घर के रहे न घाट के ....
कलम से____
अपनों के बीच रहते हुए भी
धीरे धीरे हम पराये हो गये।
लड्डू बंटे जब विदेश चले
सदा को अपनों से कट गये।
गोरों के बीच हम आ गये
गेंहुँआ रंग अपना भूल गये।
यहाँ पूरी तरह हम रमे नहीँ
दिलो जान से सदा रहे वहीं।
मूल्य जो प्यारे थे हमें कभी
चोट खाकर हो जाते थे दुखी।
न हम यहाँ के बन सके
न हम अपनों के ही रहे।
घर वापसी मुश्किल लगती है
रंजिशे यहां बढ़ती हुईं सी हैं।
घर के रहे न घाट के हम हो गये
माँ बाप संबधी सब छूट गये।
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http:// spsinghamaur.blogspot.in/
अपनों के बीच रहते हुए भी
धीरे धीरे हम पराये हो गये।
लड्डू बंटे जब विदेश चले
सदा को अपनों से कट गये।
गोरों के बीच हम आ गये
गेंहुँआ रंग अपना भूल गये।
यहाँ पूरी तरह हम रमे नहीँ
दिलो जान से सदा रहे वहीं।
मूल्य जो प्यारे थे हमें कभी
चोट खाकर हो जाते थे दुखी।
न हम यहाँ के बन सके
न हम अपनों के ही रहे।
घर वापसी मुश्किल लगती है
रंजिशे यहां बढ़ती हुईं सी हैं।
घर के रहे न घाट के हम हो गये
माँ बाप संबधी सब छूट गये।
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
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