Wednesday, December 4, 2019

खूसट बुढ्ढे द्वारा एस पी सिंह












समर्पण

माँ सा और बाबू सा की स्मृति में




  
अस्वीकारोक्ति

मैं एतदद्वारा घोषणा करता हूँ कि इस पुस्तक में वर्णित व्यक्ति और घटनाएँ काल्पनिक हैं। वास्तविक जीवन से इनका कोई सरोकार नहीं हैं। तथापि पुस्तक में उल्लिखित यदि किसी व्यक्ति या घटना का वास्तविक जीवन से सम्बन्ध है, तो यह मात्र संयोग माना जाये।


दो शब्द सम्पादक की कलम से...

रफ्तार जैसे ठहर सी गई हो ! एक एक शब्द को निशब्द करता, निशब्द को शब्द करता, जहां  रफ्तार  उबड़ खाबड़ रहीं, वहीं कालचक्र बहुत ही तीव्र गति से नये नये आयाम बनाता अपनी अगली और अगली मंजिल की तरफ बढ़ता ही चला जा रहा था बिलकुल पावन सरयू जल सा...

जिन्दगी थी की भागी ही चली जा रही थी......

काश्मीर की नई सुबह पक्षियों का कलरव् पल पल आजादी की सॉस का आभास दे रहा था, सभी की ऑखों में एक नई चमक का आभास बिलकुल स्पष्ट था जिसमें चिड़ियों की चहचहाट का कलरव जैसे संगीत की तान छेडे़ है.....

इसी बीच दर्द भरा समाचार प्राप्त हुआ कि “गुज़र ग़ाह” के मुख्य पात्र अब हमारे बीच नहीं रहे यह मेरे लिए दुखद था क्योंकि हमने अज़रा की शादी को लेकर कुछ ख्वाब बुने थे मगर होनी को कौन टाल सका आज तक......

तदुपरान्त खूसट बुढ्ढे में माथुर साहब ने वरिष्ठ होने के नाते जो सन्तुलन बनाया तो अन्तिम तक बिगड़ने नहीं दिया, चाहे अय्यर को भीतर ही भीतर कचोटता औलाद नहीं होने का दर्द हो या सरदार साहब के साढू दार जी की गम्भीर बीमारी हो....

यहॉ सुख व दुख में लेखक ने जो जीवन्तता पैदा की इसकी मिसाल कम ही मिलती है, ज्यों ही खूसट बुढ्ढे अजमल खॉ पार्क पंहुचते कि सब भूल जाते व एक दूसरे के सुख दुख में गड़ बड़ हो जाते...

शेखावत ने जिस प्रकार से तमाम मौकों को दर किनार कर अपने भरोसे को कुंवरानी के दिल में बनाये रक्खा वह अपने आप में एक मिसाल है जबकि महिला मित्रों से शगल करना तो राजपूती शान रही है.

माथुर साहब की बेटी ने बता दिया की भारतीय समाजिक ताना बाना कितना प्यारा व खूबसूरत है कि वह अपनी पीएचडी पूर्ण होते ही एक मिनट भी अमेरिका नहीं रहना चाहेगी तथा भारत वापस लौट आयेगी.

कोई बात नहीं कई बार वह नहीं होता जो हम सोचते हैं तथा वह हो जाता है जो हम नहीं सोचते. इसी को कहते हैं - "राम की माया, राम ही जाने"

अजातशत्रु की बुलेट अपने ही रंग में आइरा को संग लिए पूरी रफ्तार से एक नई व प्यारी मंजिल की तरफ भागी चली जा रही थी जिसकी गति को शेखावत जी ने सहज सहमति दे उंची उड़ान के संकेत दोनों बच्चों को दे दिये.

"यहॉ बच्चों को यह जान लेना आवश्यक है कि माता व पिता की अनुभवी नज़रों से बच्चों में आई हल्की सी जुम्बिश को भी छुपाया नहीं जा सकता."

370 एवं 35A बीते दिनों की बात हो चुकी है, अयोध्या पर फैसला आ चुका है दोनों पक्षकार आश्वस्त हैं कि फैंसला उन्ही के मन मुताबिक आया है. चूंकि देश अलर्ट से गुजर रहा है अत: पक्ष विपक्ष व सभी भारतीयों की बड़ी जिम्मेदारी है कि आज परीक्षा की इस घड़ी में हम अपनी भारतीयता पर किसी की कुदृष्टि पड़ने ना दें.....

करतापुर कॉरीडोर का उदघाटन भी ओज भरने वाला रहा जिससे हम सभी गुरूनानक देव जी का 550 वॉ प्रकाशोत्सव उल्लास पूर्वक मना पा रहे हैं.....

आज ही के दिन यह बड़ी खबर रही कि सरदार साहब के बेटे की शादी समारोह में जहॉ आखिरी बार सभी खुसट बुढ्ढे वर वधु को आशीर्वाद देने हेतु शादी समारोह में एकत्र हुए वहीं एकाएक तेजी से घटनाक्रम बदला जब स्टेज पर कुछ हलचल सभी ने साफ तौर पर तब महसूस की जब आइरा अपनी अम्मी व अब्बू के साथ स्टेज पर आई.....

ज्यों ही जसवीर ने आइरा को देखा, तब एक झटके से जसप्रीत से अपना हाथ छुड़ा उठ खड़ा हुआ जैसे हजार वोल्ट का करंट उसे लगा हो !!! बिलकुल दार जी की तरह....
यह दृश्य मेरे लिए रोंगटे खड़े करने वाला रहा, क्योंकि इस क्षण के पहले तक मुझे स्वयं यह आभाष नहीं था कि दार जी की तरह ही आइरा को अज़रा समझ जसवीर पूरी ताकत से रिएक्ट करेगा...

दुनिया में सब हमेशा नहीं रहता तभी तो इतिहास व कालखण्ड के निर्माण होते हैं मगर कथानक के दृश्य हमेशा पाठकों को जिज्ञाशु बनाये रक्खेगें. 

लेखक क्या सोचता है, लेखक की विचारशीलता आसमान की किस आकाशगंगा में कब किस गति से विचरण कर रही है उसको पकड़ पाना आसान न था फिर भी जितना बन पड़ा मैनें अपनी जिम्मेदारी को लेखक को समर्पित हो सहयोग लेकर निभाता चला गया.

यह मेरा प्रथम प्रयास था, कहीं कोई त्रुटि यदि भूलवश रह गई हो तब लेखक व आप सुधी पाठकगणों का क्षमा प्रार्थी हूं...

भीगी आँखों से कथानक की समाप्ति पर सम्पादक...

आपका
सुरेन्द्र पाल राणा
7007317909


  
"खूसट बुड्ढे":

अज़रा के "गुज़र गाह" के समापन के बाद से सोच ही रहा था कि अब मैं क्या करूँ? परसों ही से दिमाग़ में उथल पुथल मची हुई थी। आज भोर में
उठते ही दिमाग़ की बत्ती जल उठी और "खूसट बुड्ढे" लिखने की बात बन गई।
हमारे एक परम मित्र हैं श्री राम शरण सिंह उन्होंने एक पुस्तक "Musing" अपने वक़्त वक़्त पर लिखे हुए आर्टिकल्स को संकलित किया है। श्री सिंह जितना अच्छा अंग्रेजी भाषा में लिखते हैं उतना ही अच्छा हिंदी राष्ट्र भाषा में भी। श्री सिंह आज भी ख़ूब लिखते पढ़ते रहते हैं। दरअसल हमारी साहित्यिक जीवन की शुरूआत श्री सिंह की बदौलत ही हुई। बात कुछ वर्ष पहले की है जब मैं अपने अंग्रेजी भाषा में "Indian Tiger Caged in Cupboard" लिखने का प्रयास कर रहा था। मैं कहानी लिखते लिखते एक जगह आकर रुक गया। रुका भी तो एक ऐसे बिंदु 'प्रेम का इज़हार' पर आकर जिस क्षेत्र में मैं अपना एकाधिकार समझता था। पहली बार लगा कि मैं सबसे बौड़म निकला, वह भी प्रेम के क्षेत्र में। मैंने तब श्री सिंह की मदद से उस उपन्यास को पूरा किया। उन्हीं दिनों से श्री सिंह और हमारे बीच पारवारिक सम्बंध बन गए। वह बंगलूर के निवासी और मैं एनसीआर का। बहुत दूरी थी, लेकिन टेक्नोलॉजी ने वे सब दूरियां समाप्त कर दीं थी। मैं उनको अपनी कहानी ई मेल से भेजता और वह उसे सही कर मुझे वापस भेज देते।
कोशिश करूँगा कि नव दुर्गा के प्रथम दिवस 29/09/2019 से मैं अपने इस नए सफ़र खूसट बुढ्ढे” के पहले एपीसोड को आपकी झोली में डाल सकूँ........
एस पी सिंह
27/092019


"खूसट बुड्ढे"
टीज़र 1
इंसान तन बदन से बूढा हो भी जाये लेकिन उसे दिल से जवान रहना चाहिए। इसके लिए ज़रूरी है कि हम लोगों का अपनी उम्र के लोगों के साथ उठना बैठना बना रहे। मिलजुल कर हँसी मज़ाक़ का दौर चलता रहना चाहिए।
जब कुछ बुड्ढे आपस मिल बैठे हों और अपने पुराने दिनों की बातें न हों यह तो हो ही नहीं सकता। उनमें से कोई एक भी सठिया गया हो तो पॉलिटिक्स पर बातचीत न हो यह भी नहीं हो सकता। यह सब ज़रूरी है इसलिए कि स्वास्थ्य ठीक बना रहे। जितने दिन का भी जीवन प्रभु ने प्रदान किया है सांसे चलती रहनी चाहिए। हँसने हँसाने से फेफड़ों में ऑक्सिजन जाती है और ज्ञान चक्षु भलीभाँति काम करते रहते हैं।
....तो दोस्तों कल फिर मुलाकात होती है लेकिन एक शर्त पर कि आप हर दिन कुछ न कुछ टिप्पणी "खूसट बुड्ढे" के लिए ज़रूर ज़रूर लिखेंगे जिससे पता रहे कि हमारे यह प्रयास कहाँ तक आपकी आशाओं और आकांक्षाओं पर खरे उतर रहे हैं।
हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएं।
एस पी सिंह
28/09/2019

"खूसट बुड्ढे"
टीज़र 2
आज से शारदीय नव दुर्गा पावन त्यौहार की शुरूआत हो रही है। हम इस सुअवसर पर आप सभी भाई और बहनों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं प्रेषित करते हैं। प्रभु से यही प्रार्थना है कि आप सभी का जीवन हँसते हँसाते बीते।
आज से हमारे "खूसट बुढ्ढे" की कहानी की शुरूआत होने वाली थी लेकिन बाद में अहसास हुआ कि हम उतने पूजा पाठ करने वाले नहीं हमारे 'राम' तो गांधी वाले राम हैं। वह राम जिनका नाम स्वतः ही स्मरण हो आता है। वह राम जो जन जन के हृदय में समाए हुए हैं। बिना जाति, धर्म, लिंग का भेदभाव करते हुए सुबह सुबह इसलिए एक दूसरे को "राम राम" कह कर अभिवादन करते हैं।
हमारे कुछ अभिन्न, महत्वपूर्ण और प्रेमी मित्र नव दुर्गा के अंतराल में पूजा पाठ में व्यस्त होंगे। 'खूसट बुढ्ढे' में तो बहुत कुछ ऐसा होने वाला है जो उनकी पूजा पाठ में व्यवधान पैदा कर सकता है, उनका ध्यान बांट सकता है, उनकी पूजा में मन विचलित कर सकता है, उनकी पूजा में विघ्न पैदा कर सकता है। उम्र के लिहाज़ से हम लोग भले ही बुढ्ढे हो गए हों लेकिन हमारे अरमान ख़त्म हो गए हों ऐसा नहीं होता। हमारे "खूसट बुढ्ढे" तो रंगीले बुढ्ढे हैं। हम नहीं चाहते कि कोई रंभा, उर्वशी, मेनका उनके लिए विघ्न बने और उनकी पूजा पाठ से ध्यान भटके, जिस प्रकार हमारे ऋषि मुनियों की एकाग्रता को भंग किया जाता रहा है। हम नहीं चाहेंगे कि हम उस पाप के लिए हम उनके कोप भाजन के शिकार बनें। इसलिए यह निर्णय हुआ है कि "खूसट बुढ्ढे का प्रसारण अब दशहरे के बाद ही किया जाएगा।
शारदीय नव दुर्गा के यह पावन दिन आप सभी के लिए अपार खुशियां लेकर आएं हमारी प्रभु से यही प्रार्थना है। आप सभी पर प्रभु की कृपादृष्टि बनी रहे।
एस पी सिंह
29/11/2019

"खूसट बुड्ढे"
पात्र परिचय 1
जब कहानी की पोस्टिंग शारदीय नव रात्र के कारण डिलेड हो ही गई है तो आइए इस बीच में काम कुछ और करें। मेरा यह आशय बिल्कुल भी नहीं कि हम रमी शतरंज, चौपड़ खेलें, दारू-शारु पियें, जो मन करे वह खाएं पियें। आपका ध्यान कथानक पर केंद्रित रहे इसलिए हम अपने इस कथानक के कुछ महत्वपूर्ण पात्रों से परिचय ही कर लेते हैं।
इस कथानक में मुख्य भूमिका में है एक सिख परिवार है जो सेंट्रल दिल्ली के अज़मल ख़ाँ पार्क से बहुत दूर नहीं और लिबर्टी सिनेमा के उतने पास भी नहीं अपनी तीन मंजिला कोठी महाराणा प्रताप रोड पर गुरुद्वारा सिंह साहेब के पास रहता था।
घर के मुखिया सरदार बलबंत सिंह अपनी पत्नी गुरविंदर कौर के साथ अपने पिताश्री की बनबाई हुई कोठी में रहते थे। उनके परिवार में एक सदस्य उनका बेटा और था सत्ताईस साल का गबरू जवान जसवीर सिंह, जो आईएमए देहरादून से कमीशन लेकर आर्मी जॉइन कर चुका था। कुछ महीने पहले ही कैप्टेन का प्रमोशन लेकर श्रीनगर से जैसलमेर ट्रांसफर होकर आया था। तबसे वहीं अपनी यूनिट के अन्य लोगों के साथ राजस्थान बॉर्डर पर अपनी ड्यूटी में मुस्तैदी से लगा हुआ था।
कुछ और पात्रों का परिचय कल। तब तक इंतज़ार करिये...
एस पी सिंह
30/09/2019


"खूसट बुड्ढे"
पात्र परिचय 2
अन्य महत्वपूर्ण पात्रों में हरि शरण माथुर जो अपनी धर्मपत्नी मृणालिनी माथुर के साथ सरदार बलबंत सिंह की कोठी के पास ही रह कर आराम की ज़िंदगी बसर कर रहे थे। उनके परिवार में दो और सदस्य थे लेकिन वो अमेरिका में थे। माथुर साहब के पुत्र मानव और पुत्री मानवी। मानव ने अपना व्याह अमेरिका की ही एक महिला एलिस से रचाया और वे दोनों फ़्लोरिडा में रहते थे। मानव पेशे से एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर और एलिस एक डिपार्टमेंटल स्टोर्स में कर्मी थी। मानवी अभी अमेरिका के बोस्टन शहर में रहकर पीएचडी कर रही थी और उसका इरादा वहां से हिदुस्तान लौट कर आने का था।
माथुर साहब पुराने ज़माने के एक उस परिवार से सम्बंध रखते हैं जो अंग्रेजों के वक़्त में जमींदार हुआ करता था और उनकी जमींदारी फिरोजाबाद जनपद में मदनपुर गाँव में हुआ करती थी। एक कहावत के अनुसार माथुर कायस्थों की मदनपुर एक अकेली जमींदारी थी। जगदीश प्रसाद के दादाश्री को गाँव का जीवन नहीं सुहाता था इसलिए वह मदनपुर से दिल्ली आ गए और अपना बसेरा पुरानी दिल्ली में नई सड़क मोहल्ले में आकर बसाया। लेकिन जब दिल्ली का विकास होने लगा और परिवार का साइज बढ़ा तो जगदीश प्रसाद महाराणा प्रताप रोड वाली कोठी में शिफ़्ट हो गए।
जगदीश प्रसाद माथुर सरदार बलबंत सिंह के परिवार के बहुत क़रीबी थे और स्वभाव से बड़े सौम्य और सीधे साधे इंसान थे।
एस पी सिंह
01/10/2019

 "खूसट बुड्ढे"
पात्र परिचय 3
वेंकटेश्वर अय्यर, जो इस कथानक के एक महत्वपूर्ण किरदार में हैं, भारत सरकार की सेवा में एक लंबा समय बिताने के बाद रिटायर होकर अपनी पत्नी कामेश्वरी अय्यर के साथ दिल्ली में ही रह गए। कामेश्वरी ने बहुत कोशिश की कि वे लोग अपने पुस्तैनी शहर मदुरै जाकर रहें पर वेंकटेश्वर अय्यर ने उनकी एक न मानी और दिल वालों की दिल्ली को अपना निवास स्थान बना लिया ।
वेंकेटेश्वर और कामेश्वरी निसंतान थे इसलिए उन्हें भविष्य की कोई चिंता नहीं तो। वे लोग मस्ती के साथ अपना जीवन निर्वहन कर रहे थे।
अय्यर का नाम आते ही सब टीवी के धारावाहिक 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' के कलाकार अय्यर और बबीता बरबस ही ध्यान में आ जाते हैं। उस धारावाहिक में उन्हें विभिन्न प्रदेशों और समाज के रंगरूप को प्रदर्शित करते हुए भारतीय जनमानस की आत्मा वसुदैवकुटुम्बकम को दर्शाना था। इस कथानक में हमारे वेंकटेश्वर और कामेश्वरी अय्यर क्या करेंगे, हम जानेंगे कुछ दिनों बाद....
एस पी सिंह
02/10/2019


"खूसट बुड्ढे"
पात्र परिचय 4
एस पी राणा आईटीआई लिमिटेड से एक लंबे समय तक जुड़े रहे और कुछ वर्ष पहले ही स्वसेवानिवृत हो समाज और साहित्य की सेवा में जुटे हुए कर्मठ व्यक्ति हैं। वह जाट समाज के अत्यंत सम्भ्रांत और प्रतिष्ठित परिवार से सम्बंधित हैं। मूलतः पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बाहुल्य इलाक़े के बड़ौत कस्बे के रहने वाले एस पी राणा अपने क्षेत्र के नामीगिरामी व्यक्ति रहे हैं। स्वभाव से अक्खड़ पर हृदय से सुकोमल और काव्य प्रेमी होने के नाते एस पी राणा अपने दोस्तों में बहुत ही पॉपुलर हैं।
बड़ौत उत्तर प्रदेश राज्य के बागपत ज़िले में स्थित एक नगर और तहसील है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। बड़ौत में दो कॉलेज है, जाट वैदिक कॉलेज व दूसरा दिगंबर जैन कॉलेज व अन्य 30 से ज्यादा सरकारी व गैर सरकारी इंटर कॉलेज हैं। राजनितिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में बड़ौत का नाम अब बहुत पहले से ही सब की जुबां पर था। चौधरी चरण सिंह को भला भूल सकता है यह पूरा पूरा का क्षेत्र उनकी कर्मभूमि रहा। कृषि प्रधान क्षेत्र होने के साथ साथ गन्ना की पैदावार के लिए बड़ौत बहुत मशहूर है। खटिया, हुक्का, चौपाल और पंचायत की कहानियां यहां घर घर में गूँजती हैं।
आज जब राग रागिनी का जोश कुछ ठंडा होता दिखाई दे रहा है राणा की चाहत भी आज भी जवान है कि स्वतंत्रता के ठीक बाद जैसे राग रागिनियाँ आल इंडिया रेडियो से सुनाईं जातीं थीं एक बार फिर से वही समा बंधे और हमारे युवक और युवतियां अपनी ग्रामीण संस्कृति से जुड़े रहें।
बागपत जनपद के कई युवक और युवतियों यूट्यूब चैनल में अपने वीडियो बनाकर जहाँ हमें अपने पुरातन से जुड़े रखने का प्रयास कर रहे हैं वहीं वे ख़ूब तरक्की भी कर रहे हैं। बागपत जिले के कई कलाकार फिल्मों और टीवी में अच्छा काम के साथ साथ नाम भी कमा रहे है।
श्री राणा का किरदार इस कथानक में नमक मिर्च लगाने वाला तो रहेगा ही साथ ही साथ वह लोगों के हमदर्द बन कर भी उभरेंगे। देखना यह होगा कि वह करते क्या क्या हैं.....
एस पी सिंह
03/10/2019

 "खूसट बुड्ढे"
पात्र परिचय 5
हनीफ़ मोहम्मद जिनकी फ़तेहपुरी, चाँदनी चौक में सूखे मेवों की दुकान थी। हनीफ़ सादिया बेग़म के साथ लाल मस्ज़िद के पास कृष्णा मंदिर गली में अपने अब्बू की बनाई हुई दो मंजिला इमारत में रहते थे। अजमल खाँ पार्क से घर पास होने के कारण वह भी 'खूसट बुढ्ढे' के अहम क़िरदार बने रहेंगे।
हनीफ़ मियां खाना पीना करके एक बार दुकान के लिये निकलते तो आते आते अंधेरा हो जाता था। कहने को तो उनका थोक का काम था लेकिन अगर कोई छोटा मोटा ग्राहक भी भूला भटका आ जाता तो वह उसे मना नहीं कर पाते थे।
अपने काम धंधे के सिलसिले में उनको कश्मीर वक़्त वक़्त पर जाना पड़ता था तब उन्हें लगता कि वह अपनी ही ज़मीन पर ही हैं। वहाँ के लोग भी उन्हें अपने से लगते। बस वह उस घटना को कभी याद नहीं करना चाहते थे जिसने उन्हें अपनों से अलग कर दिया और उन्होंने कश्मीर हमेशा के लिए छोड़ दिया।
हनीफ़ और सादिया बेग़म की एक बेटी भी है जो देखने में बहुत हसीन और अपने व्यवहार में ऐसी कि हर किसी के दिल में जगह बना ले। बड़ा हसीन सा नाम है उसका, 'आइरा'। कुछ साल गुज़रे होंगे जब उसने बी कॉम से ग्रेजुएशन पूरा कर लेने के बाद अपनी आगे की पढ़ाई दिल्ली यूनिवर्सिटी के किरोड़ीमल कॉलेज रह कर पूरी कर रही थी।
हनीफ़ मिया और आइरा की ज़िंदगी में किस प्रकार का चक्रवात आने को है इसकी जानकारी भी 'खूसट बुढ्ढे' के अगले अंको में ज़ाहिर होगी तो पता नहीं कितनों के ऊपर बिजली गिर कर रहेगी.......
एस पी सिंह
04/10/2019

"खूसट बुड्ढे"
पात्र परिचय 6
जिस शहर से नाता इतना पुराना हो उस शहर के बारे में बात जितनी कम की जाए वही बेहतर है पता नहीं किस किताब में कितने सूखे गुलाब मिल जाएं। श्याम लाल श्रीवास्तव के भी रिश्ते लखनऊ से बेहद पुराने थे। आये तो थे पढ़ने लिखने वह भी एक अरसा हुए 1962 में। यूनिवर्सिटी से बीए किया और फिर यहीं के होकर रह गए।
कहने को तो लखनऊ अब बहुत बदल गया है नई नई बस्तियां बस गईं हैं। शहर गोमती नदी के दोनों किनारों से बहुत दूर दूर तक फैल गया है। हमारे श्यामा प्रसाद को बहरहाल वही पुराने वाला लखनऊ ही पसंद था जहां ज़िंदगी अभी भी तांगे की रफ़्तार से चला करती थी। अक़्सर ही लोगों की जुबां से 'अमां यार' सुनने को मिल जाया करता था। अब कुछ मोहल्लों को छोड़कर उर्दू जुबां नवाबों के इस शहर में लगता था कि आख़िरी सांसे ले रही थी।
लखनऊ एक बार जो श्याम लाल आये कि राम सेवक शर्मा जो कि सचिवालय में आया जाया करते थे उनकी मुलाकात क्या हुई कि उन्हें कॉफी हाउस में बैठ कर राजनीति पर बहस करने में मज़ा आने लगा। उन्ही दिनों में उनके ताल्लुकात बड़े बड़े नेताओं से होने लगे। नेताओं के सहारे वह अफ़सरानों के घर तक जा पहुंचे। एक बार सिलसिला चालू क्या हुआ कि उन्हें यह समझ आ गया कि वगैर मेहनत किये मलाई कैसे खाई जाती है तब से उन्होंने लखनऊ में अपने लिए काम ढूंढ लिया।
श्याम लाल ने लखनऊ के चौक को तो न छोड़ा लेकिन उनका काम उन्हें दिल्ली ले आया। उनका काम धाम ही ऐसा था कि उनको कभी दिल्ली तो कभी लखनऊ में रहना पड़ता था। दिल्ली में रहने के लिए उन्होंने सेंट्रल दिल्ली तिबिया कॉलेज के पास गौशाला लेन में दो कमरे का मकान किराए पर ले लिया और वहीं से वह अपना सरकारी विभागों के लायजन का काम शुरू कर दिया। उनके बाल बच्चे लखनऊ में ही रहते रहे लेकिन उनकी धर्मपत्नी शरद श्रीवास्तव बीच बीच में दिल्ली आकर श्याम लाल के साथ रहतीं कुछ समय रहतीं और फिर वापस लखनऊ चलीं जातीं।
शरद बीच बीच में अपने बच्चों को लखनऊ में छोड़कर दिल्ली क्यों आतीं रहतीं थीं? पाठकों को जैसे जैसे हम अपनी कहानी के साथ आगे बढ़ेंगे इसका एहसास होगा।
एस पी सिंह
05/10/2019


"खूसट बुड्ढे"
पात्र परिचय 7
देवाशीष मुखर्जी अज़मल खाँ पार्क के पास जोशी रोड पर रहते  और वहीं से अपनी प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे। प्रिंटिंग प्रेस का काम देवाशीष के पिता श्री ने दिल्ली आकर शुरू किया था। मुखर्जी परिवार को बर्दवान, बंगाल से दिल्ली में आये हुए लगभग सौ साल हो गए थे। एक बार वे लोग दिल्ली क्या आये और दिल्ली के होकर रह गए।
देवाशीष का जवानी के दिनों में दिल्ली के ही एक त्रिपाठी ब्राह्मण परिवार की सुकन्या त्रिपाठी से प्यार हुआ उन्होंने परिवार की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर ज़िद करके कोर्ट में सिविल मैरिज कर ली।
सुकन्या त्रिपाठी जिस परिवार से थीं और उनके घर में नामिष भोजन पके यह हो ही नहीं सकता था लेकिन एक बार पति के घर क्या आईं कि फिर सब कुछ बनाना सीख ही नहीं लिया बल्कि खाना पीना भी शुरू कर दिया।
देवाशीष और सुकन्या की एक बेहद खूबसूरत बेटी थी शर्मिष्ठा जो किरोड़ीमल कॉलेज से एम ए कर रही थी।
देवाशीष 'खूसट बुढ्ढे' दल के एक मुख्य सदस्य हैं। यह इंटरेस्टिंग होगा कि वह अपनी सहभगिता इस दल में किस ख़ूबी से निभाते हैं। क्या कोई रोल उनकी पुत्री शर्मिष्ठा को भी मिलेगा या नहीं यह लेखक की लेखनी पर निर्भर उतना ही करता है जितना इस कहानी की पॉपुलैरिटी पर। यह बेहद इंटरेस्टिंग रहेगा कि घटना क्रम की इस कड़ी में आगे आगे होता क्या है....
एस पी सिंह
06/10/2019

"खूसट बुड्ढे"
पात्र परिचय 8
हमारी कहानी "खूसट बुढ्ढे" के एक और प्रमुख किरदार में हैं कुंवर हीरा सिंह शेखावत। शेखावत बीकानेर के निवासी थे। जमींदारी समाप्त होने के पहले ही से उनके परिवार के पास भी 26 गांव की ताल्लुकेदारी थी जो अंग्रजो के पहले से ही बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह के समय से चली आ रही थी। अब तो गांव में उनकी गढ़ी के केवल अवशेष मात्र ही रह गए थे क्योंकि परिवार ने एक बार शहर की ओर क्या देखा गांव हमेशा के लिए छूट गया और गढ़ी खंडहर में तब्दील हो गई।
हीरा सिंह शेखावत को केंद्रीय सरकार के पुरातत्व विभाग में पुराने ताल्लुक़ात के विनाह पर नौकरी मिल गई। कई सालों तक तो वह राजस्थान में ही एक शहर से दूसरे शहर में बने रहे लेकिन बाद में उन्हें बीकानेर छोड़कर दिल्ली आना ही पड़ा। शेखावत की प्रकृति और आम आदमियों से बातचीत करने के ढंग में अजीब सा चिड़चिड़ापन आ गया था और वह आदतन एक खुंदकी की तरह व्यवहार करने लगे थे। हीरा सिंह अपनी धर्मपत्नी कुंवरानी शिखा शेखावत के साथ मंदिर मार्ग पर बने सरकारी आवासों में से एक डी टाइप आवास में रहते थे। डी टाइप का बंगला एक बार क्या अलॉट हुआ हीरा सिंह ने उसे अपना परमानेंट निवास स्थान बना लिया।
वेंकटेश्वर अय्यर और शेखावत एक ही विभाग में साथ साथ थे इसलिए दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। शेखावत को रोज़ रोज़ सैर के लिए अजमल खाँ पार्क आना दूर पड़ता था लेकिन अपनी कार से वह सैर के लिए वह अज़मल खाँ पार्क ही आया करते थे। अय्यर के माध्यम से ही उनकी मुलाक़ात 'खूसट बुढ्ढे' ग्रुप के अन्य सदस्यों के साथ हुई थी।
शेखावत स्वभाव से नम्र तथा ओशो के भक्त थे लेकिन जब खुंदक चढ़ती तो वह बेक़ाबू हो जाते थे। शेखावत लिखने पढ़ने के शौक़ीन थे इसलिए फेसबुक पर हर रोज़ कुछ न कुछ लिखते ही रहते थे। अपनी पत्नी शिखा से उन्हें बेहद प्यार था। वह अपनी पत्नी शिखा की हर मांग पूरी करते और चाहते थे कि वह हमेशा खुश रहे। उनका एक बेटा था अजातशत्रु शेखावत जो सीए पूना से कर रहा था और यह उसका वहां आख़िरी साल था। शेखावत को बस जब कभी अपना बीकानेर याद आता तो उनको लगता कि उनका सब कुछ वहीं छूट गया और तब वह खुंदकी लोगों की तरह व्यवहार करने लगते।
शेखावत राजनीति और रोज़मर्रा की घटनाओं पर विशेषकर महिलाओं पर अत्याचार की खबरों पर पैनी नज़र बनाये रहते थे इसलिए ग्रुप में उनकी बड़ी अहमियत थी चूँकि हर रोज़ की बहस में उनका मुख्य किरदार होता था।
एस पी सिंह
07/10/2019


"खूसट बुढ्ढे"
पात्र परिचय
आज विजयदशमी है। आज के नायक तो कोई और हो ही नहीं सकते सिवाय प्रभु राम, लक्ष्मण, हनुमान और वानर सेना के। हाँ, ब्राह्मण श्रेष्ठ रावण को भी हम कैसे भुला सकते हैं जिन्होंने अपने लिए स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करने के लिए प्रभु के आदेश से उनकी लीला में एक अहम किरदार निभाने का भार उठाया। माता सीता को उनके हरण कर लेने के बाद भी पूर्ण मान सम्मान से लंका में अशोक वाटिका में रखा।
प्रभु राम के आशीर्वाद से यह दिन हमारे यहां शस्त्र पूजन का दिन, शक्ति और शौर्य के प्रदर्शन का दिन, सभी मार्शल रेस के लोगों के लिए अपने इतिहास को याद करने का दिन, कुलश्रेष्ठ दशरथ नंदन भगवान राम की लंकापति पर विजय का दिन, सीता माता के गौरव, मान-सम्मान की रक्षा के लिए भगवान राम के द्वारा उठाया हुआ ऐतिहासिक पलों का दिन, असत्य पर सत्य की विजय का दिन। इस विशष्ट दिवस पर पूरा समाज एक जगह एकत्रित होता। शस्त्र पूजन कर शास्त्रों की रीति के अनुसार अपने समाज के मुखिया को सम्मान हेतु तलवार भेंट की जाती है।
आज भी भारतवासी इस त्यौहार को बहुत जोशोखरोश के साथ मनाते हैं। मुझे तो अपने बचपन के वे दिन याद हो आते हैं जब हमारे बाबूसा हमें मेला दिखाने ले जाते। वहां रामलीला का मंचन देखा जाता था। मुझे याद है रामलीला ग्राउंड में केवल दो स्ट्रक्चर पक्के थे बाकी सब टेम्पररी बनाये जाते थे। दो में से एक था सीता जी की कुटिया और दूसरा स्टेज। अब जब कभी गांव जाना होता है तो सड़क से गुजरते समय रामलीला ग्राउंड में सीता कुटिया के अवशेष तो दिखाई पड़ते हैं लेकिन स्टेज वग़ैरह विकास की भेंट चढ़ गए। राम लीला ग्राउंड पर एक कॉलोनी जो बन गई। दशहरे वाले दिन रामलीला की समाप्ति पर रावण, कुम्भकरण, मेघनाथ के पुतले फूंके जाते और उसके बाद सभी लोग अपने अपने घर की ओर प्रस्थान करते।
दिल्ली में तो अभी भी यह त्यौहार ख़ूब शानोशौकत से मनाया जाता है लेकिन भीड़ भड्डके से बचने के कारण हमारे लिए अब रामलीला के कार्यक्रमों में जाना मुनासिब नहीं हो पाता है। आये दिन आतंकी घटनाओं की सूचना से भी अब तो यह सही लगता है कि ऐसे आयोजनों से दूर रहना ही उचित है। इस साल तो बेमौसम बारिश ने भी आयोजनों में व्यवधान पैदा कर दिया। कई स्थानों पर टेंट उखड़ गए, कई जगह फर्नीचर खराब हो गया, कहीं कहीं तो स्टेज ही टूट गए। बावजूद इन सबके रामलीला रामलीला ही रहेगी।
आज "खूसट बुढ्ढे" की ओर से केवल इतनी ही बात बतानी है कि इस कथानक को आप बहुत ध्यानपूर्वक पढ़ियेगा। अगर आपने कहानी के एक भी हिस्से को मिस किया तो जान लीजिए कि कहानी आप की पहुंच से बहुत दूर होगी। बस आज इतना ही अब कोई और बात नहीं। "खूसट बुढ्ढे" उस ग्रुप का सूचक नाम मात्र है जिसमें हर व्यक्ति की बुढ़ापा आते आते एक अपनी अपनी सोच और जीवनयापन की शैली बन जाती है।। खूसट बुढ्ढे का हर पात्र अपनी अपनी जीवनशैली के हिसाब से ज़िंदगी जी रहा है। वे जब मिलते हैं तो हँसते भी हैं, रोते हैं, बिलखते हैं, लड़ते झगड़ते भी हैं। इन सब के बाबजूद वे बहुत ही मिलनसार और भले व्यक्तित्व के धनी हैं। अब आपसे कल सुबह "खूसट बुढ्ढे" के पहले एपिसोड में सीधे मुलाकात होगी...
शुभकामनाएं।
एस पी सिंह
08/10/2019


 "खूसट बुड्ढे"
09/10/1910

अपनी बात:

मित्रों, पिछले दस दिनों में हमने अपनी बात कही, पात्रों से आप सभी का परिचय करवाया तथा आपने अपनी इस कथानक से आकांक्षाओं के बारे में बताया। एक लिहाज़ में यह बहुत अच्छा इंटरेक्शन रहा। आप इस कथानक पर अपनी प्रतिक्रिया देंगे तो हमें अच्छ लगेगा और जो गलतियां हो रहीं हो उसे ठीक करने का अवसर भी प्राप्त होगा।

अब समय है अपने पात्रों से वास्तव में मिलने का। उनकी कथनी करनी के बारे में जानकारी हासिल करने का। तो चलते हैं देखते हैं कि वे क्या करने वाले हैं।

एस पी सिंह


एपीसोड  1

हर रोज़ की तरह सरदार बलबंत सिंह भोर में उठे। फ़्रेश होकर किचेन में गए और अपने लिए तथा सरदारनी गुरुविंदर के लिए दाल चीनी, नींबू वाली चाय बनाई। गुरुविंदर की बेड पर ही बैठकर साथ साथ चाय का मज़ा लिया।

सरदार बलबंत सिंह का परिवार वैसे तो पार्टीशन के दौरान 'गुजरांवाला' शहर से आया था जो अब पाकिस्तान में है। दिल्ली आये तो थे एक रिफ्यूजी बन कर। अपनी मेहनत और कुछ उस वक़्त के पुराने रईस और अमीर सिक्खों से मदद मिलने पर उन्होंने करोलबाग में कपड़े की छोटी सी दुकान खोल ली थी जो बढ़कर अब एक डिपार्टमेंटल स्टोर बन गई थी। सरदार साहब जब जवान हुए तो उनके पिताश्री संत सिंह ने उनकी शादी सरदारनी गुरुविंदर कौर से करा दी। गुरुविंदर के पिताश्री भी दिल्ली के रहने वाले थे और यमुना पार जगतपुरी में उनकी सैनिटरी वेयर की बहुत बड़ी दुकान थी। दोनों की शादी ख़ूब धूमधाम से हुई और सरदार साहब अपनी पत्नी सरदारनी गुरुविंदर के साथ दिल्ली के ही गुरुद्वारा सिंह साहेब के पास महाराणा प्रताप रोड के एक तीन मंजिला मकान में रहने लगे। ग्राउंड फ्लोर पर ख़ुद और ऊपरी दो मंज़िलो में किराएदार रहते थे।

इस साल पूरे देश में बारिशों का जोर रहा। लेकिन दिल्ली में बरसात अपना मुँह छुपाए कहीं बैठी रही। अधिक से अधिक चार पाँच बार ही झमाझम बरसा उसके बाद से सूखा ही सूखा रहा। दो तीन दिन पहले ही न जाने कहाँ से बादल अपना रास्ता भूल बैठा और एक शाम झमाझम पानी बरस गया। उस दिन दिल्ली वालों के ऊपर क्या गुज़री उसके बारे में आपने अपने टीवी पर देखा ही होगा।

शारदीय नवदुर्गा का त्योहार मनाकर देश अभी सांस ही ले रहा था कि मौसम ने जोरदार पलटी मारी। मौसम में हल्की हल्की सर्द हवाओं की खनकी सी थी, सरदारनी गुरुविंदर ने सरदार साहब से कहा, "मोटी वाली पूरी बाहों की बनियान पहन कर सोया करो जी मौसम बदल रहा है"
"ठीक है भाग्यवान निकाल देना, नहाने के बाद पहन लूँगा", सरदार साहब ने ठेठ हिंदी भाषा का इस्तेमाल करते हुए गुरुविंदर से कहा। बावजूद इसके कि वह एक ऐसे इलाक़े में रह रहे थे जहां अधिकतर लोग या तो पंजाबी बोलते थे या उर्दू दां थे। सरदार साहब जानते थे कि अगर हिंदुस्तान में रहना है तो हिंदी से प्यार करना ही पड़ेगा। इसलिये उन्होंने अपने धंधे में और अपने घर में केवल हिंदी बोलने की क़सम खाई हुई थी। कभी कभी वह क़सम टूट भी जाया करती थी खासतौर पर जब वह गुरविंदर से बात करते।

सरदार साहब ने अपने बाल ठीक किये। सिर पर पटका बांधा और सैर के लिए निकल पड़े। सरदार साहब हर रोज़ सुबह सुबह अज़मल खाँ पार्क में आते। इस कथानक में अज़मल खाँ पार्क का बहुत रोचक क़िरदार रहने वाला है इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि हम इस पार्क के बारे में कुछ जानें।

अज़मल खाँ पार्क पांच एकड़ में फैला हुआ दिल्ली के केंद्रीय हिस्से में करोलबाग के पास स्थित है। इस पार्क को जनता जनार्दन के उपयोग के लिए सन 1921 में खोला गया था। यह पार्क हक़ीम अज़मल ख़ाँ साहब की याद में बनाया गया था जो कि एक मशहूर स्वतंत्रता सेनानी और यूनानी पद्धति के उपचार के जाने माने हक़ीम थे। हक़ीम साहब उस ज़माने में जब कि हिंदुस्तान में मरीजों के इलाज़ की कोई ख़ास व्यवस्था नहीं थी उस वक़्त उन्होंने यूनानी उपचार को आम जन के लिए उपलब्ध किया। अज़मल खाँ पार्क के पास ही तिब्बिया कॉलेज है जिसे हक़ीम साहब ने ही शुरू किया था।

अज़मल खाँ पार्क में बीच में एक फौव्वारा है और जिसे देखने के लिए लोग बहुत दूर दूर से आते हैं जिसका संचालन दिल्ली पर्यटन विभाग करता है। अज़मल ख़ाँ पार्क में समय समय पर राजनीतिक रैलियां होतीं रहतीं हैं जिसमें देश के चोटी के नेता समय समय पर अपने विचार जनता जनार्दन के समक्ष रखते हैं।

जहाँ पार्क के हर कोने में राजनीति छाई हो ऐसी जगह बैठकर हमारे "खूसट बुढ्ढे" आज के बदलते हुए हालात पर राजनितिक चर्चा न करें यह तो मुमकिन ही नहीं। इसलिए यहाँ की बेंचो पर बैठकर कई महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा तो होगी ही जो कभी द्वंद में परिवर्तित होती हुईं लगेगी तो यहीं आपस में भाईचारे की मिसाल भी बनेगी।

सैरसपाटे के बाद अपने यार लोगों के साथ गपशप करते। उनके अभिन्न मित्र थे हरि शरण माथुर जो उनके लंगोटिया यार थे। बाकी उनके ग्रुप 'खूसट बुढ्ढे' में थे वेंकटेश्वर अय्यर, एस पी राणा, श्याम लाल श्रीवास्तव, हनीफ़ मोहम्मद, देवाशीष मुखर्जी, हीरा सिंह शेखावत। वे सब पार्क में मिल बैठकर देश प्रदेश की राजनीतिक हलचल पर चर्चा करते, अपने दिल की कह लेते और दूसरों के दिलों की सुन लेते थर। कुछ लोग इधर उधर से भी आ जाते। इन लोगों की बातों को ध्यान से सुनते कभी कभी वे मैदान में कूद कर बहस में हिस्सा भी ले लेते थे। ....और अच्छा खासी वक़्त गुजार कर सभी मित्र अपने अपने घर की ओर बढ़ते।

आज सुबह जब सरदार साहब माथुर साहब के साथ पार्क के किनारे बने हुए फुटपाथ पर सैर कर रहे थे तो माथुर साहब ने सरदार साहब से कहा, "ओए बलबंत आज हल्की सी ठंड लग रही है"

"माथुर साहब देश भर में अच्छी खासी बरसात हुई है इसलिए अबकी बार सर्दी मज़े की पड़ेगी। मुझे तो आज ही आपकी भाभीजान ने वार्निंग दे दी है कि कपड़े सपड़े पहन कर ही बाहर निकला करूँ"

"तू कौन नंग धड़ंग घूम रहा है। कपड़ों में तो तू अभी भी है"

"वो मतलब नहीं, उनका कहना था कि कुछ मोटे सोटे कपड़े। जिससे सर्दी न लग जाए"

"ये तो ठीक बात है"
"मैंने भी उससे कह दिया। निकाल देना आज नहाने के बाद से ही पहन कर ही निकला करूँगा"

सरदार साहब की बात पर माथुर बोले, "अच्छा हुआ मैं भी मृणालिनी से कह कर अपने कपड़े निकलवा ही लेता हूँ"

जब वे लोग सैर कर ही रहे थे उसी समय अय्यर भी आकर उनसे मिले, हाथ मिलाया, गुड मॉर्निंग की और उनके साथ सैर करने लगे। सरदार साहब कहाँ मनाने वाले थे इसलिए अय्यर को छेड़ते हुए बोले, "बड़े झड़े झड़े खूसट से लग रहे हो। कल रात सोने में देर हो गई थी क्या"

"हाँ यार बहुत देर हो गई। मिसेज़ अय्यर मान ही नहीं रहीं थीं, तो भला मैं क्या करता। एक बार शुरू हो जाओ तो बीच में रुकने का मन कहाँ करता है", अय्यर ने सरदार साहब को उत्तर दिया और शरारत भरे लहज़े में माथुर साहब की ओर
देखा।

माथुर साहब भला कौन कम थे बोल पड़े, "थोड़ा प्रोग्राम जल्दी कर लिया करो"

"माथुर साहब हमारे साउथ इंडिया में जिस दिन दामाद घर पर आता है तो उसे ख़ुश करने के लिए प्याजी डोसा, सांभर में भी ढेर सारी प्याज डाली जाती है। मेरे कहने का मतलब यह हुआ कि उस दिन प्याजी खाना बनाया जाता है। खाने में प्याज़ ख़ूब हो और खाना लज़ीज़ बना हो उस दिन हम लोगों के यहां इशारे में बता दिया जाता है कि आज प्रोग्राम है। अब दो दो पेग स्कॉच का इंतजाम करना आपके हाथ में है। स्कॉच के बाद भला किसे जल्दी रहती है। वैसे भी माथुर साहब जो काम आराम से करने वाले हों उनमें जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए"

"अय्यर तुम साले मानोगे नहीं तुम्हारी वज़ह ही से दिल्ली में प्याज़ के भाव अनाप शनाप हो गए हैं। उम्र बढ़ रही है, तुम्हारी शैतानियां भी बढ़ती जा रहीं हैं। एक दिन शाम को आता हूँ डोसा खाऊँगा भी और मिसेज़ अय्यर से शिकायत भी करूँगा"

"आओ आओ आज शाम को ही डोसा बनाने के लिए मिसेज़ अय्यर को बोल दूँगा", अय्यर ने माथुर साहब से कहा और फिर सरदार साहब की ओर देखते हुए बोला, "बलवंत तुमको तो बुलाना ही बेकार है तुम्हारी तो दुकान ही आठ बजे बंद होती है"

"क्या करूँ धंधे की बात जो ठहरी"

हँसी मज़ाक़ करते हुए तीनों दोस्त अपनी मंडली में आ बैठे जो इनका इंतज़ार ही कर रही थे। मंडली में हनीफ़ मिया, मुखर्जी, राणा और शेखावत तो थे ही। साथ में थे श्याम लाल श्रीवास्तव। सब दोस्त जब अपनी अपनी जगह बैठ गए तब श्याम लाल श्रीवास्तव साहब बोल उठे, "आज आपको देर हो गई"
"हाँ, कुछ देर हो गई श्याम लाल अय्यर की रात की दास्तां जो सुनते रह गए थे",माथुर साहब ने जवाब देते हुए कहा, "....और सुनाइये आप लखनऊ से कब तशरीफ़ लाये"

"माथुर साहब कल सुबह लखनऊ मेल से वापस लौट आया था देर होने की वजह से कल पार्क नहीं आ पाया"

"कोई ख़ास बात थी जो आप लखनऊ गए थे"

"माथुर साहब लखनऊ तो आना जाना लगा ही रहता है अबकी बार एक खास काम से जाना पड़ गया था। अपने दामाद का ट्रांसफर जो कराना था"

"काम हुआ कि नहीं"

"माथुर साहब श्याम लाल जाए और काम न हो यह तो हो ही नहीं सकता"

"किससे मिलने पर काम हुआ"

"मैं किसी छोटे मोटे अधिकारी से नहीं मिलता सीधे चीफ मिनिस्टर के आफिस गया और हाथों हाथ ट्रांसफर लेटर साथ में लेकर ही निकला"

इस पर माथुर साहब बोले, "क्या बात है, मेरे भी एक दो काम रुके हैं करा दो श्याम लाल तो हम तुम्हें मान जाएंगे"

"चलो अगले हफ़्ते चलना मुझे जाना है उसी समय तुम्हारा भी काम करा देंगे"

"तय रहा। मैं आपका और अपना रिज़र्वेशन करा देता हूँ"

"ठीक है माथुर साहब करा दीजिये"

बातों ही बातों में जब बात चली तो अय्यर ने कहा, "सरकारी डिपार्टमेंट में ले दे कर सब काम हो जाते हैं", फिर अपनी बात बताते हुए बोले, "मुझे भी एक दोस्त

का ट्रांसफर मदुरै से चेन्नई कराना था पाँच पेटी देनी पड़ी तब जाकर कहीं काम हुआ"

"सेंट्रल गवर्नमेंट का केस था क्या"

"जी माथुर साहब, ट्रांसफर पोस्टिंग तो अब एक व्यापार बन कर रह गया है"

"अय्यर क्या किया जाए मरना यहां जीना यहां तेरे बिना अब जाना कहाँ", माथुर साहब बोल पड़े।

सरदार साहब तीनों की बात ध्यान से सुन रहे थे इस पर बोल पड़े, "मैंने तो इसीलिए नौकरी नहीं की और पापा जी के साथ बिजनेस ही करना ठीक समझा"

अय्यर भला इस पर कहां चुप रहने वाला था, चुटकी लेते हुए बोला, "सरदारे कह तो तू ऐसे रहा है जैसे कि तुझे नौकरी मिल ही जाती"

"क्यों नहीं मिलती आईआईटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की है कोई मज़ाक नहीं"

"अच्छा जी यह बात तो आजतक किसी ने बताई ही नहीं"

"कौन बताता? ऐसी बात कभी उठी ही नहीं मेरा इरादा तो फैक्ट्री खोलने का था पर दार जी माने ही नहीं", सरदार साहब ने उत्तर देते हुए कहा।

माथुर साहब ने घड़ी देखी तो आठ बजने वाले थे इसलिए खड़े होते हुए बोले, "चलो यार आज की महफ़िल बर्खास्त"
अय्यर ने चुटकी लेते हुए कहा, "आज के हालात पर तफ़सरा तो हुआ ही नहीं..."

"चलो भी कल कर लेना", श्याम लाल श्रीवास्तव साहब ने कहा।

"क्या लाला की औलाद अभी से भाभी श्री को बोलना पड जाता है, कल कर लेना"
श्रीवास्तव साहब अय्यर की ओर घूरते रहे। बाकी सब लोग ठहाका लगा कर उठ लिए।

क्रमशः

एपीसोड 2

सरदार साहब और माथुर साहब जिनका घर एक ही लेन में पड़ता था। पार्क में मॉर्निंग वॉक से हर रोज़ लौटते समय वे लोग हरी राम की दुकान पर गरमागरम इलायची वाली मलाई मार कर के मिलने वाली चाय पीते और घर लौटते। माथुर साहब का घर पहले पड़ता। वह सरदार साहब को बॉय कहते और अपने घर चले जाते। आज जब माथुर साहब ने सरदार साहब से बॉय कहा तो सरदार साहब ने उनका हाथ पकड़ कर उन्हें रोक लिया और बोले, "माथुर साहब जल्दी न हो तो आप मेरे साथ चलिये"

"कोई ख़ास बात"

"हाँ, चलिये न जसवीर के लिए एक रिश्ता आया है इसलिए आपकी सलाह लेनी है"

"चल भाई बलबंत लेकिन यह तो बताओ कि लडक़ी जसवीर को पसंद है या नहीं"

रास्ते में चलते-चलते सरदार साहब ने माथुर साहब को बताया, "जसवीर को तो पसंद है, अभी लड़की तो हमने देखी नहीं है बस उसकी फ़ोटो आई है। लडक़ी के पिता आर्मी में मेजर जनरल हैं और जसवीर आजकल उन्ही की यूनिट में है। लड़की बंगलूरू से कंप्यूटर साइंसेज (संगगणक विज्ञान) में एमएस कर रही है"

माथुर साहब ने सरदार साहब की ओर देखा और बोले, "फ़ैमिली तो ठीक लग रही है, बाकी गुरुविंदर की राय क्या है ?"

"उसी के लिये तो हमें आपसे मिलकर बात करनी है"
बात करते करते सरदार साहब का घर आ गया। सरदार साहब ने आगे बढ़कर गेट खोला और माथुर साहब को साथ लेकर जैसे ही बरामदे में पहुँचे तो वहीं उनकी मुलाकात गुरुविंदर से हो गई जो बागवानी की देखभाल और पौधों को पानी देने का काम कर रही थी। गुरुविंदर ने माथुर साहब को देखकर नमस्ते कहते हुए ड्राइंग रूम का दरवाज़ा खोल दिया तथा अंदर आने के लिए कहा और पूछा, "भाई साहब क्या लेना पसंद करेंगे"

"भाभी जी चाय तो हम हरि राम की दुकान पर रोज़ की तरह पीकर आ रहे हैं बस पानी पी लेंगे"

सरदार साहब ने गुरुविंदर से कहा, "भाग्यवान ऐसा करो साल्टेड लाइम बना कर दे दो वही ठीक रहेगा"

गुरुविंदर तो किचेन में चली गई लेकिन सरदार साहब अंदर गए और एक लिफ़ाफ़ा लेकर लौटे। लिफ़ाफ़े में से कुछ फ़ोटो निकालते हुए उन्होंने माथुर साहब की ओर बढ़ाईं और बोले, "ये लीजिये माथुर साहब, लडक़ी की कुछ फ़ोटो जो जैसलमेर से आईं हैं"

फोटों को अलट पलट कर ध्यान से देखने के बाद माथुर साहब ने कहा, "लड़की तो बहुत सुंदर है। भाई मुझे तो पसंद है"

"इसकी जोड़ी जसवीर के साथ कैसी लगेगी", गुरुविंदर ने साल्टेड लाइम के ग्लास रखते हुए माथुर साहब से पूछा।

"भाभी जी ख़ूब जमेगी। अपना जसवीर भी तो गबरू जवान है। देखने में ऐसा कि जिसकी निग़ाह उस पर जाए तो उसके मुँह से निकले 'वाओ'", माथुर साहब ने गुरुविंदर की ओर देखते हुए पूछा, "लड़की का नाम क्या है"
"भाई साहब जसप्रीत कौर संधू"

"नाम भी बहुत सुंदर है"

सरदार साहब ने अपने संशय को जताते हुए कहा, "माथुर साहब यही तो दिक्कत है। आपसे हम अपने दिल की बात तो कर सकते हैं किसी दूसरे से नहीं"

"कहो बलबंत क्या बात है"
सरदार साहब ने अपने दोनों मुठ्ठियों को एक साथ करते हुए कहा, "माथुर साहब यह बात बहुत पुरानी है मैं उस बात को भूलना चाहता हूँ लेकिन मेरे जेहन में इस क़दर बैठ गई है कि वह बात दिल दिमाग़ से निकलती ही नहीं"

"बताओ भी न क्या बात है", माथुर साहब ने सरदार साहब को आश्वस्त करते हुए कहा।

"दोनों का नाम '' से शुरू होता है और हमारे परिवार में एक शादी हुई थी जिसमें लड़के लडक़ी का नाम एक ही अक्षर से शुरू होता था। उन दोनों के बीच बिल्कुल नहीं पटी। सुहागरात से ही दोनों के बीच जो झँझट शुरू जो हुआ तो उनकी कहानी तलाक़ पर जाकर ही ख़त्म हुई"

माथुर साहब ने सिर खुजलाया और बोले, "ये सब बहम हैं इनमें कोई दम नहीं है। हमारे एक दूर के रिश्तेदार बिहार आरा से हैं उनके बेटे का नाम जयंत और उसकी धर्मपत्नी का नाम जया। दोनों में बहुत अच्छी गुज़र रही है। तुम यह बहम अपने दिल से निकाल दो इन सब बेवकूफी भरी बातों में कोई दम नहीं है"

सरदार साहब ने गुरुविंदर की ओर देखा जैसे कि पूछ रहे हों 'बोल तू क्या कहती है'

माथुर साहब ने उनके मन भाव पढ़े इसलिए प्रेम से समझाते हुए बोले, "अगर मेरी बात समझ नहीं आ रही तो इस समस्या का एक ओर निदान है। दोनों की शादी हो जाने दो और अपने घर में आते ही तुम अपनी बहूरानी का वह नाम रख देना जो तुम्हें पसंद हो"

माथुर साहब की बात सुनकर सरदार साहब और सरदारनी को राहत की सांस दिखाई दी। गुरुविंदर अपनी ख़ुशी को रोक नहीं पाई और बोली, "भाई साहब आपने हमारी बहुत बड़ी मुश्किल हल कर दी"

"दोस्त होते किस दिन के लिए हैं। बलबंत अब तो मेरी पार्टी पक्की"

"बिल्कुल पक्की", सरदार साहब ने चहकते हुए जवाब दिया।
"भाई साहब पक्की ही नहीं आज शाम को आप भाभीजी को लेकर आइये। हम आपकी मनपसंद डिशेज़ बनायेगें और आप लोग एन्जॉय करियेगा"

"ठीक है तो शाम को मिलते हैं लेकिन मैं स्कॉच से नीचे कुछ नहीं लूँगा"

सरदार साहब माथुर साहब की बात सुनकर बोले, "ठीक है, आज मैं तुम्हें जसवीर की लाई हुई ड्रिंक ही पिलाऊँगा"

"ठीक है, तब शाम को मिलते हैं", कहकर माथुर साहब अपने घर की ओर रवाना हुए। सरदार साहब उन्हें गेट तक छोड़ने आये।
अगली सुबह माथुर साहब को उठने में देर हो गई तो वह आज पार्क में सैर के लिए नहीं आ पाए। अय्यर ने माथुर साहब को न पाकर सरदार साहब से पूछा, "आज माथुर नहीं दिखाई पड़ रहा"

"हाँ, यार लगता है कि वह आज उठ नहीं पाया होगा"

अय्यर ने अपने शरारती भरी आवाज़ में पूछा, "क्या उसका आज लेट नाईट वाला प्रोग्राम था"

"वह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि कल रात वह मेरे घर से डिनर के बाद देर से गया था"

"इसका मतलब तुमने कल रात स्कॉच खोल दी और हमें याद भी नहीं किया"

"अय्यर यह बात नहीं", सरदार साहब ने उसे कल की पूरी कहानी उसे सुनाई।

"ओहो, माथुर ने राय तो तुम्हें सही दी है लेकिन मुझे एक बात तो बता कि जसवीर के लिये जिस लड़की से बात चल रही है उसे तुम दोनों ने देखा है कि नहीं"

"अभी तो नहीं", सरदार साहब ने बताया और बोले, "हो सकता है कि हम लोग अगले हफ़्ते ही जैसलमेर जाएं"
"देख के आ फिर मुझसे बात करना", अय्यर ने कुछ इस अंदाज में कहा कि उसके पास भी कोई सुझाव है लेकिन सरदार साहब ने उसके बाबत कुछ बात नहीं की। वे दोनों चलते - चलते वहां आ पहुंचे जहां उनकी मित्रमंडली पहले ही से एक सवाल पर उलझी हुई थी। उनके बीच बैठते हुए अय्यर ने पूछा, "क्या बात है, क्यों आपस में उलझे हुए हो"

श्याम लाल बोल पड़े, "मुद्दा यह गरम है कि सुप्रीम कोर्ट में जो मुकद्दमा जम्मू & काश्मीर का जा पहुंचा है उसमें किस तरह का फ़ैसला आ सकता है"

"कौन - कौन बहस में भिड़े हुए हैं"

"एज युजुअल शेखावत, राणा और हनीफ़ मियां"

क्रमशः


एपिसोड 3

अज़मल ख़ाँ पार्क में खूसट बुढ्ढे मिलें और राजनीतिक विषयों पर बहस न हो तो दिन की शरूआत ठीक नहीं लगती। जो विषय आज की बहस का था उसमें गर्मी तो आनी ही थी क्योंकि हर बुढ्ढे का अपना एक मौलिक विचार जो था और कोई भी अपनी विचारधारा से डगमगाना नहीं चाहता था। जब बुढ्ढे हों शेखावत, राणा और हनीफ़ मियां जैसे तो मुद्दा तो गरमाना ही था।

"सरदार साहब देखिए हम अपना नज़रिया रख रहे हैं कि केंद्रीय सरकार ने 370 और 35A एक झटके में हटाकर सही नहीं किया। कम से कम वहां के लोगों से एक बार तो पूछा होता", हनीफ़ मियां का कहना था।

राणा ने अपनी बात रखते हुए कहा, "बेकार की बात भला सरकार किस - किस से पूछती"

"वहां की विधान सभा से", हनीफ़ मियां ने जवाब दिया।

"विधान सभा है कहाँ वह तो पहले ही भंग की जा चुकी है"

"यही तो सवाल है कि जब वहां कोई विधान सभा है ही नहीं तो इसके लिए सरकार को इंतज़ार करना चाहिए था"

शेखावत ने बीच में टांग फसाते हुए कहा, "हनीफ़ मियां सत्तर साल से कर ही क्या रहे थे, इंतज़ार ही तो हो रहा था, जब धारा 370/35ए की चर्चा सामने रक्खी गई तब सारे काश्मीर के नेताओं ने घूम - घूम कर पूरे देश में जो अव्यवस्था पैदा की तथा सारे नेताओं ने ताल ठौंक कर जो अनर्गल प्रवंचना करते हुए कहा कि मोदी हजार जन्म भी लेगा तो धारा 370/35ए को हटाना तो दूर, छू भी नहीं पायेगा" पूरा समय अनर्गल भाषणबाजी में ही खराब कर दिया.

"छोड़ो भी कुँवरसा, हम यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि आप लोग यह क्यों नहीं मान रहे हैं कि ऐसा कौन सा तूफ़ान आने वाला था जो इतनी हड़बड़ी में इस तरह का निर्णय सरकार को लेना पड़ा"

राणा ने अपनी बात रखते हुए कहा, "हनीफ़ भाई यह बात समझने की कोशिश कीजिए जब रियासत जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति का शासन है तो सारे अधिकार सरकार के पास आ जाते हैं और सरकार अपनी पार्टी के घोषित राजनीतिक एजेंडे के अनुसार निर्णय ले सकती है"

हनीफ़ मियां ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, "राजनीतिक एजेंडा अपनी जगह सही हो सकता है लेकिन समझने वाली बात यह है कि जम्मू कश्मीर के लिए पिछले चुनाव में जाने के पहले राजनीतिक दलों ने कोई ऐसा एजेंडा जम्मू कश्मीर के लोगों के सामने रखा था या नहीं"

"अरे मियां यह तो जग जाहिर था कि अगर इनकी पार्टी जितती है तो वह 370 हटाएगी ही"

"भाई एक बात का जवाब दीजिये कि क्या जिन दलों ने मिलकर जम्मू कश्मीर रियासत में जब दो मुख्य दलों की सरकार थी तो यह मुद्दा उस समय क्यों नहीं विधानसभा में उठाया गया। क्या उन्होंने आपस में कोई ऐसा कॉमन प्रोग्राम बनाया था। अगर नहीं तो यह क़दम गैर कानूनी और असंवैधानिक है"

राणा ने अपने स्वभाव के अनुसार फिर सरकार का पक्ष लेते हुए हनीफ़ मियां को समझाने की कोशिश की की जम्मू कश्मीर का भला ही इसमें है कि यह भारत में हो रहे विकास की मुख्य धारा में आये और हर कश्मीरी को इसका लाभ मिले।

राणा की बात सुनकर मुखर्जी जो चुपचाप बहस को सुन रहे थे एकदम झटक के बोले, "खाक़ विकास। हमें तो कहीं विकास दिखाई नहीं देता है। हम वहीं के वहीं हैं। विकास के नाम पर हर रोज़ एक नया नारा ज़रूर सुनने में आ जाता है। विकास जितना होना था वह होकर रहेगा कोई उसे रोक नहीं सकता। दिल्ली की सरकार बहुत कुछ करना चाहती थी पर मरकज़ी सरकार ने उसे कोई काम करने ही नहीं दिया। फिर भी पढ़ाई लिखाई और स्कूलों में बहुत काम हुआ, लोकल लेवल पर डिस्पेंसरी खुलीं मुल्क में दूसरी रियासतों में तो इतना कुछ भी नहीं हुआ। भारत का जो विकास होना चाहिए था वह हुआ नहीं तो जम्मू कश्मीर का कहाँ से होगा"

"देवाशीष दादा धैर्य रखिये विकास की राह धीमी होती है विनाश की बहुत तेज़"

"वह तो हमने बंगाल में खूब देखा है वहां सत्ता पाने के लिए खून का खेल हो रहा है"

शेखावत बीच में पड़ते हुए बोले, "दादा बंगाल की बात फिर कभी करेंगे। मुझे भी लगता है कि वहां सब ठीक नहीं है"

"कुँवर साहब यह ठीक रहेगा"

राणा ने कश्मीर के मुद्दे को गरमाते हुए कहा, "आप कश्मीरियत का शोर मचाने वाले तब सो रहे थे जब कश्मीरी पंडितों को वहाँ से जबरन भगाया जा रहा था, मारा कूटा जा रहा था"

हनीफ़ मियां से जब नहीं रहा गया तो वह अपने दिल के गुब्बार निकालते हुए बोले, "माना कि कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ ग़लत हुआ। नहीं होना चाहिए था। यह भी माना कि इस्लाम के इतिहास में एक नहीं अनेक ऐसी घटनाएं हुईं हैं जहां वहां के रहनुमाओं ने अपने वाशिंदों पर कहर ढाया ऐसा भी नहीं है कि यह किसी और धर्म के लोगों ने नहीं किया हो। जब उन्माद चढ़ता है तो लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है और ऐसी घटनाएं हो जातीं हैं जो कि नहीं होनी चाहिए। एक बात को आप भी ठंडे दिमाग से सोचिएगा फिर बताइयेगा कि आखिर वहां के लोगों का गुस्सा फूटा वह भी पंडितों के खिलाफ ही क्यों? रहने वाले तो वहां और भी हिंदू थे जैसे कि डोगरा, सिख, गुर्जर, दलित वग़ैरह। कोई न कोई तो वजह रही होगी कि वहां के लोग पंडितों के खिलाफ उठ खड़े हुए"

शेखावत ने हनीफ़ मियां की बातों से इत्तफाक रखते हुए बस यही कहा कि वह उनकी बात को बिल्कुल नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। इसके बाबत कुछ और छानबीन करने की ज़रूरत है। शेखावत ने हनीफ़ मियां से प्रश्न करते हुए पूछा, "मियां एक बात बताइए कि आपका इन अलगावादियों के बारे में क्या ख़्याल है"
"इन सालों को लालबाग में खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए या अंडमान निकोबार में कालापानी दे देना चाहिए", शेखावत के प्रश्न के जवाब में हनीफ़ मियां ने कहा।

राणा ने जब जम्मू कश्मीर का सवाल फिर से उठाया तो हनीफ़ मियां भड़कते हुए बोले, "राणा जी आप मेरी बात नोट कर लीजिए कि जम्मू कश्मीर हिंदुस्तान के लिए गले की हड्डी बनने जा रहा है। आप भक्त लोग जो यह नारा लगा रहे हो कि 'पीओके अबकी बार: हमारे पास' भी आपके लिये तकलीफ़ का सबब बनेगा। वहां के लोग कश्मीर के लोगों से मिल गए तो एक नया नारा उनका होगा 'हम कश्मीरी भाई भाई' और फिर देखिए आपको कश्मीर को कुछ ऑटोनोमी देनी ही पड़ेगी। एक विधान, एक प्रधान, एक निशान के नारे को कभी एक कश्मीरी की निगाह से देखिए। यह भी न भूलिये कि आपके एक सीनियर लीडर ने इंसानियत,कश्मीरियत, जम्हूरियत का नारा दिया था। आजकल के नौजवानों ने एक बार बंदूक उठा ली तो उन्हें मरने मारने की चिंता नहीं रहती। वहां बहुत से ऐसे लोग हैं जो आजकल के हालात में राजनीतिक फायदा उठाने के चक्कर में हैं"
राणा ने हनीफ़ मियां की बात पर कहा, "हनीफ़ मियां माना कि पीओके के मुसलमान और कश्मीर के मुसलमान मिल कर एक बड़ी फ़ोर्स होंगे पर आप यह मत भूलिये कि भारत ने कभी धर्म की राजनीति नहीं की। हमारे देश में सभी नागरिकों को एक समान अधिकार हैं"

"भाई राणा अब आपसे बहस कौन करे। हम जो कह रहे हैं वह मुसलमान होने के नाते नहीं कह रहे हैं बल्कि एक कश्मीरी, एक हिंदुस्तानी होने के नाते कह रहे हैं कि भारत को यह मसायल आपस में बातचीत करके ही सुलझाना पड़ेगा, लोगो के दिल जीतने होंगे और यह काम बंदूक की गोली से नहीं हो पायेगा"

सरदार साहब को लगा कि यह बहस तो ऐसे ही चलती रहेगी और कोई नतीजा भी नहीं निकलेगा तो बीच में पड़ते हुए सरदार साहब बोले, "फिलहाल के लिए मेरा सुझाव है कि आप दोनों लोग अपनी अपनी जगह सही हैं लेकिन कश्मीर का मुद्दा अब सुप्रीम कोर्ट की कॉन्स्टिट्यूशन बेंच के सामने है जिस पर बहस होने की उम्मीद है उसके बाद ही यह फैसला होगा कि अब तक जो हुआ वह सही है या ग़लत"। 

सरदार साहब की बात को सेकंड करते हुए अय्यर ने कहा, "मुझे भी लगता है कि अब सभी को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का इंतज़ार करना चाहिए"

सरदार साहब को लगा कि मुद्दा फिर न गरमा जाए इसलिए वह खड़े होते हुए बोले, "यारो आज का अपना एजेंडा यहीं ख़त्म हुआ कल हम लोग किसी नए विषय पर बहस करेंगे"

श्याम लाल ने पूछा, "कल का एजेंडा तो बताते जाओ"

सरदार साहब इस पर बोले, "तुम्हें क्या इम्तिहान की तैयारी करनी है अरे कल के अख़बार में जो न्यूज़ गरम होगी उसी पर बहस होगी"

सरदार साहब की बात मानते हुए सभी लोग उठ खड़े हुए और अपने अपने घर की ओर चल पड़े। सरदार साहब को आज बहुत दिनों बाद अकेले ही घर लौटना पड़ रहा था क्योंकि माथुर साहब जो आज सैर के लिए नहीं आये थे। जब सरदार साहब हरी राम की दुकान के सामने से निकलने लगे तो हरी राम ने उन्हें टोकते हुए कहा, "सरदार साहब आज माथुर साहब साथ नहीं तो क्या चाय भी नहीं पियेंगे"

सरदार साहब हरी राम से क्या कहते कि वो जसवीर को लेकर कुछ सोच रहे थे इसलिए वह भूल ही गए कि हरिराम की दुकान आ गई थी। हरी राम की दुकान की बैंच पर बैठते हुए सरदार साहब ने हरी राम से कहा, "हरी राम एक बंद में मख्खन लगा कर देना और हमारी चाय भी बना देना"

हरी राम ने बंद को काट कर भट्टी के ऊपर गरम होने के लिए रख दिया और दूसरी भट्टी पर चाय चढ़ा दी। चाय और बंद देते हुए हरिराम ने सरदार साहब से पूछा, "आज के शाम के खाने का इंतज़ाम करना हो तो साहब बता देना मैं भिजवा दूँगा"

"अरे नहीं गुरुविंदर है न वह बना लेगी। बंद तो मैंने ऐसे ही ले लिया था"

"ओहो मैं समझा कि भाभी जी कहीं गईं हुईं हैं। मुझे मुआफ़ कर देना साहब जी"

"नहीं कोई बात नहीं", कहकर सरदार ने चाय पी और फिर खड़ामा - खड़ामा अपने घर की ओर चल दिये। घर पहुँचते ही गुरुविंदर ने सरदार साहब को याद दिलाया कि उन्हें आज जैसलमेर चलने के लिए रेल रिज़र्वेशन करना है।

"अच्छा किया जो तूने याद दिला दिया। मैं आज शोरूम जाकर करा लूँगा"

क्रमशः


अपनी बात :

कल हमारे एक मित्र ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही कि मुझे अब कश्मीर मुद्दे से अपने लगाव को तोड़ देना चाहिए चूँकि यह मुद्दा "गुज़र गाह" में भरपूर रूप से पढ़ा जा चुका है। 

उनका आदेश शिरोधार्य।

उनके प्रत्युत्तर में जब मैंने यह समझाया कि हम एक कहानी कह रहे हैं हमारी कहानी की दृष्टि से कश्मीर मुद्दा बहुत अहम है। तब उन्होंने मेरी बात को बहुत सराहा। यहां बस मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि 'खूसट बुढ्ढे' के तार कश्मीर से जुड़े मिलेंगे इसलिए आप यह न समझिए कि यह मुद्दा मर गया। आप अपना आशीर्वाद देते रहिये और हम कहानी को आगे बढ़ाते रहें यही वक्त का तकाज़ा है

राजनितिक मुद्दे अभी आगे भी इस कथानक में आते रहेंगे वह इसलिए नहीं कि उनका कहानी से कोई मतलब नहीं बल्कि इसलिए कि ज्वलंत मुद्दों पर हम अपने परिवेश से एक दम अलग कैसे हो सकते हैं जब कि खूसट बुढ्ढे सैर के लिए अजमल खाँ पार्क में आते ही रहेंगे। हम इस बात का ध्यान अवश्य रखेंगे कि आम लोगों के बीच की बातचीत में "ज़िंदगी" का नमक-मिर्च मसाला स्वादनुसार चटपटा बना ही रहे।

एस पी सिंह

पिसोड 4

जब 'खूसट बुढ्ढे' सुबह-सुबह पार्क में मिले तो आज शेखावत ने यह कहकर आग लगा दी कि अब तो राम मंदिर बन कर ही रहेगा। इस पर माथुर साहब ने पूछा, "क्या हो गया"

शेखावत ने अपनी बात को मज़बूती देते हुए कहा,"माथुर साहब लगता है कि आजकल आप समाचार नहीं देख रहे। सुप्रीम कोर्ट में जो मुकद्दमा चल रहा है अब अपने अंतिम पड़ाव पर है। सभी पक्षों की बहस लगभग पूरी हो चुकी है। किसी को कुछ और कहना सुनना हो तो सीजेआई ने कहा कि वे लोग अपनी अंतिम बात 17 अक्टूबर तक रख सकते हैं, उसके बाद कोर्ट की सुनवाई इस मुक़द्दमे की नहीं होगी"

"मैंने तो सुना था कि दोनों पक्षों के बीच बातचीत से मसले को हल करने पर बात बनने ही वाली है। मेरे हिसाब से जो भी हो अब यह मुद्दा सुलझना ही चाहिए। अगर सुप्रीम कोर्ट से ही हल निकलना है तो वह भी बेहतर है। यह मुद्दा दोनों कम्युनिटी के बीच बेमतलब ही लड़ाई झगड़े का प्रश्न बना हुआ था"

"माथुर साहब मुस्लिम लोगों ने कभी भी कुछ नहीं कहा वह तो बस यही कहते रहे कि सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला दे-दे, वह उसे मानेंगे। यह तो दूसरा पक्ष है जो यह कहता फिर रहा है कि फैसला कुछ भी हो मंदिर वहीं बनेगा", हनीफ़ मियां ने अपने मन की बात कहकर लंबी सांस ली।

शेखावत हनीफ़ मियां की दलील सुनकर बोले, "मियां आपको यह बात तो माननी पड़ेगी कि श्रीराम जितने हमारे हैं उतने ही आपके हैं"

"शेखावत भाईजान हमने कब कहा कि प्रभु राम हमारे नहीं हैं लेकिन श्रीराम अब राजनीतिक नारा बन कर रह गया है। दरसल हम भी प्रभु राम की संतान हैं। हर रोज़ सुबह - सुबह जब हम किसी से मिलते हैं आज भी 'राम-राम' कह कर एक दूसरे प्रति यह आशा जताते हैं कि उसका आज का दिन ठीकठाक गुजरेगा"

"हनीफ़ मियां ऐसा हर कोई नहीं मानता। यह तो कुछ लोग ही ऐसे हैं जिनके नेक दिल में यह बात है"

"शेखावत भाईजान हम दूसरों की बात नहीं जानते हमारे गांव में आज भी हमारे अपने कुछ भाई हैं, वह राजपूत हैं। ....और हम कुछ मुसलमान। हमारे सभी के वही गोत्र हैं जो आपके। किसी ज़माने में वक़्त की मार ऐसी पड़ी कि कुछ मुसलमान हो गए वे खानज़ादे कहलाये और कुछ हिंदू रह गए"

"अरे भाई तो कौन रोकता है आप दोबारा हमसे जुड़ जाओ", राणा ने बातचीत का रुख अपनी ओर करने के प्रयास से कहा।

"कहाँ कुँवर साहब आप लोग ऐसा होने देना चाह रहे हो। एक बार जब बात उठी थी तो इस पर आकर टूट गई कि आप लोग हमारी बेटियों को तो अपने यहाँ लेना चाहते हैं पर अपनी बेटियां हम लोगों के यहां नहीं देना चाहते। बताइए तो हम क्या अरेबिया जाकर अपनी बेटियों का ब्याह रचायें"

हनीफ़ मियां की बात सुनकर शेखावत तो चुप रह गए लेकिन मुद्दे को राणा ने थाम लिया और बोले, "मियां आपकी बात सही हो सकती है यह मसला खाली राजपूतों का हो ऐसा नहीं। लड़ाके तो हम जाट, गुर्जर भी हैं। आप लोगों में भी तो गुर्जर होते हैं"

"राणा भाईसाहब आप किसकी ओर इशारा कर रहे हैं"
"किसी की ओर भी नहीं, मैं तो केवल यह कह रहा हूँ कि...."

राणा की बात बीच में काटते हुए श्याम लाल बोले, "अरे यार छोड़ो भी कहाँ से यह मुद्दा उठाया और आप लोग कहाँ ले आए। कहने वाले तो हम लालाओं को भी आधा मुसलमान बताते हैं"

मामला तूल पकड़ता उससे पहले ही माथुर साहब ने बीच में बोलते हुए कहा, "छोड़ो भी किसी और मुद्दे पर बात करते हैं, यह मुद्दा बहुत सेंसिटिव है और हमारी बहस से कोई नतीजा भी नहीं निकलने वाला"
अय्यर जो अभी तक सबकी बात सुन रहे थे बोल उठे, "गुरू यह बताओ कि इस साल सर्दी कैसी पड़ने वाली है"

सरदार साहब ने उत्तर में कहा, "जोरदार"

"लगता है कि फिर रजाई धुनवा कर भरा ही लेनी चाहिए"

"आजकल धुनके कहाँ मिलते हैं दार जी"

अय्यर ने सरदार साहब की बात पर कहा, "दार जी दिल्ली के इस हिस्से में रहने का यही मज़ा है जहां धुनके भी मिलते हैं और रज़ाई भरने की मशीनें भी"

पिछले रोज़ अय्यर ने, श्याम लाल के ऊपर चोट की थी तो आज मौक़ा देख उन्होंने अय्यर से कहा, "क्यों बे अय्यर तेरा धागा कुछ ढीला पड़ रहा है जो रज़ाई भरवाने की बात कर रहा है"
"लाला की औलाद हमारा धागा तो आज भी मज़बूत है। तू बता क्या करेगा। तेरी वाली तो लखनऊ में रहती है"

इस पर माथुर साहब ने चुटकी लेते हुए कहा, "अरे भाई इसीलिए भाभीजान बीच - बीच में आतीं रहतीं हैं कि श्याम लाल के कदम कहीं लड़खड़ा तो नहीं रहे"

यह बात सुनकर श्याम लाल चुपचाप रह गए वह नहीं चाहते थे कि उनकी पत्नी को लेकर कोई कुछ और कहे। वह यह जानते थे कि वह जब भी यहां आती है तो कुछ न कुछ लफड़ा होकर रहता है। जो तोहमत वह उनपर लगातीं हैं वह किसी से छिपे भी नहीं हैं। सरदार साहब यह बात समझ गए थे इसलिए उठते हुए बोले, "बस आजकी महफ़िल यहीं ख़त्म। अब कल फिर मिलेंगे"

क्रमशः

एपिसोड 5

गुरुवार का दिन था और शाम को ही आज सरदार साहब को जैसलमेर के लिए निकलना था। गुरुविंदर ने सब सामान वग़ैरह चेक कर लिया था बस एक बार उसे जसवीर से बात करनी थी। इसलिए जब सरदार साहब सुबह - सुबह सैर से वापस आये तो उसने जसवीर को फ़ोन लगाया। जब ऑपरेटर ने जसवीर से कॉल थ्रू कर दिया तो जसवीर से बात करते हुए पूछा, "जसवीर तेरी बात मेजर जनरल संधू से हो गई है न"

"जी मॉम उनसे मेरी बात हो गई है। वह आप लोगों से रेलवे स्टेशन पर आकर मिलेंगे"

"तुस्सी नहीं आंदे पये हो"

"बेबे जी मैं वी तुहानु उत्थे मिलन वास्ते आरिया"

"चल ठीक है पुतर कल सानु मिल्लन लयी आ जावीं"

जैसलमेर के लिए रेल गाडी पुरानी दिल्ली स्टेशन से चलती थी समय से पहले ही सरदार साहब रेलवे स्टेशन पहुँच गए जिससे लास्ट मिनट की भागमभाग न करनी पड़े रेल गाड़ी अपने निश्चित समय से चल कर अगले दिन दोपहर के आस पास जैसलमेर पहुँची। मेजर जनरल संधू स्टेशन पर स्वागतार्थ पहले ही से मौजूद थे जसवीर ने आगे बढ़ कर उनका परिचय और मेल मुलाकात अपने डैड और मॉम से कराई। 

मेजर जनरल का कोई बहुत ख़ास मेहमान जैसलमेर आ रहा हो और उसका शानदार स्वागत न हो यह तो मुमकिन नहीं था। आर्मी की फ्लैग लगी हुई गाड़ी जब आर्मी बेस के ऑफिसर्स मेस में पहुँची तो वहां अचानक ही लोगों में चहलकदमी बढ़ गई। मेजर जनरल संधू ने सरदार साहब और उनकी पत्नी का रुकने को इंतज़ाम देखा। उन्हें जब लगा कि सरदार साहब वहां आराम से रह सकेंगे तो कुछ देर बाद मेजर जनरल जसवीर से यह कह कर निकल गए, "शाम नूं तुस्सी डैड मॉम नाल घर आ जाण"
जैसलमेर में अगर आप हों तो क़िले के ऊपर पड़ती हुई सुबह और शाम के सूरज की रौशनी से जो मनलुभावन दृश्य बनता है उस पर निग़ाह न जाये यह मुमकिन नहीं। शाम हो चुकी थी सूरज पश्चिम दिशा में क्षितिज के पीछे जाने की तैयारी में था। ऐसी ही एक शाम का दृश्य को देखकर ही तो सत्यजीत रे ने जैसलमेर को 'सोनार किल्ला' कहा था और एक फ़िल्म भी बनाई थी।

जसवीर और उसके डैड, मॉम शाम को मेजर जनरल साहब की कार से तीनों लोग सज धज कर फ्लैग हाउस पहुँच गए। मेजर जनरल साहब मिसेज़ संधू समेत उनके स्वागत के लिए नज़रें पसारे इंतज़ार ही कर रहे थे। अपने मेहमानों को देखते ही मिसेज़ संधू ने आगे बढ़ कर सरदार साहब और गुरुविंदर का स्वागत किया, "धनभाग साड्डे जे तुस्सी पधारे, जी आयां नू"

सभी को साथ लेकर संधूज अपने लंबे चौड़े बंगले की ओर बढ़ चले। रास्ते में वे लोग आपस में दोनों परिवारों के हालचाल लेते रहे। जब ड्राईंग रूम में पहुँचे तो वहां उनकी मुलाकात जसप्रीत से हुई। जसप्रीत को देखते ही गुरुविंदर ने बोला, "जेहा जया सुणया सी ओहा जया है पुतर जी वाहेगुरु दी लख लख मेहरबानी"

सरदार साहब और गुरुविंदर ने आगे बढ़ कर उसे अपने सीने से लगाकर प्यार किया। मेजर जनरल साहब ने एक बात अच्छी की थी कि जसप्रीत की दिखाने को कोई ऐसी रस्म नहीं की जैसी कि आम माँ बाप करते हैं। जसप्रीत भी बस रोज़मर्रा की तरह तैयार हुई थी और कोई ख़ास चमक धमक वाली ड्रेस भी नहीं पहने हुए थी। यह शायद संधूज के घर के महौल की वजह से था दूसरा यह भी कि जसवीर जसप्रीत को पहले ही मिल चुका था। संधूज की यह बात सरदार साहब और गुरुविंदर को बहुत पसंद आई। 

जब फॉर्मल बातें ख़त्म हुई तो इनफॉर्मल बातों का दौर चला। सरदार साहब ने जसवीर के दादा श्री की अनेक कहानियां मेजर जनरल साहब को सुना डालीं। वह यह बताने से भी न चूके कि जसवीर के दादा श्री को उनके अदम्य साहस को देखते हुए भारत सरकार ने 'अशोक चक्र' से सम्मानित किया था। मेजर जनरल साहब सरदार साहब की सब बातें बहुत ध्यान से सुन रहे थे जब सरदार साहब अपनी बात कह चुके तो वह बोले, "सेना में आज भी जसवीर के दादा श्री के साहस और शौर्य की कहानियां सुनाईं जातीं हैं और फौजियों को यह बताया जाता है कि एक फ़ौजी को कैसा होना चाहिए"

इधर उधर की बातें जब हो चुकीं और खाने का समय हुआ तो मेजर जनरल साहब के स्टाफ ने सरदार साहब को आर्मी कैंटीन में उपलब्ध सबसे बढ़िया ड्रिंक ऑफर की। उस दिन मेजर जनरल साहब के जोर देने पर जसवीर ने अपने डैड के साथ बैठकर ड्रिंक शेयर की। दूसरी ओर मिसेज़ संधू और गुरुविंदर के बीच पारवारिक बात चीत हुई। बीच बीच में गुरुविंदर जसप्रीत से भी बात करती रहती थी।

रात बहुत देर के बाद जब चलने का समय आया तो गुरुविंदर ने सरदार साहब से पुतली के इशारे से सहमति लेकर जसप्रीत के सिर पर एक रंगबिरंगी चुन्नी डाल दी व गले में एक हीरे का हार पहनाया और अपने हाथ से कड़े उतार कर उसे पहनाते हुए कहा, "जसप्रीत, आज से तू हमारी हुई। हमने यहां आने के पहले कोई खास तैयारी तो की नहीं थी तो बस हमारी ओर से यह आशीर्वाद मानकर कुबूल कर"

जसप्रीत ने भी मिसेज़ संधू की सहमति से गहने देने के लिए जसवीर के डैड और मॉम का बहुत शुक्रिया कहा और दोनों के पाँव छूकर आशीर्वाद प्राप्त किया। चलते चलते गुरुविंदर ने जसप्रीत के कानों में चुपके से पूछा, "तुझे जसवीर से कोई शिकायत तो नहीं"

"नहीं मम्मी जी, जसवीर से भी भला किसी को शिकायत होगी"
इसके बाद वे लोग ऑफिसर्स मेस के लिए, चलने के पहले, सबसे गले मिले और गाड़ी में बैठकर निकल लिए। जसवीर, कुछ देर तो अपनी मॉम और डैड के साथ बैठकर गल-बात कित्ती और फिर थोड़ी देर बाद जीप में बैठकर अपनी यूनिट के लिए निकल लिया।

क्रमशः

अपनी बात: 

मेरा जैसलमेर जाना 2007 में हुआ था। जैसलमेर तबसे मेरी आँखों में एक टूरिस्ट डेस्टिनेशन के लिए सबसे बेहतरीन डेस्टिनेशन बन कर बसा हुआ है। 

मेरा मन तो बहुत किया वहां की जगहों के बारे में आप सभी को विस्तार से बताऊँ लेकिन कथानक को आगे बढ़ाने के लोभ ने ऐसा करने से रोक दिया।

अगर आपको कभी अवसर मिले तो एक बार अवश्य ही जैसलमेर घूम कर आईयेगा।

एस पी सिंह


एपिसोड 6

सरदार साहब का अगले दिन किला, हवेलियां, देखने का कार्यक्रम था इसलिए उन्हें आर्मी का पीआरओ अपने साथ लेकर शहर के सभी पर्यटन स्थल दिखाने ले गया। क़िले में जाकर सरदार साहब को किले के बारे में जानकारी दी गई कि यह किला दुनियां भर के कुछ ऐसे किलों का सरताज़ है जिसमें आज भी लोगों की रिहायश है। उसे जानकर तो सरदार साहब और गुरुविंदर की तबियत ही खुश हो गई। उन्होंने पीआरओ से कहा, "बहुत सुंदर किला और बेहतरीन जानकारी"

किले के बाहर आकर सरदार साहब ने वहां की कुछ लोकल लोगों की बनीं हुईं पेंटिंग्स खरीदीं। पास ही एक सारंगी वाला धुन निकाल रहा था 'केसरिया बालम पधारो म्हारा देश'

किला देखने के बाद वे लोग शहर के सदर बाजार की उस मशहूर गली में में गए जहां सेठ नाथ मल और पटवों की हवेलियां थीं। हवेलियों को देखकर सरदार साहब के मुँह से निकला,"वाह वाह। अपने मुल्क़ में विरासत का इतना बड़ा खज़ाना हो, वह मुल्क़ टूरिज्म में किसी दूसरे देश से पीछे कैसे रह सकता है"

सरदार साहब की बात पर पीआरओ ने कहा, "सर यहां जैसलमेर में पग पग पर इतिहास के अपभ्रंश देखने को मिलते हैं। आप यहां एक महीना भी रहिये तब भी आप वे सब जगह नहीं देख पाएंगे'

सरदार साहब पीआरओ की बात सुनकर केवल इतना ही बोल पाए, "इतना समय किसके पास है"

हवेलियां देखने के बाद वे शहर के बीचोबीच बना राजमहल देखने गए। 
वे लोग जब राजमहल पहुंचे तो उनका स्वागत राज परिवार के सदस्यों ने किया जिसे देखकर उनकी तबियत गद - गद हो गई। शाम के समय वे वहां की मशहूर गढ़ी सर देखने गए। जिसे देखकर उन्हें याद हो आया कि वहां तो कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। फ़िल्म की शूटिंग की बात पर पीआरओ ने कहा, "यहाँ एक और भी जगह है जिसे बड़ा बाग़ कहते हैं वहां राज परिवार के लोगों की छतरियां बनीं हुई है उस जगह तो अनेक फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। उन सबमें ज़बरदस्त फ़िल्म थी ग़ुलामी"

सरदार साहब जानते थे कि अगर वह कह दें कि चलो वह जगह दिखाओ तो पीआरओ तुरंत उन्हें वहां ले जाएगा। दिन भर घूमने के बाद वे इतना थक गए थे कि उन्होंने चुप रहना ही बेहतर समझा।

शाम को सरदार साहब की इज़्ज़त अफजाई के लिए ऑफिसर्स मेस में डिनर का प्रोग्राम था। जिसमें सरदार साहब, गुरुविंदर, संधू परिवार के लोग तो उपस्थित थे ही, आर्मी बेस के अन्य सीनियर अधिकारी और उनकी धर्मपत्नियाँ भी थीं। जसवीर के सभी साथियों को खास बुलाया गया था। जैसे ही आर्मी के बैंड ने मधुर तान छेड़ी जसवीर ने जसप्रीत का हाथ अपने हाथ में लिया और डांसिंग फ्लोर पर जा पहुंचा। वे दोनों अन्य जोड़ों के साथ बहुत देर तक डांस करते रहे। गुरुविंदर तो अपने बेटे को जसप्रीत के साथ डांस करते देख निहाल हो गईं थीं। 

अगले दिन मेजर जनरल संधू खुद सरदार साहब को लेकर बॉर्डर के पास तक घुमाने ले गए। एक बस्ती से गुजरते हुए मेजर जनरल संधू ने एक नहर की ओर इशारा करके कहा, "दार जी यह इंदिरा गांधी कैनाल है जो पंजाब का पानी यहां तक लेकर आती है"

"वाह देखकर मन खुश हो गया"

कुछ दूर चल कर मेजर जनरल संधू ने टीवी टावर की ओर इशारा करते हुए कहा, "यह हमारे इंडिया का लास्ट टीवी ट्रांसमिटिंग टावर है। यहां से हम अपनी लोकल पब्लिक को तो टीवी सिग्नल फीड करते ही हैं। हम यहां से बॉर्डर के दूसरे ओर भी इंडिया प्रोग्राम दिखाने की कोशिश करते हैं'

"मतलब हम अपना प्रचार पाकिस्तान में करते हैं"

सरदार साहब की बात सुनकर मेजर जनरल संधू ने कुछ कहा तो नहीं बस मुस्कुरा कर 'हाँ' में जवाब दे दिया।

सरदार साहब को मेजर जनरल संधू ने फौजियों के उन मुश्किल हालातों के बारे में बताया जिसमे जवानों को मुस्तैदी से देश की रक्षा करनी होती है। बॉर्डर से कुछ दूर ही भारत के टैंक, तोप और मिसाइल लांचर भी दिखाए। देश की इस तैयारी को देख सरदार साहब बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने मेजर जनरल संधू से पूछा, "क्या इन्ही हालतों में जसवीर को भी अपनी ड्यूटी करनी पड़ती है"

"जसवीर ही क्या दार जी मुझे भी इन जवानों और ऑफिसर्स के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इनके साथ खड़े रहना पड़ता है"

मेजर जनरल संधू की बात सुनकर सरदार साहब के मुंह से बरबस ही निकल गया, "उस मुल्क की ओर कौन टेढ़ी निग़ाह करके देख सकता है जिसमें आप जैसे बहादुर अफ़सर हों"

वापस लौटते समय मेजर जनरल संधू ने सरदार साहब को एक मार्बल माइन भी दिखाई जहां भूरे रंग के मार्बल को निकाला जा रहा था। मार्बल को बाजार में भेजने के पहले उसकी कटिंग और पॉलिशिंग की जाती थी, वह भी उन्होंने देखी। 

सरदार साहब दिन भर बबूल और रेगिस्तानी धूल से भरे हुए जंगलों में घूमते - घूमते थक गए थे इसलिए उन्होंने शाम को और कहीं भी नहीं और न जाने की बात मेजर जनरल संधू से कही तो उन्होंने कहा, "जैसी आपकी मर्जी। जसवीर को मैं बोल दूँगा वह आपके साथ रहेगा"

दिन में गुरुविंदर मिसेज़ संधू और जसप्रीत से मिलने चली गई थीं और तीनों के बीच अच्छी अच्छी बातें हुईं और शाम होते ही वह ऑफिसर्स मेस में वापस लौट आईं।

अगले दिन सरदार साहब और गुरुविंदर रेगिस्तान की रेती में छुपा तनोट माता का मंदिर देखने गए जिसके बारे में 1965 के युद्ध को लेकर अजीब - अजीब कहानियां मशहूर थीं। तनोट माता के मंदिर से लौटते समय वे कैमल सफारी के लिए भी गए। आखिर में वह पालीवाल ब्राह्मणों का शापित भूतहा गांव कुलधरा देखने गए जिसके लिए कहा जाता है कि अंधेरा होने के बाद वहां कोई भी नहीं रहता। कुलधरा की पुरानी इमारतें देखते - देखते जब अंधेरा होने लगा तो पीआरओ ने कहा, "सर अब हमें वापस चलना चाहिए रात के समय यहां कोई नहीं रुकता"

पीआरओ की बात सुनकर सरदार साहब ने कहा, "गुरुविंदर चल भाई नहीं तो कोई भूत पिशाच कहीं पीछे न पड़ जाए"

अगले दिन जिस दिन सरदार साहब को दिल्ली वापस लौटना था उस दिन उन्होंने मेजर जनरल संधू को फ़ोन किया और कहा, "मुझे आपसे एक बहुत ज़रूरी बात करनी है और मैं वह किसी दूसरे के सामने नहीं कर सकता। इसलिए आप मुझे अपने कोठी पर मिलिए"

मेजर जनरल संधू अपने ऑफिस में थे वे तुरंत ऑफिसर्स मेस पहुँच गए, "दार जी कोई खास गल दे वास्ते बुलाया सी"

"जी, चलिये मिसेज़ संधू के सामने ही सब बातें हों तो ठीक रहेगा"

मेजर जनरल संधू चाहे जितने बड़े ओहदे पर थे पर वह एक बेटी के बाप भी थे, सरदार साहब की यह बात सुनकर सकते में आ गए। उन्हें परेशान होते देख सरदार साहब ने उनकी पीठ पर हाथ रखा और बोले, "त्वानूं फिजूल विच परेशान होण दी लोड नी, कोई नी चलो घर चलने आ फेर गल करागें"

मेजर जनरल संधू ने घर पहुंच कर अपनी पत्नी को साथ लिया और एक रूम में बैठ कर सरदार साहब और गुरुविंदर से लंबी बातचीत की। बातचीत करके जब सरदार साहब और गुरुविंदर निकलने लगे तो जसप्रीत आ गई उसने दोनो के पाँव छूते हुए कहा, "पैरी पैना पापा जी मम्मी जी"

"सौभग्यवती भव", कहकर सरदार साहब और गुरुविंदर ने उसे आशीर्वाद दिया।

मेजर जनरल संधू जब सरदार साहब और गुरुविंदर को लेकर चलने लगे तो बोले, "जसवीर के बाबत जो बात आपने अभी बताई वह मुझे मालूम थी, जसवीर ने मुझे बताया था। उसकी छुट्टी जब उसके कमांडिंग ऑफिसर ने सैंक्शन नहीं की थी तो वह मेरे पास आया था और पूरी बात बताई थी"

"मैंने सोचा कि शायद आपको पता न हो इसलिए यह बात मुझे लगा कि आपको बता देनी चाहिए", सरदार साहब ने मेजर जनरल संधू से कहा।

जसवीर की तारीफ करते हुए मेजर जनरल संधू ने कहा, "वह बहुत बहादुर और निडर होकर काम करने वाला फौज़ी है। उसके मातहत काम करने वाले फौज़ी हों या उसके अफ़सर दोनों ही बहुत उससे ख़ुश रहते हैं। आज भी मुझे वह दिन याद है जब उसने श्रीनगर के राजबाग़ के एक घर में आतंकियों से लड़ते हुए अदम्य साहस और वीरता का परिचय देते हुए अपने साथी लेफ्टिनेंट इक़बाल के साथ मिलकर तीन आतंकियों को ढेर ही नहीं किया बल्कि उस आपरेशन में उसने एक लड़की और लड़के की जान भी बचाई थी। वह घटना हमारे यूनिट के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। "इसके लिये उसे एक आर्मी का मेडल भी मिला था"

सरदार साहब ने भी मेजर जनरल की तारीफ़ की और जसवीर को आगे बढ़ाने के लिए उनका धन्यवाद करते हुए कहा, "यह सब आपकी ट्रेनिंग और हौसला अफजाई का ही नतीजा है"

शाम को ट्रेन के टाइम पर संधूज और जसवीर उनको छोड़ने जैसलमेर स्टेशन आये। सरदार साहब आये तो थे दो स्ट्रोली लेकर लेकिन चलते समय इतना सामान हो गया कि उनका कूपा ही भर गया। उन्हें ट्रेन पर बिठाया और ट्रेन चलने के बाद ही वे वहाँ से घर गए।

जैसलमेर आकर सरदार साहब और गुरुविंदर को बहुत अच्छा लगा और सबसे अच्छी बात यह रही कि जसवीर को उसकी लाइफ पार्टनर मिल गई। दोनो परिवारों के बीच यह भी तय पाया गया कि गुरु नानक देव जी के जन्म दिन वाले दिन दोनों की कुड़माई कर दी जाए। कुड़माई का प्रोग्राम सरदार साहब की मर्ज़ी के अनुसार दिल्ली में करना फाइनल हुआ।

ख़ुश - ख़ुश सरदार साहब और गुरुविंदर दिल्ली लौटे। जिस दिन लौटकर वापस आये उसी दिन सरदार साहब और गुरुविंदर दोनों मिठाई से भरे डिब्बे लेकर माथुर साहब के घर पंहुचे। जैसलमेर में जो - जो हुआ उसे विस्तारपूर्वक बताया।

अगले दिन सरदार साहब जब सैर के लिए निकलने लगे तो मिठाई के डिब्बे उन्हें देते हुए गुरुविंदर ने कहा, "लीजिए अपनी ख़ुशी में अपने 'खूसट बुढ्ढे' दोस्तों को भी शरीक़ कर लीजिएगा"

क्रमशः

एपिसोड 7

सरदार साहब के हाथ में मिठाई के डिब्बे देखकर माथुर साहब ने कहा, "बलबंत ला दो एक मुझे भी दे दे। इतने डिब्बे कहाँ उठाकर घूमता रहेगा"

पार्क में जितने भी खूसट बुढ्ढे दोस्त आये हुए थे सरदार साहब ने उन सभी को मिठाई खिलाई और जसवीर और जसप्रीत के रोके के बारे में बताया। दोस्त भी एक से एक चालू थे। उनमें से अय्यर ने सरदार साहब से कहा, "बलबंत आज तुम ख़ुश तो बहुत होगे। इसका मतलब गुरुनानक जन्म के दिन तो बड़ी पार्टी होगी"

"बिल्कुल होगी। कोई शक़"

"नहीं कोई शक़ नहीं हम तो अपने खाने पीने का इंतज़ाम पक्का कर रहे थे", अय्यर ने जोर का ठहाका लगाते हुए कहा।

राणा, श्याम लाल, हनीफ़ मियां, देवाशीष एवं कुछ और मित्रों ने मिठाई लेते हुए सरदार साहब को मुबारकबाद दी और जसवीर और जसप्रीत को बधाई देते हुए कहा, "सरदार साहब आप बहुत लकी हैं। आपको बहुत बहुत मुबारकबाद''

सरदार साहब ने अपने इधर - उधर देखा उनकी चर्चाओं में भाग लेने के लिए कुछ और लोग आ जाते थे उन्हें भी सरदार साहब ने मिठाई दी और जब शेखावत को नहीं पाया तो उसके बारे में पूछा, "आज अपने कुँवर साहब नहीं दिख रहे हैं"

अय्यर ने जवाब देते हुए कहा,"कुँवर साहब आजकल बीकानेर जो गये हुए हैं। उन्हें यह जो देखना था कि उसकी ख़ानदानी हवेली अभी भी सलामत है या नहीं"

श्याम लाल ने बीच में बोलते हुए कहा, "अबकी बार तो राजस्थान में उन इलाकों में ख़ूब पानी बरसा है जहां लोग बरसात देखने के लिए तरस जाते थे"

"हाँ बीकानेर में कौन सा पानी बरसता था। लेकिन अबकी बार वहां भी बाढ़ आ गई थी", माथुर साहब ने अपनी ओर से यह सूचना दी।

अय्यर भला कैसे चुप रहता बोल उठा, "क्या मज़ाक़ है कि जिनके क़िले और हवेलियां थीं वो लोग दिल्ली में फ्लैटों में पड़े हैं"

"आजकल सबके साथ यही हो रहा है", माथुर साहब ने यह याद करके कि उनकी भी तो हवेली मदनपुर में है जिसमें ताला लगा रहता है"

सरदार साहब ने माथुर साहब को सलाह दी, "माथुर साहब आप भी अपनी ज़मींदारी देख आओ यहां से मुश्किल से तीन सौ किमी ही तो है"

"बलबंत रहने भी दे उस दयार को क्या देखना जिस पर हम खुद ताला लगाकर चले आये हों", दिल में दर्द का एहसास करते हुए माथुर साहब ने कहा।

इसके बाद कुछ देर के लिए पार्क का माहौल ग़मज़दा हो गया। माहौल की फिर रंगत में लाने के लिए राणा ने अपनी जेब से एक पेपर निकालते हुए कहा, "आप लोग कोई राजनीतिक बहस शुरू करें उसके पहले आप मेरी एक कविता सुन लीजिये"

सभी ने एक आवाज़ में कहा, "अवश्य - अवश्य"

राणा ने जब बुलंद आवाज़ में अपनी यह कविता सुनाई तो सभी ने दिलखोल कर तारीफ करते हुए वाह - वाह कहा,

'जो बुढ्ढे खूसट नेता हैं, उनको खड्डे में जाने दो।
बस एक बार, बस एक बार मुझको सरकार बनाने दो।

मेरे भाषण के डंडे से
भागेगा भूत गरीबी का।
मेरे वक्तव्य सुनें तो झगडा
मिटे मियां और बीवी का।

मेरे आश्वासन के टानिक का
एक डोज़ मिल जाए अगर,
चंदगी राम को करे चित्त
पेशेंट पुरानी टी बी का।

मरियल सी जनता को मीठे, वादों का जूस पिलाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।

जो कत्ल किसी का कर देगा
मैं उसको बरी करा दूँगा,
हर घिसी पिटी हीरोइन कि
प्लास्टिक सर्जरी करा दूँगा;

लडके, लडकी और लैक्चरार
सब फिल्मी गाने गाएंगे,
हर कालेज में सब्जैक्ट फिल्म
का कंपल्सरी करा दूँगा।

हिस्ट्री और बीज गणित जैसे विषयों पर बैन लगाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।

जो बिल्कुल फक्कड हैं बाबा,
उनको राशन उधार तुलवा दूँगा,
जो लोग पियक्कड हैं दादा,
उनके घर - घर में ठेके खुलवा दूँगा;

सरकारी अस्पताल में जिस
रोगी को मिल न सका बिस्तर,
घर उसकी नब्ज़ छूटते ही
मैं एंबुलैंस भिजवा दूँगा।

मैं जन-सेवक हूँ, मुझको भी, थोडा सा पुण्य कमाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।

श्रोता आपस में मरें कटें
कवियों में फूट नहीं होगी,
कवि सम्मेलन में कभी
किसी की, कविता हूट नहीं होगी;

कवि के प्रत्येक शब्द पर जो,
तालियाँ न खुलकर बजा सकें,
ऐसे मनहूसों को, कविता
सुनने की छूट नहीं होगी।

कवि की हूटिंग करने वालों पर, हूटिंग टैक्स लगाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।

ठग और मुनाफाखोरों की
घेराबंदी करवा दूँगा,
सोना तुरंत गिर जाएगा
चाँदी मंदी करवा दूँगा;

मैं पल भर में सुलझा दूँगा
परिवार नियोजन का पचडा,
शादी से पहले हर दूल्हे
की नसबंदी करवा दूँगा।

होकर बेधडक मनाएंगे फिर हनीमून दीवाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।

मुझको सरकार बनाने दो।'

"राणा जी आज तो आपने समां बांध दिया", सरदार साहब और माथुर साहब ने पीठ ठोंकते हुए राणा को बधाई दी और अय्यर की ओर देखते हुए बोले, "क्या बात है अय्यर क्या आज बीबी से झगड़ा करके आये हो जो आवाज़ नहीं निकल रही है"

"नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, राणा जी की इतनी सुंदर कविता सुनकर मैं सोचने लगा कि काश मैं भारत का प्रधानमंत्री होता और सरकार बनाता तो क्या करता"

श्याम लाल ने अय्यर से पूछा, "अय्यर तुम क्या करते जरा हम लोगों को भी बताओ उससे पता ऊंचाई तक जाता"

"छोड़ो भी तुम लोग दिल्ली में ही रहने दो यही बहुत है। एक तमिलियन को प्रधानमंत्री कौन बनाएगा"

क्रमशः

अपनी बात: 

कल हमारे जयपुर के एक मित्र बनवारी सिंघल जी ने यह टिप्पणी की कि कथानक को अब राजनैतिक चर्चाओं से आगे बढ़ना चाहिए। हमने उनका आदेश अक्षरशः मान लिया। अब कोशिश होगी कि मुख्य कथानक भी आगे चले और साथ - साथ वह चीज भी चले जो हमारे जीवन के रोज़मर्रा की घटनाओं का ज़िक्र जिसके कारण हमारे जीवन में विभन्न रंग भरता रहता है। हमारी यह भी कोशिश रहेगी कि कथानक की आत्मा को आत्मसात किया जाए। 

कथानक में कुछ सस्पेन्स है इसलिए कुछ बातें इशारों में ही होंगी। जो पाठक इस कथानक को बहुत ध्यान से पढ़ेंगे वह तो इस कथानक को बहुत एन्जॉय करेंगे।

अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यहां मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि धारावाहिक लिखने का एक ही आनंद है। पाठक जो टिप्पणी करें उनके हिसाब से कथानक में उचित परिवर्तन कर के ही उनके समक्ष रखना चाहिए। मैं यह करने के लिए बाध्य इसलिए भी हूँ कि मैं अपने पाठकों को पढ़ने के लिए कुछ लीक से हट कर दे सकूँ वैसे तो एकता कपूर की वजह से धारावाहिक शब्द बहुत बदनाम हो चुका है। कुछ ही टीवी कॉरपोरेट घरानों के अच्छे कर्मो के कारण यह विधा अभी भी पसंद की जाती है जैसे कि 'सब टीवी' का 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' 8.30 pm का शो।

मैं यहां यह भी कहना चाहूँगा कि मुझे इस विधा में आप जैसे मित्रों का बहुत सहारा प्राप्त हुआ और उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में भी आप सभी का आशीर्वाद मिलता ही रहेगा।

एक बात और जब बात खूसट बुढ्ढों की हो तो सुबह - सुबह के पार्क में उनके बीच तक़रार और प्यार मोहब्बत की बातों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। सुबह - सुबह की पार्क की एक्टिविटीज़ हमारे जैसे बुढ्ढों को जीने के लिए ऑक्सिजन देतीं हैं। 
चलिये तो आज हम देखें कि करवा के दिन 'खूसट बुढ्ढे' क्या करने वाले हैं.....

एस पी सिंह

एपिसोड 9

सभी लोगों को आज की चर्चा में शेखावत के विचार सुनकर अच्छा लगा और देवाशीष ने कहा, "चलिये, बस आज यहीं अपनी यह महफ़िल ख़त्म हुई लेकिन कुँवर साहब ने आज समां बांध दिया"

श्याम लाल ने देवाशीष मुखर्जी पर तंज कसते हुए कहा, "दादा, आपसे अधिक प्रेम विवाह के बारे में कोई क्या कह सकता है। आपकी और सुकन्या भाभी श्री की जोड़ी ख़ूब फबती है"

देवाशीष मुस्कुरा कर रह गए और मन ही मन सुकन्या को याद कर भगवान को धन्यवाद दिया कि वह उनकी ज़िंदगी में आई। श्याम लाल का शुक्रिया अदा करते हुए दादा यह न भूले कि श्याम लाल की बेग़म भी कोई कम हसीन नहीं। 

अय्यर कोई मौक़ा श्याम लाल की खिंचाई करने का नहीं छोड़ता था तो भला आज इस सुहानी सुबह में वह श्याम लाल को कैसे छोड़ता। उसने झट से कहा, "श्याम लाल कुछ भी कह पर तेरी ललाइन भी कम नहीं"

"तूने उसे कब देखा, श्यामलाल का सवाल

"भूल गया जब वह, तुझको देखने पार्क तक आ पहुंची थीं कि तू सुबह - सुबह इतने अंधेरे में किससे मिलने निकल जाता है”: अय्यर का पलटवार

अय्यर की बात सुनकर श्याम लाल अय्यर के पीछे दौडा पर तब तक अय्यर बहुत दूर जा चुका था। सरदार साहब ने अन्य दोस्तों के साथ उठते हुए कहा, "कुँवर साहब ने आज यह बता दिया कि दार्शनिक जीवन के हर उतार चढ़ाव में कुछ न कुछ समाज के लिये है बस उसे ढूंढ लेना आपके ऊपर निर्भर है। बहुत बढ़िया दृष्टांत"

माथुर साहब ने बलबंत को याद दिलाया कि आज शाम उसे समय से घर लौटना है। यह सुनकर सरदार साहब ने माथुर साहब से पूछा, "आज कोई ख़ास बात है"

"है न आज करवा चौथ जो है"

"ओहो अच्छा याद दिला दिया मैं तो भूल ही गया था"

"बीबियां कोई ऐसे ही थोड़े कहतीं हैं कि हमारे वो तो बहुत भुल्लकड़ हैं। अक़्सर ही बर्थडे, तो कभी एनीवर्सरी और कभी - कभी तो वो यह ही भूल जाते हैं कि उनके साथ भी कोई बाज़ार में है जो उनकी हरक़तों पर निग़ाह बनाये रहता है। करवा की तो बात ही न करो", माथुर साहब बोले, "गुरुविंदर के लिये बढ़िया सी गिफ़्ट लेकर ही घर लौटना। बलबंत एक बात तो बता क्या जसप्रीत भी करवा रखेगी"

"वह रख कर करेगी क्या? जसवीर तो जैसलमेर में है। वह अपना व्रत कैसे तोड़ेगी"

"तू कौन से ज़माने में रहता है। आजकल लोग मोबाईल पर वीडियो कॉल करके सब काम कर लेते हैं"

"माथुर साहब छोड़ो भी अभी वो बच्चे हैं जो करना चाहें करें हम बुढ्ढों को क्या"

शेखावत जो माथुर साहब और सरदार साहब की बातें बहुत ध्यान से सुन रहा था, "भाई जी डीडीएलजे को इस त्यौहार को इंटरनेशनल त्यौहार बनाने के लिये याद किया जाएगा। लंबे समय तक शाहरुख़ और तनुजा को याद रखा जाएगा'

देवाशीष भी बोल उठा, "बंगाल में भी कोई नहीं मनाता है। अब तो देखा देखी सुकन्या भी करवा का व्रत रखने लगी है"

शेखावत ने चुटकी लेते हुए कहा, "भाभी सा कौन सी बंगालिन हैं वह तो दिल्ली से हैं तो उन पर तो असर होना ही था"

"कुँवर सा आप बिलकुल सही कह रहे हैं। ख़रबूज़े को देखकर खरबूजा भी रंग बदल लेता है"

"आप लोग बहुत अच्छे हो जो जल्दी ही दूसरों की धार्मिक आस्थाओं को अपना लेते हो। हमारे राजस्थान के लोग इन सब मुआमलों में बड़े कट्टर होते हैं", शेखावत ने कहा।

राणा से भी चुप न रहा गया, "गिफ़्ट लेने के चक्कर में अब तो हमारे यहां भी यह त्यौहार जोर - शोर से मनाया जाने लगा है"

अय्यर ऐसे मौक़े पर भला चुप कैसे रहता उसने श्याम लाल की ओर देखा और पूछा, "लाला, तेरी ललाइन क्या करेगी तू तो यहां है"

"हम लोगों के यहां यह त्यौहार मनाने का चलन नहीं है इसलिए अय्यर तुझे चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं", अय्यर को जवाब देते हुए श्यामलाल ने कहा।

इससे पहले कि अय्यर और श्याम लाल में फिर कोई मुद्दा गरमा न जाये माथुर साहब ने चलते - चलते हुए कहा, "चलूँ मैं भी मृणालिनी से पूछूँ कि क्या मुझे भी व्रत रखना है"

सरदार साहब और माथुर साहब अपने सभी मित्रों को बॉय कह कर अपने रास्ते हो लिए। रास्ते में सरदार साहब ने माथुर साहब को बताया कि उन्हें कुछ रोज़ के लिए चंडीगढ़ जाना है। माथुर साहब ने लपक कर पूछ लिया, "कब जाना है"

"जाना तो जल्दी ही चाहता हूँ क्योंकि उसके बाद हमारे करोल बाग में काम बहुत बढ़ जाता है"

"तो इसमें सोचने की इतनी कौन सी बात है एक दिन अपनी कार से निकल जाओ। गुरुविंदर भी साथ जाएगी"

"हाँ, उसे भी जाना है"

"कोई खास बात नहीं। मौका आने पर बताऊंगा"

"आजकल वैसे भी जब दाल पक जाती है तभी कुछ बताता है।चल ठीक है कोई बात नहीं", माथुर साहब ने कहा और वह अपना घर आ जाने पर सरदार साहब को बॉय कह कर निकल लिए।

घर पहुंचते ही सरदार साहब ने गुरुविंदर से बात की और चंडीगढ़ चलने का प्रोग्राम फाइनल कर लिया। गुरुविंदर ने केवल इतना ही पूछा कि वहां कितने दिन का प्रोग्राम रहेगा। सरदार साहब ने यही कहा, "बस दो तीन दिन का। उससे ज्यादा का वहां कोई काम भी नहीं है"

"चलना कब है"

"कल सुबह दस बजे के आसपास ही निकल लेंगे जिससे लंच टाइम तक हम वहां पहुंच जाएं", सरदार साहब ने गुरुविंदर से कहा।

"आपने कुलविंदर को बोल दिया है"

"हाँ, बोल दिया भाग्यवान"

"दार जी के हालचाल भी पूछे थे या नहीं"

"पूछे थे उनकी हालत अभी वैसी ही है। कोई खास इम्प्रूवमेंट नहीं है"

गुरुविंदर ने सरदार साहब की बात पर कहा, "चलो अब तो वहां चल ही रहे हैं तभी देख लेंगे"

क्रमशः

एपिसोड 10

करवाचौथ की पूजा वग़ैरह करके सरदार साहब और गुरुविंदर कौर बाहर से डिनर करके देर रात में ही लौट सके। गुरुविंदर बहुत ख़ुश थी उसे अपने हाथों के लिए सोने के नए कड़े और चूड़ियों का सेट जो मिल गया था। गिफ्ट पाकर गुरविंदर सरदार साहब से बोली, "जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया। मेरे खाली - खाली हाथ अच्छे नहीं लगते थे और मैंने अपने वाले जसप्रीत को जो दे दिये थे"

"मैं भला तेरे दिल की बात भी नहीं समझ सकूँगा तो किसकी बात समझूँगा", कह कर सरदार साहब ने गुरुविंदर को अपने आगोश में भर लिया।

हर रोज़ की तरह सरदार साहब की सुबह पांच बजे हो गई। फ़्रेश होकर दाल चीनी वाली चाय पी तथा गुरुविंदर को पिलाई और सैर के लिए जब निकलने लगे तो गुरुविंदर ने टोकते हुए कहा, "अब थोड़ा देर से जाया करो जी अभी बहुत अंधेरा है"

"कोई फ़र्क नहीं पड़ता"

"मेरी कल इलाहाबाद में शर्मा जी से बात हो रही थी उन्होंने बताया कि एक रोज़ सुदेश जब वह सुबह -सुबह घूमने के लिए निकली थी तो बच्चों के स्कूल की वैन ने उन्हें धक्का मार दिया। उनकी बैक बोन में बहुत चोट आई है और डॉक्टर्स ने उनके ऑपरेशन की बात की है"

"यह तो बुरा हुआ। सुदेश की उम्र भी अब सतहत्तर साल से ऊपर ही होगी। इस उम्र में पता नहीं ऑपरेशन सफल रहता भी है या नहीं"

"उनका तो बुढापा ही ख़राब हो गया"
"गुरुविंदर मुझे याद दिला देना कि चंडीगढ़ निकलने के पहले मैं शर्मा जी से बात कर लूँगा", इतना कहकर सरदार साहब एक कुर्सी पर बैठकर उजाले का इंतजार करने लगे। जब बाहर कुछ लाइट हो गई तब वह घर से सैर के लिए निकले।

पार्क में पहुंचकर उन्होंने देखा तो माथुर साहब वहां पहले ही से अय्यर के साथ सैर कर रहे थे। माथुर साहब ने सरदार साहब से जब पूछा कि वह आज लेट कैसे हो गए तो सरदार साहब ने शैलेश की धर्मपत्नी के एक्सीडेंट वाली बात बताई। अय्यर ने सरदार साहब की बात सुनकर कहा, "अब हम लोगों की भी उम्र बढ़ रही है और दिल्ली में हरेक आदमी को जल्दी रहती है इसलिए खासतौर पर रोडसाइड पर सम्हल कर ही चलना चाहिए" 

माथुर साहब बोले, "मैं भी कल से छः बजे ही निकला करूँगा"

तीनों लोग जब पार्क के चार चक्कर लगा कर अपनी मंडली के मिलने वाली जगह पहुंचे तो देखा कि राणा, शेखावत, हनीफ़ मियां और मुखर्जी पहले ही से वहां मौजूद थे। राणा के हाथ में आज का हिंदुस्तान टाइम्स था और वह उसमें से पढ़कर सबको हरयाणा के चुनाव की बातें बता रहा था। माथुर साहब ने गुड मॉर्निंग कहते हुए राणा से पूछा, "आज की क्या ताज़ा ख़बर है"

"नेताओं का धुआँधार प्रचार। आज प्रधानमंत्री और गृहमंत्री मैदान में। चुनाव अबकी बार इकतरफा। विपक्ष रणनीति विहीन", राणा ने हेडलाइंस पढ़कर सुनाईं।

अय्यर ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "यह तो होना ही था"

"अबकी बार फिर से अपनी सरकार", शेखावत ने टिप्पणी करते हुए कहा।

"रिजल्ट पहले ही से जब आउट हो तो इम्तिहान देने का मज़ा ख़त्म हो जाता है", हनीफ़ मियां का कहना था।

"तो मियां आप क्या चाहते थे कि अबकी बार फिर बालाकोट हो उसके बाद चुनाव हो", अय्यर ने हनीफ़ मियां की ओर देखते हुए कहा।

"नहीं भला मैं क्यों यह चाहूँगा। मैं तो शुरू से ही अमन चैन का हिमायती रहा हूँ"

माथुर साहब ने चर्चा में जुड़ते हुए कहा, "मैं हनीफ़ मियां की इस बात से सहमत हूँ कि अमन चैन रहे वही अच्छा है"

जब यह लोग चर्चा कर ही रहे थे तब वहां एक टी वेंडर आ गया और बोला, "चाय, गरमा गरम चाय"

हनीफ़ मियां बोले, "पिला भाई सबको चाय मेरी तरफ से पिला"

जब वेंडर चाय प्लास्टिक के ग्लास में डाल रहा था तो अय्यर ने उससे कहा, "भाई यह प्लास्टिक के ग्लास में चाय देनी हो तो हमको कल से चाय नहीं देना", अय्यर ने जोर देकर कहा, "प्रधानमंत्री तो परेशान हैं कि देश में साफ सफाई रहे। जहाँ जाते हैं वहां ख़ुद साफ़ सफ़ाई में लग जाते हैं। फर्स्ट यूज़ ऑफ प्लास्टिक पर बैन लगाने तक की बातचीत चल रही है और एक यह लोग हैं कि प्लास्टिक को छोड़ना ही नहीं चाहते"

श्याम लाल ने अय्यर की बात पर चुटकी लेते हुए कहा, "तुम्हारे ख़यालात अपने प्रधानमंत्री जी से कितने अधिक मिलते जुलते हैं"

"लाला यह वक़्त की ज़रूरत है नहीं तो गंद इतना फैल जाएगा कि सम्हाले नहीं सम्हलेगा", अय्यर ने कहा।

सरदार साहब ने चाय वाले से पूछा, "चीनी तो चाय में ठीकठाक है"

"जी हुज़ूर मज़े की है"

श्याम लाल जो आज बिल्कुल चुपचाप बैठा हुआ था वेंडर की बात सुनकर बोल पड़ा, "जिसको शुगर हो वह चाय न ले। बाकी सबको दो भाई"

श्याम लाल की ओर देखते हुए अय्यर बोला, "हमको तो किसी को शुगर नहीं है, श्याम लाल तुम अपनी बात बताओ"

"अय्यर तुझे क्या लगता है कि मुझे शुगर है"
"लगता तो है"

"वह कैसे"

"वह ऐसे कि तू भाभी को नहीं झेल पाता है"

आज श्याम लाल भी मूड में थे तो उसने भी अय्यर की खिंचाई करते हुए कहा, "तुझे क्या भाभी ने बताया था"

अय्यर शरारत भरे स्वर में बोला, "वह तो जग ज़ाहिर है" 

श्याम लाल ने भी उसी अंदाज में अय्यर को जवाब दिया, "यह तो तू अपने घर जाकर पूछना तुझे सब पता लग जायेगा"

यह सुनकर अय्यर गुस्से में जोर से उठा और श्याम लाल की ओर बढ़ा जैसे कि वह आज उसकी ठुकाई कर ही देगा। अय्यर को इस तरह उठता देख सरदार साहब और माथुर साहब ने बीच वचाव करते हुए दोनों को समझाया कि वह ऐसा मज़ाक़ न किया करें जो एक दूसरे की ज़ाती ज़िंदगी से ताल्लुक रखता हो। श्याम लाल ने दोनों की बात सुनकर कहा, "सरदार साहब और माथुर साहब आप लोग खुद ही देख रहे हैं कि अय्यर कुछ दिनों से मेरे पीछे पड़ा है और उल्टी सीधी बात करता रहता है"

"चलो छोड़ो भी गरमागरम चाय का मज़ा लो", शेखावत ने बीच में पड़ते हुए कहा। शेखावत की बात सुनकर सभी लोगों ने चाय पी और जब बातचीत का माहौल कुछ ठीक हुआ तब राणा की ओर देखते हुए कहा, "राणा जी अबकी बार लगता है कि हरयाणा में जाट एकता फिर से फेल हो गई"

"शेखावत भाई जी लगता तो है। वैसे भी लड़ाके एक झंडे के नीचे कहाँ रहते हैं। एकता होती तो हिंदुस्तान पर कभी विदेशियों का शासन नहीं होता"

"लड़ाके जब लड़ेंगे नहीं तो उन्हें जानेगा कौन"
"आपस में तो न लड़ें भाई जी"

शेखावत ने राणा की ओर देखते हुए कहा, "यह तो मुमकिन नहीं"

माथुर साहब ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा, "विकास के सामने अब जातिवाद, क्षेत्रवाद दम तोड़ रहा है। राष्ट्र अब विकास देखना चाहता है कोई और वाद नहीं"

देबाशीष से रहा नहीं गया और वह बीच में बोल पड़ा, "कोई विकास इकास नहीं केवल बड़बोला पन चल रहा है। अबकी बार 370 और पाकिस्तान का नाम लेकर चुनाव जीतने की तैयारी है"

इसके बाद उन लोगों में हरयाणा के चुनाव को लेकर बहुत देर बात होती रही और जब घड़ी ने साढ़े आठ बजाए उसके बाद ही वे लोग अपने अपने घर की ओर चल पड़े। रास्ते में सरदार साहब ने माथुर साहब से कहा, "आज बेमतलब ही अय्यर और श्याम लाल में तमाशा खड़ा हो जाता वह तो अच्छा हुआ कि हम लोगों ने बीच बचाव करके उन्हें शांत किया"

"जब लोगों को मज़ाक़ बर्दास्त नहीं तो मज़ाक़ करते ही क्यों हैं अपनी अपनी सीमाओं में रहना चाहिए", माथुर साहब बोले। जब उनका घर पड़ा तो वह सरदार साहब से यह कहते हुए घर की ओर चले कि "बलबंत गाड़ी धीरे धीरे चलाना और चंडीगढ़ पहुंच कर एक बार फोन कर देना"

दिन भर सरदार साहब अपने डिपार्टमेंटल स्टोर के काम काज़ में लगे रहे। दिन में जब उन्हें मौका मिला तो जसवीर से बात की उसे बता भी दिया कि वह और गुरुविंदर दोनों कल चंडीगढ़ निकलेंगे। जसवीर ने सरदार साहब से कहा, "डैड आप घर ही जाकर रुकियेगा और अबकी बार आप होटल मैनेजर से खुल कर बात कर लीजिएगा"

"मैंने क्या कुलविंदर से कोई दुश्मनी लेनी है पुत्तर। लौटने पर तुझे सब बात बताऊँगा"

"पुत्तर जसप्रीत से मुलाक़ात हुई थी"

"जी नहीं डैड, वह तो बंगलूर वापस चली गई"

"कुछ हम लोगों के बारे में कह रही थी"

"डैड आपकी बहुत तारीफ़ कर रही थी"

"गुरुविंदर क्या उसे अच्छी नहीं लगी"

"नहीं डैड ऐसी तो कोई बात नहीं। जसप्रीत को मॉम बहुत पसंद है। वह कह रही थी कि उसकी और मॉम की खूब पटेगी"

"हम दोनों को भी जसप्रीत बड़ी सोहणी लगी"

"ओके डैड आल द बेस्ट"

"बॉय बॉय"

क्रमशः

एपिसोड 11

जब सुबह - सुबह खूसट बुढ्ढे मिले तो शेखावत वहां पहले ही से बेंच पर बैठ कर अख़बार पढ़ रहे थे। वह अख़बार में इतने मशगूल थे कि उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया कि सभी बुढ्ढे उनके पास आकर बैठ गए हैं। अय्यर ने शेखावत को छेड़ते हुए कहा, "शेखावत ऐसी कौन सी खबर देखने को मिल गई कि अगल - बगल का भी ख़्याल नहीं रहा"

"अगल - बगल का ख़्याल तो तुम रखते थे", शेखावत ने अय्यर की ओर देखते हुए कहा, "बबीता जी को ख़ूब निहारा करते थे"

बबीता जी के नाम को सुनकर सभी बुढ्ढों के कान खड़े हो गए और एक सुर में शेखावत से पूछने लगे, "यह बबीता जी कौन हैं जिन पर अय्यर की निग़ाह लगी रहती थी"

इससे पहले कि शेखावत कोई उत्तर देते श्याम लाल को लगा कि आज उसे अय्यर के खिलाफ एक बहुत अच्छा मुद्दा मिल गया इसलिए झट से पूछ बैठ, "बबीता जी, अय्यर यह किस चिड़िया का नाम है"

अय्यर कुछ भी कहता उससे पहले शेखावत ने मुस्कुराते हुए कहा, "बबीता जी अय्यर की प्राइवेट सेक्रेटरी हुआ करतीं थी"

"ओहो", श्याम लाल ने अय्यर की ओर देखते हुए पूछा, "अय्यर देखने में बबीता जी कैसी थीं, हम भी सुनें"

"लाला की औलाद, ठीक उन बबीता जी की तरह जिस पर जेठालाल जान छिड़कता है"
श्याम लाल कुछ कहता उससे पहले ही देवाशीष बोल उठे, "मुनमुन दत्ता, वह तो बंगाल से है"

"ठीक बंगाली रसगुल्ले की तरह दादा", हनीफ़ मियां ने कहते हुए चुटकी ली।

"बड़े मियां किसी दिन तुम्हारा भी चिठ्ठा खुलने वाला है जिसे तुम करांची का हलुआ खिलाते रहे हो", शेखावत ने हनीफ़ मियां छेड़ते कहा। हनीफ़ मियां यह सोचकर चुप रह गए कि मसखरे बुढ्ढे न जाने उनकी कौन सी पोल खोल दें। इन लोगो की बातें सुनकर माथुर और सरदार साहब मुस्कुराते रहे। 

राणा वैसे तो स्वभाव से बहुत रूखे क़िस्म के इंसान थे लेकिन जब बात बबीता जी की उठी तो वह भी चुप न रह सके और बोले, "मैं कोई दूसरा शो देखूँ , या न देखूँ 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा शो' ज़रूर देखता हूँ"

श्याम लाल ने राणा की ओर देखकर मज़ाक़ में कहा, "लगता है राणा जी का भी बबीता जी पर दिल आ गया है"

राणा ने भी उसी मूड में जवाब देते हुए कहा, "चीज ही ऐसी है कि किसी का भी दिल मचल जाए" 

यही है अधिकतर दर्शकों का अन्तिम सच !!! "खूसट-बुढ्ढे” की तरह कमाल के पात्र हैं 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' में भी...

माथुर साहब ने सबको रोकते हुए बोला, "कुँवर साहब यह तो बताओ कि फिर अय्यर की बबीता जी का क्या हुआ"
अय्यर कुछ भी नहीं कह पा रहा था पर शेखावत ने बबीता जी के बारे में बताते हुए कहा, "माथुर साहब, दरअसल हमारे पुरातत्व विभाग में जितना भी स्टाफ था वह वही पुराने किलों और हवेलियों की तरह दिखने वाला था। अय्यर ने अपने समय में बहुत लिख लिखा के सरकार से कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर एक पीएस पोस्ट सैंक्शन करवाई थी। उसी पोस्ट पर यह बबीता जी की पोस्टिंग हुई थी"

"शेखावत अब तुम यह भी बताने का कष्ट करो कि बबीता जी आजकल किसके साथ हैं", अय्यर ने शेखावत से पूछा।

"अय्यर जब रिटायर हो गए तब अय्यर का चार्ज मुझे मिल गया और तभी से बबीता जी मेरे साथ है"
"वाह फिर तो अच्छी कट रही होगी", अय्यर ने भी मज़ाक़ में कहा।

"अय्यर अगर तुम्हारी अच्छी कटी हो तो मेरी भी अच्छी कट रही है यह कहा जा सकता है"

शेखावत की बात पर अय्यर तो कुछ न बोला लेकिन श्याम लाल को एक मौका मिल गया और अय्यर की खिंचाई करते हुए बोला, "अय्यर नौकरी में ख़ूब ऐश किये हो यह बात भाभी श्री को पता है कि नहीं"

"लाले हम कोई भी काम पर्दे के पीछे नहीं करते तुम्हारी तरह । 
बबीता तो हमारे घर भी आतीं रहतीं थीं और मेरी श्रीमती जी हमेशा उससे यही कहतीं कि घर में वह और ऑफिस में बबीता जी अय्यर को घेरे रहतीं हैं। बबीता यह सुनकर ख़ूब हंसती थी"

श्याम लाल से रहा नहीं गया और उसने शेखावत से कहा, "कुँवर साहब एक दिन हमारी भी मुलाकात तो करा दो यार"

"ललाइन से तबियत भर गई क्या, जो इधर - उधर मुंह मारा करते हो इसीलिए भाभी श्री श्याम लाल तुम्हारे पीछे डंडा लेकर पड़ी रहतीं हैं", अय्यर की इस बात पर सभी दोस्त खिलखिला कर हंस उठे। 
सरदार साहब को लगा कि कहीं अय्यर और श्याम लाल में पहले जैसी कोई घटना न हो जाये इस इरादे से उन्होंने शेखावत से पूछा, "कुँवर साहब इतना तो बता दो हम लोगों के आने के पहले वह कौन सी ख़बर पढ़ रहे थे कि हमारे आने का एहसास भी नहीं हुआ"

"क्या बताऊँ सरदार साहब आजकल के लड़के लड़कियां फ़ैशन के इस दौर से गुज़र रहे हैं कि उन्हें होश ही नहीं रहता कि वह क्या कर रहे हैं"

"क्या हो गया"
"सरदार साहब मैं अख़बार की उस न्यूज़ को पढ़ रहा था जिसमें एक कपल लिव इन रिलेशनशिप में साथ रह रहा था और बकौल पुलिस उन दोनों के बीच अपनी - अपनी प्रोफेशनल लाइफ के टेंशन्स तो थे ही लेकिन गर्ल फ्रेंड को शक़ यह भी था कि उसका बॉय फ्रेंड किसी और लड़की से भी रिलेशनशिप में था। इसी बात लेकर दोनो में देर रात लड़ाई हुई दोनों ने ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली"

"कहाँ का किस्सा है", माथुर साहब ने पूछा।

"जी ग्रेटर कैलाश फेज टू का"

माथुर साहब बोल उठे, "मेरा एक घर ग्रेटर कैलाश फेज टू में भी और उसमें एक किराएदार ऐसा भी जिसने यह कह कर दो बेडरूम का सेट कियाए पर लिया था कि वे लोग लिव इन रिलेशनशिप में हैं और बहुत जल्दी शादी करने वाले हैं"

माथुर साहब की बात सुनते ही राणा ने माथुर साहब से कहा, "चेक करिये सर कहीं यह केस उन्हीं का न हो" 

इसके लिए पुलिस को आनलाईन सूचित करके भी सब तहकीकात की जाने की नई सरकार ने आम जनता को सुविधा उपलब्ध करा दी है .

"राणा तुम भी अजीब बात करते हो अगर केस उन दोनों का होता तो अभी तक तो पुलिस का फ़ोन माथुर साहब पर आ चुका होता", सरदार साहब ने कहा।

शेखावत ने यह कह कर सबको चौंका दिया, "माथुर साहब आपने मकान देते समय उनसे इस बात की तहकीकात कर ली थी कि वे जेन्युइन पार्टनर हैं"

"हाँ भाई हाँ। बाकायदा उनके आधार कार्ड की कॉपी भी मेरे पास है और एग्रीमेंट में इस बात का ज़िक्र भी है कि वे दोनों लिव इन रिलेशनशिप में हैं"

"चलिये तब कोई कॉम्प्लिकेशन नहीं है"

इसके बाद बुढ्ढों के बीच एक दम शांति हो गई। कुछ देर बाद शेखावत ने ही यह कहकर शांति भंग की, "हमारी आजकल की पीढ़ी बहुत जल्दी में पश्चिमी देशों की सभ्यताओं को अपना लेतीं हैं जिसकी वजह से ऐसी घटनाएं होतीं रहतीं है"

अय्यर से रुका नहीं गया और उसने कहा, "लोगों की अपनी - अपनी सोच लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप में पश्चिमी देशों की इस बात के लिए तारीफ़ करता हूँ कि वे जीवन को जीवंतता से जीते हैं"

कुछ देर रुकने के बाद अपनी बात में वजन लाने के लिए अय्यर ने कहा, "जो लोग इंडिविजुअल ज़िंदगी जीना चाहते हों उनके लिए लिव इन रिलेशनशिप से बढ़िया कुछ और हो ही नहीं सकता"
अय्यर के विचार जानकर राणा से रहा नहीँ गया और अय्यर से बोला, "मिस्टर अय्यर मैं आपसे इत्तेफाक नहीं रखता लेकिन एक बात तुम्हारी ज़रूर मानूँगा कि जो लोग अपनी ज़िंदगी का रिमोट किसी और के हाथ नहीं देना चाहते हों उनका अकेले रहना ही बेहतर है"

अय्यर ने जब हंसते हुए यह कहा, "राणा जी जब कोई कुछ दिन के लिए कपड़े बदल - बदल कर रहना चाहे तो कोई क्या करे"

"आराम से वह कपड़े उतार कर अपने घर में रहे"

"मेरा मतलब वह नहीं था मैं यह कहना चाह रहा था कि जब कोई लाइफ पार्टनर बदल - बदल कर रहना चाहे तो वह क्या करे"

"मिस्टर अय्यर भारतीय सभ्यता के अपने रंग हैं जो किसी के चाहने भर से हल्के नहीं पड़ सकते। मेरा विश्वास है कि हमें अपने समाज के कानून कायदों को मानते हुए ही चलना चाहिए" राणा ने कहा...

देवाशीष जो अक्सर चुप ही रहते थे राणा की बात से सहमत नहीं थे और उन्होंने अपना विरोध दर्ज कराते हुए कहा, "राणा जी प्रेम सर्वोपरि है मेरा ऐसा मानना है। अगर दो प्राणी एक दूसरे से आपस में प्रेम करते हैं तो वे चाहे किसी भी प्रकार का जीवन जीने के लिए स्वतंत्र हैं"
"देवाशीष बाबू आप तो यह कहेंगे ही क्योंकि अपने स्वयं प्रेम विवाह किया है", राणा ने उत्तर देते हुए कहा।

ओशो भक्त शेखावत ने प्रेम को परिभाषित करते हुए कहा...

"प्रेम: ओशो ने हमेशा यह कहा कि प्रेम करो खुल कर करो। एक दूसरे के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की भावना से करो। अगर आप सब लोग मेरी बात सुनने के मूड में हों तो मैं एक दृष्टांत सुनाना चाहता हूँ फिर आप लोग स्वयं निर्णय करें कि क्या सही व क्या ग़लत"

'प्रेम का लक्षण यह है ! जब तक न मिले तब तक तुम्हें पता ही नहीं कि प्रेम क्या है? जब मिलता है तब बढ़ता है। प्रेमी पात्र जैसे ही मिलता है वैसे ही बढ़ता जाता है। प्रेम सदा दूज का चांद है, पूर्णिमा का चांद कभी होता ही नहीं, बढ़ता ही रहता है। ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जब घटे! 

प्रेम सतत वर्द्धमान, सतत विकासमान है, सतत गतिमान है! कहीं ठहरता ही नहीं, प्रवाहरूप है। प्रतिक्षण बढ़ता है, विच्छेद-रहित है। विच्छेद कभी होता ही नहीं। मिलन हुआ? सदा को हुआ। मिलन हुआ? शाश्वत हुआ। जब तक मिलन नहीं हुआ! तब तक विच्छेद है, मिलन होते ही फिर कोई विच्छेद नहीं, प्रेम सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, प्रेम से ज्यादा सूक्ष्म और कुछ भी नहीं, प्रेम शून्य का संगीत है..!!'

क्रमशः

एपिसोड 12

सरदार साहब और गुरुविंदर ब्रेकफास्ट करके चंडीगढ़ के लिए निकल पड़े। चंडीगढ़ पहुंचते ही उन्होंने सबसे पहले माथुर साहब को फोन किया और बताया, "माथुर साहब हम लोग चंडीगढ़ सही सलामत पहुंच गए हैं"

"बहुत सुंदर, वापस आने के पहले मुझे फ़ोन कर लेना"

"ज़रूर माथुर साहब। उम्मीद है कि कल शाम तक हम लोग दिल्ली वापस पहुंच जाएंगे"

"अपने सारे काम निपटाने के बाद ही आना"

"जी माथुर साहब", सरदार साहब ने कहा, "अब - जब हम चंडीगढ़ आ ही गए हैं तो सारे काम निपटा कर ही निकलेंगे। शाम को आपसे फिर बात करूंगा"

"ठीक है", कहकर माथुर साहब ने कॉल डिस्कनैक्ट किया।

देवाशीष जब अपने घर पहुंचे तो सुकन्या उनका इंतज़ार ही कर रहीं थीं। जाते ही एक कप अदरख वाली चाय देवाशीष की ओर बढ़ाई और बोलीं, "आज कुछ देर हो गई"

"हाँ, आज कुछ बात ही ऐसी छिड़ गईं कि देर हो गई"

"ऐसी क्या बात हो गई"

सुकन्या के प्रश्न के उत्तर में देवाशीष ने सुकन्या को वह सब बताया जो शेखावत ने कहा था। शेखावत की बात का जवाब देते हुए सुकन्या बोलीं, "शेखावत भाई साहब के पास प्रेम और प्रेमारूप, स्त्री एवम वासना और भी न जाने ऐसे ही कई और विषयों पर खज़ाना भरा पड़ा है"

"कुछ भी हो जब आज हम दोनों के प्रेम की बात हुई तो मैं तो अपने जवानी की यादों में खो गया। वो भी क्या दिन थे..."

"छोड़ो भी अपने दिनों की बात अब अपनी बिटिया रानी बड़ी हो गई है कभी उसकी भी चिंता कर लिया करो"

"शर्मिष्ठा को क्या हुआ"

"शर्मिष्ठा को क्या होना है। मैं यह कह रही हूँ कि अब वह बड़ी हो गई है मतलब उसकी शादी की चिंता किया करो"

हंसकर सुकन्या का हाथ अपने हाथ में लेकर देवाशीष ने कहा, "मुझे अपनी जिम्मेदारियों का पूरा अहसास है लेकिन सबसे पहले मैं यह चाहूँगा कि वह अपने जीवनसाथी का चुनाव स्वयं करे जैसे कि हमने व तुमने किया। अगर ऐसा नहीं होता है तब मैं उसके लिए उचित वर अवश्य तलाश करूँगा। अभी वह है कहाँ"

"कॉलेज जाने की तैयारी कर रही है"

"उससे कहना कॉलेज जाने के पहले वह मुझसे मिलकर जाएगी"

सुकन्या ने देवाशीष की बात सुनी और नाश्ते की तैयारी के लिए वह किचेन की ओर जाने लगी। देवाशीष ने अख़बार उठाया और पन्ने पलट कर देखने लगे कि कोई सरकारी टेंडर प्रिंटिंग के काम का निकला है या नहीं। शर्मिष्ठा तैयार होकर जब कॉलेज के लिए निकलने लगी तो सुकन्या के कहे अनुसार अपने पिताश्री देवाशीष के पास आई और बोली, "क्या बात है दादू"

"कुछ भी नहीं देखना चाहता था कि मेरी बेटी कितनी बड़ी हो गई है"

"पाँच फीट पाँच इंच और कितनी बड़ी होना है'

देवाशीष और सुकन्या दोनों ही शर्मिष्ठा की बात सुनकर खिलखिलाकर हंस पड़े। देवाशीष ने शर्मिष्ठा को अपने सीने से लगाया और कहा, "मैं तो चाहता हूँ कि तू छह फ़ीट की हो जाये"

"जिससे किसी को पसंद भी न आऊँ और सब चिढ़ाते हुए कहें कि आ गई ताड़ का पेड़"

"शर्मिष्ठा यह बता तुझे क्या कोई पसंद करने लगा है, हम लोग उसके घरवालों से बात कर लेंगे"

"दादू........आप भी"

सुकन्या ने प्यार से थपकी देते हुए कहा, "जा कॉलेज जा नहीं तो लेट हो जाएगी'

"आप चिंता नहीं करो। आइरा, मेट्रो स्टेशन पर मेरा इंतज़ार करती मिलेगी"

आइरा, हनीफ़ मियां की इकलौती संतान थी। शर्मिष्ठा और आइरा दोनों ही किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाई कर रही थीं। वे दोनों घर से निकलकर मेट्रो स्टेशन जातीं और फिर वहां से साथ - साथ कॉलेज आतीं जातीं थीं। हनीफ़ मियां अक़्सर ही अपनी बेग़म सादिया से कहा करते थे, "आइरा की मुझे कोई चिंता नहीं है क्योंकि उसके साथ एक मज़बूत इरादों और साफ सुथरे दिल वाली देवाशीष बाबू की लड़की जो रहती है"

"पता नहीं आप इतना आराम से रह लेते हैं लेकिन जब आइरा घर से बाहर होती है तो मेरे दिल की धड़कनें तेज़ रहतीं हैं। जब वह घर वापस आ जाती है तभी सांस में सांस आती है"

"बेग़म इतनी भी परेशान न हुआ करो। हम लोगों का ज़माना दूसरा था जो थोड़ा बहुत पढ़ लिख कर काम चल गया। अब बच्चे अगर पढ़ेंगे लिखेंगे नहीं तो काम चलने वाला नहीं"

"अाये हाय, तो हमने कब आइरा के पढ़ने लिखने पर कोई पाबंदी लगाई। बस डर यह लगा रहता है कि वह घर से निकल कर इतना दूर जाती है और रास्ते में दिल्ली शहर में मजनुओं की भरमार जो है"

"बेग़म घर से निकलकर इतनी दूर जाकर पढ़ने जाना भी अपने आप में एक ट्रेनिंग है कि दीन दुनियां में कैसे आगे बढ़ना है। दिल्ली की पुलिस बहुत सख़्त है और मेट्रो में भी लेडीज़ कोच अलग है इसलिए मुझे तो कोई चिंता नहीं रहती। वैसे भी देवाशीष बाबू की बिटिया भी तो इसके संग रहती है"

"हाँ, यह बात तो है। आइरा और शर्मिष्ठा साथ - साथ ही आती जातीं हैं'

हनीफ़ मियां ने सादिया बेग़म से पूछा, "आज शाम को मुझे श्रीनगर जाना है तो मेरे कपड़े - सपड़े तैयार कर देना"

"मुझे याद है आप फ़िक्र न करें। श्रीनगर में तो यहां के मुक़ाबिल और भी सर्दी होगी इसलिए मैंने सर्दियों के लिहाज़ से आपके कपड़े निकाल दिए हैं"

कुछ देर बाद हनीफ़ मियां खा पीकर घर से फ़तेहपुरी के लिए निकल लिये जहां उन्हें अपनी दुकान का काम तो देखना ही था बल्कि श्रीनगर में जाकर क्या - क्या ख़रीद फ़रोख्त करनी है उसकी भी लिस्ट फाइनल करनी थी।

शाम के वक़्त जब हनीफ़ मियां श्रीनगर के लिए निकलने लगे तो सादिया बेग़म ने उन्हें याद दिलाते हुए कहा, "वैसे तो राजबाग़ में अपना कहलाने लायक अब कुछ भी नहीं रह गया है फिर भी एक बार वहाँ का चक्कर तो लगा ही लेना। होटल के काम की भी पूरी जानकारी कर लेना"

"बेग़म तुमको कैसे लगा कि मैं श्रीनगर जाऊं और राजबाग़ न जाऊं। राजबाग़ में तो हमारी रूह बसती है"

"क्या खूबसूरत वक़्त था जब हम वहां भाई जान और भाभी जान के साथ हंसी ख़ुशी रहते थे", बेग़म सादिया ने हनीफ़ मियां से कहा।

"भाई जान बने रहते तो हम आज भी हमेशा की तरह उनके यहां ही जाकर रुकते। हामिदा भाभीजान के हाथों का बनी हुई बिरयानी खाते। अज़रा के हाथ का बना कहवा पीते। अल्लाह की नज़र एक बार टेढ़ी क्या हुई कि एक ही धमाके में सब कुछ ख़त्म हो गया", कहते - कहते हनीफ़ मियां की आंखों में आंसू झलक आये।

क्रमशः

एपिसोड 13

'खूसट बुढ्ढे' ग्रुप के लोंगो में चाहे जितनी नोंक झौंक होती हो पर अगर एक भी बुढ्ढा सुबह की मजलिस में नहीं रहता तो उसके बारे में फ़िक्र सबको होती। जब सुबह सरदार साहब, हनीफ़ मियां और शेखावत नहीं आये तो अय्यर ने माथुर साहब से पूछा, "क्या बात आज सरदार साहब नहीं दिखाई दे रहे हैं"

"वह आज चंडीगढ़ गए हुए हैं"

"कोई खास बात"

"वह तो पता नहीं, कह रहा था कुछ काम है कल शाम तक लौट आएगा"

देवाशीष ने लतीफ़ मियां के बारे में और राणा ने शेखावत के बारे में पूछताछ की। लतीफ़ मियां तो राणा को बता के गए थे इसलिए राणा ने उनके बारे में बता दिया कि मियां तो श्रीनगर गए हैं। शेखावत का तो कोई प्रोग्राम था नहीं। राणा ने अय्यर से कहा, "शेखावत को फोन करके पता तो करो"

जैसे ही अय्यर ने शेखावत को फ़ोन करने के लिए मोबाइल निकाला उसी समय शेखावत सामने से आते दिखे तो राणा ने अय्यर को रोकते हुए कहा, "अय्यर भाई रहने दो वह सामने से आ रहे हैं"

अय्यर ने शेखावत के आते ही पूछा, "कहाँ रह गए थे कुँवर साहब? क्या बबीता जी मिल गईं थीं"

"सुबह - सुबह बबीता जी...... इतना जल्दी तो वह कभी तैयार नहीं हो सकतीं, उनको तो मेकअप के लिए ही घंटा से ऊपर चाहिए, उनसे तो मिलने का सवाल ही नहीं उठता", शेखावत ने उत्तर में कहा और बैंच के एक किनारे आराम से बैठ गए। लोगों में इधर उधर की बातें होने लगीं। 

शेखावत जो बहुत देर से चुपचाप बैठे हुए थे, श्याम लाल को एक स्पोर्टिंग आउट फिट पहने हुए सुगठित शरीर की एक खूबसूरत  महिला की ओर बहुत देर तक नज़रें गढ़ाए हुए देखते पकड़ लिया। वह महिला जो हर रोज़ पार्क में सैर करने आती और बाद में कुछ फिजिकल एक्सरसाइजेज भी करती थी। शेखावत स्वयं को यह कहने से रोक नहीं पाए कि '''दृष्टिभाव' शरीर के 'सौंदर्य' से जुड़े हुए हैं या शरीर की 'कामवासना' से जुड़े हुए हैं !! सबको अपने आंकलन फल परिणाम उपलब्ध होते हैं। हरेक की जैसी दृष्टि उसकी वैसी सृष्टि हर समय उपलब्ध है। पेड़ और लता के प्राकृतिक स्वभाव में अंतर होता है। 'नारी' सृष्टि के सौंदर्य-रुपी 'लता' है"

अय्यर ने शेखावत से पूछा, "क्या हो गया कुँवर साहब लगता है आप बहुत गहन सोच में हैं"

"नहीं मैं वह देख पा रहा हूँ जो दूसरे लोग नहीं देख पा रहे हैं", यह कहकर शेखावत ने भी अपनी निग़ाह उस महिला की ओर कर ली। शेखावत ने उस महिला की ओर क्या देखा सभी खूसट बुढ्ढों की निग़ाह उस ओर हो गई। उस महिला के पीछे - पीछे तीन नवयुवक उधर की ओर बढ़े, उससे कुछ बात की और वे सब उस महिला के साथ मिलकर एक्सरसाइज़ करने लगे। खूसट बुढ्ढों को लगा कि वे नवयुवक उस महिला के जान पहचान के होंगे। सभी की निग़ाह उधर ही जमी रही जब वह महिला एक्सरसाइज़ कर के पार्क से बाहर जाने लगी तो सभी नवयुवकों ने झुक कर उसे नमस्कार किया।

अय्यर से यह सब देखकर जब रहा नहीं गया तो वह शेखावत से पूछ बैठा, "हे गुरुवर यह बताने का कष्ट करें कि कुछ समय पहले नारी को सृष्टि सौंदर्य रूपी लता क्यों कहा था और आपका इसके पीछे क्या आशय था"

शेखावत ने भी अय्यर की भाषा में ही जवाब देते हुए कहा, "वत्स सुनना ही चाहते हो तो सुनो। हमारे बीच से जब मैंने एक मित्र की निग़ाह उस स्त्री के ऊपर लगी देखी तो मुझे एहसास हुआ कि मित्र की निग़ाह प्रेमवृत नहीं थी बल्कि उनकी 'दृष्टिभाव' शरीर के 'सौंदर्य' से जुड़े हुई थी या शरीर की 'कामवासना' से जुड़ी हुई थी इसलिए मैंने कहा कि नारी सृष्टि रूपी लता है और हम सभी को उसे उसी दृष्टि से देखना चाहिए"

"प्रभु इतना और बता दीजिए कि हम में से वह महात्मन कौन थे"

शेखावत ने अय्यर के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा, "मैं उनका नाम लेना उचित नहीं समझता लेकिन मैं जिन महात्मन की ओर इशारा करने को कोशिश कर रहा हूँ वह मेरा आशय समझ गए हैं मैं ऐसा जान पा रहा हूँ"

शेखावत की कटाक्षपूर्ण भाषा का असर यह हुआ कि श्याम लाल इधर उधर देखने लगा। अय्यर की निग़ाह भी श्याम लाल पर लगी हुई थी वह यह समझ गया कि आज जो दृष्टांत शेखावत ने उसी को इंगित करते हुए कहा है पर कोई बेसबब ही झँझट न हो उसने चुप रहना ही बेहतर समझा। 

देवाशीष भी विषय की गंभीरता को समझ रहे थे इसलिए उन्होंने चर्चा का रुख बदलने के भाव से शेखावत से कहा, "कुँवर साहब आज मौसम कितना सुहावना है, धूप खिली हुई है, पक्षी चहचहा रहे हैंमंद - मंद हवा बह रही है इसे देखते हुए कृपया यह बताने का कष्ट करें कि घोर सर्दी पड़ने में अभी कितनी देर और है"

शेखावत ने देवाशीष की ओर देखते हुए कहा, "मौसम विभाग की विज्ञप्ति में दिल्ली के मौसम की जानकारी उपलब्ध है, मेरे मित्र। मैं तो केवल इतना जानता हूँ कि यह सुहावना मौसम कुछ ही दिनों का मेहमान और है"

"वह क्यों"

"इसलिए कि जैसे ही हरयाणा और पंजाब के किसान पराली जलाने लगेंगे। दिल्ली में पॉल्युशन बढ़ने लगेगा।"

राणा ने शेखावत के हाथ से अख़बार लेते हुए कहा, "महाराज इस अख़बार की खबर अनुसार तो कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि इस वर्ष हमारी दिल्ली में पॉल्युशन की कोई भयंकर स्थित नहीं आने वाली है, जैसा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री जी ने अपनी वाहवाही करते हुए यह विज्ञापन दिया है कि दिल्ली सरकार के अथक प्रयासों के कारण 'अबकी बार नहीं होगी पॉल्युशन की मार', इसी कड़ी में चार नवंबर से ऑड-ईवन की योजना भी लागू होनी है"

शेखावत ने राणा को उत्तर में बताया, "आजकल ही नहीं पिछले पांच सालों से देश में एक अजब सी चीज हुई है कि नेता अब अपनी सफलता के गुणगान स्वयं करने लगे हैं। एक दाढ़ी मूछ वाले नेता तो इस क़दर अखबारों में छाए रहते हैं कि अब तो उनके चेहरे से भी ऊब होने लगी है"

"सभी के सभी नेता इस धंधे में हैं कोई एक दूसरे से भिन्न नहीं। दिल्ली के मुख्यमंत्री कौन सी अलग दुनियां से आये हैं वह भी पब्लिक फंड्स का इस्तेमाल कर दिनरात रेडियो और टीवी पर विज्ञापन देकर चुनाव की तैयारी में लगे हुए हैं"

देवाशीष ने अपनी बात रखते हुए कहा, "कोई यह नहीं मान रहा है कि यह सब दुख बढ़ती हुई आबादी की वजह से हैं"

"मानते तो सब है लेकिन उस दिशा में कोई काम कुछ नहीं करना चाहता है"
माथुर साहब जो आज एकदम बिल्कुल चुपचाप थे सभी को लगा कि सरदार साहब नहीं है इसलिए वह चुप हैं बोल उठे, "देखो भाई ज़माने की बात हम क्यों करें हमारे 'खूसट बुढ्ढे' ग्रुप में किसी की भी दो से अधिक संतान नहीं हैं"

अय्यर ने भी चुटकी लेते हुए कहा, "....और किसी की क्या कहें यहां तक अपने लतीफ़ मियां के घर भी बस एक बच्ची है"

राणा ने भी मैदान में कूदते हुए कहा, "उनके यहां जिनको लोग हिंदुस्तान की आबादी के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं"

"सभी समझदार और राष्ट्रभक्त लोग जो हैं", माथुर साहब ने अपनी ओर से कहा।

देवाशीष भी कहाँ पीछे रेहने वाले थे, "देखो भाई हमारे यहां भी बस एक ही बच्ची है"

"दादा मालूम है, सबको मालूम है। हमारे यहां तो कोई भी नहीं....", कहने को तो अय्यर कह गया लेकिन इसके बाद ही उसके चेहरे पर एक ग़म की लहर दौड़ गई। माथुर साहब की पैनी नज़र से अय्यर इस बात को छुपा न सका। उसकी यह हालत देख माथुर साहब ने उठकर उसकी पीठ पर हाथ रखा और बोले, "चलो भाई आज की महफिल ख़त्म"

अय्यर को अपने साथ ले जाते हुए माथुर साहब ने अय्यर से कहा, "जल्दी में न हो तो आज हमारे साथ चलो कुछ वक़्त हमारे साथ भी गुजारो"
क्रमशः

एपिसोड 14

अय्यर को साथ ले माथुर साहब जब अपने घर पहुंचे तो मिसेज़ माथुर ने उनका अभिवादन 'वणक्कम' कह कर किया। अय्यर ने भी मिसेज़ मृणालिनी माथुर को 'नमस्कार भाभी जी' कहकर उनका धन्यवाद किया। जैसे ही माथुर साहब और अय्यर बरामदे में पड़ी चेयर्स पर बैठे मिसेज़ माथुर ने माथुर साहब को बताया, "अभी कुछ देर पहले ही मानवी का फोन आया था"

"क्या कह रही थी"

"एक खुशखबरी है ...."

"मानवी दिल्ली आ रही है"

माथुर साहब ने पूछा "कब"।

"पचीस की शाम यूनाइटेड एयरलाइन्स की फ्लाइट से"

"इसका मतलब अबकी बार बहुत दिनों बाद हमारे यहां दीवाली बच्चों के साथ मनाई जाएगी", माथुर साहब ने मृणालिनी से कहा।

"मैं सोचती हूँ कि छोटी दिवाली वाले दिन अबकी बार आपके दोस्तों के बच्चों को बुलाकर मानवी से मिलवाया जाए। बहुत दिन हुए बच्चे कभी साथ बैठे ही नहीं। इसी बहाने से हम लोगों का भी कुछ वक़्त अच्छा गुजरेगा"

"मैं अपने ग्रुप में पता करता हूँ कि किस - किस के बच्चे दीवाली पर दिल्ली में रहेंगे", अय्यर के चेहरे की पीर, एक बार फिर से अय्यर चेहरे पर साफ - साफ दिखाईं पड़ रहीं थीं, औलाद न होने का ग़म होता ही है घुन जैसा, जो भीतर ही भीतर खोखला कर देता है। माथुर साहब ने अय्यर के चेहरे के भाव पढ़ते हुए मृणालिनी से कहा, " भई कुछ नाश्ता कराओ पेट में चूहें कूद रहे हैं"

"क्या लेना पसंद करेंगे" मृणालिनी ने पूछा 
"अय्यर से पूछ लो ना, हम तो हर रोज़ तुम्हारे हाथ का बना हुआ खाते ही हैं"

अय्यर ने माथुर साहब की बात सुनकर मिसेज़ माथुर से कहा, "रहने भी दीजिये भाभी जी आप बस एक कप कॉफी पिला दीजिये"

"अय्यर भाई साहब आज मैंने वैसे इडली-सांभर की तैयारी कर रखी है। कुछ देर लगेगी आज आप हमारे हाथ की बनी हुई इडली- सांभर टेस्ट करिये चाहे वह भले ही कामेश्वरी अय्यर के हाथों जैसी बनीं हुई न हों"

"हो जाये आज, अय्यर एक दम फ्री है, कुछ देर भी हो जायेगी तो कोई बात नहीं", माथुर साहब ने कहा।

अय्यर कुछ बोला तो नहीं पर अपनी जेब से मोबाइल निकाल कर उसने कामेश्वरी को फोन करके यह बता दिया कि वह अभी माथुर साहब के घर पर है और ब्रेकफास्ट करने के बाद ही घर पहुंच सकेगा।

"ज़िंदगी की इन उदास राहों में
तू अकेला ही नहीं कई और भी हैं
बस देखे नहीं किसी ने ग़म उनके
ग़म अपने, जब बड़े इतने लगते हैं"

माथुर साहब ने एक स्वतः रचित कविता की जब चंद पंक्तियां सुनाईं तो अय्यर ने उनकी ओर इस तरह देखा कि उन्हें कोई अपना हम दम मिल गया हो। 
माथुर साहब भी चाहते थे कि आज अय्यर कुछ बोले तो उसकी पीर का सही अंदाज़ हो। 

उन्हें हमेशा से लगता कि अय्यर वह नहीं जो ऊपरी तौर पर दिखता है। अय्यर बहुत कुछ भीतर ही भीतर लेकर जी रहा है। माथुर साहब बस टकटकी लगाए उसकी ओर देखते रहे। अय्यर से जब नहीं सहा गया तो बोल पड़ा, "माथुर साहब आप ऐसे क्यों देख रहे हैं"
"कुछ कहो अय्यर कुछ तो कहो"

बहुत देर बाद आखिर अय्यर ने कहा, "माथुर साहब जान रहा हूँ कि आप क्या जानना चाह रहे हैं। मैंने अपने दर्द को अपने  हृदय तक ही सीमित रखा। किसी के सामने मैंने कभी कुछ नहीं कहा"

"अपना दर्द अपना नहीं रहता अगर किसी हमदम के साथ बांट लिया जाए"

"माथुर साहब संतान प्राप्ति के लिये हम कहाँ - कहाँ नहीं गए। 

“मंदिर-मंदिर, मस्ज़िद-मस्ज़िद, गुरुद्वारे-गुरुद्वारे, चर्च-चर्च, पीर-पीर लेकिन जब हमारी प्रार्थनाएं किसी ने न सुनी तो हमने अपने छोटे भाई की एक बेटी को गोद ले लिया। हम बदकिस्मत इतने थे कि एक साल में ही वह बच्ची भी बीमार हालत में चल बसी। तब से हमारी आस ही टूट गई। हमारी धर्मपत्नी रिटायरमेंट के बाद मदुरै जाना चाहती थी लेकिन मैं नहीं चाहता था कि हमारे अपने ही रिश्तेदार उससे कभी कोई ऐसी बात कह दें जो हमें नागवार लगे इसलिए हम दिल्ली में ही रह गए"

माथुर साहब ने बड़प्पन दिखाते हुए थे अय्यर को अपने सीने से लगाया और ढाँढस बंधाया और कहा, "अय्यर ऊपर वाले कि मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं होता, इसलिए यह मानकर चलो कि संतान सुख तुम्हारे दाम्पत्य जीवन में नहीं था"

अभी वे दोनों बातचीत कर ही रहे थे कि डाइनिंग टेबल पर मिसेज़ माथुर ने नाश्ता सजा दिया। नाश्ते के दौरान मिस्टर व मिसेज़ माथुर से अय्यर ने अपना ग़म भुला कर इधर - उधर की बातें की और फिर अपने घर जाने की बात की तो माथुर साहब ने उसे अपनी कार से छोड़ने की बात कही। अय्यर के लाख मना करने के बाद भी माथुर साहब नहीं माने और अय्यर को उसके घर तक छोड़कर ही वापस लौटे।

घर लौटते ही मृणालिनी ने माथुर साहब के सामने एक लंबी सी लिस्ट उस सामान की रख दी जो मानवी के आने के पहले ही खरीदना था। लिस्ट देखते ही माथुर साहब ने कहा, "लगता है तुमने ठान लिया है कि इस 'खूसट बुढ्ढे' के घर को नया रूप देने का मन बना लिया है"

"अब आप एक अमेरिकन रिटर्न्ड बेटी के बाप हैं। आपका घर, आपका घर लगना चाहिए"

माथुर साहब ने मृणालिनी को आगोश में लेते हुए सरगोशी की, "मेरे साथ - साथ यह घर तुम्हारा भी उतना ही है जितना मेरा"

"वो इसलिए कि आप हमारे जो हैं" मृणालिनी ने स्त्रियोचित लज्जा से सकुचाते हुए कहा!!!

क्रमशः

अपनी बात: 

जब कोई प्रोड्यूसर बड़े बजट की फ़िल्म बनाने का इरादा करता है तो वह मल्टीस्टार कास्ट भी सलैक्ट करता है जिससे उसकी फ़िल्म व्यवसायिक रूप से सफल हो। आपसे सही कह रहा हूँ कि इस कथानक को मैं मल्टीस्टार कास्ट वाला बिल्कुल भी नहीं बनाना चाहता था। दरअसल हुआ यह कि जब मैंने इस कथानक की शुरूआत की तब नव दुर्गा कुछ दिनों बाद शुरू होने को थे। हमारे एक मित्र हैं महाप्रभु बैद्य नाथ पांडेय जी जो अपने शहर गोरखपुर में नव दुर्गा के आयोजन में इतने व्यस्त हो गए कि उन्होंने इस कथानक के लिये समय देने से मना कर दिया। मैंने उनकी स्थित को ध्यान रखते हुए सम्पूर्ण नव दुर्गा का त्यौहार पात्र परिचय कर किसी तरह निकाला। उस चक्कर में हमारा यह कथानक मल्टी स्टारर बन गया। जब स्टार बहुत हों तो कुछ न कुछ समय उनको आवंटित करना ही पड़ेगा। इसलिए यह कथानक कुछ लंबा चलेगा। लेकिन आप मित्र लोग बिल्कुल परेशान न हों। सभी कलाकारों की उनका उचित स्थान हम सुनिश्चित करेंगे और साथ में यह भी सुनिश्चित करेंगे कि कथानक में भटकाव की स्थिति न बने।

आप कथानक पढ़िए अभी इसमें बहुत रस आने वाला है। प्यार मोहब्बत, नोंकझोंक तक़रार सभी कुछ होगा। सुबह - सुबह बुढ्ढों के बीच होने वाली चर्चा में नित नए नूतन विषय भी उठते रहेंगे। मेरे लिए बहुत दुःख की बात यह है कि जिनके लिए इस कथानक के प्रसारण को दशहरे के बाद तक रोके रहे वह इस कथानक को पढ़ भी नहीं पा रहे हैं लेकिन उन्होंने मुझे आश्वस्त किया है कि वह मेरे दोनों कथानक (गुज़र गाह तथा खूसट बुढ्ढे) छट त्यौहार के बाद अवश्य पढ़ेंगे। इसके लिए उन्हें मेरी टाइम लाइन पर जाकर इन कथानकों को ढूंढना पड़ेगा। मुझे विश्वास है कि वह यह कर पाएंगे। 

इसी आशा के साथ आपके लिए इस कथानक का यह अंक प्रस्तुत है।

धन्यवाद।

एपिसोड 15

अगली सुबह सरदार जी का फोन जब चंडीगढ़ से आया उस वक़्त माथुर साहब टॉयलेट में थे इसलिए मृणालिनी ने उन्हें बताया,  "भाई साहब मैं आपकी उनसे थोड़ी देर में बात कराती हूँ"

"ठीक है भाभी जी जब वह बाहर आ जाये तो मेरी बात करा दीजिएगा"

जब कुछ देर बाद माथुर साहब फ्रेश होकर बाहर आये तो मृणालिनी ने सरदार जी की बात माथुर साहब से कराई, "बोल भाई बलबंत क्या बात है"

"माथुर साहब मैं आज शाम तक दिल्ली पहुंच जाऊँगा"

"वह तो ठीक है लेकिन यह तो बता कि तू चंडीगढ़ गया किस काम से था"

"माथुर साहब आपको मैंने कभी यह बताया नहीं कि हमारे एक साढू भाई हर भजन सिंह, जिन्हें हम लोग प्यार से दार जी कहते हैं, वह यहां चंडीगढ़ में रहते हैं। उनकी धर्मपत्नी कुलविंदर हमारी गुरुविंदर की रिश्ते में बड़ी चचेरी बहन लगतीं हैं। दार जी के एक अज़ीज़ दोस्त जो श्रीनगर, कश्मीर में रहते थे उनके परिवार के साथ एक हादसा क्या हुआ तब से दार जी की तबीयत इतनी ख़राब हो गई है कि उनकी हालत सुधरने का नाम ही नहीं ले रही है"

"अरे यह तो बहुत बुरा हुआ"

"वैसे तो उनका इलाज़ यहाँ के पीजीआई में चल रहा है लेकिन गुरुविंदर उनको दिल्ली लाकर दिखाना चाहती है तो मैं उन्हें अपने साथ लेकर आ रहा हूँ"
"उन्हें लाएगा कैसे तेरी कार तो छोटी है"

"मैं उन्हें एम्बुलेंस में लेकर आ रहा हूँ। आपको फोन इसलिए किया था कि हमारे लिये मदर डेयरी से दूध लेकर रख लीजियेगा, मैं वहां आकर ले लूँगा"

"ठीक है तू चिंता न कर मैं दूध लेकर रख दूँगा। कोई और काम हो तो बताना''

"ठीक है। थैंक यू सो मच"

"इट्स ऑलराइट" माथुर साहब ने बोला, "ट्रेवल सेफ एंड डोंट हरी अप"

मौसम में बहुत गर्मी न थी इसलिए मृणालिनी ने माथुर साहब से पूछा, "कहिए धूप कम हो गई है चलें हम लोग शॉपिंग लिस्ट में से कुछ ख़रीद फ़रोख्त कर लें"

"चाय पिला दो फिर चलते हैं"

चाय पीकर माथुर साहब और मृणालिनी घर बंद करके निकलने लगे तो माथुर साहब ने पूछा, "किधर चलना है यह तो बताओ भाग्यवान"

"करोल बाग हम लोग अपना बाज़ार छोड़कर और कहाँ चलेंगे"

"ठीक है चलो"

माथुर साहब की लंबी वाली इम्पोर्टेड कैडलक कार गैराज में ही खड़ी रहती थी जिसको मेंटेन करने के लिए बहुत पैसा पानी की तरह बहाते थे। अब क्या किया जाय कुछ शौक़ होते ही ऐसे हैं और उनपर ख़र्च की हुई दौलत कभी भी ज़्यादा नहीं लगती है। माथुर साहब की कैडलक का इस्तेमाल तभी होता था जब उन्हें शहर में किसी ख़ानदानी आदमी के यहां जाना होता, कभी दूर जाना होता या जब वह इंडिया गेट पर एंटीक कार की रेस हुआ करती थी। करोलबाग की गलियों में गाड़ी चलाने की अब गुंजाइश ही नहीं रह गई थी। 

मृणालिनी और माथुर साहब को घर से बाहर निकलते ही एक बैटरी ऑपरेटेड रिक्शा मिल गया, उसे रोका और सवार हो कर वे दोनों करोल बाग की ओर चल पड़े। रास्ते में मृणालिनी ने माथुर साहब का हाथ प्यार से अपने हाथों में लिया और धीरे से बोली, "आपको याद है कि नहीं पर मुझे वे दिन आज भी याद हैं। मैं शादी के बाद नई - नई दिल्ली में आई थी और हम लोग महाराणा प्रताप रोड होते हुए आर्य समाज मंदिर के मोड़ पर मुड़कर सीधे करोल बाग के मेन बाज़ार में आते घूमते घामते कभी कुल्फ़ी खाते तो कभी कोका कोला पीते और बाद में आप एक पान की गिलौरी खाकर ही घर लौटते थे'"

"ख़ूब याद है जब तुमने मुझे सेंट थॉमस गर्ल्स सीनियर स्कूल के सामने एक खूबसूरत लडक़ी को घूरते हुए देख लिया था और तुम उस दिन वहां इतनी नाराज़ हुई कि अकेले ही घोड़ा गाड़ी करके घर लौट गईं। मुझे पीछे - पीछे दूसरी घोड़ा गाड़ी से आना पड़ा था"

"अरे भूल भी जाइये उस दिन की बात को। इंसान की हमेशा अपना अच्छा वक़्त याद करके जीना चाहिए"

"काश तुमने यह बात उस दिन कही होती। मेरा गुनाह क्या था। सामने से एक हसीन लडक़ी निकल रही थी उसे ही तो देख रहा था"

"ठीक है बाबा भूल भी जाओ"

माथुर साहब तो मृणालिनी की बातों से आशिक़ी के मूड में जो आ गए थे इसलिए बोल बैठे, "अगर आज मेरी नज़रों के सामने हम उम्र हसीना मिल गई तो उसे देखने से मुझे न रोकना"

मृणालिनी ने भी हंस कर कहा, "ठीक है आज तुम यह गुनाह भी कर लेना मैं नहीं रोकूँगी बल्कि तुम्हारे रास्ते से और हट जाऊँगी"

मृणालिनी की बातों पर माथुर साहब ख़ूब हंसे इतने में ही वे आर्य समाज रोड और करोल बाग के चैराहे पर आकर बैटरी स्कूटर रिक्शा से उतर कर बाजार की ओर चल पड़े। गफ़्फ़ार मार्किट में जाकर इधर उधर घूम कर जो समान ख़रीद फ़रोख्त करना था खरीदा जिसमें अधिकतर क्रोकरी का डाइनिंग सेट, डाइनिंग टेबल कवर कुछ और भी छोटे मोटे सामान लेकर ही वे लोग देर रात घर लौट पाए।

रास्ते में सरदार साहब के कहे मुताबिक़ मदर डेयरी से दूध दही ले लिया। घर पहुंच कर सरदार साहब को फोन किया तो पता लगा कि उन्हें दिल्ली पहुंचने में अभी एक घँटे से ऊपर लगेगा। माथुर साहब ने सरदार साहब से पूछ कर उनके परिवार के सभी सदस्यों के लिए खाने की व्यवस्था भी करा ली। देर रात जब सरदार साहब दिल्ली पहुँच गए और अपने साढू भाई को आराम से लिटा दिया तो उन लोगों ने खाना पीना किया।

रात बहुत हो चुकी थी पर माथुर साहब के दिल में कुलबुलाहट हो रही थी कि वह सरदार साहब से पूछें कि आख़िर ऐसा हुआ क्या जिसकी वजह से उनके साढू भाई की इतनी तबियत ख़राब हो गई। सरदार साहब बहुत थके हुए थे इसलिए यह कहकर उन्होंने माथुर साहब से मुआफ़ी मांग ली कि कल सुबह जब वे लोग सैर के लिये निकलेंगे तब उन्हें पूरी बात बताएंगे।

क्रमशः


अपनी बात: 

दीवाली का त्यौहार जब इतने क़रीब हो तो हर बच्चे का दिल बम चलाने को करता है। 

एक रहिन ईर, एक रहिन बीर
एक रहिन फत्ते, एक रहिन हम!!

ईर कहिन चलो लकरी तोड़ आई
बीर कहिन चलो लकरी तोड़ आई
फत्ते कहिन चलो लकरी तोड़ आई
हम कहिन चलो लकरी तोड़ आई!! 

ईर कहिन चलो चले गुलेल बनाई
बीर कहिन चलो चले गुलेल बनाई
फत्ते कहिन चलो चले गुलेल बनाई
हम कहिन चलो हमहुँ गुलेल बनाई
ईर गुलेल बनाइन
बीर गुलेल बनाइन
फत्ते गुलेल बनाइन
तीन गुलेल और हमार
कट कट टूट गई गुलेल!!

हम कहिन चलो चला जाई
जौन अबहू चीन तै लाई
हम कहिन बम फोड़ि आई !!

एपिसोड 16

सरदार साहब और माथुर साहब जब अगले दिन मिले तो माथुर साहब का पहला प्रश्न जो सरदार साहब से था, वह यह था, "बलबंत ऐसा क्या हुआ जो तेरे साढू भाई जी की इतनी तबियत ख़राब हो गई"

"माथुर साहब जी यह एक लंबी दास्तां है"

"कुछ बताएगा भी या पहेलियां ही बुझाता रहेगा"

"माथुर साहब हमारे साढू भाई जी जिन्हें हम प्यार से दार जी कह कर पुकारते। दार जी श्रीनगर घूमने के लिए हर सीजन में जाते थे। वहां आते - जाते उनकी मुलाकात लतीफ़ मियां से क्या हुई कि वे दोनों एक दूसरे के मुरीद हो गए...."

माथुर साहब ने कहा तो कुछ भी नहीं लेकिन उनकी नज़रो से साफ पता लग रहा था कि जैसे वह यह जानना चाहते थे कि फिर आगे क्या हुआ....। 

सरदार साहब ने माथुर साहब की नज़रों से नज़रें मिलाते हुए कहा, "दरअसल लतीफ़ मियां का एक होटल राज बाग़ में ज़ीरो ब्रिज के पास था। आपको तो पता ही है कि श्रीनगर के लोग इस ज़ीरो ब्रिज को लकड़ी के पुल के नाम से भी जानते पुकारते हैं। झेलम दरिया के दो किनारों को जोड़ने वाला यह पुल श्रीनगर का एक मेजर टूरिस्ट अट्रैक्शन एण्ड डिस्टिनेशन भी है"

"मैंने भी वह लकडी से बना हुआ पुल देखा है बहुत ही खूबसूरत है। मेरी और मृणालिनी की दो-एक तस्वीरें काश्मीरी ड्रैस में आज भी हमारे पुराने फ़ोटो एल्बम में मिल जाएंगी", माथुर साहब ने अपने श्रीनगर के दौरे के बारे में बताते हुए कहा।
"बस इसी लकड़ी के पुल के नज़दीक था मियां लतीफ़ का होटल जहां हमारे दार जी एक बार क्या रुके फिर तो वह जब भी श्रीनगर जाते तो लतीफ़ मियां के होटल में ही रुकते। लतीफ़ मियां और हमारे दार जी के बीच दोस्ती की ऐसी नींव पड़ गई कि वे एक दूसरे के लिए ख़ासोख़ास हो गए। एक बार की बात है कि दार जी और कुलविंदर श्रीनगर गए हुए थे। दार जी ने अपना मन बना लिया था कि वह और लतीफ़ मियां मिल कर एक फाइव स्टार होटल श्रीनगर में खोलें। लतीफ़ मियां की एक ज़मीन झेलम दरिया के किनारे इलायची बाग़ में थी। वही ज़मीन लतीफ़ मियां और दार जी ने होटल के प्रोजेक्ट के लिए फाइनल भी कर दी थी। बस उस जमीन पर वहां के कलेक्टर के कहने पर काम शुरू नहीं हो सका क्योंकि कश्मीर में हालात नार्मल नहीं थे"

"वह तो हर कोई जानता है यह तो दारजी ने ठीक ही किया"

"लतीफ़ मियां की बेटी थी अज़रा। देखने सुनने में बहुत खूबसूरत, लंबी, छरहरे बदन और नीले रंग की आंखों की मलिका..."

"आगे बता"

"बता तो रहा हूँ। आप तो ऐसे एक्साइटेड हो गए कि जैसे बहुत कुछ हो गया हो.....!!! अज़रा को हमारे दारजी इतना पसंद करते थे कि जब ग्रेजुएशन के लिए वह चंडीगढ़ आई तो हमारे दारजी के घर में ही आकर रुकी"

टहलते - टहलते सरदार साहब और माथुर साहब अजमल खां पार्क तक आ पहुंचे और उनकी मुलाकात अय्यर से हुई। सरदार साहब ने माथुर साहब से धीरे से उनके कान में कहा, "...बाकी फिर कभी बाद में बताऊँगा"

माथुर साहब मन मसोस कर रह गए कि काश आज इतनी जल्दी अय्यर से मुलाक़ात न हुई होती। अय्यर ने सरदार को माथुर साहब के कान में कुछ कहते हुए सुन लिया था इसलिए वह सरदार साहब से पूछ बैठा, "तुस्सी माथुर साहब नूँ की दसदे पये सी"

सरदार साहब ने टॉपिक को बदलते हुए कहा, "कुछ भी तो नहीं बस माथुर साहब को इतना ही बता रहा था कि रोहतक रोड पर आजकल एक नया ढाबा खुला है जिसकी थाली का कोई जवाब नहीं"

अय्यर को यह पता था कि सरदार साहब चंडीगढ़ गए हुए थे हो सकता है कि आते - जाते उन्होंने उस ढाबे में खाना खाया हो इसलिए उसके बारे में बातचीत हो रही होगी। अय्यर ने सरदार साहब से कहा, "माथुर साहब एक दिन चलते हैं देखते हैं कि वहां ऐसा क्या मिलता है जिसकी सरदार साहब इतनी तारीफ कर रहे हैं"

माथुर साहब ने भी अय्यर की बात से हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, "मानवी भी आ रही है। उसे ढाबे का खाना पीना बहुत अच्छा लगता है तो एक दिन हम लोग अपनी - अपनी फैमिली को लेकर ज़रूर चलेंगे"

"माथुर साहब आप और अय्यर जाना मैं तो नहीं जा पाऊँगा क्योंकि हमारे यहां तो हमारे साढू भाई और साली साहिबा जो आईं हुईं हैं"

माथुर साहब को लगा कि सरदार साहब ने यह क्या कह दिया अब अगर अय्यर कुछ और पूछेगा तो वह क्या बतायेंगे। माथुर साहब इसी उधेड़बुन में थे कि अय्यर ने सरदार साहब से पूछ ही लिया, "वो चंडीगढ़ वाले। अच्छा तुम वहीं गए थे"

"हाँ, वही चंडीगढ़ वाले", कहकर सरदार साहब भी चुप्पी लगा गए जिससे कि कुछ आगे और न बताना पड़े।

कुछ ही देर में वे लोग सैर करते - करते वहां आ पहुंचे जहां उनकी मित्र मंडली पहले ही से उनके इंतज़ार में थी। श्याम लाल को देखते ही अय्यर ने उसे छेड़ते हुए पूछा, "क्यों बे लाला तू गया नहीं लखनऊ। तेरी ललाइन तेरा इंतज़ार कर रही होगी"

"आज शाम का रिज़र्वेशन है"

"ओह ! फिर लौटोगे कब", अय्यर ने पूछा।

"भइय्या दूज के दो तीन दिन बाद लौट आऊँगा"

अय्यर, श्याम लाल को कौन इतने सस्ते में छोड़ने वाला था, "ललाइन भी संग आएंगी"

"सोच रहा हूँ कि अबकी बार उन्हें भी साथ लेता ही आऊँ"

"इतने दिन तू उनके साथ रहेगा क्या फिर भी तेरी तबियत नहीं भरेगी", अय्यर ने श्याम लाल की खिंचाई करते हुए कहा।

आज श्याम लाल भी बढ़िया मूड़ में था इसलिए अय्यर की बात का बुरा न मानते हुए बोला, "अभी सर्दी उतनी नहीं है इसलिए वह भी दिल्ली रहने के लिए के लिए तैयार हो जायेगी बाद में वह दिल्ली की सर्दी को झेल नहीं पाती है"

"तुम्हारे संग रहते हुए भी..."

"अय्यर क्या मतलब"
"कुछ भी नहीं...." कहकर अय्यर ने देवशीष बाबू की ओर देखते हुए कहा, "दादा तुम तो कहीं बाहर नहीं जा रहे"

"अय्यर भाई हम कहाँ जाएंगे हमारी तो ससुराल भी यहीं और घर भी यहीं है", देवशीष ने उत्तर में कहा।

"हाँ यह बात तो है", अय्यर ने धीरे से शेखावत को छेड़ा, "कुँवर साहब क्या खबर है"

शेखावत ने अय्यर के प्रश्न के उत्तर में कहा, "आजकल त्योहारों का मौसम है बस यही खबर है कि फलाना मॉल इस चीज पर डिस्काउंट दे रहा है, गाड़िया सस्ती बिक रही हैं, लोग बाग मकान  दुकान ख़रीद फ़रोख्त करने की कोशिश तो करते हैं लेकिन अपना सा मुँह बनाकर लौट आते हैं क्योंकि सभी की पॉकेट खाली है। ....और हाँ एक ख़बर और भी है जब से दिल्ली में प्रधानमंत्री जी की एक रिश्तेदार का पर्स, छिछोरों ने क्या खींचा, तब से दिल्ली पुलिस हाई अलर्ट मोड़ में है और हर दिन चार पांच को ढेर कर रही है"

शेखावत अपनी बात पूरी कर पाता उससे पहले ही देवाशीष बोल उठा, "एक ख़बर और भी है कि दिल्ली में तीन चार गैंग आतंकवादियों के घुस आये हैं और मौक़े की तलाश में हैं कि कोई बड़ा कांड कर दुनियां का ध्यान इस ओर खींचे जिससे लोग यह समझें कि हिंदुस्तान अभी भी सुरक्षित देश नहीं है"

"पाकिस्तान के पुराने हथकंडे हैं और कोई खास बात नहीं", शेखावत ने बीच में बोलते हुए कहा।

"ऐसी बात नहीं, मुझे याद पड़ रहा है दिल्ली में ही कई साल पहले ऐसे ही एक त्यौहार के मौसम में आतंकवादियों ने कई जगह बम फोड़कर तमाशा खड़ा कर दिया था। उस वक़्त यह तो याद नहीं पड़ रहा कि कितने आदमी, औरतें और बच्चे मारे गए थे पर वह घटना आज भी जब याद हो आती है तो मन ही मन सिहर उठता हूँ", माथुर साहब बोले।

सरदार साहब ने भी बहस में हिस्सा लेते हुए कहा, "मुझे अच्छी तरह से याद है उस समय भी कई लोग मारे गए थे"

आज की बहस में भाग लेते हुए राणा ने कहा, "अपने घर में रहो बेस्ट है और भीड़भाड़ की जगह जाने से बचो, सबसे बढ़िया उपाय"

शेखावत ने कहा, "राणा जी, जो डर गया समझो वह मर गया। इन नालायकों के चक्कर में क्या हम अपने तीज त्यौहार भी न मनाएं ?"

"कुँवर साहब ज़रूर मनाइए कोई मना नहीं करता बस बच के रहिये और ग्रीन पॉल्युशन फ्री पटाख़े चलाइये और मौज करिये", राणा का कहना था।

जब इधर - उधर की बातें ख़त्म हुईं तो सब अपने - अपने घर की राह चल पड़े...। रास्ते में माथुर साहब ने सरदार साहब से सवाल किया, "लतीफ़ मियां की बेटी तुम्हारे दार जी के यहां चंडीगढ़ आकर पढ़ने लगी। फिर क्या हुआ"

"कुछ दिन तो अज़रा, दार जी के यहां रही लेकिन बाद में लतीफ़ मियां आये और अज़रा को हॉस्टल में शिफ्ट करने के बाद ही वापस श्रीनगर गए। अज़रा दार जी और गुरुविंदर की बहन कुलविंदर दोनों को बहुत पसंद थी", सरदार साहब और माथुर साहब चलते - चलते हरी राम की चाय की दुकान पर आ गए। दुकान से हट कर एक पेड़ की छांव में बैठते हुए माथुर साहब ने हरी राम से वहीं चाय भेजने को कहा और वे सरदार साहब की ओर देखने लगे इस उम्मीद में कि वह आगे की बात बताएंगे। 

"जी, माथुर साहब आपको तो याद है ही कि सरकार ने जम्मू कश्मीर में अगस्त माह में एक बार फिर से कर्फ्यू जो लगाया तो उसने आम आदमी की क़मर ही तोड़कर रख दी। उस वक़्त कश्मीर घाटी में लोगों की आवाजाही पर भी रोक लगा दी थी। 

दार जी बड़ी मुश्किल से उसे उसके अब्बू और अम्मी के पास छोड़कर आये। 
आपको अगर याद आये तो उन्ही दिनों में एक खबर आई थी कि आतंकवादियों ने श्रीनगर के एक मकान पर हमला किया था जिसमें उस मकान में रहने वालों की बेटी और बेटा फंस गया। मैंने आपको बताया भी था उस ऑपरेशन में जसवीर और उसके एक साथी इक़बाल ने बहादुरी का कारनामा करते हुए तीन आतंकियों को ढेर ही नहीं किया बल्कि उस लड़के और लडक़ी को भी बचाया था"

"हां मुझे याद है"

"वे लड़की और लड़का कोई और नहीं बल्कि अज़रा और अशफ़ाक़ ही थे। लतीफ़ मियां के बेटी और बेटा"

"अच्छा जी, फिर क्या हुआ"

"मुझे एक दिन चंडीगढ़ से कुलविंदर की ख़बर आई कि लतीफ़ मियां को दहसतपसंदो से सख़्त नफ़रत थी और उस हमले में तीन आतंकवादी मार दिए गए थे। लतीफ़ मियां की फ़ैमिली उस वाकये के बाद आतंकियों के राडार पर आ गई। कुछ रोज़ बाद आतंकवादियों ने लतीफ़ मियां के मकान पर एक और हमला बोला। अबकी बार वे लोग उस हमले में बच नहीं सके। लतीफ़ मियां के साथ उनकी बेग़म हामिदा, बेटी अज़रा और बेटा अशफ़ाक़ मारे गए। पूरा का पूरा परिवार ही समाप्त कर दिया"

"ओह, हे राम, यह तो बहुत बुरा हुआ" इसीलिए कहा गया कि आतंकवादियों का कोई दीनईमान होता ही नहीं.
"जब यह खबर हमारे दार जी ने सुनी तो एकदम सदमे में आ गए और उसी दिन से उनकी तबियत बिगड़ती ही चली गई। कुलविंदर के बुलाने पर ही हम लोग अभी चंडीगढ़ गए थे। कुलविंदर दार जी को एक बार मेदांता हॉस्पिटल में दिखाना चाह रही थी। इसलिए हम दार जी को अपने साथ लेते आये हैं"

"अच्छा किया मुझे उम्मीद है कि दार जी ठीक हो जाएंगे"

"चलिये माथुर साहब अब चलें, आज उन्हें दिखाने मेदान्ता भी जाना है"

"चलो बलबंत कहो तो, मैं भी चलूँ"

"नहीं माथुर साहब आप जाकर क्या करोगे। डॉक्टर को ही तो दिखाना है मैं दिखा लूँगा। आपकी ज़रूरत पड़ेगी तो आपको जरूर ले चलूँगा"

दिन भर सरदार साहब, दार जी को दिखाने के चक्कर में मेदांता हॉस्पिटल में ही रहे। कभी इस डॉक्टर के पास तो कभी इस लैब में तो कभी उस लैब में। बहरहाल अच्छी बात यह रही कि दिनभर की मेहनत के बाद शाम को जब दारजी को डॉक्टर ने देखा तो यह कहा, "आपको फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है। इनको कोई बहुत गहरा सदमा लगा था जिसकी वजह से कुछ समय के लिये इनका मेमोरी लॉस हो गया था, जिसके कारण इनकी फ़िटनेस अफ्फेक्टेड हो गई थी। हम कुछ दवाई लिख रहे हैं वह खिलाइए और चार दिन बाद आकर फिर मिलिए। उम्मीद है कि तब तक बहुत कुछ ठीक हो जाएंगे"

कुलविंदर जो परेशान थी डॉक्टर की बात सुनकर बहुत खुश हुई और वे लोग दार जी को साथ लेकर करोलबाग लौट आए। घर आकर दार जी भी ख़ुश थे। 

क्रमशः

एक बात: 

जब हम इस कथानक के लिए पात्रों को चुनकर उनका नामकरण कर रहे थे तब की मुझे एक बात याद हो आई...!!! "गुज़र गाह" लिखते वक़्त लतीफ़ मियां के परिवार के लोगों के नाम गूगल से चुन लिए जिसमें प्रमुख थे लतीफ़ मियां ख़ुद उनकी बेग़म हामिदा, बेटी-अज़रा और बेटा-अशफ़ाक़। 

लेकिन जब कथानक लिखने बैठा तो लतीफ़ मियां बीच - बीच में हनीफ़ मियां हो जाया करते थे। यह ग़लती पॉइंट आउट की हमारे रायबरेली के मित्र एल बी सिंह ने। मैंने अपनी ग़लती सुधारते हुए उन्हें धन्यवाद दिया और यह भी बता डाला कि लतीफ़ और हनीफ़ के बीच यह कंफ्यूजन बेसिकली इसलिए हो गया क्योंकि हनीफ़ हमारे पिछले चौदह साल पुराने कारपेंटर का नाम है।

कोई आपकी भूल सुधारने में मदगार हो इससे बढ़िया और क्या बात हो सकती है। मैं आप सभी से यही उम्मीद रखता हूँ कि आपको जब लगे कि कोई ग़लती मुझसे हो रही है तो कृपया पॉइंट आउट ज़रूर करियेगा।

शुक्रिया। आगे देखते हैं कि हनीफ़ मियां जब श्रीनगर में अपना काम ख़त्म कर नूर मंज़िल पहुंचे तो उन्हें कैसा महसूस हुआ।

एस पी सिंह

एपिसोड 17

हनीफ़ मियां को दिल्ली से निकले हुए कई दिन हो गए थे। श्रीनगर में जब वह एक दिन समय निकाल कर राजबाग़ गए और धूलधूसरित लतीफ़ भाईजान की टूटी फूटी 'नूर मंज़िल' को देखा तो आंखों से आँसू निकल आये। 

आज हनीफ़ मियां की आंखों के सामने इस 'नूर मंज़िल' में बिताए हुए एक - एक पल याद हो आया जब वह लतीफ़ भाईजान, बेग़म हामिदा, बेटी अज़रा और बेटे अशफ़ाक़ के साथ रहकर अमन चैन की ज़िंदगी जीते रहे। उनके सामने ही अज़रा और उसकी जुड़वां बहन आइरा पैदा हुई, बाद में अशफ़ाक़ भी आया। हनीफ़ मियां के यहां कोई बच्चा न था इसलिए जब लतीफ़ भाईजान ने श्रीनगर से दिल्ली शिफ़्ट करने की बात चलाई तो लतीफ़ मियां ने कहा था, "हनीफ़ तू तो बिज़नेस के चक्कर मे सुबह - सुबह निकल जाया करेगा तो सादिया अकेले क्या करेगी। उसको तो दिन काटना बहुत भारी पड़ जाएगा"

"आप ही बताइए तब मैं क्या करूँ"

तब हामिदा भाभीजान ने अपनी ओर से कहा था, "सादिया एक काम कर कि अगर तू चाहे तो अज़रा या चाहे तो आइरा में से किसी एक को अपने साथ ले जा। इसके सहारे से तेरा वक़्त भी गुज़र जाया करेगा और एक बेटी दिल्ली में रहकर पढ़लिख जाएगी"

"ठीक है बड़ी बेटी अज़रा आपकी हुई और छोटी आइरा हमारी", कहकर सादिया ने आइरा को हमेशा के लिए अपना बना लिया।

हनीफ़ मियां ने अपने मन ही मन कहा, "इसी 'नूर मंज़िल' ने चारों लोगों की जान ले ली" 
हनीफ़ मियां को वह दिन याद हो आया जब उन्हें 'नूर मंज़िल' के अगल - बगल वाले पड़ोसियों ने ख़बर दी कि भाईजान लतीफ़ मियां और उनकी बेग़म, अज़रा और अशफ़ाक़ एक हादसे में मारे गए। तब वह और सादिया दिल्ली से भागे - भागे श्रीनगर पंहुचे। जब वे यहां आए तो पता लगा कि जिन आतंकियों को पिछली बार के एनकाउंटर में मिलिट्री वालों ने मारा था उनमें एक आतंकी, ग्रुप का सरगना था। उसी दिन से उसके साथी इस फ़िराक में थे कि उनको एक मौक़ा मिले तो वह 'नूर मंज़िल' मकान को ही नेस्तनाबूद कर दें।

मिलिट्री और पुलिस के लोगों ने बाद में 'नूर मंज़िल' के मलबे से चारों की लाशें निकालीं। लतीफ़ मियां और बेग़म हामिदा एक दूसरे के पास लेटे मिले। अज़रा और अशफ़ाक़ एक दूसरे से डरके मारे चिपके हुए मिले थे। जो भी देखता इस जघन्य कॉड से थर्रा उठता.

हनीफ़ मियां ने आगे बढ़कर 'नूर मंज़िल' की मिट्टी को अपने माथे पर लगाया और बाद में चारों की कब्र पर जाकर फ़ातिहा पढ़ा। जब हनीफ़ कब्रिस्तान से होटल वापस आ रहे थे तो रास्ते में उन्हें सादिया का फोन आया, "श्रीनगर के सब काम निपट गए कि नहीं"

"बस अभी कब्रिस्तान से फ़ातिहा पढ़कर होटल लौट रहा हूँ। शाम को दिल्ली के लिए वापस निकलूंगा"

"ठीक है, आइरा पूछ रही थी", सादिया बेग़म ने पूछा।

"कह देना उससे कल सुबह आकर मिलता हूँ"

रात भर सफ़र करने के बाद सुबह जब हनीफ़ मियां दिल्ली अपने घर पहुंचे तो सबसे पहले जो नज़र आया वह थी आइरा जिसने एक बच्चे की तरह जोर से चिल्ला कर कहा, "अम्मी....! अब्बू आ गए" , और फिर हनीफ़ मियां के गले लग कर पूछा, "मेरे लिये क्या लाये अब्बा"

"बहुत कुछ, लेकिन अंदर तो आने दे"

"आइये तो सही मैं कौन आपका रास्ता रोक कर खड़ी हूँ", कहकर आइरा ने हनीफ़ मियां के लिए रास्ता छोड़ा। अंदर कदम रखते ही बेग़म सादिया दिख गईं जिन्हें देख कर हनीफ़ मियां ने उनसे पूछा, "कैसी हो बेग़म, कुछ कमज़ोर सी दिख रही हो"
"हां जब आप पास नहीं होते तो खाने पीने का मन ही नहीं करता", सादिया बेग़म ने हनीफ़ मियां की बात का जवाब देते हुए कहा, "आइरा जा अपने अब्बू के लिए चाय बना कर ले आ"

"जी अम्मी", कहकर आइरा किचेन की ओर गई।

"बेग़म तुम्हें याद है ऐसे ही हमेशा जब भाईजान और हम बाहर से घर लौटते थे तो तुम्हें भाभीजान तुम्हारा नाम लेकर बुलातीं थीं 'सादिया जा कहवा बना ला' और तुम सिर झुकाकर चुपचाप अंदर चली जातीं थी"

"भाईजान के सामने तो हमने कभी नज़र उठाकर भी देखने की हिमाक़त नहीं की। बहुत याद आती है उनकी"

"क्या किया जा सकता है ऊपर वाले की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ भला कोई क्या कर सकता है"

इतने में आइरा दो कप चाय लेकर आई और हनीफ़ मियां से बोली, "अब्बू आपको पता है कि हमें छोटी दीवाली वाले दिन माथुर अंकल के घर जाना है"

"क्या हुआ", हनीफ़ मियां ने पूछा।

"अरे उनकी बेटी मानवी अमेरिका से जो आ रही है। वह चाहते हैं कि उनके सभी दोस्तों के बच्चों की उनसे मुलाक़ात हो जाये और सभी दीवाली के त्यौहार की रंगत भी देख लें"

"चलना मैं तुम्हें उनके यहां छोड़ आऊँगा"

"अब्बू अब आइरा बड़ी जो हो गई है और ख़ुद उनके यहां जा सकती है"

"हाँ, बेटी तू वाक़ई अब बड़ी हो गई है चली जाना"

क्रमशः