Monday, April 6, 2015

घर के रहे न घाट के......

घर के रहे न घाट के ....



कलम से____

अपनों के बीच रहते हुए भी
धीरे धीरे हम पराये हो गये।

लड्डू बंटे जब विदेश चले
सदा को अपनों से कट गये।

गोरों के बीच हम आ गये
गेंहुँआ रंग अपना भूल गये।

यहाँ पूरी तरह हम रमे नहीँ
दिलो जान से सदा रहे वहीं।

मूल्य जो प्यारे थे हमें कभी
चोट खाकर हो जाते थे दुखी।

न हम यहाँ के बन सके
न हम अपनों के ही रहे।

घर वापसी मुश्किल लगती है
रंजिशे यहां बढ़ती हुईं सी हैं।

घर के रहे न घाट के हम हो गये
माँ बाप संबधी सब छूट गये।

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/

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