा उतर सका अथवा नहीं लेकिन
मुझे यह कहते हुए कोई दर्द महसूस नहीं हो रहा है कि सजग पाठकों की टिप्पणियों ने
ही मुझे बंद दरवाज़ों के दूसरी तरफ पहुंचने में बेहद मदद की।
अंत में आप सभी को क्रिसमस
एवं 2020 की हृदयतल से अनेकोंनेक अग्रिम बधाईयाँ।
धन्यवाद सहित,
धन्यवाद सहित,
एसपी सिंह
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