Smart City Varanasi (Kashi)
Smart City Projects in UP: Varanasi( Kashi)
देश का प्रधान मंत्री चुनाव जीतने के बाद पहली विदेश यात्रा पर जाता है और इसके लिए चुनता है जापान देश। वहाँ जाकर एक Agreement पर हस्ताक्षर करता है कि क्वेटो की तरह पुराने जापानी शहर की भांति काशी को विकसित किया जाएगा।
काशी(वाराणसी) भारत का एक प्राचीन शहरी है। Smart City बन जाये अपना बनारस तो यह बहुत बड़ी बात होगी। हर हिन्दू को इस पर गर्व होगा।
कम लोग ही जानते होंगे कि यह शहर गंगा-जमुनी संस्कृति की जीती जागती तस्वीर पेश करता है। यहाँ मुस्लिम समुदाय भी अपना जीवन यहाँ रम के जीता है।
मेरा यहाँ कई बार आना हुआ है और जब जब यहाँ आया लगा अपने लोगों के बीच ही आ गया। Last time जब आया था बनारस उस वक्त मैं UP East में GSM Services Roll Out का प्रोजेक्ट BSNL के लिए Nokia की तरफ से work execution के सिलसिले में आया था, 2005 में। बाबा विश्वनाथ के दर्शन भी किये थे। Shopping भी करी थी। बनारसी साडियाँ लाजबाब होती हैं। उससे पहले campus selection के सिलसिले में BHU 1998 में गया था । लंका BHU Campus के visit की तस्वीर आज भी तसुब्बर में आ जातीं हैं।बहुत आनंद उठाया था अपने Hotel Ganges के प्रवास के दौरान। सुबह जिसने बनारस की न देखी हो उसने जीवन में कुछ नहीं देखा यह सही मान लेना चाहिए। घाट पर सूर्योदय के अद्भुत,अद्वितीय दृश्य और उसके बाद पूडी कचौरी रबडी जलेबी का नाश्ता भला कोई कैसे भूल सकता है।
गंदगी हर जगह है पतली गली गलियारों में फिर भी काशी के सानी दूसरा कोई नहीं। अब यह पुराना शहर भी परिवर्तन की बयार की महक महसूस कर रहा है। अब यह भी Smart City बनने की राह पर आगे बढ़ चुका है।
गंगा तट पर बसी काशी बड़ी पुरानी नगरी है। इतने प्राचीन नगर संसार में बहुत नहीं हैं। हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के साँवले लोगों ने इस नगर की नींव डाली थी। तभी यहाँ कपड़े और चाँदी का व्यापार शुरू हुआ। कुछ समय उपरांत पश्चिम से आये ऊँचे कद के गोरे लोगों ने उनकी नगरी छीन ली। ये बड़े लड़ाकू थे, उनके घर-द्वार न थे, न ही अचल संपत्ति थी। वे अपने को आर्य यानि श्रेष्ठ व महान कहते थे। आर्यों की अपनी जातियाँ थीं, अपने कुल घराने थे। उनका एक राजघराना तब काशी में भी आ जमा। काशी के पास हीअयोध्या में भी तभी उनका राजकुल बसा। उसे राजाइक्ष्वाकु का कुल कहते थे, यानि सूर्यवंश काशी में चन्द्र वंश की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर पर भरत राजकुल के चन्द्रवंशी राजा राज करते रहे। काशी तब आर्यों के पूर्वी नगरों में से थी, पूर्व में उनके राज की सीमा। उससे परे पूर्व का देश अपवित्र माना जाता था।
महाभारत पूर्व मगध में राजा जरासन्ध ने राज्य किया और काशी भी उसी साम्राज्य में समा गई। आर्यों के यहां कन्या के विवाह स्वयंवर के द्वारा होते थे। एक स्वयंवर मेंपाण्डव और कौरव के पितामह भीष्म ने काशी नरेश की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणामस्वरूप काशी औरहस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। महाभारत युद्ध में जरासन्ध और उसका पुत्र सहदेव दोनों काम आये। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर को डुबा दिया, तब पाण्डव वर्तमान इलाहाबाद जिला में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गए। उनका राज्यवत्स कहलाया और काशी पर मगध की जगह अब वत्स का अधिकार हुआ।
इसके बाद ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का काशी पर अधिकार हुआ। उस कुल में बड़े पंडित शासक हुए और में ज्ञान और पंडिताई ब्राह्मणों से क्षत्रियों के पास पहुंच गई थी। इनके समकालीन पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गंगा-यमुना के दोआब में राज करने वाले पांचाल में राजा प्रवहण जैबलि ने भी अपने ज्ञान का डंका बजाया था। इसी काल में जनकपुर, मिथिला में विदेहों के शासक जनक हुए, जिनके दरबार में याज्ञवल्क्य जैसे ज्ञानी महर्षि औरगार्गी जैसी पंडिता नारियां शास्त्रार्थ करती थीं। इनके समकालीन काशी राज्य का राजा अजातशत्रु हुआ ये आत्मा और परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर, लोक-परलोक पर तब देश में विचार हो रहे थे। इन विचारों को उपनिषद्कहते हैं। इसी से यह काल भी उपनिषद-काल कहलाता है।
महाजन पद युग संपादित करेंयुग बदलने के साथ ही वैशाली और मिथिला के लिच्छवी में साधु वर्धमानमहावीर हुए, कपिलवस्तु के शाक्य में गौतम बुद्ध हुए। उन्हीं दिनों काशी का राजा अश्वसेन हुआ। इनके यहां पार्श्वनाथ हुए जो जैन धर्म के २३वें तीर्थंकर हुए। उन दिनों भारत में चार राज्य प्रबल थे जो एक-दूसरे को जीतने के लिए, आपस में बराबर लड़ते रहते थे। ये राह्य थे मगध,कोसल, वत्स और उज्जयिनी। कभी काशी वत्सों के हाथ में जाती, कभी मगध के और कभी कोसल के। पार्श्वनाथ के बाद और बुद्ध से कुछ पहले, कोसल-श्रावस्ती के राजा कंसने काशी को जीतकर अपने राज में मिला लिया। उसी कुल के राजा महाकोशल ने तब अपनी बेटी कोसल देवी का मगध के राजा बिम्बसार से विवाह कर दहेज के रूप में काशी की वार्षिक आमदनी एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरंभ किया और इस प्रकार काशी मगध के नियंत्रण में पहुंच गई। राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन कोसलदेवी के दुःख से दुःखी उसके भाई कोसल के राजा प्रसेनजित ने काशी की आमदनी अजातशत्रु को देना बन्द कर दिया जिसका परिणाम मगध और कोसल समर हुई। इसमें कभी काशी कोसल के, कभी मगध के हाथ लगी। अन्ततः अजातशत्रु की जीत हुई और काशी उसके बढ़ते हुए साम्राज्य में समा गई। बाद में मगध की राजधानीराजगृह से पाटलिपुत्र चली गई और फिर कभी काशी पर उसका आक्रमण नहीं हो पाया।
काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य,सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं। यहीं सन्त एकनाथजी ने वारकरी सम्प्रदाय का महान ग्रन्थ श्रीएकनाथी भागवत लिखकर पुरा किया और काशी नरेश तथा विद्वतजनों द्वारा उस ग्रन्थ की हाथी पर से शोभायात्रा खूब धूमधाम से निकाली गयी।
वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा सन 1780 में करवाया गया था।बाद में महाराजा रंजीत सिंह द्वारा 1853 में 1000 कि.ग्रा शुद्ध सोने द्वारा मढ़्वाया गया था।
भारतीय इतिहास के मध्य युग में मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात् उस समय के अन्य सांस्कृतिक केंद्रों की भाँति काशी को भी दुर्दिन देखना पड़ा। ११९३ ई में मुहम्मद गोरीने कन्नौज को जीत लिया, जिससे काशी का प्रदेश भी, जो इस समय कन्नौज के राठौड़ राजाओं के अधीन था, मुसलमानों के अधिकार में आ गया। दिल्ली के सुल्तानों के आधिपत्यकाल में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को काशी के ही अंक में शरणमिली। कबीर और रामानंद के धार्मिक और लोकमानस के प्रेरक विचारों ने उसे जीता-जागता रखने में पर्याप्त सहायता दी। मुगल सम्राट् अकबरने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति जो उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, जो बीच के काल में कुछ क्षीण हो चली थी, पुन: वेगवती हो गई और उसने तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वतीऔर पंडितराज जगन्नाथ जैसे महाकवियों और पंडितों को जन्म दिया एवं काशी पुन: अपने प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई। किंतु शीघ्र ही इतिहास के अनेक उलटफेरों के देखनेवाली इस नगरी को औरंगजेब की धर्मांधता का शिकार बनना पड़ा। उसने हिंदू धर्म के अन्य पवित्र स्थानों की भाँति काशी के भी प्राचीन मंदिरों को विध्वस्त करा दिया। मूल विश्वनाथ के मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर एक बड़ी मसजिद बनवाई जो आज भी वर्तमान है। मुगल साम्राज्य की अवनति होने पर अवध के नवाब सफ़दरजंग ने काशी पर अधिकार कर लिया; किंतु उसके पौत्र ने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी को दे डाला। वर्तमान काशीनरेश के पूर्वज बलवंतसिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंधविच्छेद कर लिया था। इस प्रकार काशी की रियासत का जन्म हुआ। चेतसिंह, जिन्होंने वारेन हेस्टिंग्ज़से लोहा लिया था, इन्हीं के पुत्र थे। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् काशी की रियासत भारत राज्य का अविच्छिन्न अंग बन गई।
आधुनिक काशी राज्य वाराणसी का भूमिहार ब्राह्मण राज्य बना है। भारतीय स्वतंत्रता उपरांत अन्य सभी रजवाड़ों के समान काशी नरेश ने भी अपनी सभी प्रशासनिक शक्तियां छोड़ कर मात्र एक प्रसिद्ध हस्ती की भांति रहा आरंभ किया। वर्तमान स्थिति में ये मात्र एक सम्मान उपाधि रह गयी है। काशी नरेश का रामनगर किला वाराणसी शहर के पूर्व में गंगा नदी के तट पर बना है। गोतम गोत्री सरवरीया ब्राह्मण वंश मे उत्पन्न श्री कृष्ण मिश्र ( कित्थु मिश्र ) नामक तपस्वी ब्राह्मण की दो पत्नियों से एक-एक देव शर्मा और राम शर्मा हुए। इस वंश का मूल निवास स्थान प्राचीन दातृपुर ग्राम, वर्तमान गंगापुर ग्राम (काशी से पश्चिम लगभग२० मील) के पास का दतरिया गाँव हैं। वंश के ज्येष्ठ पुत्र देव शर्मा शास्र-धर्म के अध्ययन, अवलम्बन के पश्चात् अन्यत्र प्रस्थान कर गए, किन्तु कनिष्ठ राम शर्मा ने यहीं रहकर शास्र और शस्र दोनों में ही निपुणता प्राप्त की और यवनों द्वारा उत्पीड़ित आस-पास के भूखण्डों पर आधिपत्य जमाकर शासन करने लगे। धीरे-धीरे वंशवेलि विस्तृत होती गई जिसकी दूर की वंश परम्परा में मनुरंजन मिश्र नामक प्रतापशाली वंशज के चार पुत्रों में ज्यष्ठ पुत्र श्री मनसाराम ने इस राजवंश के संस्थापक एवं प्रभावशाली यशस्वी शासक होने का महनीय गौरव प्राप्त किया, शेष तीनों अनुजों- दशाराम, दयाराम, मायाराम ने ज्येष्ठ भ्राता के शासन को सुदृढ़ एवं स्थायी बनाये रखने में अनुगामी सहयोगी के रुप में अपना-अपना विशेष योगदान दिया | काशी नरेश का एक अन्य किला चेत सिंह महल, शिवाला घाट, वाराणसी में स्थित है। रामनगर किला और इसका संग्रहालय अब बनारस के राजाओं का एक स्मारक बना हुआ है। इसके अलावा १८वीं शताब्दी से ये काशी नरेश का आधिकारिक आवास बना हुआ है आज भी काशी नरेश को शहर में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।ये शहर के धार्मिक अग्रणी रहे हैं और भगवाण शिव के अवतार माने जाते हैं। ये शहर के धार्मिक संरक्षक भी माने जाते हैं और सभी धामिक कार्यकलापों में अभिन्न भाग होते हैं।
डॉ॰विभूति नारायण सिंह भारतीय स्वतंत्रता पूर्व अंतिम नरेश थे। इसके बाद १५ अक्टूबर १९४८ को राज्य भारतीय संघ में मिल गया। २००० में इनकी मृत्यु उपरांत इनके पुत्र शर्मदेव अनंत नारायण सिंह मिश्र ही काशी नरेश हैं और इस परंपरा के वाहक हैं।
काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं।वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत काबनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवंउस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानसयहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था।
वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ औरसंपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है।
प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबकों एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।"
वाराणसी नाम का अर्थ:-
वाराणसी नाम का उद्गम संभवतः यहां की दो स्थानीय नदियों वरुणा नदी एवं असि नदी के नाम से मिलकर बना है। ये नदियाँ गंगा नदी में क्रमशः उत्तर एवं दक्षिण से आकर मिलती हैं। नाम का एक अन्य विचार वरुणा नदी के नाम से ही आता है जिसे संभवतः प्राचीन काल में वरणासि ही कहा जाता होगा और इसी से शहर को नाम मिला।इसके समर्थन में शायद कुछ आरंभिक पाठ उपलब्ध हों, किन्तु इस दूसरे विचार को इतिहासवेत्ता सही नहीं मानते हैं। लंबे काल से वाराणसी को अविमुक्त क्षेत्र, आनंद-कानन, महाश्मशान, सुरंधन, ब्रह्मावर्त, सुदर्शन, रम्य, एवंकाशी नाम से भी संबोधित किया जाता रहा है।ऋग्वेदमें शहर को काशी या कासी नाम से बुलाया गया है। इसे प्रकाशित शब्द से लिया गया है, जिसका अभिप्राय शहर के ऐतिहासिक स्तर से है, क्योंकि ये शहर सदा से ज्ञान, शिक्षा एवं संस्कृति का केन्द्र रहा है।काशी शब्द सबसे पहलेअथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा से आया है और इसके बाद शतपथ में भी उल्लेख है। लेकिन यह संभव है कि नगर का नाम जनपद में पुराना हो। स्कंद पुराण के काशी खण्ड में नगर की महिमा १५,००० श्लोकों में कही गयी है। एक श्लोक में भगवान शिव कहते हैं:
तीनों लोकों से समाहित एक शहर है, जिसमें स्थित मेरा निवास प्रासाद है काशी।
वाराणसी का एक अन्य सन्दर्भ ऋषि वेद व्यास ने एक अन्य गद्य में दिया है:
गंगा तरंग रमणीय जातकलापनाम, गौरी निरंतर विभूषित वामभागम.
नारायणप्रियम अनंग मदापहारम,वाराणसीपुर पतिम भज विश्वनाथम
अथर्ववेद में वरणावती नदी का नाम आया है जो बहुत संभव है कि आधुनिक वरुणा नदी के लिये ही प्रयोग किया गया हो। अस्सी नदी को पुराणों में असिसंभेद तीर्थ कहा है। स्कंद पुराण के काशी खंड में कहा गया है कि संसार के सभी तीर्थ मिल कर असिसंभेद के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होते हैं।अग्निपुराण में असि नदी को व्युत्पन्न कर नासी भी कहा गया है। वरणासि का पदच्छेद करें तो नासी नाम की नदी निकाली गयी है, जो कालांतर में असी नाम में बदल गई। महाभारत में वरुणा या आधुनिक बरना नदी का प्राचीन नाम वरणासि होने की पुष्टि होती है।अतः वाराणासी शब्द के दो नदियों के नाम से बनने की बात बाद में बनायी गई है। पद्म पुराण के काशी महात्म्य, खंड-३ में भी श्लोक है:
वाराणसीति विख्यातां तन्मान निगदामि व: दक्षिणोत्तरयोर्नघोर्वरणासि श्च पूर्वत।
जाऋवी पश्चिमेऽत्रापि पाशपाणिर्गणेश्वर:।।
अर्थात दक्षिण-उत्तर में वरुणा और अस्सी नदी है, पूर्व में जाह्नवी और पश्चिम में पाशपाणिगणेश।
मत्स्य पुराण में शिव वाराणसी का वर्णन करते हुए कहते हैं -
वाराणस्यां नदी पु सिद्धगन्धर्वसेविता।
प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन् क्षेत्रे मम प्रिये॥
अर्थात्- हे प्रिये, सिद्ध गंधर्वों से सेवित वाराणसी में जहां पुण्य नदी त्रिपथगा गंगा आता है वह क्षेत्र मुझे प्रिय है।
यहां अस्सी का कहीं उल्लेख नहीं है। वाराणसी क्षेत्र का विस्तार बताते हुए मत्स्य पुराण में एक और जगह कहा गया है-
वरणा च नदी यावद्यावच्छुष्कनदी तथा।
भीष्मयंडीकमारम्भ पर्वतेश्वरमन्ति के॥
उपरोक्त उद्धरणों से यही ज्ञात होता है कि वास्तव में नगर का नामकरण वरणासी पर बसने से हुआ। अस्सी और वरुणा के बीच में वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय से उदय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और उसके साथ-साथ नगर के दक्षिण में आबादी बढ़ने से दक्षिण का भाग भी उसकी सीमा में आ गया। वैसे वरणा शब्द एक वृक्ष का भी नाम होता है। प्राचीनकाल में वृक्षों के नाम पर भी नगरों के नाम पड़ते थे जैसे कोशंब से कौशांबी, रोहीत से रोहीतक इत्यादि। अतः यह संभव है कि वाराणसी और वरणावती दोनों का ही नाम इस वृक्ष विशेष को लेकर ही पड़ा हो।
वाराणसी नाम के उपरोक्त कारण से यह अनुमान कदापि नहीं लगाना चाहिये कि इस नगर के से उक्त विवेचन से यह न समझ लेना चाहिए कि काशी राज्य के इस राजधानी शहर का केवल एक ही नाम था। अकेले बौद्ध साहित्य में ही इसके अनेक नाम मिलते हैं। उदय जातक में सुर्रूंधन (अर्थात सुरक्षित), सुतसोम जातक में सुदर्शन (अर्थात दर्शनीय), सोमदंड जातक में ब्रह्मवर्द्धन, खंडहाल जातक में पुष्पवती, युवंजय जातक में रम्म नगर (यानि सुन्दर नगर), शंख जातक में मोलिनो (मुकुलिनी) नाम आते हैं। इसे कासिनगर और कासिपुर के नाम से भी जाना जाता था। सम्राट अशोक के समय में इसकी राजधानी का नाम पोतलि था। यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि ये सभी नाम एक ही शहर के थे, या काशी राज्य की अलग-अलग समय पर रहीं एक से अधिक राजधानियों के नाम थे।
काशी(वाराणसी) या बनारस अब प्रधान मंत्री का लोकसभा क्षेत्र है इसलिए उम्मीद बनी हुई है कि अब यह भी अपनी पौराणिकता बनाये हुये smart city बनेगा। Metro दौडने लगेगी चौराहों पर लगने वाले जाम कल की बात हो जायेगी। पर्यटन को बढावा मिलेगा। शिक्षा का केंद्र बना रहेगा। बुनकरों को नई जिंदगी मिलेगी।
भगवान बस अब तुम इतना करना कि जो होना है वो 2019 तक हो जाए। गंगा जो मैली हो गई है पुनः निर्मल हो जाए और अविरल बहती रहे।बनारस शहर भी Smart City बन ही जाए।
धन्यवाद मित्रों।
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http:// spsinghamaur.blogspot.in/
देश का प्रधान मंत्री चुनाव जीतने के बाद पहली विदेश यात्रा पर जाता है और इसके लिए चुनता है जापान देश। वहाँ जाकर एक Agreement पर हस्ताक्षर करता है कि क्वेटो की तरह पुराने जापानी शहर की भांति काशी को विकसित किया जाएगा।
काशी(वाराणसी) भारत का एक प्राचीन शहरी है। Smart City बन जाये अपना बनारस तो यह बहुत बड़ी बात होगी। हर हिन्दू को इस पर गर्व होगा।
कम लोग ही जानते होंगे कि यह शहर गंगा-जमुनी संस्कृति की जीती जागती तस्वीर पेश करता है। यहाँ मुस्लिम समुदाय भी अपना जीवन यहाँ रम के जीता है।
मेरा यहाँ कई बार आना हुआ है और जब जब यहाँ आया लगा अपने लोगों के बीच ही आ गया। Last time जब आया था बनारस उस वक्त मैं UP East में GSM Services Roll Out का प्रोजेक्ट BSNL के लिए Nokia की तरफ से work execution के सिलसिले में आया था, 2005 में। बाबा विश्वनाथ के दर्शन भी किये थे। Shopping भी करी थी। बनारसी साडियाँ लाजबाब होती हैं। उससे पहले campus selection के सिलसिले में BHU 1998 में गया था । लंका BHU Campus के visit की तस्वीर आज भी तसुब्बर में आ जातीं हैं।बहुत आनंद उठाया था अपने Hotel Ganges के प्रवास के दौरान। सुबह जिसने बनारस की न देखी हो उसने जीवन में कुछ नहीं देखा यह सही मान लेना चाहिए। घाट पर सूर्योदय के अद्भुत,अद्वितीय दृश्य और उसके बाद पूडी कचौरी रबडी जलेबी का नाश्ता भला कोई कैसे भूल सकता है।
गंदगी हर जगह है पतली गली गलियारों में फिर भी काशी के सानी दूसरा कोई नहीं। अब यह पुराना शहर भी परिवर्तन की बयार की महक महसूस कर रहा है। अब यह भी Smart City बनने की राह पर आगे बढ़ चुका है।
गंगा तट पर बसी काशी बड़ी पुरानी नगरी है। इतने प्राचीन नगर संसार में बहुत नहीं हैं। हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के साँवले लोगों ने इस नगर की नींव डाली थी। तभी यहाँ कपड़े और चाँदी का व्यापार शुरू हुआ। कुछ समय उपरांत पश्चिम से आये ऊँचे कद के गोरे लोगों ने उनकी नगरी छीन ली। ये बड़े लड़ाकू थे, उनके घर-द्वार न थे, न ही अचल संपत्ति थी। वे अपने को आर्य यानि श्रेष्ठ व महान कहते थे। आर्यों की अपनी जातियाँ थीं, अपने कुल घराने थे। उनका एक राजघराना तब काशी में भी आ जमा। काशी के पास हीअयोध्या में भी तभी उनका राजकुल बसा। उसे राजाइक्ष्वाकु का कुल कहते थे, यानि सूर्यवंश काशी में चन्द्र वंश की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर पर भरत राजकुल के चन्द्रवंशी राजा राज करते रहे। काशी तब आर्यों के पूर्वी नगरों में से थी, पूर्व में उनके राज की सीमा। उससे परे पूर्व का देश अपवित्र माना जाता था।
महाभारत पूर्व मगध में राजा जरासन्ध ने राज्य किया और काशी भी उसी साम्राज्य में समा गई। आर्यों के यहां कन्या के विवाह स्वयंवर के द्वारा होते थे। एक स्वयंवर मेंपाण्डव और कौरव के पितामह भीष्म ने काशी नरेश की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणामस्वरूप काशी औरहस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। महाभारत युद्ध में जरासन्ध और उसका पुत्र सहदेव दोनों काम आये। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर को डुबा दिया, तब पाण्डव वर्तमान इलाहाबाद जिला में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गए। उनका राज्यवत्स कहलाया और काशी पर मगध की जगह अब वत्स का अधिकार हुआ।
इसके बाद ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का काशी पर अधिकार हुआ। उस कुल में बड़े पंडित शासक हुए और में ज्ञान और पंडिताई ब्राह्मणों से क्षत्रियों के पास पहुंच गई थी। इनके समकालीन पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गंगा-यमुना के दोआब में राज करने वाले पांचाल में राजा प्रवहण जैबलि ने भी अपने ज्ञान का डंका बजाया था। इसी काल में जनकपुर, मिथिला में विदेहों के शासक जनक हुए, जिनके दरबार में याज्ञवल्क्य जैसे ज्ञानी महर्षि औरगार्गी जैसी पंडिता नारियां शास्त्रार्थ करती थीं। इनके समकालीन काशी राज्य का राजा अजातशत्रु हुआ ये आत्मा और परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर, लोक-परलोक पर तब देश में विचार हो रहे थे। इन विचारों को उपनिषद्कहते हैं। इसी से यह काल भी उपनिषद-काल कहलाता है।
महाजन पद युग संपादित करेंयुग बदलने के साथ ही वैशाली और मिथिला के लिच्छवी में साधु वर्धमानमहावीर हुए, कपिलवस्तु के शाक्य में गौतम बुद्ध हुए। उन्हीं दिनों काशी का राजा अश्वसेन हुआ। इनके यहां पार्श्वनाथ हुए जो जैन धर्म के २३वें तीर्थंकर हुए। उन दिनों भारत में चार राज्य प्रबल थे जो एक-दूसरे को जीतने के लिए, आपस में बराबर लड़ते रहते थे। ये राह्य थे मगध,कोसल, वत्स और उज्जयिनी। कभी काशी वत्सों के हाथ में जाती, कभी मगध के और कभी कोसल के। पार्श्वनाथ के बाद और बुद्ध से कुछ पहले, कोसल-श्रावस्ती के राजा कंसने काशी को जीतकर अपने राज में मिला लिया। उसी कुल के राजा महाकोशल ने तब अपनी बेटी कोसल देवी का मगध के राजा बिम्बसार से विवाह कर दहेज के रूप में काशी की वार्षिक आमदनी एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरंभ किया और इस प्रकार काशी मगध के नियंत्रण में पहुंच गई। राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन कोसलदेवी के दुःख से दुःखी उसके भाई कोसल के राजा प्रसेनजित ने काशी की आमदनी अजातशत्रु को देना बन्द कर दिया जिसका परिणाम मगध और कोसल समर हुई। इसमें कभी काशी कोसल के, कभी मगध के हाथ लगी। अन्ततः अजातशत्रु की जीत हुई और काशी उसके बढ़ते हुए साम्राज्य में समा गई। बाद में मगध की राजधानीराजगृह से पाटलिपुत्र चली गई और फिर कभी काशी पर उसका आक्रमण नहीं हो पाया।
काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य,सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं। यहीं सन्त एकनाथजी ने वारकरी सम्प्रदाय का महान ग्रन्थ श्रीएकनाथी भागवत लिखकर पुरा किया और काशी नरेश तथा विद्वतजनों द्वारा उस ग्रन्थ की हाथी पर से शोभायात्रा खूब धूमधाम से निकाली गयी।
वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा सन 1780 में करवाया गया था।बाद में महाराजा रंजीत सिंह द्वारा 1853 में 1000 कि.ग्रा शुद्ध सोने द्वारा मढ़्वाया गया था।
भारतीय इतिहास के मध्य युग में मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात् उस समय के अन्य सांस्कृतिक केंद्रों की भाँति काशी को भी दुर्दिन देखना पड़ा। ११९३ ई में मुहम्मद गोरीने कन्नौज को जीत लिया, जिससे काशी का प्रदेश भी, जो इस समय कन्नौज के राठौड़ राजाओं के अधीन था, मुसलमानों के अधिकार में आ गया। दिल्ली के सुल्तानों के आधिपत्यकाल में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को काशी के ही अंक में शरणमिली। कबीर और रामानंद के धार्मिक और लोकमानस के प्रेरक विचारों ने उसे जीता-जागता रखने में पर्याप्त सहायता दी। मुगल सम्राट् अकबरने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति जो उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, जो बीच के काल में कुछ क्षीण हो चली थी, पुन: वेगवती हो गई और उसने तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वतीऔर पंडितराज जगन्नाथ जैसे महाकवियों और पंडितों को जन्म दिया एवं काशी पुन: अपने प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई। किंतु शीघ्र ही इतिहास के अनेक उलटफेरों के देखनेवाली इस नगरी को औरंगजेब की धर्मांधता का शिकार बनना पड़ा। उसने हिंदू धर्म के अन्य पवित्र स्थानों की भाँति काशी के भी प्राचीन मंदिरों को विध्वस्त करा दिया। मूल विश्वनाथ के मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर एक बड़ी मसजिद बनवाई जो आज भी वर्तमान है। मुगल साम्राज्य की अवनति होने पर अवध के नवाब सफ़दरजंग ने काशी पर अधिकार कर लिया; किंतु उसके पौत्र ने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी को दे डाला। वर्तमान काशीनरेश के पूर्वज बलवंतसिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंधविच्छेद कर लिया था। इस प्रकार काशी की रियासत का जन्म हुआ। चेतसिंह, जिन्होंने वारेन हेस्टिंग्ज़से लोहा लिया था, इन्हीं के पुत्र थे। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् काशी की रियासत भारत राज्य का अविच्छिन्न अंग बन गई।
आधुनिक काशी राज्य वाराणसी का भूमिहार ब्राह्मण राज्य बना है। भारतीय स्वतंत्रता उपरांत अन्य सभी रजवाड़ों के समान काशी नरेश ने भी अपनी सभी प्रशासनिक शक्तियां छोड़ कर मात्र एक प्रसिद्ध हस्ती की भांति रहा आरंभ किया। वर्तमान स्थिति में ये मात्र एक सम्मान उपाधि रह गयी है। काशी नरेश का रामनगर किला वाराणसी शहर के पूर्व में गंगा नदी के तट पर बना है। गोतम गोत्री सरवरीया ब्राह्मण वंश मे उत्पन्न श्री कृष्ण मिश्र ( कित्थु मिश्र ) नामक तपस्वी ब्राह्मण की दो पत्नियों से एक-एक देव शर्मा और राम शर्मा हुए। इस वंश का मूल निवास स्थान प्राचीन दातृपुर ग्राम, वर्तमान गंगापुर ग्राम (काशी से पश्चिम लगभग२० मील) के पास का दतरिया गाँव हैं। वंश के ज्येष्ठ पुत्र देव शर्मा शास्र-धर्म के अध्ययन, अवलम्बन के पश्चात् अन्यत्र प्रस्थान कर गए, किन्तु कनिष्ठ राम शर्मा ने यहीं रहकर शास्र और शस्र दोनों में ही निपुणता प्राप्त की और यवनों द्वारा उत्पीड़ित आस-पास के भूखण्डों पर आधिपत्य जमाकर शासन करने लगे। धीरे-धीरे वंशवेलि विस्तृत होती गई जिसकी दूर की वंश परम्परा में मनुरंजन मिश्र नामक प्रतापशाली वंशज के चार पुत्रों में ज्यष्ठ पुत्र श्री मनसाराम ने इस राजवंश के संस्थापक एवं प्रभावशाली यशस्वी शासक होने का महनीय गौरव प्राप्त किया, शेष तीनों अनुजों- दशाराम, दयाराम, मायाराम ने ज्येष्ठ भ्राता के शासन को सुदृढ़ एवं स्थायी बनाये रखने में अनुगामी सहयोगी के रुप में अपना-अपना विशेष योगदान दिया | काशी नरेश का एक अन्य किला चेत सिंह महल, शिवाला घाट, वाराणसी में स्थित है। रामनगर किला और इसका संग्रहालय अब बनारस के राजाओं का एक स्मारक बना हुआ है। इसके अलावा १८वीं शताब्दी से ये काशी नरेश का आधिकारिक आवास बना हुआ है आज भी काशी नरेश को शहर में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।ये शहर के धार्मिक अग्रणी रहे हैं और भगवाण शिव के अवतार माने जाते हैं। ये शहर के धार्मिक संरक्षक भी माने जाते हैं और सभी धामिक कार्यकलापों में अभिन्न भाग होते हैं।
डॉ॰विभूति नारायण सिंह भारतीय स्वतंत्रता पूर्व अंतिम नरेश थे। इसके बाद १५ अक्टूबर १९४८ को राज्य भारतीय संघ में मिल गया। २००० में इनकी मृत्यु उपरांत इनके पुत्र शर्मदेव अनंत नारायण सिंह मिश्र ही काशी नरेश हैं और इस परंपरा के वाहक हैं।
काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं।वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत काबनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवंउस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानसयहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था।
वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ औरसंपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है।
प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबकों एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।"
वाराणसी नाम का अर्थ:-
वाराणसी नाम का उद्गम संभवतः यहां की दो स्थानीय नदियों वरुणा नदी एवं असि नदी के नाम से मिलकर बना है। ये नदियाँ गंगा नदी में क्रमशः उत्तर एवं दक्षिण से आकर मिलती हैं। नाम का एक अन्य विचार वरुणा नदी के नाम से ही आता है जिसे संभवतः प्राचीन काल में वरणासि ही कहा जाता होगा और इसी से शहर को नाम मिला।इसके समर्थन में शायद कुछ आरंभिक पाठ उपलब्ध हों, किन्तु इस दूसरे विचार को इतिहासवेत्ता सही नहीं मानते हैं। लंबे काल से वाराणसी को अविमुक्त क्षेत्र, आनंद-कानन, महाश्मशान, सुरंधन, ब्रह्मावर्त, सुदर्शन, रम्य, एवंकाशी नाम से भी संबोधित किया जाता रहा है।ऋग्वेदमें शहर को काशी या कासी नाम से बुलाया गया है। इसे प्रकाशित शब्द से लिया गया है, जिसका अभिप्राय शहर के ऐतिहासिक स्तर से है, क्योंकि ये शहर सदा से ज्ञान, शिक्षा एवं संस्कृति का केन्द्र रहा है।काशी शब्द सबसे पहलेअथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा से आया है और इसके बाद शतपथ में भी उल्लेख है। लेकिन यह संभव है कि नगर का नाम जनपद में पुराना हो। स्कंद पुराण के काशी खण्ड में नगर की महिमा १५,००० श्लोकों में कही गयी है। एक श्लोक में भगवान शिव कहते हैं:
तीनों लोकों से समाहित एक शहर है, जिसमें स्थित मेरा निवास प्रासाद है काशी।
वाराणसी का एक अन्य सन्दर्भ ऋषि वेद व्यास ने एक अन्य गद्य में दिया है:
गंगा तरंग रमणीय जातकलापनाम, गौरी निरंतर विभूषित वामभागम.
नारायणप्रियम अनंग मदापहारम,वाराणसीपुर पतिम भज विश्वनाथम
अथर्ववेद में वरणावती नदी का नाम आया है जो बहुत संभव है कि आधुनिक वरुणा नदी के लिये ही प्रयोग किया गया हो। अस्सी नदी को पुराणों में असिसंभेद तीर्थ कहा है। स्कंद पुराण के काशी खंड में कहा गया है कि संसार के सभी तीर्थ मिल कर असिसंभेद के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होते हैं।अग्निपुराण में असि नदी को व्युत्पन्न कर नासी भी कहा गया है। वरणासि का पदच्छेद करें तो नासी नाम की नदी निकाली गयी है, जो कालांतर में असी नाम में बदल गई। महाभारत में वरुणा या आधुनिक बरना नदी का प्राचीन नाम वरणासि होने की पुष्टि होती है।अतः वाराणासी शब्द के दो नदियों के नाम से बनने की बात बाद में बनायी गई है। पद्म पुराण के काशी महात्म्य, खंड-३ में भी श्लोक है:
वाराणसीति विख्यातां तन्मान निगदामि व: दक्षिणोत्तरयोर्नघोर्वरणासि
जाऋवी पश्चिमेऽत्रापि पाशपाणिर्गणेश्वर:।।
अर्थात दक्षिण-उत्तर में वरुणा और अस्सी नदी है, पूर्व में जाह्नवी और पश्चिम में पाशपाणिगणेश।
मत्स्य पुराण में शिव वाराणसी का वर्णन करते हुए कहते हैं -
वाराणस्यां नदी पु सिद्धगन्धर्वसेविता।
प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन् क्षेत्रे मम प्रिये॥
अर्थात्- हे प्रिये, सिद्ध गंधर्वों से सेवित वाराणसी में जहां पुण्य नदी त्रिपथगा गंगा आता है वह क्षेत्र मुझे प्रिय है।
यहां अस्सी का कहीं उल्लेख नहीं है। वाराणसी क्षेत्र का विस्तार बताते हुए मत्स्य पुराण में एक और जगह कहा गया है-
वरणा च नदी यावद्यावच्छुष्कनदी तथा।
भीष्मयंडीकमारम्भ पर्वतेश्वरमन्ति के॥
उपरोक्त उद्धरणों से यही ज्ञात होता है कि वास्तव में नगर का नामकरण वरणासी पर बसने से हुआ। अस्सी और वरुणा के बीच में वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय से उदय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और उसके साथ-साथ नगर के दक्षिण में आबादी बढ़ने से दक्षिण का भाग भी उसकी सीमा में आ गया। वैसे वरणा शब्द एक वृक्ष का भी नाम होता है। प्राचीनकाल में वृक्षों के नाम पर भी नगरों के नाम पड़ते थे जैसे कोशंब से कौशांबी, रोहीत से रोहीतक इत्यादि। अतः यह संभव है कि वाराणसी और वरणावती दोनों का ही नाम इस वृक्ष विशेष को लेकर ही पड़ा हो।
वाराणसी नाम के उपरोक्त कारण से यह अनुमान कदापि नहीं लगाना चाहिये कि इस नगर के से उक्त विवेचन से यह न समझ लेना चाहिए कि काशी राज्य के इस राजधानी शहर का केवल एक ही नाम था। अकेले बौद्ध साहित्य में ही इसके अनेक नाम मिलते हैं। उदय जातक में सुर्रूंधन (अर्थात सुरक्षित), सुतसोम जातक में सुदर्शन (अर्थात दर्शनीय), सोमदंड जातक में ब्रह्मवर्द्धन, खंडहाल जातक में पुष्पवती, युवंजय जातक में रम्म नगर (यानि सुन्दर नगर), शंख जातक में मोलिनो (मुकुलिनी) नाम आते हैं। इसे कासिनगर और कासिपुर के नाम से भी जाना जाता था। सम्राट अशोक के समय में इसकी राजधानी का नाम पोतलि था। यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि ये सभी नाम एक ही शहर के थे, या काशी राज्य की अलग-अलग समय पर रहीं एक से अधिक राजधानियों के नाम थे।
काशी(वाराणसी) या बनारस अब प्रधान मंत्री का लोकसभा क्षेत्र है इसलिए उम्मीद बनी हुई है कि अब यह भी अपनी पौराणिकता बनाये हुये smart city बनेगा। Metro दौडने लगेगी चौराहों पर लगने वाले जाम कल की बात हो जायेगी। पर्यटन को बढावा मिलेगा। शिक्षा का केंद्र बना रहेगा। बुनकरों को नई जिंदगी मिलेगी।
भगवान बस अब तुम इतना करना कि जो होना है वो 2019 तक हो जाए। गंगा जो मैली हो गई है पुनः निर्मल हो जाए और अविरल बहती रहे।बनारस शहर भी Smart City बन ही जाए।
धन्यवाद मित्रों।
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
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