Saturday, March 28, 2020

एस पी सिंह की कहानियां

एस पी सिंह की लघु कहानियाँ 


लंबे लंबे धारावाहिक लिखने के बाद मन किया कि बदलते हुए मौसम के अनुसार मैं भी कुछ नया करूँ। इसलिए कुछ छोटी छोटी कहानियां लिखने का मन बनाया है। यदा कदा अब कभी अपने मन की कर सकूँगा इन लघु कथाओं के माध्यम से। इस श्रंखला के अंतर्गत आज पहली कहानी आपकी नज़र है।
धन्यवाद सहित,
एस पी सिंह
13/03/2020
13/03/2020
1 कंजूस मक्खीचूस
"अगर आज कोई मर्द मुझे रखने को तैयार हो जाये तो मैं इस खूसट, खुर्रान्ट, कंजूस-मक्खीचूस इंसान को छोड़कर उसके पास चली जाऊँ”, सरला के मुँह से अचानक यह निकला जब घर के किचेन के डिब्बों में जब उसने हाथ डाला तो देखा न चावल थे, न दाल, अब वह बनाये तो भला क्या बनाये। सरला ने भी चौके में ताला बंद किया और बाहर वाले दरवाज़े में ताला जड़कर उसकी चाभी बगल वाले मिश्रा जी के यहाँ देकर घर से निकल गई।
रमेश शर्मा जब बाहर से लौट कर घर आये तो देखा कि घर के दरवाजे पर ताला लगा हुआ है तो उन्हें ताज़्जुब हुआ कि सरला वैसे तो कभी घर से अकेले बाहर कभी जाती नहीं है, आज वह घर में ताला लगाकर कहाँ चली गई। शर्मा जी ने मिश्राइन से पूछा, "भाभी जी ये सरला कहाँ गई है? उसने कुछ आपको बताया"
अपने एक हाथ में शर्मा जी के घर की चाभी लेकर मिश्राइन अपने घर के अंदर से बाहर निकलीं और बोलीं, "भाई साहब कुछ बताया तो नहीं पर चाभी ज़रूर दे गईं हैं"
"अच्छा”, कहकर शर्मा जी ने चाभी अपने हाथ में ली और अपने घर के दरवाज़े पर लगे ताले को खोल वह घर में अंदर आये। अपने हाथ से मेज पर थैला रखा और चले पानी पीने चौके की ओर। गर्मी के दिन थे और उन्हें प्यास भी जोर की लगी थी। चौके के दरवाजे पर ताला देखकर शर्मा जी का माथा ठनका कि आज तक तो सरला ने कभी चौके में ताला लगाया नहीं पर आज उसे क्या हो गया जो चौके पर भी ताला लगाकर गई है। यह सोचकर शर्मा जी का माथा ठनका कि हो न हो वह अपने मायके न चली गई हो। लिहाज़ा उन्होंने अपने बड़े साले बाबू अनिल शुक्ल जी को फोन लगाया और पूछा, "अरे अनिल बाबू वहाँ सरला आई है क्या"
अनिल शुक्ल जी ने बताया, "नहीं रमेश बाबू यहाँ तो सरला नहीं आई। सब ठीक तो है"
रमेश शर्मा जी कि अपने बड़े साले बाबू को क्या जवाब दें आज तक तो सरला वगैर उनके कभी अपने मायके में नहीं गई हालांकि उनका ससुराल भी इसी शहर में था। रमेश शर्मा जी झेंप मिटाते हुए अनिल शुक्ल जी से बोले, "देखता हूँ, यहीं कहीं गई होगी मैं देखता हूँ। आप चिंता न करें"
"कोई और बात हो तो मुझे बताइएगा ज़रूर”, कहकर अनिल शुक्ल जी ने फोन बंद किया।
रमेश शर्मा जी परेशान कि अब वह जाएं तो जाएं कहाँ सरला को ढूँढने। उनकी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उनकी अक्ल बिल्कुल भी काम नहीं कर रही थी। इसी चक्कर में वह ड्राइंग रूम में वापस लौटे पँखा चलाया और सोफे पर धम्म से बैठ गए। अब उन्हें याद आया कि कल रात ही सरला ने कहा था कि घर में खानेपीने का सभी सामान चुक गया है। उसने यह कहकर पैसे भी मांगे थे जो उन्होंने उसे नहीं दिए। यह ख़्याल आते ही रमेश शर्मा जी को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्हें लगा कि उनसे बड़ी भूल हो गई जो उन्होंने सरला को पैसे भी नहीं दिए और उसे वगैर बताये वह खुद सुबह-सुबह घर से निकल गए। उन्हें लगा कि सरला इधर-उधर गई होगी कुछ देर में आ जायेगी। जब शाम होने को आई और सरला फिर भी घर वापस न आई तो रमेश शर्मा जी को अब मानसिक परेशानी होने लगी। मियाँ बीवी के बीच अक़्सर ही घर खर्च को लेकर खिचखिच होती रहती थी पर शर्मा जी कुछ ले देकर स्थित सम्हाल लेते थे।
रमेश शर्मा जी की चिंता अंधेरा होते ही और बढ़ गई तो वह घर से निकले। सबसे पहले वह रेलवे स्टेशन गए कुछ लोगों से पूछा कि आज किसी औरत का एक्सीडेंट तो नहीं हुआ। लोगों ने रमेश शर्मा जी को बता तो दिया कि रेल से कट कर कोई भी नहीं मरा है पर उन लोगों को शक़ ज़रूर हुआ कि यह आदमी सीधे-सीधे किसी औरत के एक्सीडेंट के बारे में क्यों पूछ रहा है। भीड़ में से एक आदमी ने पूछ ही लिया,"भइया सब कुशल तो है”
रमेश शर्मा जी ने उसको कोई उत्तर नहीं दिया और वहाँ से निकल कर गंगा घाट की ओर बढ़ चले। उनके मन में यह ख़्याल अब जोर मारने लगा था कि हो न हो कहीं सरला गंगा में आकर डूब कर न मर गई हो। अंधेरे में सरला उहें गंगा किनारे बैठी दिखी और उसके बगल में एक अधेड़ उम्र का कोई आदमी भी उन्हें दिखाई दिया। रमेश शर्मा जी तेज कदमों से चलते हुए सरला के पास पहुँचे और बोले, "तुम यहाँ बैठी हो और मैं तुम्हें यहाँ-वहाँ ढूँढ कर पागल हो रहा हूँ"
सरला ने पलट कर जवाब देते हुए कहा, "क्यों अब मुझे ढूँढते हुए कैसे मारे-मारे फिर रहे हो। तुम्हें जब मेरा ख़्याल न आया जब कि मैं तुम्हारे सामने हर महीने गिड़गिड़ाती थी कि कम से कम मुझे इतना खर्च तो दिया करो जिससे कि मैं घर चला सकूँ। तुम्हारे कानों पर तब तो कोई जूँ नहीं रेंगती थी। लाखों बैंक में जमा हैं पर घर चलाने के लिए एक पैसा भी नहीं है"
"चलो घर चलो मैं सब ठीक कर दूँगा, तुम चितां न करो”, रमेश शर्मा जी सरला से बोले।
सरला ने भी ठनक के जवाब दिया, "तुम जाओ घर मैं तुम्हारे जैसे कंजूस मक्खीचूस आदमी के साथ अब नहीं आने वाली। मैंने अपना दूसरा घर बसा लिया है"
"क्या? यह तुम क्या कह रही हो। ऐसा न करो इस उम्र में किसको मुँह दिखाऊँगा? कैसे बताऊँगा कि मेरी बीवी इसलिये घर छोड़कर चली गई कि मैं घर खर्च भी नहीं देता था"
"नहीं मैं तुम्हारे साथ अब नहीं जाने वाली। मेरा पीछा छोडो”, कहकर सरला फिर से उस आदमी के पास जाकर बैठ गई। रमेश शर्मा जी ने यह सपने में भी न सोचा था कि उम्र के इस दौर में उन्हें यह दिन देखना होगा लिहाज़ा उन्होंने उस आदमी की तरफ रुख किया जो सरला के बगल में बैठा हुआ था। उसके सामने जाकर रमेश शर्मा जी एकदम चकरा गए क्योंकि वह कोई और नहीं था वरन अनिल शुक्ल जी थे। उनके रिश्ते के बड़े साले और सरला के भाई।
रमेश शर्मा जी ने कान पकड़ कर अनिल शुक्ल जी और सरला से माफ़ी मांगी और वायदा किया कि अब वह जीवनपर्यंत सरला को कोई शिकायत का अवसर नहीं देंगे। अनिल शुक्ल जी के कहने पर सरला रमेश शर्मा जी के साथ देर रात घर लौटी।

यह कहानी उन लोगों के लिये एक शिक्षा है कि जीवन में अपने व्यवहार से कभी यह कहावत चरितार्थ न करें कि 'चमड़ी चली जाय पर दमड़ी न जाय'।
14/03/2020

सभी "ठलुए" घर में ही रहें। फेसबुक पर कहानी किस्से पढ़ें वेसबब सड़क की लंबाई चौड़ाई न नापें। यह कहानी "अड़ोस पड़ोस" खासतौर पर उनके लिए.....

2 अड़ोस-पड़ोस

अड़ोस-पड़ोस की परिभाषा ही बदल गई जब से बड़े शहरों में मल्टीस्टोरी फ्लैट्स की नई कल्चर आ गई। एक जमाना हुआ करता था जब लोगों के पास घर तो छोटे होते थे, परिवार बड़े-बड़े होते थे। उनमें रहने वालों के दिलोदिमाग़ और सोच छोटी नहीं हुआ करती थी। लेकिन जब से यह फ़्लैट कल्चर आई है देखने को मिल रहा है कि लोगों के घर भी छोटे हो गए और उनकी सोच भी। न बदल पाया तो छोटे शहरों का रहन सहन और एज दूसरे के प्रति आदरभाव और प्रेमपूर्वक रहना।

पंडित राम प्रसाद शुक्ल और बिस्मिल सिंह अगल-बगल के घरों में रहते थे। दोंनों परिवारों में अच्छा उठना-बैठना था। दोंनों परिवारों में एक-एक बच्चा हुआ करता था। राम प्रसाद के एक लड़की ‘अनामिका’ और बिस्मिल के यहाँ एक लड़का ‘अनन्य’ जो लगभग हम उम्र होने के साथ-साथ एक कॉलेज में पढ़ने जाया करते थे। जब उनकी ग्रेजुएशन तक कि पढ़ाई पूरी हुई और उनके आगे और पढ़ने की प्रबल इच्छा उन्हें अलग-अलग शहरों में ले गई। अनामिका दिल्ली चली गई और अन्यन बैंगलोर। पीछे रह गए उनके माता-पिता जो आपस में घुल मिल कर रहते आपस में एक दूसरे की ख़ुशियों और दुःख के क्षणों में शरीक़ होते। यहाँ तक कि जब किसी के घर में चीनी ख़त्म हो जाती तो दूसरे घर से चीनी माँग ली जाती या दूसरे घर में दूध न होता तो पहले घर से दूध माँग लिया जाता। दोंनों परिवार उच्च वर्ग के थे इसलिए उनके बीच कोई सामाजिक स्तर या ऊँच नीच की दिक्कत भी नहीं थी।

बच्चों की जब व्यवसायिक पढ़ाई पूरी हुई तो दोंनों परिवारों ने अपने-अपने बच्चों की शादी कर दी। अनामिका की शादी एक सजातीय दिल्ली के लड़के से हुई और अन्यन की शादी अमेरिका में रह रहे एक राजपूत परिवार की लड़की से। शादी के बाद अनामिका तो दिल्ली चली गई और अन्यन अमेरिका। राम प्रसाद ने दो एक बार दबी जुबां से बिस्मिल से कहा भी कि वह अपने अन्यन की शादी हिंदुस्तान में ही किसी लड़की से करदे क्यों बच्चे को अपने आप से इतनी दूर भेज रहा है। इसके जवाब में बिस्मिल ने हमेशा हँस कर राम प्रसाद की बात टालते हुए कहा, "राम प्रसाद अगर मेरा बेटा यदि कहता कि वह अनामिका से विवाह करना चाहता है तो मैं खुशी-खुशी तुम्हारे घर आता अनामिका का हाथ माँग लेता। अब क्या करें हमारे बच्चों में प्यार था ही नहीं"

बिस्मिल की बात सुनकर राम प्रसाद चुप रह जाता था पर उसके दिल में बिस्मिल की बात टीस पैदा करती। एक दिन जब राम प्रसाद ने फिर अन्यन के हाल चाल पूछे तो बिस्मिल ने जवाब दिया कि वे दोंनों ठीक हैं अब तो अन्यन ने वहाँ अपना घर भी खरीद लिया है। बिस्मिल के जवाब में राम प्रसाद ने कहा कि जब उसे यहाँ आना ही नहीं है तो ठीक है वहीं आराम से रहे। राम प्रसाद ने अनामिका का हालचाल बताते हुए कहा, "ठीक है, वह भी ठीक ही है। अनामिका ने अपने लिये एक फ़्लैट बुक करा लिया है कुछ महीनों में शायद कब्जा भी मिल जाये"

"चलो ठीक है दोंनों बच्चे अपनी-अपनी जगह ठीक ही कर रहे हैं। माता-पिता को इसके अलावा क्या चाहिए”, बिस्मिल ने राम प्रसाद से कहा।

बिस्मिल और राम प्रसाद के परिवारों में दोस्ती का ज़ज़्बा वाकायदा बहुत लंबे अरसे तक बना रहा। एक रात अचानक राम प्रसाद की तबियत ख़राब हुई उन्हें उनकी पत्नी बिस्मिल की मदद से लेकर शहर के हॉस्पिटल की ओर भागे पर उन्हें बचा नहीं पाए। बिस्मिल ने अनामिका को फ़ोन कर राम प्रसाद की असामयिक देहावसान की खबर की जिसे सुनकर अनामिका अपने पति के साथ भागी-भागी आई। तेहरवीं संस्कार कर जब अनामिका के चलने का समय आया तो उसने अपनी माँ से कहा कि वह अब अकेली किसके सहारे रहेंगी वह भी उसके साथ दिल्ली चली चलें। राम प्रसाद की पत्नी ने यह कह मना कर दिया कि यहाँ बिस्मिल परिवार है उनके साथ उनका बहुत दिनों का साथ है वह अब घर छोड़ कर कहीं नहीं जाना चाहेंगी। अनामिका के बहुत समझाने के बाद भी जब उसकी माँ उसके साथ नहीं गईं तो अनामिका बिस्मिल अंकल के घर आई और यह कह कर कि वह माँ को उनके सहारे छोड़ कर दिल्ली वापस जा रही है।

हाय राम कैसा वक़्त आ गया है। अपने तो दूर चले गए हैं लेकिन अपनों को परायों के सहारे लोग छोड़ जाते हैं। भला करे अभी छोटे शहरों और कस्बों में बदलाव नहीं आया है अभी भी अड़ोस-पड़ोस के लोग पूरी शिद्दत से अपना फ़र्ज़ निभाते हुए दूसरे लोगों का पूरा-पूरा ख़्याल रखते हैं।




15/03/2020


#बड़े-बूढ़े

दिलीप भाई के परिवार में वह स्वयं और उनकी धर्मपत्नी नीमा उनके साथ रहतीं थीं। उनके दो बच्चे जिसमें कि एक पुत्री निमानी थी जिसकी शादी हो चुकी थी और वह अपने पति हेमंत के साथ राजकोट में रहती थी तथा उनका पुत्र नरेंद्र शादी हो जाने के बाद अपनी धर्मपत्नी के साथ अहमदाबाद में रहा करता था। ले देकर दो प्राणी अपने लंबे चौड़े खानदानी घर दादर-हवेली में रहते थे। दिलीप भाई के दादा जी ने बाज़ार में कई दुकानें बना कर किराए पर उठा दीं थीं उन दुकानों का किराया आता था और इस तरह दिलीप और नीमा किसी भी तरह अपने बच्चों पर निर्भर नहीं थे बल्कि उल्टे वक़्त-बेवक़्त मुश्किल में उनकी मदद ही कर दिया करते थे।

दिलीप भाई की कोठी के एक हिस्से में एक किरायेदार श्याम भाई अपनी पत्नी राम्या के साथ रहते थे। एक बीमारी के दौरान श्याम भाई की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण अब राम्या अकेली रह गईं थीं। वह अपना खाना पीना स्वयं बनातीं और पति की सरकारी नौकरी से जितनी पेंशन मिलती उसमें ख़र्च चला कर अपना जीवन निर्वहन कर रहीं थीं।

दिलीप भाई और नीमा का व्यवहार भी राम्या के प्रति बहुत सम्मानपूर्वक था वे लोग हमेशा यह कोशिश करते कि राम्या को किसी भी तरह की कमी महसूस न करें। दादर-हवेली में जहाँ बहुतेरे लोग पुराने ज़माने की बिल्डिंग्स में मकान किराए पर लेकर रहते थे लेकिन दिलीप भाई और राम्या के परिवार सभी के लिये अनुकरणीय थे।

देर रात जब राम्या को नींद नहीं आ रही थी। जीवन का सूनापन उन्हें जैसे कचोट रहा था। राम्या को लग रहा था कि काश आज श्याम भाई जिंदा होते तो उन्हें कितना अधिक प्यार करते क्योंकि वह हमेशा कहते थे कि अकेलापन इंसान को बूढ़ा बना देता है और अगर जवान रहना है तो अपने लोगों के बीच रहो। लेकिन वक़्त की मार ऐसी पड़ी कि एक-एक करके सब साथ छोड़ते चले गए और राम्या अपने जीवन के साठ बसंत देखने के बाद स्वयं को अकेलेपन की शिकार समझने लगीं थीं। राम्या ने अपनी शादी को पुराना फ़ोटो एल्बम निकाला और उसके पन्ने पलटने लगी। राम्या अपने यौवन के दिनों में इतनी खूबसूरत हुआ करतीं थीं कि उनके नाम की चर्चा शहर भर में हुआ करती थी। इतना कि जब वे गली गलियारों से गुजरतीं तो बाज़ार में चलते हुए लोग एक बार पलट कर उन्हें देखे वगैर नहीं रह पाते थे। जब वो श्याम भाई के साथ विवाह के बाद पहली बार दादर-हवेली आईं तो उनकी सासू माँ ने उनके दोंनों हाथ अपने हाथों में लेकर उनकी बलैयां लीं और माथे को चूमकर आशीर्वाद दिया। सुहागरात वाले दिन जब श्याम भाई की भाभियाँ जब उन्हें अंदर करके दरवाज़ा बंद करके चलीं गई और रमेश भाई धीरे-धीरे दबे कदमों से उनकी ओर बढ़ चले तो राम्या का दिल उछलने लगा। जब श्याम भाई ने उनका घूँघट उठाया और राम्या के चेहरे को देखा तो ग़श खाकर लगभग वह पलँग पर गिर ही गए। इस हड़बड़ाहट में राम्या उठीं और उनके ऊपर झुकते हुए बोलीं, "क्या हुआ, आप ठीक तो हैं न"

"तुम्हें देखकर मुझे अपने दिल पर काबू नहीं रहा और ग़श आ गया", इतना कहकर श्याम भाई ने राम्या को अपने आगोश में भर लिया और राम्या के चेहरे के हर हिस्से पर चुम्बनों का अंबार लगा दिया।

यह सब याद करते हुए राम्या के चेहरे पर हल्की सी हँसीं की रेखा खिंच गई परंतु अगले पल ही यह सोचकर कि ये सब तो अब स्वप्न जैसा है उनकी आँखों में श्याम भाई की याद में नमी छा गई। उसके बाद उन्हें याद हो आया जब वह श्याम भाई के साथ दादर-हवेली में दिलीप भाई के पिता के ज़माने में एक किरायेदार की हैसियत से रहने आईं। श्याम भाई तो नौकरी करने चले जाते पर दिलीप भाई की दादी उनके पास आकर बैठ जातीं उन्हें अच्छे-अच्छे पकवान बनाना यहाँ तक कि दिन का महत्वपूर्ण भाग वह राम्या के साथ ही गुजारतीं। दिलीप भाई की तब शादी नहीं हुई थी। नीमा तो कई सालों बाद दिलीप भाई के साथ व्याह कर दादर-हवेली आई थी। दिलीप भाई की माँ तथा अन्य रिश्तेदारों के साथ नीमा का स्वागत सत्कार राम्या ने ही किया था। उन्हीं दिनों से नीमा, राम्या को अपनी बड़ी बहन मानकर उनका मान सम्मान करतीं और ख़याल रखतीं थीं।

वैसे कहने को सब ठीक ही चल रहा था एक रात नीमा को दिल का दौरा पड़ा। दिलीप भाई भागे-भागे राम्या के पास आये और बोले कि नीमा को पता नहीं क्या हुआ। राम्या ने दिलीप भाई से कहा कि वे उन्हें तुरंत हॉस्पिटल लेकर चलें। उसी हालत में दिलीप भाई और राम्या नीमा को एक टैक्सी करके हॉस्पिटल ले गए लेकिन दो दिन मौत से लड़ने के बाद नीमा भगवान को प्यारी ही गई। दिलीप भाई ने अपनी पुत्री निमानी और पुत्र नरेंद्र को फोन कर सूचना दी। निमानी तो कुछ ही घण्टों में अपने पति हेमंत के साथ राजकोट से आ गई लेकिन नरेंद्र को अहमदाबाद से आने में कुछ देर लगी। सभी परिजनों के इक्कठे होने पर दिलीप भाई ने नीमा का अंतिम संस्कार किया। कुछ दिन बाद निमानी और नरेंद्र अपने-अपने शहर काम पर वापस चले गए। दादर-हवेली में इतने बड़े घर में अकेले रह गए केवल दिलीप भाई और राम्या। कुछ दिन तक तो दिलीप भाई अपना खाना वग़ैरह स्वयं बनाते रहे पर जब वह यह सब करके थक गए और ख़ुद ही बीमार हो गए तो उनकी देखभाल का जिम्मा राम्या ने अपने कंधों पर लिया। नरेंद्र ने दिलीप भाई से जोर देकर कहा कि वह अब उनके साथ अहमदाबाद चलें पर दिलीप भाई ने दादर-हवेली छोड़कर और कहीं भी जाने से साफ़ मना कर दिया। दिलीप भाई की बेटी निमानी ने भी लाख कोशिश की की दिलीप भाई उसके यहाँ राजकोट चले चलें पर उन्होंने उसकी भी इस बात से यह कहकर इंकार कर दिया कि भला बाप बेटी के यहाँ जाकर रहेगा।

दिलीप भाई की जिम्मेदारी अब धीरे-धीरे राम्या के कंधों पर आ गई। पहले तो राम्या उनकी देखभाल अपने घर में रहकर करती रही लेकिन जब दिलीप भाई की तबियत बिगड़ने लगी तो वह दिलीप भाई के साथ उन्हीं के घर रहने लगी। राम्या की सेवा और देखभाल से दिलीप भाई ठीक होने लगे। जब दिलीप भाई बिल्कुल ठीक होकर चलने-फिरने लगे तो राम्या ने अपने घर लौटने की ज़िद्द की। दिलीप भाई क़ातर निगाहों से राम्या के चेहरे की ओर देखते रह गए पर कुछ बोल न सके। राम्या ने जब अपना सामान इक्कठा किया और वह अपने घर के लिये निकलने लगी तो दिलीप भाई ने उनका हाथ पकड़ कर कहा, "जाना जरूरी है क्या? क्या तुम मेरे लिये रुक नहीं सकती?"

दिलीप भाई की आँखों में अपने प्रति उमड़े इस प्यार को देख राम्या दुविधा में पड़ गई कि वह क्या करे। उसने दिलीप भाई से यह कहते हुए विदा मांगीं कि वैसे ही ज़माने वाले लोग ताने कसते हैं कि वह किस अधिकार से दिलीप भाई की सेवा कर रही है?

दिलीप भाई ने उठकर राम्या की माँग में सुहाग का सिंदूर भरते हुए कहा, "ज़माने का तो मुँह मैं बंद कर दूँगा बस अब मेरे कहने से तुम न जाओ"

दिलीप भाई की यह बात दिल से की गई गुज़ारिश को राम्या ठुकरा नहीं पाई...!


16/03/2020

एक शिक्षाप्रद कहानी
4 बस स्टॉप
"वह अपनी बेटी को बस स्टॉप पर छोड़ने आतीं थीं जबसे वह मेरे दिल में बस गई” शौर्य ने यह बताते हुए अपने अभिन्न मित्र आदेश से कहा, "जानता हूँ कि वह शादीशुदा है और मुझसे उम्र में भी बहुत बड़ी है पर मैं करूँ तो क्या करूँ मेरा दिल उन पर आ गया है"
मिसेस भटनागर सुबह पाँच बजे उठतीं अपनी लाड़ली को उठातीं। उसको फ्रेश रूम भेजकर उसके लिये दूध गर्म करतीं। उसका लंच पैक करतीं। बाद में उसे तैयार करतीं और इस भागदौड़ में किसके पास इतना समय होता कि जो वो अपने कपड़े ठीक से देखे, अपना मेकअप करें उसके बाद बेटी को बस स्टॉप तक छोड़ने आयें। यह काम मिस्टर और मिसेज भटनागर के बीच मिसेज भटनागर के ही जिम्मे था। इस सबके बावजूद मिसेज भटनागर उन सभी महिलाओं से बहुत ही आकर्षक लगतीं थीं जो अपने-अपने बच्चो को छोड़ने बस स्टॉप आतीं थीं। वैसे भी मिसेज भटनागर आदतन सूती कपड़े की रँग बिरँगी साड़ियाँ पहना करतीं थीं। कद काठी में आकर्षक ऊँचाई और उनका गठा हुआ बदन किसी का भी दिल जीतने के लिए काफी था। उस पर उनके बातचीत करने का लखनवी अंदाज उनकी पर्सनालिटी में चार चाँद लगाता था। बस स्टॉप पर बस के इंतज़ार में वहाँ महिलाएं आपस में खड़ी होकर बात करतीं तो उसमें भी उनकी खूबसूरती का ज़िक्र ही आम हुआ करता था ऐसे वक़्त मिसेज भटनागर का चेहरा देखने के क़ाबिल हुआ करता था। शरमाई सी मुस्कराते वह जब वह कहतीं, "रहने भी दीजिये भला मैं कहाँ और आप लोग कहाँ। आपके मुकाबिल तो मैं कहीं भी नहीं आती"
शौर्या जो अपनी भतीजी के साथ वहीं खड़ा होता बड़े ही चाव से उन सबकी बातें सुनता और उसका झुकाव धीरे-धीरे मिसेज भटनागर के प्रति और बढ़ता जा रहा था। महिलाओं की आपस की बातचीत में ही शौर्या को पता लगा था कि मिसेज भटनागर का पूरा नाम प्रेरणा भटनागर है उस समय भी उसके दिल से यही आवाज़ निकली कि वास्तव में मिसेज भटनागर उन सभी के लिये प्रेरणा का स्रोत हैं जो उन्हें पसंद करते हैं। एक दिन उनके पीछे चलते हुए शौर्या ने यह भी पता कर लिया कि वह पास ही के 'कादम्बरी टावर' में रहतीं हैं।
बातों ही बातों में आदेश ने शौर्या से पूछा, "तू जिन मिसेस प्रेरणा भटनागर की बात कर रहा है क्या वह जानतीं हैं कि तू उन्हें अपने मन ही मन पसंद करने लगा है"
“मैं कैसे जानूँगा। मैं तो उन्हें सुबह-सुबह ही बस स्टॉप पर देखता हूँ जब वह अपनी बेटी को स्कूल छोड़ने के लिये आतीं हैं और मैं अपनी भतीजी को। मेरी उनसे कभी कोई बात नहीं हुई है"
आदेश ने शौर्या को समझाते हुए कहा, "देख तू इन सब बातों को भूल जा। इन सबसे तेरा कोई फायदा नहीं होने वाला। मुझे तो डर लग रहा है कि तू किसी दिन कोई बेजा हरक़त न कर बैठे और फिर उनके हाथों मार खाए"
इसके बाद आदेश ने शौर्या को अपनी खुद की ऊपर बीती बात बताई, "देख भाई जब मैं बहुत छोटा था। हायर सेकंडरी सेक्शन में पढ़ा करता था। उस समय हमारी एक टीचर हुआ करतीं थीं जिनका नाम था, सना मिर्जा। उनके बोलने का क्या अंदाज़ था कि तुझे क्या बताऊँ जिस किसी की तरफ रुख करके हँसते हुए एक बार बोल भर दें उसे शर्तिया उनसे मोहब्बत हो जाये। वह मेरे चेहरे में न जाने किसका चेहरा ढूँढती रहती थीं और जब भी मैं उनके सामने पड़ता तो यही कहतीं कि जब-जब वह मुझे देखतीं हैं उन्हें कोई याद आने लगता है। इस तरह अक़्सर ही हम दोंनों के बीच एक दूसरे के प्रति आकर्षण बढ़ता गया और एक दिन शौर्या तेरी कसम से क्या बताऊँ मैंने उनसे अपने दिल की बात कह दी, “मैंम मुझे आपसे प्यार हो गया है' जानता है उन्होंने मेरे साथ क्या किया?"
"क्या किया?" अचानक से ही शौर्या के मुँह से निकला और वह आदेश का चेहरा देखने लगा।
"उन्होंने मुझे अपने गले लगाया और मेरे बाएं गाल पर एक चुंबन ले लिया"
"फिर क्या हुआ"
"फिर क्या होना था। वही हुआ जो होना चाहिए था"
"मतलब"
"मतलब यह कि उन्होंने मुझे समझाया कि बच्चों को अपनी टीचर से प्यार हो ही जाता है और हमें भी उनसे। ...चलते चलते उन्होंने यह भी कहा कि यह प्यार वह नहीं जैसा कि दो बड़े लोगों के बीच होता है बल्कि उससे भी कहीं आगे होता है" आदेश ने कहकर अपनी बात ख़त्म की और अपनी ओर से यह भी जोड़ दिया कि इसे एक दूसरे के प्रति झुकाव कहते हैं कुछ लोग अब इसे अपना पहला 'क्रश' भी कहते हैं।
उस दिन शौर्या ने आदेश की बात बहुत ध्यान से सुनी और उसने मन ही मन यह फैसला भी किया कि अब वह आगे से कभी भी मिसेज भटनागर की ओर देखेगा भी नहीं लेकिन फिर जब अगली सुबह मिसेज भटनागर उसे बस स्टॉप पर मिलीं तो उसका दिल पर कोई काबू नहीं रहा और वह मिसेज भटनागर को लगातार घूरता रहा। मिसेज भटनागर ने पहली बार नोटिस किया कि उन्हें कोई बहुत देर से घूर रहा है। उन्होंने झट से अपना पल्लू सम्हाला जो उनके बदन से जरा एक तरफ गिर गया था और अपनी बेटी को छोड़कर अपने घर की ओर चल पड़ीं। एक बार उन्होंने पलट कर देखा तो उन्होंने शौर्या को फिर से उन्हें देखते पाया। अब तो अक़्सर ही शौर्या की निगाहें मिसेज भटनागर की नज़रों से टकरा जाया करतीं तथा दोंनों ही कुछ अजीब सा महसूस करते पर कभी भी कोई एक दूसरे से बात करने की हिम्मत नहीं करता। यह तो अब हर रोज की बात हो गई थी एक दिन जब कुछ अधिक हो गया तो मिसेज भटनागर शौर्या के पास आईं और बोलीं, "क्या आप कभी मुझसे अकेले में मिलेंगे"
"आप जब कहें मैम” अचानक शौर्या के मुंह से निकल गया।
"कल दोपहर आप मेरे घर आइएगा"
"आप अकेली होंगी"
"जी उस वक़्त मैं बिल्कुल अकेली होऊँगी। बस मेरी बेटी मेरे साथ होगी” यह कहते हुए मिसेज भटनागर ने एक छोटी सी पेपर स्लिप शौर्या के हाथ में रख दी जिस पर उनके घर का पता था और उनका मोबाइल नम्बर भी। शौर्या स्लिप देखकर बाहर ख़ुश हुआ।
ठीक वक़्त पर शौर्या ने कादंबरी टावर पहुँच कर भटनागर परिवार के घर के दरवाजे पर लगा कॉल बेल का स्विच दबाया। मुस्कराते हुए मिसेज भटनागर ने शौर्या का स्वागत करते हुए कहा, "आइये-आइये मैं उस दिन आपका नाम तो पूछना ही भूल गई"
"प्रेरणा जी मुझे लोग शौर्या कह कर बुलाते हैं। आपको जो अच्छा लगे आप वह नाम मुझे दे दीजिये” मुस्कुराते हुए शौर्या ने मिसेज भटनागर से कहा।
"ओहो आप तो मेरा नाम भी जानते हैं” मिसेज भटनागर ने हँसते हुए कहा।
"जी आपका नाम पता करने में मुझे कोई खास दिक़्क़त नहीं हुई बस एक दिन बस स्टॉप पर अपनी सहेलियों से जब आप बात कर रहीं थीं तो मेरे कान और दिमाग़ आपकी बातों पर लगा हुहा था”
"आइये बैठिए क्या लेंगे” कहते हुए मिसेज भटनागर ने शौर्या से लिविंग रूम में रखे सोफे पर बैठने के लिये कहा।
"बस एक ग्लास पानी और कुछ भी नहीं” शौर्या ने उत्तर में कहा और मिसेज भटनागर से पूछा, "रिया नहीं दिखाई पड़ रही है वह कहाँ है उसके लिये मैं कुछ गिफ़्ट लाया था"
"स्कूल से आकर खाना खाकर वह सो जाती है। बच्ची ही तो है स्कूल की दौड़ धूप और सुबह-सुबह उठने से बच्चों की नींद कहाँ पूरी होटी है"
"जी यह बात तो है मेरी भतीजी भी यही करती है"
"वह किस क्लास में है?"
"जी वह तो अभी थर्ड स्टैण्डर्ड में है"
"ओहो तो वह अभी रिया से छोटी है"
इसके बाद मिसेज भटनागर और शौर्या के बीच इधर-उधर की बातें हुईं। जब मिसेज भटनागर ने शौर्या के बारे में पूरी जानकारी कर ली तो वह बोलीं, "देखिये मिस्टर शौर्या मेरी और आपकी उम्र में लगभग पन्द्रह-सोलह साल का फ़र्क है इसलिए मैं यह अपना फ़र्ज़ समझती हूँ कि...”
शौर्या चुपचाप उठा और हाथ जोड़ते हुए उसने मिसेज भटनागर से क्षमा याचना की और उनके घर से निकल आया। जब वह रास्ते में था तो उसे आदेश का कहा एक-एक शब्द याद हो आया जो उससे उसकी सना टीचर ने कहा था।

अपने देश की गंगा जमुनी तहज़ीब पर अपनी बात इस कहानी के माध्यम से:
18-03-2020
"इस मुल्क की आवोहवा को न जाने यह कौन सा रोग लग गया है कि जिधर देखो नफ़रत की आंधी सी चल रही है”, मिर्ज़ा शौक़त अली के मुँह से यह अल्फाज़ बहुत ही मुश्क़िल से निकले क्योंकि वे ताज़िन्दगी सुकून, अमन, चैन के हक़ में अपनी आवाज़ जो बुलंद करते रहे थे।
मिर्ज़ा अपनी उम्र दराज़ के पचासी साल से होकर गुजर रहे थे। एक मायने में हिंदुस्तान जब अंग्रेज़ो की हुक़ूमत होती थी उनकी पैदाइश उस वक़्त की थी। उन्होंने अपने गाँव मीरपुर में रहकर अपने बाप-दादे के ज़माने के ज़मींदारी के ठाठबाट देखे थे। उन दिनों में ज़्यादातर लोग कहीं के जमींदार मुस्लिम हुआ करते तो कहीं के राजपूत। उनके दर्द को समझते हुए मिर्ज़ा के अजीम - तरीम दोस्त अभिलाष सिंह, जो ख़ुद भी पास के एक जमींदार घराने से थे, बोले, "मिर्ज़ा इन बातों को अपने दिल पर न लो। इस देश में कुछ सिरफ़िरे लोग हैं जो ये बेवकूफ़ी की बातें किया करते हैं। भला बताओ इनके कहने से कोई अपना वतन छोड़कर चला जायेगा"
"अभिलाष मियाँ हम यहीं की पैदाइश हैं, हमारे बाप-दादा ने इस सरजमीं को अपने खून से सींचा है, हम यहीं की आबोहवा में फले-फूले हैं, भला अब हम इस जहाँ को छोड़कर कहाँ जाएंगे। मियाँ हम कहीं नहीं जाने वाले, हम यहीं जियें यहीं मरेंगे”, मिर्ज़ा ने अभिलाष से कहा।
अभिलाष मिर्ज़ा का दर्द बहुत अच्छी तरह महसूस कर पा रहे थे पर उनके करने के लिये कुछ ऐसा नहीं था जो वह कर पाते क्योंकि पिछले कई सालों से कुछ राजिनीतिज्ञों के उल-जलूल भाषणों से वेवज़ह दोंनों समुदायों के बीच की दूरियां बढ़ती जा रही थीं। अभिलाष अच्छी तरह से यह बात जानते थे कि यह सब वे लोग राजनीतिक लाभ उठाने के लिये करते हैं। इसलिये उन्होंने मिर्ज़ा से यही कहा कि वे मस्त रहें कुछ दिनों में चुनाव ख़त्म हो जाएंगे और यह मारा-मारी का जो माहौल बनाया गया है वह भी ख़ुद-ब-ख़ुद शांत हो जाएगा।
जब दो दोस्त आपस में बैठे गुफ़्तगू में मशगूल थे उसी वक़्त कोठी के भीतर से मिर्ज़ा की बेग़म आईं और उन्होंने अभिलाष की ओर देखते हुए पूछा, "भाई जान आप कब तशरीफ़ लाये"
"कुछ देर पहले भाभी जान आप ख़ैरियत से तो हैं”, अभिलाष ने आदाब कहने के बाद बेग़म साहिबा से पूछा।
"मैं तो ठीक हूँ पर आपके भाईजान आजकल के हालात को देखते हुए बेमतलब ही परेशान रहते हैं। भाई जान इन्हें समझाइए कि बेसबब परेशान न हुआ करें"
"भाभी जान आपके तशरीफ़ लाने के पहले ही मैं मिर्ज़ा से यही कह रहा था"
"असल में कोई काम धाम तो है नहीं दिन घर में पड़े-पड़े टेलिविज़न पर खबरें देखा करते हैं। जब कभी मैं टीवी बंद कर दूँ तो अख़बार से चिपक जाते हैं। दिन भर में कई मर्तबा मैं इनसे कहती हूँ थोड़ा घर के बाहर भी निकल कर घूम आया करिये तो कहते हैं कि कहाँ जाऊँ यहाँ कौन सा कंपनी बाग़ है?" बेग़म बोलीं।
अभिलाष ने बेग़म मिर्ज़ा की बात सुनकर कहा, "भाभी जान अब आप चिंता मत करिए मैं अमेरिका से वापस लौट आया हूँ। मैं अपने दोस्त को आकर ले जाया करूँगा"
"हाँ यही बेहतर होगा”, कहकर बेग़म अंदर जाते वक़्त उन्होंने दोंनो को अपने साथ अंदर आने के लिये कहा, "आप अंदर आकर बैठिए। मैं कुछ नाश्ता भिजवाती हूँ"
मिर्ज़ा ने उठते हुए कहा, "आओ भाई चुपचाप अंदर चले चलो नहीं तो अभी आकर एक लेक्चर देने के लिये फिर से पलट कर बेग़म लेंगी"
अभिलाष भी मिर्ज़ा के साथ उठे और उनके साथ ही कोठी की बैठक की ओर बढ़ चले। अंदर आकर वे लोग आराम से बैठे और अभिलाष ने अमेरिका में अपनी रिहायश के वक़्त के किस्से ख़ूब सुनाए जिन्हें सुनकर बेग़म बोलीं, "भाई जान आप खुश क़िस्मत हैं कि आपके बच्चे वहाँ चले गए और चैन से जी रहे हैं। उनके बहाने आप लोग साल में एक बार वहाँ चले जाते हैं घूम आते हैं"
"जी भाभी जान यह बात तो है लेकिन मैं यह कहना चाहूँगा कि जो राजशाही यहाँ है, वहाँ नहीं। हर औरत और आदमी को अपना काम ख़ुद ही करना पड़ता है। चूल्हा चौके से लेकर अपने-अपने बाथरूम भी ख़ुद ही साफ करने होते हैं", अभिलाष ने बेग़म मिर्ज़ा को अपने ऊपर जो अमरीका में गुजरती है उसके बारे में बताते हुए कहा।
"तौबा-तौबा कुछ भी हो जाये हम से तो यह सब न होगा”, मिर्ज़ा ने बेग़म की ओर देखते हुए कहा।
"इसीलिये तो आप यहाँ अपने मुल्क में नवाबी के ज़माने में रह रहे हैं”, बेग़म ने भी मिर्ज़ा की टाँग खींचते हुए कहा।
अभिलाष ने दोंनों की नोंकझोंक में बीच मे पड़ते हुए कहा, "कुछ भी हो भाभी जान कोई चाहे कुछ भी कहे अपना घर अपना ही होता है। जो सुख चैन अपनी चारपाई पर आता है वह किसी फाइव स्टार होटल में भी नहीं आता"
मिर्ज़ा जो अभी तक बैकफुट पर थे अचानक से फ्रण्टफुट पर आकर बैटिंग करने लगे और बोले, "देखो भाई हम तो इसीलिये अपने टीवी पर ट्रेवल एक्सपी चैनेल लगा कर पूरी दुनिया घूम लेते है। कौन घर से निकले बेमतलब इधर-उधर भागें”
"यही सबसे उम्दा है”, अभिलाष ने भी मिर्ज़ा की बात में हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, "भाई जान टेस्ट मैच देखने को जो मज़ा टीवी पर है वह स्टेडियम में बैठ कर देखने में कहाँ"
"मैं बेग़म से यही कहता हूँ पर ये हमेशा यही कहतीं हैं कि अगर यहीं रहना था तो पासपोर्ट क्यों बनबाया?", मिर्ज़ा बेग़म की ओर देखते हुए बोले।
अभिलाष, जो कि मिर्ज़ा के घर आकर अपने आपको खुश नसीब समझते थे, बोले, "मिर्ज़ा एक बात कहूँ अब और कहीं नहीं ले जाना चाहते हो भाभी जान को तो उन्हें कम से कम हज़ ही करा दीजिये"
अभिलाष की बात सुनकर बेग़म बोल उठीं, "रहने भी दीजिये अब हम हज़ करने नहीं जाएंगे। भीड़भाड़ में किसी ने धक्का मार दिया तो वहीं भीड़ में कुचल कर मर जायेंगे। अपनी सरज़मी भी हासिल न होगी दफ़न के लिये। हमारी अब तो एक ही ख़्वाहिश है कि अपनी सरजमीं पर ही जो होना हो वह हो"
जब ये लोग आपस में बातें ही कर रहे थे कि मिर्ज़ा के एक मुलाज़िम ने आकर खबर दी कि अल्ताफ़ कसाई को कुछ दंगाइयों ने यह कह कर मार दिया कि वह गाय का गोश्त बेच रहा था। मिर्ज़ा के मुँह से निकला, "अल्लाह अब क्या ये दिन भी देखने पड़ेंगे"
अभिलाष ने मिर्ज़ा से कहा, "मैं जाकर देखता हूँ कि क्या मसला है। आप हज़रात अपनी हवेली में ही रहिए। कोई ख़तरा लगे तो मुझे तुरंत फ़ोन करियेगा मैं अपने आदमी लेकर आपकी ख़िदमत में हाज़िर हो जाऊँगा"
बेग़म ने अभिलाष की ओर देखते हुए कहा, "रहने भी दीजिये भाई जान अभी हमारा वक़्त इतना खऱाब भी नहीं आया है"
"मुझे पूरी-पूरी उम्मीद है कि अभी किसी की इतना हिम्मत नहीं है जो हमारी ओर टेढ़ी निग़ाह करके देखे", मिर्ज़ा ने भी अपनी मूँछ पर ताव देते हुए कहा।
अभिलाष के मुँह से निकला कि ख़ुदा ऐसा ही हो....और यह कहते हुए कटरा बाज़ार की ओर निकल गया जहाँ कुछ दंगाई इक्क्ठ्ठे हो कर नारेबाज़ी कर रहे थे।

कभी कभी ऐसा भी होता है.....
An eyeopener story.
19-03-2020
6 अकेले-अकेले
एरोन अब्राहम और कृतिका सैवियो की शादी को हुए लगभग चालीस साल से ऊपर हो गए थे। दोंनों के ज़हन में अपनी शादी का वह एक-एक पल याद था जब उन्होंने एक दूसरे का हाथ अपने हाथों में लेकर कोट्टयम के चर्च में फ़ादर थॉमस तथा अपने सगे संम्बन्धियों के उपस्थित में कहा था, “यस आई डू"
दोंनों के बीच कुछ दिन तक तो सब कुछ ठीक चला लेकिन कुछ सालों के बाद दोंनों के संबंधों में दरार दिखना शुरू हो गई। इसका मुख्य कारण था एक दूसरे में विश्वास की कमी लेकिन इस सबके बावजूद भी वे दोंनों एक साथ बने रहे। बीस साल हो गए थे जब वे आपस में दिल खोल कर मिले थे। अबकी बार जब उनकी पुत्री रोमाला क्रिसमस के त्योहार को मनाने आई तो उससे इनके बीच की इस दरार को पाटने की कोशिश की। वह यह अच्छी तरह जानती थी कि यह उतना आसान नहीं है फिर भी उसने हर साल की तरह अबकी बार यह सोचकर आई थी कि उन दोंनों को वह मिलाकर ही रहेगी। इस सबके बीच उसी को मोहरा बनाने की एक योजना के अंतर्गत उसने ईशा को क्रिसमिस की दावत पर घर बुलाया जिसके कारण उसके माता-पिता में ग़लतफ़हमी हुई और वे मानसिक रूप से इतने लंबे समय से अलग-थलग रहे।
जैसे ही घर की कॉल बेल पर किसी ने हाथ रखा वैसे ही कृतिका ने बढ़ कर दरवाज़ा खोला और ईशा को वहाँ खड़े पाया तो वह एकदम चौंक गई फिर भी उसने ईशा को अंदर आने के लिये कहा। ईशा जैसे ही सोफे पर आराम से बैठी कि कृतिका रोमाला के पास गई और बोली, "तेरी मेहमान आई है जा मिल ले"
"मम्मा वह मेरी ही नहीं आपकी और पापा की भी मेहमान है। मैंने उन्हें क्रिसमिस पर विशेषरूप से बुलाया है”, रोमाला ने अपनी मम्मा से कहा और वह धीरे से लिविंगरूम की ओर बढ़ चली। ईशा को वह गले लग कर वह ऐसे मिली कि जैसे वह उससे मिलने के लिये बहुत बेक़रार थी और बोली, "आँटी आप मेरे कहने से हमारे यहाँ आईं मैं आपकी शुक्रगुज़ार हूँ। आप बैठिये मैं पापा को बुलाती हूँ"
"क्या तुम्हारी मम्मा नहीं आएंगी मुझसे मिलने”, ईशा ने रोमाला से पूछा।
"नहीं-नहीं वह भी आएंगी। ज़रूर आएंगी आपसे मिलने बस वह अपने कपड़े चेंज करना चाह रहीं थीं इसलिये अन्दर गईं हैं”, रोमाला ने बात खराब न हो इसलिए ईशा से कहा और पापा के कमरे में आकर बोली, "पापा ज़रा आप लिविंगरूम में तो चलिये देखिये आपसे मिलने के लिये मैंने किसको बुलाया है"
"कौन आया है"
"आप मेरे साथ चलिये तो जरा"
रोमाला के कहने पर एरोन उठे और अपनी बेटी के साथ लिविंगरूम में जब आये तो देखा कि वहाँ पहले ही से ईशा बैठी हुई है। उसे देखते ही एरोन के दिल की धड़कन बढ़ गई और वह यह सोचने लगी कि रोमाला ने आज ईशा को अचानक क्यों बुलाया है। रोमाला ने ईशा से कहा, "आँटी मेरे पापा"
ईशा ने एरोन को बहुत अरसे बाद देखा था उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वही एरोन है जो कभी उसके ख्यालों में बसता था उसकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा था फिर भी उसने हाथ बढ़ाते हुए एरोन से पूछा, "हैलो हाऊ डू यू डू"
"आई एम फाइन एज युजुअल। तुम बताओ कैसी हो?"
दोंनों की निगाहें जब मिलीं तो वे तमाम क्षण उनकी आँखों में तैर गए जिनमे कभी उन्होंने रंगीन सपने संजोए थे। दोंनों के दिलों पर क्या गुज़र रही थी। इसका एहसास रोमाला को था। इसलिये वह भी उन्हें अकेला छोड़कर अपनी मम्मा को बुलाने चली गई। इस बीच एरोन और ईशा में बातचीत हुई और एरोन ने कहा, "बहुत दिनों बाद मिली हो पर तुम बिल्कुल वैसी ही हो जैसी तब हुआ करती थी"
"रहने भी दो मैं जानती हूँ कि तुम्हारे ख्यालों में मैं आज भी वही हूँ जो आज से चालीस साल पहले थी पर हक़ीक़त कुछ और ही है। दोंनों बच्चे बाहर चले गए हैं और पीटर भी अब इस दुनिया में नहीं है। बस मैं अकेली ही हूँ। तन्हा बिल्कुल अकेली” ईशा ने अपना सब दर्द अपने शब्दों में बयाँ कर दिया।
"तुम सोचती होगी कि मैं अब वैसा नहीं रहा जैसा एक वक़्त में हुआ करता था। वह जोश, ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीने का ज़ज़्बा वह सब न जाने इस इंसान में कहाँ खो गया है"
"सभी की ज़िंदगी में बदलाव आता है न मैं उससे अछूती हूँ न और तुम” ईशा ने एरोन से कहा। इसी बीच रोमाला अपनी मम्मा को समझा बुझा कर ले आई और उसने ईशा से कहा, "मेरी मम्मा"
"हैलो”, कहकर खड़े होकर ईशा ने कृतिका की ओर हाथ बढ़ाया। एक पल के लिये तो कृतिका रुकी पर अगले ही पल यह ख़्याल आते ही कि आज वह ईशा से नहीं बल्कि रोमाला की एक मेहमान से मिल रही है सोचकर अपना हाथ बढ़ाते हुए बोली, "हैलो, आप कैसी हैं?"
"मैं ठीक हूँ पर आज मैं रोमाला के इनवाइट पर आपसे अपने गुनाहों की मुआफ़ी मांगने के लिये आई हूँ"
"बैठिये-बैठिये”, कहते हुए कृतिका ने ईशा को बैठने के लिए इशारा किया। कृतिका और ईशा का कभी आमना सामना नहीं हुआ था पर कृतिका ने एरोन और ईशा को कुछ इन हालातों में देखा था जिसे देख कोई भी स्त्री अपना संतुलन खो बैठे। आखिरकार वही हुआ और उसके बाद एरोन और कृतिका कभी वैसे न हुए जैसे कि वे अपने वैवाहिक बंधन में बंधने के कुछ वर्षों तक रहे। कृतिका के मन में एक गाँठ बन गई जो फिर कभी न खुली और वह और एरोन एक छत के नीचे भी रहते। पर बहुत-बहुत दूर हो गए। जब ईशा बैठ गई तो कृतिका बोली, "एरोन ने कभी बताया था कि आपके दो बच्चे हैं वह आजकल कहाँ हैं?"
"मेरे दोंनों बच्चे बाहर लंदन चले गए हैं। पीटर भी अब नहीं रहे। मैं अब अकेली ही हूँ। अब आपको अपने बारे में क्या बताऊँ"
"ओह मिस्टर पीटर के बारे में जानकर बहुत अफसोस हुआ”, कृतिका बोली और उसके मन में एक ख़याल आया और वह एक झटके में ही वह अपने इतने दिनों के छिपे गुब्बार को कह गई, "मिसेज ईशा पीटर आप चाहें तो एरोन को अपना बना सकतीं हैं। मैं उन्हें इसकी इज़ाज़त खुशी-खुशी दे दूँगी"
"मम्मा, आप यह क्या कह रहीं हैं। आप जानती भी हैं कि आज इसके मायने क्या हैं”, रोमाला अचानक से दोंनों के बीच की बातचीत में पड़ते हुए बोल पड़ी।
"बेटी मैं जानती हूँ अच्छी तरह जानती हूँ कि मैं क्या कह रही हूँ। मैं और एरोन एक छत के नीचे रहते हुए भी अनजान लोगों की तरह रह रहे हैं, मुझे एरोन के चले जाने से इतना फ़र्क नहीं पड़ता मैं तो अब इसकी आदी हो गईं हूँ पर ईशा के दर्द को मुझसे बेहतर कौन समझेगा"
"मम्मा"
"नहीं बेटी आज तू मुझे मत रोक। मैं अब एरोन की गुनाहगार बनके नहीं रहना चाहती हूँ क्योंकि वह यही कहते रहे हैं कि उनकी उस दिन कोई गलती नहीं थी"
"मैडम कृतिका मैं लार्ड जीसस के नाम की शपथ लेकर कहती हूँ कि एरोन की कोई गलती नहीं थी जो भी खता थी वह मेरी थी। मैं ही अपने आपको काबू में नहीं रख पाई और गुनाह कर बैठी"
ईशा के दिल में जो भी चल रहा था आज उसे मौका मिला था तो वह सब बातें कह देना चाह रही थी जिससे कि बरसों की बनी गाँठ किसी तरह खुल जाए। ईशा ने अपनी बात कहते हुए कहा, "मैडम कृतिका आप भी क्रिस्चियन हैं और मैं भी क्रिस्चियन हूँ। देखिए अगर कोई खुले दिल से अपना गुनाह कुबूल करे और लार्ड जीसस के सामने खड़े होकर मुआफ़ी माँगे तो एक बारगी लार्ड जीसस भी उसका गुनाह मुआफ़ कर देते हैं। मैं आज आप सभी के बीच खड़ी होकर अपना गुनाह कुबूल करती हूँ और मुआफ़ी की दुआ माँगती हूँ"
रोमाला अपनी जगह से उठी और उसने अपनी मम्मा को अपने हाथ से पकड़कर उठाया और ईशा से गले लगकर मुआफ़ करने को कहा। कृतिका और ईशा जब एक दूसरे के गले लगीं और उनको आँखों से आँसुओं की नदी जब थमी तो लिविंगरूम के वातावरण में कुछ हल्कापन महसूस हुआ। इसी क्षण को सेलिब्रेट करने के लिये रोमाला ने चालीस साल पुरानी रखी शैम्पैन की बोतल खोली। शैम्पन को तीन ग्लासों में डाला और फिर सभी ने टोस्ट करते हुए चियर्स कहा......

पच्चीस कहानियों की इस सीरीज में मैं यह प्रयास कर रहा हूँ कि मैं अपने मित्रों की सेवा में हर दिन एक नये विषय पर कोई कहानी प्रस्तुत कर सकूँ। अब यह तो अपने मित्रों की टिप्पणियों से ही पता चलेगा कि मैं अपने प्रयास में कहां तक सफल हुआ। लीजिये आज पढ़िए कुछ पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में चलते हुए गोलमाल के बारे में ....

20-03-2020
8 प्रकाशक

सिद्धी प्रकाशन, दिल्ली की एक नामचीन कंपनी थी जो कई वर्षों से प्रकाशन के काम में लगी हुई थी। एक मायने में इसने साहित्य जगत के लिये कई महान कार्य किये जिनमें प्रमुख थे हिंदी तथा अंग्रेजी भषाओं में जाने माने लेखकों के लेखन को पुस्तक तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाना और नई प्रतिभाओं को आगे लेकर आना।

निर्मल 'निर्मोही' जो कभी-कभी फेसबुक पर अपनी काव्य रचनाओं और आलेखों को प्रेषित किया करते थे। एक दिन त्रिवेदी जी जो कि सिद्धी प्रकाशन के कर्ताधरता थे उनकी निग़ाह में उनके एक मित्र और उनके एक पुराने साथी सुरेंद्र सिंह ने निर्मोही जीकी एक काव्य रचना त्रिवेदी जी को पढ़वाई और उनसे कहा, "त्रिवेदी जी मेरी मानिये आप एक मीटिंग निर्मल 'निर्मोही' जी से कर लीजिये। भविष्य में आपकी यह मीटिंग बहुत काम आएगी"

त्रिवेदी जी तथा सुरेंद्र सिंह लगभग एक ही उम्र के थे और उन्होंने एक साथ मिलकर प्रकाशन का काम आज से लगभग बीस साल पहले शुरू किया था। उससे पहले 'सिद्धी प्रकाशन' के नाम से कुछ साहित्य से जुड़े लोग बालू गंज, आगरा से पुस्तकें वग़ैरह छापा करते थे। त्रिवेदी जी और सुरेंद्र सिंह ने मिलकर 'सिद्धी प्रकाशन' आगरे के साहित्य सेवी प्रेमियों से यह कह कर ख़रीद ली कि चूँकि अब आगरे का छापा खाना अपनी जिस शानो शौक़त और शौहरत के लिये जाना जाता था वह अब नई इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी के आ जाने से उसका वह स्थान नहीं रहा है इसलिये वे इस कंपनी को उनके हाथ बेच दें। कुछ दिनों तक तो इन लोगों ने आगरे से ही काम किया पर शीघ्र ही वे दिल्ली आ गए और पटपड़गंज इंडस्ट्रियल एरिया में एक प्लाट लेकर अपना काम शुरू किया। धीरे-धीरे कर के सिद्धी प्रकाशन एक जाना माना ब्रांड बन गया और अब तो उनका भारतवर्ष में नाम है।

सिंह साहब के सुझाव कि त्रिवेदी जी निर्मोही जी से एक बार मिल लें उसके बारे में उन्होंने यही पूछा, "सिंह साहेब आपको यह क्यों लगता है कि निर्मोही एक दूर की कौड़ी सिद्ध होंगे?"

"त्रिवेदी जी मैंने उनकी हाल की कुछ काव्य रचनाएं पढ़ीं हैं। मुझे लगता है कि अगर हम उनसे संपर्क साध कर उन्हें अपने साथ जोड़ लें तो भविष्य में वह हमारे लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होंगे"

"सिंह साहेब आप उनसे संपर्क स्थापित कर उनको एक दिन अपने कार्यालय में बुलवालें मैं उनसे आकर मिल लूँगा"

"त्रिवेदी जी जैसी आपकी आज्ञा”, कहकर सुरेंद्र सिंह ने द्विवेदी जी को आश्वस्त किया। सुरेंद्र सिंह ने फेसबुक पर निर्मल 'निर्मोही' की प्रोफाइल देखी उनका फोन नम्बर प्राप्त किया और उनसे मित्रता स्थापित करने की कोशशि की। दो एक बार बात हुई और फिर एक दिन निर्मल निर्मोही जी को सुरेंद्र सिंह ने अपनी पटपड़गंज ऑफिस में बुला लिया। अपनी प्रिंटिंग प्रेस दिखाई अपने कम्प्यूटर सेंटर को भी दिखाया उसके बाद वह उन्हें लेकर अपने ऑफिस में आ गए। इधर उधर की बातचीत हुईं और जब निर्मोही जी को अपने साथ जोड़ने की बात उठी तो उन्होंने इण्टरकॉम पर फोन कर त्रिवेदी जी को अपने ऑफिस में ही बुलवा लिया। त्रिवेदी जी ने आते ही निर्मोही जी से गर्मजोशी से हाथ मिलाया और उनके हालचाल पूछने के बाद वे लोग मुख्य मुद्दे पर आए जिसमें त्रिवेदी जी ने अपना प्रस्ताव रखते हद कहा, "निर्मोही जी मैंने और सुरेंद्र सिंह जी ने आपकी कुछ रचनाएं देखी हैं। हम इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि अगर आपकी काव्य रचनाओं को पुस्तक के रूप में हम अगर साहित्य प्रेमियों के सामने लेकर आएं तो उससे आपका नाम होगा और हम अपने उस उद्देश्य की पूर्ति में एक कदम और उठा पाएंगे कि हम नई प्रतिभाओं को सामने लेकर ही नहीं आते हैं वरन उन्हें उनका यथोचित स्थान दिलाने में भी मदद करते हैं"

निर्मोही ने त्रिवेदी जी की सभी बातें बड़े ध्यान से सुनी और बोले, "त्रिवेदी जी और सिंह साहेब पहले तो मैं आप दोनों व्यक्तियों का आभारी हूँ कि आपने मुझे मेरी रचनाओं के प्रकाशन हेतु आमंत्रित किया। मैं आपके प्रस्ताव का स्वागत करता हूँ यह बताइये कि मुझे क्या करना होगा"

"आपको कुछ नहीं करना है बस आपको हमें अपनी हस्थलिखित रचनाएं देनी होंगी वाकी काम हम लोग कर लेंगे”, त्रिवेदी जी बोले।

"ठीक है तो मैं अपनी रचनाओं का संकलन कर आपको शीघ्र अति शीघ्र लाकर दे दूँगा"

"जी अतिसुन्दर। सिंह साहब कृपया अपना एग्रीमेंट फॉर्म निर्मोही जी को देदें जिससे कि वह इसे पढ़कर दस्तख़त देकर दें तो हमारे लिये आगे की कार्यवाही करने में मदद मिलेगी”, त्रिवेदी जी ने सुरेंद्र सिंह से कहा। सुरेंद्र सिंह ने अपनी डेस्क के ड्रायर से एक्स्क्लुसिविटी एग्रीमेंट को निकाल कर निर्मोही जी की ओर बढ़ा दिया। निर्मोही ने उसे बड़े ध्यान से पढ़ा और उसे सिंह साहेब को देते हुए कहा, "सिंह जी इसे आप अपने ड्रायर में ही रख लें। मुझे कुछ समय दें मैं आपको इसके बारे में बाद में बता दूँगा"

"क्यो क्या हुआ निर्मोही जी यह तो साधारण प्रक्रिया है जो हम सभी लेखकों के साथ करते हैं"

"जी", निर्मोही जी से बोले।

"मैं समझता हूँ"

"तो फिर...."

“बस मैंने इतना ही कहा कि मुझे कुछ समय दें"

सुरेंद्र सिंह ने बीच में पड़ते हुए कहा, "ठीक है निर्मोही जी कोई बात नहीं आप मुझे बता दीजिएगा मैं ही आपके निवास पर आ जाऊँगा आपकी रचनाएं लेने के लिये और यह एक्स्क्लुसिविटी एग्रीमेंट पर दस्तख़त कराने"

"जी मैं आपको सूचित करूँगा", निर्मोही जी बोले तथा इतना कहकर वह सिद्धी प्रकाशन के कार्यलय से चले आये। उनके निकलते ही त्रिवेदी जी ने सुरेंद्र सिंह से पूछा, "क्या लगता है यह निर्मोही एक्स्क्लुसिविटी एग्रीमेंट पर राज़ी होगा या नहीं"

"देखते हैं", कहकर सिंह साहेब बोले, “त्रिवेदी जी मुझे लगता है कि हमने अपनी बातचीत में कहीं निर्मोही जी के अंतर्मन को छू दिया और हो सकता है कि वह अब अपनी रचनाएं हमको न दें"

"परंतु यह तो बड़ी साधारण बात है कि हम उन सभी रचनाकारों से यह एक्स्क्लुसिविटी एग्रीमेंट साइन कराते हैं"

"जी आपकी बात अपनी जगह सही है लेकिन हर लेखक निर्मोही नहीं हुआ करता है"

त्रिवेदी जी ने भी उत्तर दिया, "हर प्रकाशक भी सिद्धी प्रकाशन नहीं हुआ करता है। हमारा ब्रांड मार्किट में बिकता है"

"सर जी यह न भूलिये कि हम लेखकों की वजह से हैं"

"सिंह साहब आज आपको यह क्या हो गया है"

"सर जी मुझे कुछ भी नहीं हुआ है। मैं बिल्कुल ठीक हूँ और मैंने अपना मत व्यक्त किया है"

त्रिवेदी जी सुरेंद्र सिंह की बात सुनकर कुछ बोले तो नहीं पर मन ही मन कुछ सोचते हुए वहाँ से निकल गए। दो एक दिन बीते होंगे और सुरेंद्र सिंह ने निर्मोही जी से पुनः संपर्क साधा और पूछा, "निर्मोही जी आपने क्या निर्णय लिया"

"जी मैं आपके साथ मिल कर काम नहीं कर पाऊँगा। मैं बिकाऊ नहीं हूँ”, निर्मोही जी ने अपनी बात स्पष्ट रूप से सुरेंद्र सिंह को बता दी। इस पर सुरेंद्र सिंह ने कहा, "अगर मैं आपके साथ काम करना ही चाहूँ"

"वह कैसे?", निर्मोही जी ने पूछा।

"एक बार आपसे मिलना चाहूँगा"

"आइये आपका स्वागत है”, कह कर निर्मोही जी ने सुरेंद्र सिंह को मिलने के लिये बुलाया।

जब सुरेंद्र सिंह, निर्मोही जी से मिले और दोंनों में जो बातचीत हुई और उसके बाद उन्होंने यह निश्चय किया कि वे दोंनों मिल कर एक नया प्रकाशन प्रारंभ करेंगे और वह प्रकाशन सिर्फ नए रचनाकारों की रचनाएं ही प्रकाशित किया करेंगे और उनका प्रयास होगा कि किसी भी तरह लेखकों का प्रताड़ित और शोषित न किया जा सके .......




21-03-2020


एक और कहानी

9 क्रंदन

भोर में अचानक नींद क्या खुल गई और राघव अपने बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचने लगा कि उसने अपने जीवन में क्या कमाया और क्या खोया। कुछ देर सोचने के बाद वह एक झटके से उठा और उसने कैनबेरा, ऑस्ट्रेलिया में रचित को यह सोच कर फोन लगाया कि अब तो वह उठ चुका होगा और ऑफिस जाने की तैयारी कर रहा होगा। घँटी कुछ देर बजी और उसके बाद एक अनाउंसमेंट आने लगा कि आपने जिस सब्सक्राइबर को फोन किया है वह अभी उपलब्ध नहीं हैं कृपया थोड़ी देर बाद पुनः कॉल करें। एक बारगी तो राघव को लगा कि हो सकता है रचित उससे बात ही नहीं करना चाह रहा हो क्योंकि उसकी धर्मपत्नी रचना उससे बेहद नाराज होकर बोली थी कि वह किस-किस से अनाप-शनाप बात करता रहता है जब कि रचित राघव से ही बात कर रहा था। रचित राघव तथा रजनी का एकमात्र पुत्र था जिसे राघव और रजनी ने बड़े नाज़ और प्यार से पाला था। बड़ी उम्मीद थी उन दोंनों को कि जब वह बड़ा होगा और वे दोंनों बूढ़े होंगे तो वह उनका सहारा बनेगा। राघव को बहुत निराशा हुई जब रचित ने राघव का फोन नहीं उठाया।

राघव को एक तो नींद नहीं आ रही थी दूसरा रचित के व्यवहार ने उसके मन को ठेस पहुँचाई जिसको कि वह किसी से बयाँ भी नहीं कर सकता था। ऐसे अंतर्द्वंद के बीच राघव को रजनी की वह बात याद हो आई जो उसने एक रात उससे कही थी, "मैं चाहती हूँ कि हमारे जीवन में एक फूल सी बेटी आये"

इसके जवाब में राघव ने कहा था, "रजनी क्यों तुम उस दर्द को दोबारा बर्दाश्त करना चाहती हो जिसमें कि तुम्हारी जान जाते-जाते बची थी"

"तुम तो बेकार ही डरते हो", यह रजनी ने उस समय कहा था, "हर प्रसव में औरत का पुनर्जन्म होता है। यह मत भूलो लेकिन उस प्रसव पीड़ा के बाद उस फूल जैसे बच्चे को अपनी गोद में लेने का जो अलौकिक सुखद अनुभव होता है वह बहुत सुखदाई होता है और उसका कोई सानी नहीं"

राघव ने रजनी की बात तब बहुत ध्यान से सुनी थी। वह उसे बताना भी चाहता था पर उस समय ही नहीं बाद में भी वह कभी हिम्मत नहीं कर पाया कि रजनी को वह यह बताये कि अब वह खुशी जिसकी रजनी तलबगार है वह कभी भी पूरी नहीं हो पाएगी क्योंकि डॉक्टर्स ने रचित की डिलीवरी के समय ही उसकी ओवरी इस डर से निकाल दी थी कि उसमें कैंसर होने के पूरे-पूरे लक्षण दिख रहे थे। डॉक्टर्स को तो यह भी उम्मीद नहीं थी कि वे लोग बच्चे की डिलीवरी सही ढंग से करा पाएंगे। रजनी की सर्जरी का केस आज भी केजी मेडिकल कॉलेज, लखनऊ में मेडिकल के क्षात्रों को रेफरेन्स के बतौर पढ़ाया जाता है। यह तो भगवान का प्रसाद ही था कि रचिज सही सलामत पैदा हुआ और बाद में जच्चा- बच्चा दोंनों को ही कोई दिक़्क़त नहीं हुई। इन हालात में जो बच्चा पैदा हुआ हो और उसे इतने प्यार से पाला हो जब वह ऐसा व्यवहार करें तो भला एक इंसान क्या करे यह सोच-सोच कर राघव और भी परेशान हो रहा था। जब उसकी उलझन बहुत बढ़ गई और उसे लगा कि उसकी तबियत खराब होने वाली है तो वह बड़ी मुश्किल से बगल में रहने वाली डॉक्टर मिस एडविना को फ़ोन कर बुलाया। एडविना ने आते ही राघव को बताया कि उसे माइल्ड हार्ट अटैक पड़ा है और उसे तुरंत मेडिकल असिस्टेंस चाहिए। राघव एडविना की बात सुनकर स्तब्ध रह गया उसके मुँह से बस इतना ही निकला, "डॉक्टर आप ही कुछ करिये मेरा तो यहाँ कोई और नहीं है"

एडविना ने राघव की बात सुन कर उससे कहा, "मिस्टर राघव आप चिंता मत करिए मैं कुछ करती हूँ"

इसके बाद एडविना ने लॉरी हार्ट सेंटर को फोन कर तुरंत एम्बुलेंस मंगाई और उन्हें वहाँ शिफ़्ट किया। एडविना हॉस्पिटल में राघव के साथ ऐसे रही जैसे कि वह उसकी साया हो। एडविना ने राघव के इलाज के दौरान ऐसी देखभाल की जैसे कि राघव उसके बहुत करीब है। जब राघव हॉस्पिटल से घर वापस पहुँचा उसके बाद भी उसकी देखभाल उसी ने की। एक दिन एडविना ने राघव के फोन से ही रितिज को फोन किया पर जब उसने कोई जवाब नहीं दिया तो वह समझ गई कि अब रितिज राघव से कभी भी मिलने नहीं आने वाला है। एडविना ने एक नौकर रख कर राघव की देखभाल शुरू की। सुबह शाम वह राघव से मिलने आती उसका हाल पूछती। देर समय तक उनके साथ रहती। देर रात ही वह राघव को नौकर के हवाले कर अपने घर वापस आती।

एक दिन जब एडविना ने पूछा, "मिस्टर राघव हाऊ डू फील नाउ"

"आई एम मच बैटर नाउ। एडविना थैंक यू सो वेरी मच फ़ॉर टाइमली हेल्प। इफ यू वुड नॉट हैव कम ऑन दैट नाईट आई माइट नॉट हैव बीन एलॉइव"

"अरे अंकल सब ठीक है वह तो अच्छा हुआ कि आपने मुझे बुला लिया और आपको टाइम से मेडिकल असिस्टेंस मिल गई नहीं तो कुछ भी हो सकता था"

"बेटी मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ"

"बोलिये अंकल"

"इधर आओ मेरे पास बैठो", एडविना को अपने पास बिठा कर राघव ने अपनी बीती कहानी सुनाई और एक प्रार्थना भी की, "मैं और रजनी शुरू से ही चाहते थे कि हमारी एक बेटी हो पर यह शायद भगवान को मंजूर न था। मुझे पता है कि इस दुनिया में तुम्हारा भी कोई नहीं है। क्या तुम मेरी बेटी बनोगी"

एडविना जो राघव की हर शब्द को बहुत ध्यान से सुन रही थी अचानक टूट कर राघव के गले जा लगी और बोली, "अंकल आपने मुझे बेटी कहा ही नहीं बल्कि उसका दर्जा भी दिया। इससे बड़ी बात मेरे लिए क्या होगी। अंकल मैं आपकी तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ"

राघव की आँखों में भी आँसू भर आये और वह रुंधे हुए गले से बोले, "तो फिर मुझे तुम अंकल क्यों कहा रही हो। अगर तुम मुझे रितिज की तरह पापा कह कर पुकारोगी तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी"

एडविना ने राघव के आँखों से आँसू पौंछे और हल्की सी मुस्कान अपने चेहरे पर लाकर बोली, "पापा माइ डिअर पापा आई लव यू”

राघव ने एडविना को अपने सीने से ऐसे लगाया जैसे कि एक बाप अपनी पुत्री से बरसों बाद मिल रहा हो।




22-03-2020

एक और कहानी जो आपके दिल को छुए वगैर रह नहीं सकती। बस आप एक बार पढ़िए। बंगाल के लोगों के दिल कहां रहते हैं जनिये.....
10 आकाश
गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर के उपन्यास की वह एक बात, उसके दिमाग़ में इस क़दर घर कर गई कि वह उसे भुला कर जीवन में आगे बढ़ना चाहती थी पर हर बार वह उसके बढ़े हुए कदमों को पीछे खींच लेती थी, जिसमें नायिका अपने प्रेमी से कहती है, “मैं विवाह करने को तो राजी हूँ किन्तु तुम झील के उस ओर रहोगे और मैं झील के इस ओर”
यह बात प्रेमी की समझ के बाहर है इसलिये वह कहता है, “तू पागल हो गई है? प्रेम करने के बाद लोग एक ही घर में रहते हैं”
नायिका कहती है, “प्रेम करने के पहले भला एक घर में रहें, प्रेम करने के बाद एक घर में रहना ठीक नहीं, खतरे से खाली नहीं। एक-दूसरे के आकाश में बाधाएं पड़नी शुरू हो जाती हैं। मैं झील के उस पार, तुम झील के इस पार। शर्त अगर तुम मानते हो तो ही विवाह होगा। हाँ, कभी तुम निमंत्रण भेजना तो मैं आऊंगी। या मैं निमंत्रण भेजूँगी तो तुम आना। या कभी झील पर नौका-विहार करते अचानक मिलना। या झील के पास खड़े वृक्षों के पास सुबह के भ्रमण के लिए निकले हुए अचानक हम मिल जाएंगे, चौंक कर, तो प्रीतिकर होगा। लेकिन गुलामी नहीं होगी। तुम्हारे बिना बुलाए मैं न आऊँगी मेरे बिना बुलाए तुम न आना। तुम आना चाहो तो ही आना, मेरे बुलाने से मत आना। मैं आना चाहूँ तो ही आऊँगी, तुम्हारे बुलाने भर से न आऊँगी। इतनी स्वतंत्रता हमारे बीच रहे, तो स्वतंत्रता के इस आकाश में ही प्रेम का फूल खिल सकता है”
दिव्या मुख़र्जी, जी आपने सही सुना। यह वही दिव्या मुख़र्जी थी जिसका लालन पोषण कोलकता के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में उच्च आदर्शों और मान्यताओं के बीच हुआ था लेकिन कोलकता क्या छूटा उसका संसार, उसकी चाहत, उसके शौक, रवीन्द्र संगीत, उसका सब कुछ वहीं रह गया। जब-जब वह याद करती कि वह सूती हल्के धानी रँग के पतले बॉर्डर वाली साड़ी और कोल्हापुरी चप्प्लों में जब अपने घर से कॉलेज के लिये मयूरी की चाल से चलती तो न जाने कितने ही नवयुवकों के हृदय पर राज करती थी।
उसके जीवन में एक दिन जसबीर संधू क्या आया जैसे कि उसका सब कुछ ही बदल गया। वह प्रेम की परिभाषा कि मैं इस झील के इस पार और तुम उस पार, हमारा अपना आकाश अलग-अलग होगा, हम कभी एक दूसरे के आकाश में कभी पदार्पण करेंगे। तुम तुम रहना और मै, मैं। हम एक दूसरे से प्यार तो करेंगे पर कभी कोई किसी पर राज नहीं करेगा। गुरुदेव की नायिका और नायक की सोच बहुत पीछे छूट गई। जसबीर जिस परिवेश से आता था वहाँ सब कुछ अलग था। तेज फ़र्राटेदार ज़िंदगी। नई-नई कारें, हर रोज की पार्टियां, खाना पीना और ऐश करना ही लगता था अब उसकी यही जिंदगी जैसे कि इन सबकी क़ैदी बन कर रह गई हो।
दिव्या और जसबीर की ज़िंदगी में सब कुछ फास्टट्रैक पर आई गाड़ी की तरह हो गया। प्यार क्या हुआ झट से शादी और उसके अगले ही दिन वे दोंनों ओटावा, कनाडा आ गए जहाँ जसबीर के परिवार का बिजनेस था। आलीशान घर उच्चकोटि के लोगों के बीच उठना बैठना पैसों की भरमार शुरू में तो सब अच्छा लगा पर अब वही सब दिव्या को एक बंधन सा लगने लगा था। उसे यही लगता कि हर रात को कोई उसके आकाश में जबरन घुस आता है, अठखेलियां करता है, जबरदस्ती कर उसे चूमता है चाटता है और जब वह तक कर चूर हो जाता है तो फिर वह सो जाता है। दिव्या को अब महसूस होता कि दो विभिन्न जगह रहने वाले और अलग-अलग परिवेश और सभ्यताओं का मिलन कितना अजीब होता है। कभी-कभी तो दिव्या सोचती कि इन सबको छोड़कर वह फिर अपने आकाश कोलकता में लौट जाए, वहीं आ जाये जहाँ उसका बचपन बीता, यौवन आया, उसके दोस्त यार हैं पर यह मुमकिन हो न सक। क्योंकि उसके और जसबीर के बीच एक मजबूत कड़ी थी और वह थी उन दोंनों की एक मात्र बेटी माघी।
माघी अभी अपने चौथे साल में थी और अपने पाँचवे जन्मदिन की तैयारी कर रही थी। दिव्या हर रोज माघी को उसके नाना नानी की कहानी सुनाती, कोलकता के बारे में बताती, गुरुदेव रवींद्र नाथ के शांतिनिकेतन के बारे में बात करती, कभी-कभी रवींद्र संगीत भी गाकर सुनाती। माघी के मन में उसने बंगला सभ्यता के लिये शुरू से ही प्यार जागने की कोशिश की थी। एक दिन बातों ही बातों में दिव्या ने माघी से पूछा कि क्या वह शांतिनिकेतन में रह कर पढ़ना चाहेगी तो माघी ने ‘हाँ’ कह दिया। उसके बाद दिव्या ने उसको शांतिनिकेतन भेजने की तैयारी शुरू कर दी। जसबीर से कह कर अपनी और माघी की कोलकता की टिकट कराई और ओटावा से अपने घर कोलकता आ गई।
माघी को पाकर पूरा मुख़र्जी परिवार बहुत खुश था। घर के सभी सदस्य उसे बेहद प्यार करते, उसके साथ खेलते-कूदते, जहाँ जाते उसे अपने साथ साथ ले जाते, देर रात तक उसके नाना नानी उसे कहानी सुनाते। एक शाम पूरा मुख़र्जी परिवार माघी को लेकर हुगली आया। वे लोग नदी किनारे घण्टों बैठे उसे भारत की नदियों की महिमा के बारे में बताया। यह सब सुनकर माघी बोली, "ओटावा में भी घर के पास एक नदी बहती है पर उसके बारे में तो किसी ने मुझे कुछ भी नहीं बताया"
दिव्या ने माघी की बात सुनकर कहा, "वहाँ किसके पास इतनी फुर्सत है जो तुमसे नदियों के बारे में बात करे। वहाँ तो सबने आकाश को अपनी मुट्ठी में बांध रखा है खुला आकाश है ही कहां"

माघी का एडमिशन शांतिनिकेतन में करा कर दिव्या फिर कोलकता में ही रह गई कभी लौट कर ओटावा नहीं गई। जसबीर ने बहुत प्रयास किया पर हर बार दिव्या ने यही कहा, “वह अब कोलकता छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी। उसे अपना आकाश चाहिए जहाँ वह आजाद पंक्षी की तरह उड़ सके, वह अब बंधनों में बंध कर न रह सकेगी”



23-03-2020

यादों का क्या जब आईं तब बहुत कुछ कह गईं .....

11 पुरवाई

अभिजीत का गाँव हसनपुर, एत्मादपुर, आगरा जनपद में था। अभिजीत के गाँव में उसके पास उसके दादा का बनाया हुआ लखौरी ईंट का तीन मंजिला घर था। घर के ठीक सामने एक बड़ा सा चबूतरा था जिस पर गाँव के लोग बैठकर गपशप किया करते थे, खाली समय में बच्चे खेला करते थे। अभिजीत के पिता गाँव के ही प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे इसलिये उन्हें यह ज्ञान था कि अगर किसी को जीवन मे कुछ बनना है तो उसे पढ़ना लिखना होगा। इसलिए उन्होंने अभिजीत की पढ़ाई लिखाई पर शुरू से ही ध्यान दिया। अभिजीत ने जब इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की तो उसके पिता ने आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिये उसका एडमिशन आगरा के बीआर कॉलेज में करा दिया। उन्होंने अभिजीत को कॉलेज के ही हॉस्टल में रहने की व्यवस्था भी कर दी। लगभग हर रविवार को अभिजीत रेल गाड़ी या बस से अपने गाँव आ जाता अपने माता पिता के साथ रहता और सुबह होते ही सोमवार को आगरा वापस चला जाता। जब अभिजीत ने एम ए की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसकी नौकरी लखनऊ विश्वविद्यालय में लग गई तो उसके पिता ने उसका विवाह हिना से करा दिया। हिना के पिता पुराने लखनऊ के राजा बाज़ार के रहने वाले थे इसलिये कुछ दिन तो अभिजीत अपनी ससुराल में ही रहकर नौकरी पर आता जाता रहा। कुछ दिनों बाद जब उसे विश्वविद्यालय की ओर से एक मकान अलॉट हो गया तो वह हिना के साथ उस मकान में आ गया। धीरे-धीरे नौकरी करते हुए अभिजीत ने पीएचडी की डिग्री भी प्राप्त कर ली। उसके बाद अभिजीत को विश्वविद्यालय में ही प्रोफ़ेसर के पद पर प्रोमशन तो हुआ ही साथ में बंगला भी मिल गया। अभिजीत और हिना के बीच प्यार पनपता रहा और उनके जीवन मे एक पुत्ररत्न आया जिसका नाम उन्होंने हितेश यह सोचकर रखा कि वह उनके बुढ़ापे का सहारा तो बनेगा ही और साथ मे वह उनके लिये हितकारी भी रहेगा। लेकिन वह शादी के बाद अपनी पत्नी को लेकर ऑस्ट्रेलिया चला गया और फिर वह वहीं का होकर रह गया। अभिजीत और हिना अकेले पड़ गए। अभिजीत ने रिटायरमेंट के पहले ही अपने लिये गोमती नगर में अपने लिये दो मंजिला मकान बना लिया था जिसमें वह अब हिना के साथ रहता था।

बारिश के मौसम में पुरवाई के एक झौंके ने अभिजीत को जो कि अपने मकान की बॉलकनी में हिना के साथ बैठकर चाय क्या का आनंद ले रहे थे अचानक उन्हें उनके गाँव पहुँचा दिया। अभिजीत हिना से बोले, "तुम्हें तो कभी गाँव में रहने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ पर मेरा तो बचपन ही गाँव में गुजरा है। मैं यह जानता हूँ कि जब-जब यह पुरवा चलती है तो इसके लिये यह कहा जाता है कि यह वह हर पुरानी चोट के दर्द को उभार देती है जो पहले किसी वक़्त में लगी हो"

हिना भी जो कि एक हँसमुख व्यक्तित्व की धनी थीं अभिजीत की बात सुनकर बोल उठी, "मैं भले ही गाँव में न रही हूँ पर मैंने अपनी माँ से पुरवाई के बारे में खूब सुना है वह भी हमेशा यही बात कहतीं थीं, जो आप कह रहे हैं"

हिना की बात सुनकर अभिजीत बाबू ने अपने बचपन का एक किस्सा सुनाते हुए कहा, "हमारे समय के गाँव में बच्चों के बीच दो तीन खेल बड़े प्रचलित हुआ करते थे जैसे कि गिल्ली डंडा, लम्बी कूद, कुश्ती वग़ैरह। एक बार की बात मुझे याद है कि कुछ बच्चे गिल्ली डंडा खेल रहे थे और मैं उन्हें अपनी हवेली के सामने वाले चबूतरे पर खड़ा देख रहा था। एक बच्चे ने गिल्ली को डंडे से इतनी जोर से मारा कि गिल्ली सीधे मेरे गाल के बाएं हिस्से पर लगी। मैं जोर से चीखा 'अम्मा मार डाला'। मेरी चीख सुनकर हवेली के अंदर से मेरी माँ और मौसी के साथ अम्मा भी दौड़ती आईं और मुझ से पूछा कि क्या हुआ बेटा क्या हुआ? मैं जोर-जोर से रोये जा रहा था बस मैंने उन लड़कों की ओर इशारा कर दिया। पास ही गिल्ली पड़ी हुई थी उसे देख मेरी अम्मा को समझने में देर न लगी कि उन लड़कों की गिल्ली मुझे आ लगी है। मेरी माँ ने झट से अपनी साड़ी का पल्लू मुँह में दबाया और मुँह की हवा से गरम कर वहाँ लगाया जहाँ गिल्ली आ लगी थी। अम्मा मेरी माँ से बोली हट बहू इससे कुछ नहीं होगा नील पड़ गया है अंदर चल कायदे से सिकाई कर हल्दी का लेप लगा तब यह चोट ठीक होगी। शाम को मेरे बाबू जब घर लौटे तो उन्होंने मेरी ओर देखा और पूछा 'इसे क्या हुआ'। मेरी अम्मा ने उन्हें पूरी बात बताई तो उसके बाद डांट मुझे ही पड़ी कि भला मैं वहाँ क्या कर रहा था। बचाव में जब मेरी माँ आई तब जाकर कहीं मुझे छुट्टी मिली नहीं तो बेमतलब ही मुझे डांट पड़ती"

हिना ने अभिजीत की बात ध्यान से सुनी और बोल पड़ीं, "इसमें कौन सी खास बात है बचपन में तो चोट लगा ही करतीं हैं। मुझे तो वह किस्सा सुनाओ जो आपने एक बार पहले सुनाया था"

"कौन सा किस्सा?"

"वही जिसकी चोट आज भी आपके दिल पर है"

"छोड़ो भी तुम भी न जाने कभी-कभी बेवक़्त की शहनाई बजाने लगती हो"

"सुनाओ भी न मुझे। तुम जानते हो कि मैं तुम्हारे बारे में सब कुछ जानती हूँ पर मैं तुमसे कुछ भी नहीं कहती"

हिना का हाथ अपने हाथ में लेकर बड़े प्यार भरी नजरों से हिना के चेहरे की ओर देखते हुए अभिजीत ने कहा, "हिना हमारे बीच इसी खुलेपन ने आपसी विश्वास की वह आधारशिला रखी है जिस पर हमारा पति पत्नी का रिश्ता कायम है"

"यह बात तो है” हिना बोली। इतने में ही बारिश का पानी बॉलकनी में हवा के झौंके के साथ आकर दोंनों को भिगोने लगा तो हिना बोली, "उठिए आप भीग जाएंगे"

अभिजीत ने हिना का हाथ पकड़ा और बोले, "बैठो भी आज मन इस बरसात में भीग जाने का कर रहा है"

हिना अभिजीत की ओर देखती रही और वे दोंनों देर तक पानी इन भीगते रहे। जब अभिजीत को छींके आने लगीं तो वे उठ कर भीतर आये और हिना बोली, "अब आप वह पुराने जमाने वाले अभिजीत बाबू नहीं रहे अब आप सत्तर से ऊपर के हो गए हैं अपना ध्यान रखा करिये। चलिये अंदर कमरे में मैं आपके सीने में विक्स लगा दूँ उसके बाद चादर ओढ़ कर चुपचाप लेटिये"

हिना ने अभिजीत के सीने पर विक्स लगाई और एक चादर उड़ा कर वह भी अभिजीत के पास लेट कर बोली, "सुनाओ न कमल नसीम के बारे में कुछ"

यादों में खोते हुए अभिजीत ने हिना से कहा, "मैं तो तुम्हें कमल नसीम के बारे में सब कुछ बता चुका हूँ अब मेरे पास कुछ बचा ही नहीं है जो तुम्हें बताऊँ"

"आप वही सब एक बार फिर से सुना दीजिये न मुझे आपकी यादों को कुरेदने में बहुत अच्छा लगता है। हम दोंनों के बीच यही बातें हमें अपने अतीत से जोड़कर रखतीं हैं”, हिना ने कहा।

अभिजीत जिसने कभी भी हिना को नाराज़ नहीं किया था उसकी ज़िद के आगे झुक गए और फिर कमल नसीम के बारे में बताया कि.....

"कमल नसीम के पिता श्रीनगर, जम्मू कश्मीर के एक पंडित परिवार से थे लेकिन उनका प्यार एक महजबीं नाम की एक मुस्लिम परिवार की लड़की से हो गया और वे डर के आगरे आ गए जहाँ उन्होंने बाग़ मुज़्ज़फर खां मोहल्ले में एक घर किराए पर लिया और वहीं रह कर किनारी बाज़ार में एक छोटी सी दुकान खोल ली जिसमे वह कपड़ों का व्यापार करते थे। हिंदू मुसलमान युगल की पैदाइश थी कमल नसीम जिसका नाम ही उसके माता पिता के बीच की कहानी बयाँ करता था। कमल नसीम और मैं एक साथ पढ़ा करते थे। देखने सुनने में कमल नसीम का कोई जवाब नहीं था। जब वह सफ़ेद रंग का सलवार सूट पहन कर सायकिल से कॉलेज आती तो हमारे कॉलेज के लड़कों के दिलों में धक-धक होने लगती। मैं जब उसकी ओर देखता तो बस मेरा दिल यही करता कि काश वह एक नज़र मेरी ओर देख भर ले। क़िस्मत में जो लिखा होता है वह होकर ही रहता है। एक दिन की बात है वह अपनी साइकिल से और मैं पैदल कॉलेज जा रहे थे कि सामने से एक भैंस ने उसकी सायकिल को टक्कर मार दी। वह सड़क पर गिरी तो उसके माथे पर चोट लग गई थी। मैंने उसे बहुत सम्हाल कर उठाया और सहारा दिया। उसके सर पर गीले कपड़े की पट्टी की और पास ही हॉस्पिटल रोड पर डॉक्टर बंसल के यहाँ ले जा कर उसकी मरहम पट्टी कराई और उसे उसके घर छोड़ा। जब वह कुछ दिन बाद मुझे कॉलेज में मिली तो उसने मेरा शुक्रिया अदा किया। उस दिन के बाद तो हम अक़्सर मिलने लगे। मैं उसे कभी अपने साथ ले जाता उस ज़माने में आगरे में सेंटजॉन कॉलेज चौराहे पर मधु आइस क्रीम बहुत मशहूर दुकान हुआ करती थी मैं उसे आइसक्रीम खिलाने ले जाता तो कभी हॉस्पिटल रोड चौराहे पर छोले भटूरे खिलाने। वह भी मुझे अपने साथ अपने पिता की किनारी बाज़ार दुकान पर ले जाती। हम लोग वहाँ उसके पिता से बैठकर गपशप करते। जब वक़्त मिलता तो वह मेरे साथ ताज और लालकिला भी देखने जाती। मेरे और उसके बीच प्यार कब हुआ हमें पता ही नहीं लगा। हम लोग मिलते अपनी आने वाली ज़िन्दगी के ख़्वाब देखते कि हम दोंनों पढ़ लिख कर शादी रचाएंगे और आगरे में ही बस जाएंगे। लेकिन वे सब ख़्वाब, ख़्वाब ही रह गए जब मेरे पिता को यह पता लगा कि वह एक हिन्दू पिता और मुसलमान माँ की जाई हुई बेटी बेटी है। मेरे पिता मुझ पर तो नाराज़ हुए ही साथ ही साथ वह कमल नसीम के माता पिता से मिले उन्हें भी भला बुरा कहा। बस उस दिन के बाद हम दोंनो का प्रेम का भूत उतर गया उसके माता पिता ने उसकी शादी जम्मू के एक पंडित परिवार के लड़के से कर दी और मैं लखनऊ आ गया। मैं तुम्हारा और तुम मेरी हो गई। बस इतनी सी है मेरी प्रेम कहानी"

"इतनी सी नहीं है आपकी प्रेम कहानी अभी तो और बहुत कुछ भी है आपकी कहानी में”, हिना मुस्कुराके बोली।

"हाँ है न अभिजीत और हिना का विवाह और उसके बाद हितेश उसकी शादी फिर हम दो अकेले नितांत अकेले...", कहते कहते अभिजीत के गाल पर एक बूंद आँसूं की बह निकली। हिना ने जब अभिजीत की आँखों में आँसू देखे तो अपने आँचल से उन्हें पौंछा और सर पर थपकी देते हुए कहा, "अब सो भी जाओ रात बहुत हो गई है"

अगले दिन कुछ ऐसा हुआ जिसकी न तो कोई उम्मीद अभिजीत ने को थी और नहीं हिना ने। किसी ने घंटी बजाई तो हिना ने जाकर दरवाज़ा खोला तो एक महिला को वहाँ खड़े पाया। वह महिला भी हिना की हम उम्र थी उसने हिना को देखते ही कहा, "आप हिना शुक्ला"

हिना ने जवाब दिया, "जी मैं ही हिना शुक्ला हूँ और आप?"

"मैं बहुत दूर जम्मू से अभिजीत शुक्ला से मुलाक़त करने के लिए से आई हूँ। मेरा नाम है कमल नसीम"

हिना ने जब यह सुना तो एक पल के लिये तो उसे समझ ही नहीं आया कि वह क्या करे पर अगले पल ही उसने आगे बढ़ कर कमल नसीम को अपनी बाहों में जकड़ लिया और बोली, "बहुत इंतज़ार कराया। आपके बारे में मैं और अभिजीत कितनी बातें करते रहे हैं। आइये अंदर आइये आप बैठिये मैं अभिजीत को बुलाती हूँ"

जब अभिजीत और कमल नसीम मिले तो उनकी आँखों में वे सब पल घूम गए जब वे साथ साथ आगरे में उठते बैठते थे, फिर तो क्या कहने जब हिना चाय और नाश्ता लाकर लौटी तो उसने आते ही कहा, “मैं और अभिजीत तो अक्सर ही आपके बारे में बात करते रहते हैं, आपको अपने सामने पाकर मैं समझ ही नहीं पा रही हूँ की आपका स्वागत कैसे करू”

कमल नसीम ने मुस्कराते हुए कहा, “मेरे और अभिजीत के बीच कुछ ऐसा था ही नहीं जिसे मैं या वह कुछ भी छिपाना चाहें”

“जी जानती हूँ”

“बस अभिजीत मेरी किस्मत में था नहीं उसे तो आपका जो होना था”

कमल नसीम की यह बात सुनकर हिना ने कमल नसीम को अपने गले से लगा लिया और बोली, “कमल क्या तुम मेरी बहन बनना पसंद करोगी?”

“जम्मू से मैं इतनी दूर आई हूँ तो किसके लिए कुछ पुराने रिश्तों को हवा देने और कुछ नए रिश्ते बनाने......”

जीवन में एक वक़्त ऐसा भी आता है जब डॉक्टर में ही भगवान नज़र आता है.....
12 डॉक्टर
डॉक्टर आदर्श दिल्ली के पटपड़गंज के मैक्स सुपर स्पेशस्लटी हॉस्पिटल्स में सर्जरी डिपार्टमेंट के हेड हुआ करते थे। एक दिन जब उसके जूनियर डॉक्टर्स ने बताया, “सर जिस मरीज़ को गाल स्टोन के लिये ऑपरेट करना है उसका केस कुछ कॉम्प्लिकेटेड लग रहा है इसलिए यह ऑपेरशन आप ही को करना पड़ेगा”
इस पर डॉक्टर आदर्श ने मरीज़ की केस हिस्ट्री देखी तो उन्हें शक़ हुआ कि कहीं यह लेट स्टेज कार्सिनोमा का केस न हो क्योंकि जितने भी सिम्पटम दिख रहे ते वह यही इंगित कर रहे थे। डॉक्टर आदर्श ने अपना मन कड़ा किया और ऑपरेशन थिएटर में जाने की तैयारी की। अननेथेसिस्ट ने अपना काम कर दिया था उसने मरीज़ को बेहोशी का इंजेक्शन लगा दिया था। डॉक्टर आदर्श ने जैसे ही ऑपेरशन शुरू करने के लिए अपना हाथ नर्स की ओर किया कि वह उन्हें सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट्स दे कि उनका ध्यान अचानक ही मरीज़ के चेहरे पर गया उसे देख एक बार तो उनका हाथ ही कांप गया जब उन्होंने वहाँ आभा को पाया।
अचानक ही डॉक्टर आदर्श की आँखों में वे दिन घूम गए जब वह इंटरमीडिएट कॉलेज में पढ़ते थे और आभा उनके क्लास में उन्ही के साथ पढ़ती थी। आभा के चेहरे की आभा आदर्श के दिल पर कब से राज करने लगी यह तो आदर्श खुद भी नहीं जानता था बस वह यह जानता था कि उसके दिल में आभा के लिये कुछ-कुछ होता है। आभा कपूर डॉक्टर एस के कपूर और उनकी पत्नी रीमा कपूर की एक मात्र पुत्री थी। खत्रियों की लड़कियां देखने में गौरवर्ण की धनी होने के साथ-साथ आकर्षक नाक और नक्श से किसी का भी दिल जीतने में सक्षम होती हैं। आभा भी अपने आप में पूरे शहर में सबसे खूबसूरत लड़की मानी जाती थी। डॉक्टर कपूर अपने शहर के जानेमाने डॉक्टर थे। उनके हॉस्पिटल पर मरीजों की भीड़ लगी रहती थी। उनका व्यवहार अपने मरीजों के प्रति और अपने जान पहचान वालों के साथ इतना अच्छा हुआ करता था कि वे सब उनके मुरीद थे। डॉक्टर कपूर का पैतृक घर शहर के खत्राने मोहल्ले में हुआ करता था जहाँ शहर के दूसरे नामीगिरामी खत्री परिवारों के साथ कुछ ब्राम्हण परिवार भी रहा करते थे। यह खत्री परिवार उन लोगों में से एक थे जो कि उत्तर प्रदेश के दूसरे शहरों में पाए जाते हैं जो अधिकतर अपने आप को कपूर, बैजल, टण्डन, खन्ना, मेहरोत्रा, सेठ इत्यदि लिखते हैं पर इनका खाना पीना एक अरसे से यहाँ रहने के कारण पंजाब के खत्री परिवारों से बिल्कुल अलग होता है। डॉक्टर कपूर ने अपने पुराने पारिवारिक घर को तुड़वा कर आलीशान कोठी में परिवर्तित कर दिया था पर इस घर की छत के नीचे उनके दो भाई और उनका परिवार भी रहा करता था। डॉक्टर कपूर के एक भाई जो कि उनके साथ हॉस्पिटल में काम करते थे। उनके तीसरे भाई ज़मीन ख़रीद फ़रोख़्त का काम करते थे। शहर में जो भी तीन पेट्रोल पंप थे वे सभी बैजलों के पास थे। टण्डन परिवार ने कपड़ों के बाज़ार पर अपना प्रभुत्व बना रखा था। यूँ कहें तो सभी खत्री परिवार आपस में घुल मिलकर रहते और अपने बच्चों की शादियां भी आपस मे करके ख़ुशी-ख़ुशी जीवन यापन करते। डॉक्टर कपूर की भी यही सोच थी कि जब आभा इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर ले तो उसे भी किसी मेडिकल कॉलेज में एडमिशन दिला कर डॉक्टर बना कर किसी अच्छे खत्री परिवार के लड़के के साथ शादी करदें जिससे कि उनका हॉस्पिटल भी चलता रहे और उनकी बच्ची भी उनकी आँखों के सामने बनी रहे। आभा भी अपने पिता के सपनों को साकार करने में कोई कसर नहीं करती थी। इसलिये वह अपनी पढ़ाई-लिखाई के प्रति बहुत ही सजग थी।
आभा अपने घर से कॉलेज के लिए करीब आधा घँटे पहले रिक्शे से निकलती थी। आदर्श को यह सब पता था। इसलिये वह भी अपने घर से निकल कर कोशिश करता कि गोपाल सुपाड़ी और तंबाकू भंडा से अपने लिये मीठी चिकनी सुपाड़ी लेकर आभा के रिक्शे के आगे पीछे ही साइकिल से चला करता जिससे कि वह आभा की दृष्टि में आये और उसके दिल में अपना स्थान बना सके। वह यह भी सुनिश्चित करता कि रास्ते में आभा को कोई दूसरा छेड़ने की हिमाक़त न करे। यह बात आभा भी जानती थी पर इन सबके बाबजूद उसके दिल में आदर्श अपने लिये कोई जगह बनाने में सफल न हो सका था।
धीरे-धीरे करके इंटरमीडिएट की फाइनल परीक्षाओं के दिन क़रीब आने लगे तो एक दिन हिम्मत जुटा कर आदर्श ने अपने दिल की बात आभा के सामने रखते हुए कहा, "आभा मैं तुम्हें बेहद प्यार करता हूँ और एक तुम हो कि कभी भी तुम मेरी तरफ एक नज़र करके देखती भी नहीं हो"
आभा ने भी बड़ी सादगी से आदर्श को उत्तर देते हुए कहा, "तुम मुझे भी बहुत अच्छे लगते हो पर मैं तुम्हें प्यार नहीं करती क्योंकि मैं प्यार व्यार के चक्कर में फँस कर अपना भविष्य दाँव पर नहीं लगा सकती। अभी मेरा लक्ष्य इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करना है उसके बाद मुझे मेडिकल एंट्रेस की तैयारी करनी है। मैं तुम्हें सलाह दूँगी कि तुम भी अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो और मेरी तरह जीवन मे कुछ बनने का प्रयास करो"
"अगर तुम डॉक्टर बनना चाह रही हो तो आभा मैं भी तुम्हें एक दिन डॉक्टर बन कर दिखाऊँगा", आदर्श ने आभा से कहा।
आभा ने आदर्श की बात सुनकर उससे कहा, "आदर्श तुम जिस दिन डॉक्टर बन जाओगे, तब तुम मुझसे मिलना। मैं उस समय तुम्हारे प्रणय निवेदन पर शर्तिया विचार करूँगी"
उस दिन के बाद आदर्श ने अपना यह ध्येय बना लिया कि वह डॉक्टर बन कर ही चैन लेगा। इंटरमीडिएट परिक्षाएँ उत्तीर्ण करने के बाद उसने भी मेडिकल के एंट्रेंस टेस्ट की तैयारी की। जब एंट्रेंस टेस्ट का रिजल्ट आया तो उसमें आभा के साथ-साथ आदर्श का भी नाम सफलता पाने वालों की लिस्ट में था। कुछ दिनों में कौन्सिललिंग के लिये आभा को कानपुर तो आदर्श को लखनऊ मेडिकल कॉलेज से काल आया। इस तरह आभा को कानपुर और आदर्श को लखनऊ मेडिकल कॉलेज में एडमिशन मिल गया।
आदर्श और आभा ने एक साथ एमबीबीएस पास किया। आदर्श उसके बाद एमडी करने के लिये लखनऊ में ही रह गया। आभा अपने पिता डॉक्टर कपूर के साथ मिलकर प्रैक्टिस करने लगी। एक दिन जब आदर्श आभा से मिला तो उसने आभा को उसकी कही बात याद दिलाई। जिसे सुनकर आभा ने आदर्श से कहा, "डॉक्टर आदर्श मुझे अपने कहे हुए एक-एक शब्द याद हैं। मैं यह भी कहूँगी कि मेरे दिल में तुम्हारे लिये एक विशिष्ट जगह भी है। सच कहूँ तो मुझे तुमसे प्यार भी है। बस मैं इतना भी कहना चाहूँगी कि अब तुम्हें अपने पिताश्री से बात करनी चाहिये कि वह मेरे पिता से आकर मेरे और तुम्हारे विवाह के बारे में बात करें"
"ठीक है। मैं उनसे बात करता हूँ और कहूँगा कि वह तुम्हारे पिता से हमारे सम्बंध में आगे बात चलाएं"
"मुझे ख़ुशी होगी”, बस इतना ही कहा था आभा ने आदर्श से।
क़िस्मत को शायद यह क़ुबूल न था डॉक्टर कपूर ने आदर्श के पिता का प्रस्ताव यह कह कर ठुकरा दिया कि वे अपनी बेटी की शादी किसी सजातीय खत्री परिवार में ही करना चाहेंगे। इसके बाद जीवन में फिर कभी आदर्श आभा से नहीं मिला। आज ऑपेरशन थिएटर की टेबल पर आभा को देखकर आदर्श अंतर्मन तक हिला हुआ महसूस कर रहा था। इस सबके बाबजूद आदर्श ने हिम्मत यह कर जुटाई कि एक नेक इंसान होने के साथ साथ वह एक सर्जन भी है। उसने नर्स से सर्जिकल एक्विमेंट अपने दाएं हाथ में लिये और आभा के शरीर पर कट लगाया। डॉक्टर आदर्श के साथ कुछ जूनियर डॉक्टर्स भी वहाँ थे जो उसकी मदद कर रहे थे। आभा का ऑपेरशन लगभग दो घटें से ऊपर चला उसके बाद जब आदर्श ओ टी से बाहर निकला तो बहुत निराश लग रहा था। आदर्श को ओ टी से बाहर आता देख आभा के पति मेहरोत्रा उसकी और बढ़े और ऑपरेशन के बारे में जानकारी करनी चाही तो आदर्श उन्हें साथ लेकर को अपने चैम्बर की ओर बढ़ चला। अपनी सीट पर बैठकर आदर्श ने ऑपरेशन के बारे में बताते हुए कहा, "मेहरोत्रा साहब मुझे पता नहीं था कि मुझे आज अपनी एक पुरानी दोस्त डॉक्टर आभा का ऑपरेशन करना था। सही बताऊँ तो उसकी हालत देखकर एक बार तो मेरे भी हाथ काँप गए थे। मैं यह सोच रहा था कि मैं अपने ऑपरेशन में हर रोज़ की तरह कामयाब हो जाउँगा लेकिन जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता गया मेरी दिक्कतें और बढ़ती गईं। मैं उस जगह तक पहुँच ही नहीं पा रहा था जहाँ से आभा की बीमारी की शुरुआत हुई थी। बड़ी मुश्किल से मेरा हाथ वहाँ तक पहुँचा और किसी तरह आपरेशन कर सका। सही मायने में कहूँ तो यह ऑपेरशन मेरी जिंदगी का सबसे कठिन इम्तिहान था। मैंने अपनी पूरी कोशिश की है कि ऑपेरशन सफल रहे लेकिन सब कुछ अब इस बात पर निर्भर करता है कि एडवांस टेस्टिंग की रिपोर्ट क्या आती है। आप मेरे जूनियर से मिल लें और वह सैम्पल टेस्टिंग के लिये भिजवा दें। अगर रिजल्ट वही रहा जैसा कि मुझे शक़ है तो आपके लिये बहुत मुश्क़िल का समय आगे आने वाला है। वैसे अभी कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगा"
डॉक्टर आभा के पति रवि मेहरोत्रा जो डॉक्टर आदर्श की बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे बोले, "मुझे पता नहीं था कि डॉक्टर आप आभा के बचपन के दोस्त हैं लेकिल यह जानकर मुझे पूर्ण विश्वाश है कि आपने वही किया होगा जो मेडिकल साइंसेस कहती होगी। बाकी हमारी क़िस्मत"
रवि की बात सुनकर आदर्श अपनी सीट से उठ कर उनकी ओर बढ़ा और उनके कंधे पर हाथ रख कर थपथपा कर उन्हें साँत्वना दी और अपने चैम्बर से निकल कर फिर ओ टी की ओर चल पड़ा। आभा को दूसरी बेड पर हॉस्पिटल का स्टाफ़ द्वारा उसे आईसीयू में शिफ़्ट किया जा रहा था। आदर्श आईसीयू में उस वक़्त तक बना रहा जबतक आभा होश में न आ आई। जब आभा को होश आया तो आदर्श उसकी निगाहों के सामने था। आभा के चेहरे के हावभाव से लग रहा था कि उसने आदर्श को पहचान लिया था और वह बहुत कुछ कहना चाह रही थी लेकिन आदर्श ने अपने होठों पर एक उँगली रखकर बस उसे चुप रहने के लिए कहा।
चार दिन बाद जब रवि रिपोर्ट लेकर आदर्श से मिले तो रिपोर्ट देखते ही आदर्श के मुहँ से निकला, "ओह नो"
"डॉक्टर क्या हुआ"
"रवि जी वही हुआ जिसका मुझे डर था। सैंपल पोजिटिव है”
“इसका मतलब”
इसका मतलब यह है कि आभा को लास्ट स्टेज का कार्सिनोमा कन्फर्म हो गया है”, आदर्श ने रवि मेहरोत्रा से कहा।
रवि ने डॉक्टर से पूछा, "लास्ट स्टेज है, डॉक्टर आभा अभी हम लोगों के बीच कितने दिन की मेहमान है?"
"कुछ भी कहना मुश्क़िल है पर आप चिंता न करें। मैं आपके साथ हूँ। मैं हर वह कोशिश करूँगा जिससे मैं आभा को मौत के मुँह से निकाल कर ला पाऊँ"
"मैं समझ समझ सकता हूँ”, रवि ने डॉक्टर आदर्श से कहा।
कुछ दिन बाद आभा को हॉस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया और रवि उसे लेकर घर आगये। आदर्श हर दूसरे तीसरे दिन आभा को देखने घर आता और उसकी हालत पर अपनी नज़र बनाये हुए था। कुछ दिन ही बीते थे कि आभा की मुश्किलें बढ़ने लगीं। उसके पेट में अंतड़ियों में पोरोसिटी आ गई इसलिये उसके पेट में फ्लूइड इकट्ठा होने लगा। उसके लिये डॉक्टर ने फ्लूइड डिस्चार्ज के लिए पैसेज बना दिया जिससे कि आभा कुछ दिन और जीवित रह सके। आभा के कहने पर रवि ने अपने बेटे को लंदन से नहीं बुलवाया था। लेकिन जब आभा की हालत दिन प्रतिदिन और बिगड़ने लगी तो रवि ने आदर्श से बात कर के बेटे को बुलवा लिया। बेटे के आ जाने से आभा मन ही मन प्रसन्न हुई तो लगा कि वह ठीक होने लगी है।
एक रात जब आभा की तबियत अचानक ख़राब हुई तो रवि ने डॉक्टर आदर्श को फ़ोन किया। उसकी सलाह पर रवि और उसका बेटा आभा को लेकर हॉस्पिटल आ गए। तब तक आदर्श भी वहाँ आ गया और उसे इमरजेंसी से सीधा आईसीयू में शिफ़्ट कराया और जो मुमकिन हो सकता था दवाई और इन्जेक्शन दिए लेकिन आभा की हालत बिगड़ती गई उसने आदर्श से कहा, "आदर्श रवि को बुला दो मुझे उससे कुछ ज़रूरी बात करनी है"
आदर्श ने अपने जूनियर डॉक्टर की तरफ देखकर इशारा किया तो रवि और उसका बेटा आईसीयू में वहीं आभा की बेड के पास आगये। आभा ने कुछ देर रवि और अपने बेटे से बात की और उसके बाद वे लोग वेटिंग हॉल में चले गए। आभा को अचानक से जोर से खाँसी आई और वह उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी। आदर्श ने उसे अपनी बाहों में लेकर सहारा दिया। आभा ने क़ातर निगाहों से एक बार डॉक्टर आदर्श की ओर देखा। आदर्श को लगा कि आभा उससे कुछ कहना चाहती है लेकिन उसके पहले ही उसकी गर्दन एक तरफ लुढ़क गई।

आदर्श ने पता नहीं क्यों यह यह महसूस किया कि जो बात वह जिंदा रहते न कह पाई पर उसकी बाहों में जाते-जाते वह बात कह गई।



नव संवत्सर की शुभकामनाएं। सब पर भगवद कृपा बनी रहे। सुख, स्वास्थ्य, शान्ति, समृद्धि, प्रेम, ऊर्जा, और भगवन्नाम का स्मरण बना रहे। प्रगति के नए द्वार खुलें।
सभी परिवारों को नवरात्र प्रारंभ और नवसंवत्सर की एक बार फिर बहुत बहुत मंगलकामनाएं। 🙏🌷🌱🌹
लीजिये यह कहानी पढ़िए, घर पर ही रहिये, कहीं इधर उधर न जाईए। घर पर ही अच्छा समय बिताइये।
धन्यवाद।
13 अभिशप्त
भारतीय इतिहास में नारी प्रताड़ना के लिये अगर कोई शापित हुआ तो वह महाराज दशरथ की 'अयोध्या' थी जिसकी कोई मिसाल न है न होगी। एक धोबी के अपनी पत्नी से रात्रि के समय सीता माता के लिए कुछ आपत्तिजनक बात कहने मात्र से श्री राम ने जिन्हें देश निकाला दे दिया वह माता 'सीता' ही थीं जिन्हें श्री राम के कहने पर लक्ष्मण देवर्षि बाल्मीक के आश्रम में छोड़ आये थे। माता सीता उस समय गर्भवती थीं यह बात श्री राम को मालूम थी इसके बावजूद भी उहोंने कुल की मर्यादा में कोई दाग़ न लगे इसलिये माता सीता को स्वयं से दूर कर दिया। इस घटना के बाद जब मर्यादा पुरुषोत्तम राम, माता सीता और अपने जुड़वां पुत्र लव कुश के अश्वमेघ यज्ञ में विजयी होने के उपरांत अयोध्या आने के लिए निमंत्रित किया पर माता सीता ने यह कह कर उस अयोध्या को कभी नहीं स्वीकारा कि जिस देश में एक स्त्री को बार-बार अपने चरित्र के लिए अग्निकुंड से होकर गुजरना पड़े उससे तो यही बेहतर है कि प्राणों की आहुति दे दी जाय। इसके बाद ही वह धरती में समा गईं। इसी कारण कुछ लोगों में आज भी यह मान्यता है कि अयोध्या शापित है। इसी कारण शायद अयोध्या आजतक कभी भी अपने पूर्ववत शौर्य तथा महिमा को प्राप्त नहीं कर पाई।
बाबू अभिजात चटर्जी जो पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर के निवासी थे। वह अपनी धर्मपत्नी हिमानी के साथ अपने पारिवारिक आलीशान मकान में रहते थे जिसके निचले हिस्से में एक बहुत बड़ी बैठक, दो कमरे मेहमानों के लिये, एक स्टडी और एक चैम्बर के साथ अन्य जरूरी संसाधन जैसे कि किचेन, स्टोर्स, आगे पीछे वरांडा और बड़ा सा बगीचा। ऊपरी मंजिल में चार हवादार बेड रूम इस तरह बने थे कि दो बेड रूम गर्मियों के सीजन में तो दो बेड रूम सर्दियों के सीजन में आरामदायक बने रहते थे। आगे पीछे लम्बा सा वरांडा जिसमें कोई आराम से चहल कदमी कर सके और जब मन करे तो आराम कुर्सी पर बैठ कर आराम भी कर सके। कोठी के अगल बगल में नौकर चाकरों के लिये कमरे तथा पुराने ज़माने की बैल गाड़ी और घोड़ा गाड़ी रखने के लिये गैराज।
बनर्जी कोठी को सुरक्षा प्रदान करने के लिये ऊँची और मजबूत चारदीवार बनी हुई थी। कोठी के पूर्वी छोर पर लोहे का बड़ा सा फाटक जिसे खोलने बन्द करने के लिए ही दो-दो आदमी की ज़रुरत होती थी। इतने राजसी ठाठ बाट की कोठी और उसमें रहने वाले भी पैसे और जायदाद के मुआमले में हमेशा से ही खूब मज़बूत रहे लेकिन इतना सब होने के बाबजूद बनर्जी कोठी शापित ही बनी रही ठीक अय्योध्या की तरह। बनर्जी कोठी को भी एक ज़माने में एक काम करने वाली की हाय लग गई थी। लोगों का तो यह भी कहना है कि इस कोठी के एक वारिस ने उस लड़की के साथ ज़बर्दस्ती करके व्यभिचार किया जिसकी वजह से वह नदी में डूब कर मर गई पर मरते-मरते एक श्राप दे गई कि इस कोठी के मालिक के यहाँ कभी भी कोई पुत्र पैदा न हो। शायद इसी कारण कोठी का नाम तो ज़रूर बनर्जी कोठी है पर आजकल यहाँ जो रहते हैं वे भी इसी कोठी के वारिस तो हैं पर हर पीढ़ी में मालिक बदलता रहता है। कभी चटर्जी तो कभी मुख़र्जी या कभी बंदोपाध्याय वगैरह वगैरह।
ऐसा नहीं था कि यह बात अभिजात बाबू को पता नहीं थी वह बखूबी जानते थे कि अगर वह हिमानी से विवाह कर रहे हैं तो उन्हें इस अभिशाप का फल अपने जीवन में भुगतना पड़ेगा। अभिजात बाबू को स्वयं पर इतना भरोसा था कि उन्होंने अपने जीवन में कोई ग़लत काम नहीं किया है और उन पर माँ दुर्गा का आशीर्वाद बना हुआ है इसलिये एक न एक दिन वह उस अभिशाप से मुक्त हो जाएंगे।
एक रात जब वह हिमानी के साथ सोये हुए थे कि भोर के समय उन्होंने एक स्वप्न देखा जिसमें उनसे कहा गया था कि अगर वह दो कन्याओं को माँ दुर्गा को विशेष पूजन के बाद गोद लें और उनका लालन पोषण ठीक अपने बच्चों की तरह करें तो वह इस अभिशाप से मुक्त हो सकते हैं। जब सुबह उनकी आँख खुली तो उन्होंने अपने स्वप्न के बारे में हिमानी को बताया। हिमानी के स्वप्न में भी ठीक इसी प्रकार की बात बताई गई थी तो अभिजात की बात सुनकर हिमानी ने अपने स्वप्न की बात भी अभिजात बाबू को बताई। हिमानी की बात सुनकर अभिजात बोले, "हिमानी स्वप्न तो अपनी जगह ठीक है लेकिन एक बात है कि अभी तो हमारे खुद के कोई औलाद नहीं है"
"हाँ मैं भी यही सोच रही थी"
इसके बाद अभिजात बाबू और हिमानी दिन भर इस बात को लेकर परेशान रहे और उन्होंने अंत में यह निर्णय किया कि जब हम दो कन्याएं गोद लेंगे तो वे भी तो हमारी सन्तान मानी जाएंगी इसलिये अपनी संतान की बात सोचना व्यर्थ है और यह भी कि वे इस तरह बनर्जी कोठी को अभिशाप से मुक्त करा सकेंगे। इस विचार से उन्होंने अपने लीगल एडवाइजर के माध्यम से दो कन्याओं के गोद लेने की प्रक्रिया की शरुआत की। शीघ्र ही उनके घर में दो कन्याएं जिनका उन्होंने नामकरण किया सिया और सिला। इनके घर आते में आते ही उनकी ख़ातिरदारी शुरू हो गई। सबके लिये एक जैसे कपड़े, सबके लिये एक प्रकार जूते, यहाँ आते ही उनके लिये एक तरह के बिस्तर वग़ैरह कोठी के एक कमरे में लगवा दिए गए। देखते ही देखते जब उनकी उम्र इतनी हुई कि उन्हें स्कूल भेजना पड़ा तो उनके लिये एक ही स्कूल देखा गया। कहने का मतलब सबको एक तरह का माता पिता का लाड़ प्यार और दुलार मिला। जब वे पढ़ लिख कर जवान हुईं तो अब यह प्रश्न आ खड़ा हुआ कि अभी तक तो सभी को एक प्रकार के कपड़े, एक ही तरह के जूते, एक ही तरह के बिस्तर और एक ही स्कूल में पढ़ाया गया अब इनके लिये एक ही तरह के युवक कैसे मिलें जिससे कि उनका एक तरह का ही विवाह कराया जाय। जब इस विषय को लेकर अभिजात बाबू और हिमानी परेशान हो गए तो एक रात वे इसी विषय पर बात करते-करते सो गये।
देर रात अभिजात बाबू और हिमानी को एक तरह का स्वप्न आया कि इन दोंनों कन्याओं का विवाह उपयुक्त युवकों के साथ करा दिया जाए तो यह बनर्जी कोठी अभिशाप से मुक्त हो सकेगी। जब वे लोग सुबह उठे तो इस विषय पर बातचीत की कि इस विषय को अब कैसे सुलझाया जाए। जब वे किसी नतीजे पर नहीं पहुँचे तो उन्होंने यह प्रश्न भी भगवान के ऊपर ही छोड़ दिया।
एक दिन ऐसा हुआ कि एक युवक पर सिया की निगाह क्या पड़ी कि वह उसके पीछे-पीछे बनर्जी कोठी तक आ गया। उसे देख अभिजात बाबू ने उसे अपने पास बुलाया और उससे बातचीत की उसके परिवार के लोगों के बारे में पता किया और बाद में वे उसके माता पिता से मिले। उसके माता पिता भी अभिजात बाबू से मिल कर बेहद ख़ुश हुए। जब अभिजात बाबू ने उन्हें यह बताया कि उनकी एक बेटी सिला भी है जो सिया की जुड़वां बहन है तो यह जानकर सिया के माता पिता की खुशी ख़ुशी दोगुनी हो गई और उन्होंने सिला का हाथ अपने दूसरे पुत्र के लिये माँग लिया। इस तरह सिया और सिला का विवाह धूमधाम के बीच बनर्जी परिवार ने एक साथ कर उन्हें उनकी ससुराल में विदा किया।
जब यह सब काम ठीक प्रकार से सम्पन्न हो गए तो एक दिन अभिजात बाबू हिमानी को लेकर कामाख्या देवी के दर्शनों के लिए गुवाहाटी के लिये चल पड़े। जब वे लोग माँ के दरबार से पूजा आदि कर निकले तो मंदिर के पुजारी के मुँह से अचानक हिमानी के लिए आशीर्वाद स्वरूप निकला कि पुत्रवती भव। इसे माँ के दरबार का आशीर्वाद समझ वे अपने निवास बनर्जी कोठी आ गए।
अभिजात बाबू ने एक दिन हिमानी से कहा, "जिस पर माँ की कृपा होती है उसको माँ सब कुछ दे देती है। अब हम हर साल बनर्जी कोठी में दुर्गा पूजा पर माँ की विशेष पूजा का आयोजन किया करेंगे"
"जैसी माँ की इच्छा", हिमानी ने हाथ जोड़कर कहा। इसके बाद अभिजात बाबू और हिमानी खुशी-खुशी रहने लगे। एक दिन कब हिमानी ने अभिजात बाबू से कहा, "खुशियां मनाने के लिये तैयार हो जाओ मैं आपके बेटे की माँ बनने वाली हूँ"
हिमानी की बात सुनकर अभिजात बाबू बेहद ख़ुश हुए और उन्होंने माँ दुर्गा का विशष्ट अनुष्ठान कर उनका आशीर्वाद तो प्राप्त किया ही साथ में बनर्जी कोठी को भी सदा के लिए अभिशप्त बने रहने से बचा लिया।



जीवन में हर किसी की एक की चाहत होती है कि एक आँगन उसका भी हो उसमें नीम का विरवा हो। लेकिन यह सुख हर एक को प्राप्त नहीं होता। कुछ तो यही आस लिये जीते जीते मर जातें हैं। कुछ के पास महल अटारी होतीं हैं। बस ऐसे ही एक आम आदमी की चाहत पर पढ़िए यह लघु कहानी:
14 आँगन
किशोर बाबू को लिखने पढ़ने का शौक़ बचपन ही से था। वह हमेशा यही सोचा करते कि काश उनका भी अपना एक घर होता और उसमें एक प्राइवेट लाइब्रेरी होती जिससे वह जब चाहें अपनी मन मर्ज़ी की पुस्तकों को आराम से बैठ कर पढ़ सकें। इधर कई दिनों से घर खरीदने की सोच रहे थे पर उनका मन स्थिर नहीं हो पा रहा था। उनके एक दोस्त श्याम जी को जब यह पता लगा तो उन्होंने किशोर बाबू को वास्तु शास्त्र पर एक पुस्तक, जो कि उनकी लाइब्रेरी में धूल खा रही थी निकाल कर, उन्हें देते हुए कहा, "किशोर यह ले देख क्या यह पुस्तक तेरे किसी काम की है”
"किस विषय पर यह पुस्तक है श्याम”, किशोर बाबू ने पूछा।
"तू जो घर बनाने की सोच रहा है तो मैंने सोचा कि मैं तुझे कुछ ऐसी भेंट दूँ जो तेरे काम आए"
"तुम तो हमेशा से ही मुझे कुछ न कुछ देते रहे हो। तुम्हारे यहाँ तो ज्ञान का भंडार है। अब तो लोगों के दिल और दिमाग़ छोटे होते जा रहे हैं वहीं तुम्हारी सोच इन पुस्तकों की वजह से और बढ़ती जा रही है”, किशोर बाबू ने श्याम जी से कहा।
पुस्तक थमाते हुए श्याम जी ने अपने मित्र किशोर बाबू से कहा, "ले यह पुस्तक वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के ऊपर लिखी गई है और इसमें वे सब बातें समाहित की गईं हैं जो एक व्यक्ति को घर बनाते समय ध्यान में रखनी चाहिए"
किशोर बाबू ने पुस्तक खोलकर एक नज़र से देखा और बोले, "श्याम यह पुस्तस्क मेरे बहुत काम आएगी। मैं तुम्हारा कैसे धन्यवाद करूँ समझ नहीं पा रहा"
"अब अधिक न समझ जो काम तुझे करना है कर”, किशोर बाबू श्याम जी से बोले।
किशोर बाबू और श्याम जी थे तो बचपन के दोस्त पर दोंनों की सामाजिक परिस्थितियां बहुत अलग थीं। श्याम जी जहाँ एक ढनाढ्य परिवार से थे वहीं किशोर बाबू के पिता एक स्कूल में शिक्षक मात्र थे। श्याम जी के पिताश्री शहर के जानेमाने वकील थे इसलिये उनके यहाँ कमाई ख़ूब थी और ख़र्चे कम और दूसरी ओर श्याम जी के यहाँ महीने का अंत पकड़ पाना मुश्किल हो जाता था। क़िस्मत से किशोर बाबू की नौकरी एक सरकारी विभाग में लग गई थी तो उनकी आय इतनी हो गई थी कि वह अपने लिए एक घर बनाने की सोच रहे थे। श्याम जी की पुस्तक को जब वह उलट पलट कर देख रहे थे तो उसकी निगाह 'आँगन' के ऊपर पड़ी कि नव निर्माण कराते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। उन्होंने पुस्तक में पढ़ा कि घर में आँगन मकान का प्रारूप इस प्रकार रखना चाहिए कि आँगन मध्य में अवश्य हो। अगर स्थानाभाव है, तो मकान में खुला क्षेत्र इस प्रकार उत्तर या पूर्व की ओर रखें, जिससे सूर्य का प्रकाश व धूप मकान में अधिकाधिक प्रवेश कर सके। इस तरह की व्यवस्था होने पर घर में रहने वाले प्राणी बहुत कम बीमार होते हैं। वे हमेशा सुखी रहते हैं, स्वस्थ व प्रसन्न रहते हैं।
पुस्तक पढ़ते-पढ़ते किशोर बाबू को नींद आ गई। जब उनकी पत्नी शीला वहाँ आई तो देखा कि पुस्तक तो खुली हुई है लेकिन किशोर बाबू गहरी नींद में सो रहे हैं तो उन्होने वह पुस्तस्क ले कर बगल की टेबल पर रख दी और वह भी उसी बिस्तर पर लेट गईं। किशोर बाबू चूँकि गृह निर्माण की पुस्तक पढ़ते-पढ़ते सोये थे तो उनके सपनों में भी वह अपने नए घर की कल्पना करते रहे। जब उनकी सुबह-सुबह आँख खुली तो उनके मुँह से जो पहली बात निकली, "शीला देखना कि जब मैं घर बनाऊँगा तो मैं इस बात का विशेष ध्यान रखूँगा कि घर में एक आँगन जरूर हो"
शीला जो कि खुद एक ऐसे परिवार से थी कि जिनके यहाँ किराने की दुकान थी और उनके घर की माली हालत ठीक थी और उसके घर में भी एक आँगन था पर वह नक़्शे के हिसाब से ठीक नहीं था और टेढ़ा मेढ़ा से था। वह भी पलट कर बोली, "आपने मेरे मन की बात कह दी। घर का आँगन खुला-खुला हवादार होना चाहिए”
शीला ने भी जब किशोर बाबू के मन की बात कह दी तो फिर क्या था दोंनों के मन में अपने मकान का एक ऐसा नक्शा बनने लगा जिसके लिये बहुतेरी ज़मीन की आवश्यकता थी। इसलिये किशोर बाबू ने शहर के उन इलाकों में ज़मीन ढूँढना शुरू किया जहाँ सड़क,पानी, सीवर लाइन की व्यवस्था हो। उन्हें तीन चार ऐसी ज़मीन के टुकड़े मिल भी गए जिसमें उनके सपनों का घर बन सकता था। इधर-उधर से पैसा इकट्ठा कर किसी तरह किशोर बाबू ने एक ज़मीन खरीद ली। ज़मीन की जिस दिन रजिस्ट्रार के यहाँ लिखा पड़त पूरी हुई तब जाकर किशोर बाबू और शीला को चैन पड़ा।
जब ज़मीन हो गई तो वे दोंनों एक आर्किटेक्ट के दफ़्तर में गये और उन्होंने अपने हिसाब से घर का नक्शा बनाने को कहा। सात आठ दिन में एक नक्शा आर्किटेक्ट ने बना कर किशोर बाबू को दे दिया। उस नक़्शे पर पति पत्नी ने ख़ूब विचार विमर्श हुआ और अंत में उन्होंने कुछ सुझाव आर्किटेक्ट को दिये जिस पर काम कर उसने घर का पूरा नक्शा बना कर किशोर बाबू को दिया। अब नक़्शे की म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर से मंजूरी की बात आई तो किसी प्रकार कुछ ले देकर किशोर बाबू ने उसकी मंजूरी भी ले ली।
पंडित जी से बात कर शुभ दिन निकलवा कर किशोर बाबू ने एक दिन भूमि पूजन का कार्यक्रम कर घर की नींव रख कर घर बनबाने की प्रक्रिया शुरू कर दी।
किशोर बाबू का घर जब बन रहा था तो उनके दिमाग़ में दिन रात बस घर ही समाया रहता कि आज यह काम करना है या अमुक काम करना है। बीच-बीच में मियाँ बीबी में कभी तनाव हो जाता था कि यह काम ऐसे नहीं ऐसे होता तो ठीक होता। कभी-कभी पैसों की भी कमी पड़ती दिखती थी। पर किसी तरह कुछ पैसा शीला ने अपने पिता से उधार लेकर घर के काम को पूरा करा ही लिया।
धूमधाम से हवन पूजन कर किशोर बाबू ने गृह प्रवेश किया। जिस दिन वह अपने घर में आकर बैठे हुए थे तो उन्होंने शीला से कहा, "शीला एक घर बनबाने में एक आदमी की उम्र दस साल कम हो जाती है इसीलिये शायद लोग अब बना बनाया फ़्लैट लेना पसंद करते हैं वनस्पति खुद मकान बनबाने के"
शीला ने किशोर बाबू की बात ध्यान से सुनी और बोली, "जो भी हो जी पर अपना घर अपना ही होता है और अपने सर के ऊपर छत देखकर मैं तो आज बेहद खुश हूँ"
“हे भाग्यवान तू अकेले ही ख़ुश नहीं खुश तो मैं भी हूँ”, किशोर बाबू ने शीला की बात से सहमति व्यक्त करते हुए कहा।
गर्मियों का मौसम था। इसलिये रात को सोने के लिये मियाँ बीवी ने यह तय किया कि वे आज खुले आसमान तले आँगन में ही सोएंगे। जब वे दोंनों बिस्तर बिछा कर लेटे और आसमान में चाँद तारों को देख रहे थे तो किशोर बाबू के मुँह से निकला, "आँगन में सोने का मज़ा ही अपना है वह बंद कमरों और ऐ सी की ठंडक में भी नहीं है"
"मैं तो अपने आँगन में एक तुलसी जी का पौधा भी रोपूंगी जिससे तुलसी माता की कृपा सदैव हमारे परिवार पर बनी रहे", शीला ने अपने सपनों की बात करते हुए कहा।
किशोर बाबू और शीला रात भर सपने देखते रहे कि उनकी बेटी होगी तो उसके विवाह का मंडप भी इसी आँगन में लगेगा और वह यहीं व्याही जाएगी।


मित्रों,

पच्चीस कहानियों की इस सीरीज में आज यह पंद्रहवी कहानी आपके समक्ष है। उम्मीद है कि अन्य कहानियों की तरह आपको यह कहानी भी पसंद आएगी। मुझे बस यही कहना है कि मैनें अपनी ओर से भरपूर प्रयास किया कि हरेक कहानी की विषयवस्तु बिल्कुल एक दूसरे से हट कर हो। अगली दस कहानियों की भेंट फिर कभी चूँकि आज ही से हमारा धारावाहिक के 8 वें एपिसोड "तनिष्का" का पुन: प्रसारण प्रारंभ हो रहा है। अब हमारा ध्यान तनिष्का की ओर बना रहेगा।

15 घासी राम चाट वाला

कहने को तो एक ज़माने में क्या आज भी मख्खनपुर, जो कि फिरोज़ाबाद और शिकोहाबाद के ठीक बीचों बीच पड़ता है, बहुत ही छोटा सा क़स्बा है पर फिर भी एक मुआमले में इसकी हैसियत आज भी दोनों शहरों से बहुत बड़ी है। इसका पूरा श्रेय जाता है घासी राम चाटवाले को। उसके दहीबड़े या दिल्ली की जुबान में कहें तो दहीभल्ले इतने लज़ीज़ होते थे कि लोग पलट-पलट कर इन्हें खाने के लिये दूर-दूर से आते।

एक वक़्त में घासी राम नारायण इंटर कॉलेज के सामने चाट का ठेला लगाता था। उसके ठेले पर लड़के लड़कियों की दोपहर की छुट्टी में इतनी भीड़ लगती थी कि उसके ठेले का सामान देखते-देखते चट से ख़त्म हो जाता। घासी राम को भी चाट बना कर खिलाने में बहुत मज़ा आता था। हर साल उसके कुछ ग्राहक कॉलेज से इंटर पास कर बाहर चले जाते तो हर साल कुछ नए आ जाते। सबसे बड़ी बात जो घासी राम को बहुत मन भाती वह थी कि वह इन जवान लोगों के बीच रह कर वह भी अपने आप को जवान महसूस किया करता। कुछ लड़कियां तो इस चक्कर में मुफ़्त में ही चाट खा जातीं। शरीर किसका साथ देता है बुढापा तो अपने वक़्त के हिसाब से हर किसी पर आता ही है। एक दिन जब घासी राम लड़के लड़कियों को चाट खिला रहा था कि वह अचानक गिर गया सर में चोट आई और फिर उस दिन के बाद वह कभी इंटर कॉलेज ठेला लेकर न आ पाया।

तबियत खराब होने के बाबजूद भी उसका और चाट का रिश्ता बना रहा। जैसे ही वह कुछ ठीक हुआ उसने चाट की दुकान मख्खनपुर के बाज़ार में खोल ली। धीरे-धीरे करके उसकी चाट की दुकान की इतनी चर्चा होने लगी कि फिरोज़ाबाद और शिकोहाबाद शहरों के लोग उसकी दुकान पर चाट खाने आने लगे। वैसे तो उसकी दुकान के सभी आइटम ख़ूब पसंद किये जाते थे लेकिन सबसे अधिक पसंद किये जाने वाला जो आइटम था वह था घासी राम के दहीबड़े। उसके दुकान के दहीबड़े इतने मुलायम होते थे कि मुहँ में डालते ही गल जाते थे उस पर सौंठ, छुहारे और किशमिश की बनी चटनी दहीबड़े के अंदर पड़े हुए चिरौंजी के दाने स्वाद को दुगना कर देते थे। उसकी दुकान पर हर आने वाला ग्राहक यही कहता कि ऐसी चटनी कहीं और नहीं मिलती है।

घासी राम की चाट इतनी बढ़िया हुआ करती थी कि गिडवानी साहेब जो हिन्द लैम्प्स लिमिटेड, शिकोहाबाद में एक अधिकारी थे वह अक्सर ही अपनी गाड़ी से अपने बीवी बच्चों के साथ चाट खाने आते, जब उनका रिटायरमेंट हुआ और वह अपने सामान सहित दिल्ली जाने लगे तो उन्होंने ड्राइवर से मख्खनपुर के आते ही कहा, "देख भाई हमें आख़िरीबार घासी राम की चाट खिलवा दो पता नहीं फिर ज़िन्दगी में उसकी चाट नसीब हो या न हो"

घासी राम की चाट की शौक़ीन लोगों में से एक थीं सेठ हजारी मल जैन जी की धर्मपत्नी सेठानी विमला। सेठ जी की फिरोज़ाबाद और आसपास के कस्बो में एक नहीं कई ग्लास फ़ैक्टरीं थीं और वह शहर के सबसे धनी आदमी भी थे। सेठानी विमला भी अक़्सर मख्खनपुर सिर्फ चाट खाने ही आतीं और घासी राम के हाल चाल के बारे में बात करतीं और फिरोज़ाबाद लौट जातीं।

घासी राम ने कभी अपनी चाट की क्वालिटी नहीं गिरने दी और अपनी बढ़ती उम्र में तो उसने मुनाफ़ा कामना भी बंद कर दिया। कुछ लोग जो उसे करीब से जानते थे उन्होंने उसे समझाया भी कि यह कौन सी अक्लमंदी है लेकिन घासी राम उन सभी की बात को हँस कर हवा में उड़ा देता कि मैंने इस चाट के ज़रिए इतना नाम कमाया है कि मैं अपना नाम क्वालिटी घटा कर खराब नहीं करूँगा। बाद के कुछ दिनों में तो वह घाटे पर भी अपने ग्राहकों को सस्ते में अच्छी चाट खिलाता रहा। इन्ही सब चक्करों में उसकी माली हालत खराब होने लगी।

एक बार की बात है घासी राम अपनी चाट की दुकान पर बैठा हुआ था कि उसे चक्कर आया और वह वहीं गिर गया। उसके घर वाले और अगल बगल के लोग उसे फिरोज़ाबाद ट्रॉमा सेंटर ले आये जहाँ उसका इलाज हुआ पर वह ठीक न हुआ। ट्रॉमा सेंटर के डॉक्टर्स ने सलाह दी कि उसे किसी अच्छे डॉक्टर को दिल्ली में ले जाकर दिखाया जाय तो हो सकता है कि वह ठीक हो जाय। घासी राम के परिवार वालों की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। इतने में वहाँ सेठानी विमला जैन सेठ हजारी मल जैन की धर्मपत्नी किसी काम से ट्रामा सेंटर आईं और जब उन्होंने वहाँ घासी राम को देखा तो पूछा कि इसे क्या हुआ। सेठानी विमला जैन को डॉक्टर्स ने सारी बात बताई। डॉक्टर्स की बात सुनकर सेठानी विमला जैन ने घासी राम के दिल्ली में इलाज की सम्पूर्ण व्यवस्था ही नहीं कि बल्कि बीच में वह उसे देखने भी दिल्ली गईं।

जब घासी राम ठीक होकर दिल्ली से अपने घर लौटा तो रास्ते में सेठ हजारी मल जैन की कोठी पर गया और सेठानी जी का शुक्रिया अदा किया। जब घासी राम चलने लगा तो सेठानी ने उससे कहा, "घासी राम आदमी धँधा इसलिये करता है कि दो पैसे कमाए। तुमने लोगों की वाह-वाह तो लूटी पर कभी अपने लिये पैसा नहीं बचाया कि तुम अपना इलाज़ करा पाओ। ऐसा धँधा करने का क्या मतलब"

घासी राम को सेठानी की बात को अपने दिल पर इस कदर लिया कि मख्खनपुर लौट कर उसने अपने धंधे को इतना बढ़ाया कि अब उसकी चाट की दुकान के बगल में ही उसकी मिठाई की दुकान भी हो गई। चाट और मिठाई की दुकान से उसने इतनी कमाई की कि मक्खनपुर में उसने बाद में जैन ग्लास वर्क्स के ठीक सामने घासी राम एंड संस ग्लास वर्क्स खोला। धीरे-धीरे करके घासी राम चाट वाले से घासी राम चूड़ीवाला बन गया।

घासी राम की जब तबियत फिर से ख़राब हई और उसके बचने की सब उम्मीद समाप्त हो गईं तो उसने एक दिन अपने पुत्रों से कहा, "जीवन में मैंने जितना नाम कमाया धन कमाया वह सब चाट के ठेले से इसलिये कुछ भी करना पर अपनी चाट की दुकान कभी बंद न करना और चाट की क्वालिटी वैसी ही रखना जिसे खाने के लिये लोग दिल्ली आगरे से आएं"

घासी राम तो स्वर्गवासी हो गया पर आज भी पूरे क्षेत्र में सभी लोग जब चाट की बात करते हैं तो याद सिर्फ घासी राम की चाट की ही बात होती है।






यह 2002 की बात है जब हम बंगलोर में पोस्टेड थे। जब हमारे पड़ोस में रहने वाले दिवाकर मूर्ती युगल ने हम लोगों के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि क्यों न हम सभी मिलकर दो एक दिन के लिए 'हासन' घूमने चलें। बात जब घूमने की हो तो यह 'घुमक्कड़' भला कैसे मना कर सकता था। एक रोज़ आखिरकार हम लोग टैक्सी से कर्नाटक के दक्षिणी भाग में स्थित हासन की ओर चल पडे। रास्ते में बहुतेरे स्पॉट देखते हुए हम लोग शाम तक 'हासन' पहुंंचे और होटल में जाकर चेक इन किया। सफ़र की थकान का एहसास कर के दक्षिण भारतीय थाली का स्वाद चखा और जल्दी से सो गए।
इधर उधर की बात न करके सीधे मैं अपने मुद्दे पर आता हूँ इससे पहले कि मैं इस आर्टिकल के लिखने के बहाव में आकर कहीं एक घुमक्कड़ की दृष्टि से अपनी उस यात्रा का वृतांत ही न लिखने बैठ जाउँ। दरसल यह आर्टिकल "तनिष्का" के संदर्भ से लिखा जा रहा है चूँकि "तनिष्का" की जो मूल कहानी दो साल पहले आपकी सेवा में फ़ेसबुक पर आ चुकी है। अभी हमारे कुछ मित्र उस कहानी को जो पहले नहीं पढ़ सके, उसे अवश्य पढ़ना चाह रहे हैं इसलिए उसे फ़ेसबुक पर दोबारा पोस्ट किया जा रहा है। 2018 में चैत्रीय नव दुर्गा 18 मार्च से 27 मार्च के बीच थी तो कुछ मित्रों की पूजा अर्चना में कोई विघ्न न पड़े इस ख्याल से "तनिष्का" का प्रसारण कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया गया था।
तो अब अपनी मूल बात पर लौटते हैं बेलूर- हेलबिड की यात्रा में होय्साला काल की एक मूर्ति ऐसी देखने को मिली जिसके बारे में गाईड ने बताया 'इस स्वप्न सुन्दरी को देख कर तो अच्छे ऋषियों की पूजा भंग हो जाय इसका ऐसा रंग रुप था। मूर्ति चूँकि काले ग्रेनाईट के पथ्थर पर बनी हुई थी। मैनें अपनी धर्म पत्नी की ओर देखा और उनके कान में जाकर कहा, "रुप तो बहुत ही आकर्षक है लेकिन रंग के बारे में मुझे शंका है"
मुझे झिड़कते हुए मेरी धर्मपत्नी बोलीं, "कभी सीरियस रहा करो। हर बात में टीका टिप्पणी ठीक नहीं। गाईड की बात सुनो"
एक आदर्श विद्यार्थी की तरह मैनें आधे घंटे तक उस गाईड की बातें बहुत धैर्य से सुनीं। उन बातों का ज़िक्र कर के मैं "तनिष्का" की कहानी को अभी नहीं छेड़ना चाहता हूँ इसलिए केवल इतना ही कहूँगा कि गाईड की यह बात ज़रुर समझ में आई कि जब किसी महिला को वैवाहिक संबंधो के लिए देखा जाता है तो उसमें स्वप्न सुंदरी के कैसे नाक नक्श होने चाहिए। यहाँ तक सभी बातें समझ में आईं लेकिन जब उसने मूर्ति के निचले हिस्से में पैर की अंगूठे के पास वाली उंगली को दिखाते हुए यह कहा 'जिस स्त्री की यह उंगली पैर के अंगूठे से बड़ी हो तो यह बात मान लेनी चाहिए कि वह स्त्री बहुत महत्वाकांक्षी है और अपने पति को अपने अधिकार में लेकर जीवनयापन करती है'।
गाईड की यह बात सुनते ही मेरी निगाह अपनी धर्मपत्नी के पैरों की ओर बाद में श्रीमती मूर्ती के पैरों पर गई। अपनी धर्मपत्नी के बारे में तो अच्छी तरह जानता ही था इसलिए कोई ताज्जुब नहीं हुआ लेकिन श्रीमती मूर्ति मूर्ती जिनकी उंगली अंगूठे से बड़ी थी तो मैने मूर्ती से पुछा, "क्या यह गाईड सही कह रहा है"
मेरी बात पर हंसते हुए मूर्ती ने जवाब दिया, "गाईड बिल्कुल सही कह रहा है"
मूर्ती की बात सुनकर श्रीमती मूर्ती ने उन्हे घूर कर ऐसे देखा जैसे कि उनसे बहुत बड़ा गुनाह हो गया हो। इससे पहले कि बात और खराब हो मैं अपनी धर्मपत्नी को लेकर आगे बढ़ गया।
ऐसी ही कुछ घटना उस वक़्त हुई जब हम सप्त्नीक हैदराबाद के 'सलाज़ार जंग म्यूजियम' को देखने के लिये गये हुए थे। जो लोग इस म्यूजियम में जा चुके हैं वे मेरी इस बात से सहमत होंगे कि वहाँ एक मूर्ति ऐसी भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह 'पर्दानशीं' सर मीर ओस्मान कासिम निज़ाम को इतनी अच्छी लगी कि यूरोप से खरीदने का फरमान दे दिया।
जब मैं धर्मपत्नी के साथ उस 'पर्दानशीं' के पास पहुँचा तो मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। मेरी हालत को देखकर मेरी धर्मपत्नी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ लेकिन उन्होने इतना अवश्य कहा, "मन भर गया हो तो आगे चलें"
अपनी झेंप मिटाते हुए मैं पांच मिनट तक उस 'पर्दानशीं' के बाबत बताता रहा। कुछ देर बाद ही हम लोग वहाँ से आगे बढ़े। यह दो घटनाओं का ज़िक्र मैंने इस लिये किया कि हिंदी सहित्य में स्त्री के रंग रुप को लेकर जिस प्रकार का नख शिख वर्णन किया है उसके बारे मे किसी के मन में जानने की कोई भी आकांक्षा है तो वे आज 27 मार्च से "तनिष्का" से दोबारा जुड़ने का कष्ट करें। जो दोबारा पढ़ना चाहते हों वे इस पोस्ट पर अपनी मंशा इस पोस्ट पर ज़ाहिर करें हम यह सुनिश्चित करेंगे कि हर रोज़ यह धारावाहिक उनकी टाईम लाईन पर उप्लब्ध हो सके।
धन्यवाद।



बीते दिनों की बातें:
मित्रों, जब तक नौकरी करी तब तक नौकरी खूब दिल से करी वह भी अपने लिए, परिवार के लिए। जब रिटायर हो गए तो अपने शौक़ पूरे किए, जिये तो अपने लिए। अपने लिये एक मूलमंत्र बना लिया जीवन है जीने के लिए घुट घुट कर मरने के लिए नहीं। जब माता पिता ने स्कूल में दाखिला दिलाया होगा तो सोचा होगा कि लड़का बड़ा होकर पढ़ेगा लिखेगा, कमाएगा खाएगा। जब कमाई बंद हो गई तो पढ़ाई लिखाई याद आई। वही पढ़ाई लिखाई आजकल काम आ रही है।
स्कूल की लाइब्रेरी में बैठकर शोभा राम चपरासी से मांग कर चंदा मामा, नीहारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, पांचजन्य, सरिता, कादंबिनी इत्यादि मैगज़ीन्स पढ़ना आज काम आ रहा है। वही विक्रम बेताल की, वही दादा - दादी नाना - नानी माँ सा की 'सो जा लाल, जा सपने देख' कही हुई बातें और सुनाई हुई कहानियां काम आ रहीं हैं। बाद में क्लब की लाइब्रेरी से लेकर बाबू देवकीनंदन खत्री जी की चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति पढ़ीं जिन्हें पढ़ने के लिए एक ज़माने में उर्दूदां लोगों ने हिंदी सीखी। इन पुस्तकों ने भारतीय जन मानस की चेतना को नया स्वरूप दिया। बाद में दुर्गा प्रसाद खत्री जी की भूतनाथ, रोहतासमठ, बलिदान, सुफेद शैतान और रक्त-मंडल पढ़ने का अवसर मिला। उसी ज़माने में कुशवाहा कांत को भी पढ़ा तो प्रेमचंद, टैगौर, रेणु, शरत चंद्र मुखर्जी, राहुल सांकृत्यायन इत्यादि को भी ख़ूब पढ़ा। कहने का मतलब हिंदी साहित्य के तमाम श्रेष्ठ रचनाकारों को ख़ूब पढ़ा। जब कुछ बड़े हुए तो Shakespeare, Keats, William Wordsworth, Robert Stevenson, Irving Stone, Pearl S Buck वग़ैरह यहां तक कि Perry Mason के हल्के फुल्के जासूसी उपन्यास भी पढ़े। कर्रेंट अफेयर्स के लिए Reader's Digest वग़ैरह पढ़ा।
कल तक अपना आज बनाया था और आज जो कर रहे हैं उससे अपना कल बना रहे हैं। इस जग में ख़ाली हाथ आये थे - जग को कुछ देकर जा रहे हैं। पढ़ते हैं, लिखते हैं घर में रहकर क्वालिटी टाइम बिता रहे हैं। उम्र के इस मोड़ पर किसी को खालीपन काटने को दौड़ता है। एक हम हैं जिनके पास समय कम है। बहुत कुछ करने की तमन्ना लिए जी रहे हैं...
एस पी सिंह
26/03/2020


28-03-2020

कोरोना से बचने के लिए हर व्यक्ति को अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता में बृद्धि करने का प्रयास करना चाहिए। यह जानकर मैंने अपनी यौगिक क्रियाओं में प्राणायाम को और महत्व देना शुरू कर दिया है। डॉक्टर्स की सलाह पर विटामिन सी की मात्रा भी अपने दैनिक जीवन में बढ़ा दी है।
सुबह सुबह दालचीनी वाली चाय और उसमें नींबू का प्रयोग हर रोज़ बेनागा कर रहा हूँ। दिन के दो एक संतरा भी ले लेता हूँ।
एक रोज़ की बात है संतरे का एक रेशा आख़री दाढ़ में फंस गया दिन में ध्यान नहीं दिया। रात को हर रोज़ की तरह ब्रश किया और सो गया। अगले दिन दाढ़ में दर्द महसूस हुआ तो श्रीमती जी को बताया। उन्होंने झट से एक धागा मेरे हाथ में थमाया और बोलीं, "लीजिए जाइये इससे उस रेशे को निकाल दीजिए"
हमको यह पता नहीं था इसलिए चुपचाप बाथरूम में गए और संतरे का फंसा हुआ रेशा निकाल दिया। लौट कर जब बाथरूम से बाहर आए तो सुनने को मिला, "बुढ्ढे हो गए हैं इतना भी नहीं मालूम था"
बात जब उन्होंने बुढ़ापे की कही तो मुझसे सही नहीं गई और मैं तपाक से बोल बैठा, "मेरे दांत तुम्हारे दांतों की तरह नहीं है कि आए दिन उनकी मरम्मत करानी पड़े"
मेरी बात सुनकर घूरते हुए कहा, "जानती हूँ बहुत घी दूध खाया पिया है लेकिन यह भी जान लो कि इस मुये कोरोना के चलते किसी डेंटिस्ट को काम करने की इजाज़त नहीं है इसलिए अपने दांतों का विशेष ध्यान रखिये"
मैंने उनकी ओर प्यार से देखा और पूछा, "तुम्हारा इम्प्लांट जो लगना था उसकी डेट तो डेंटिस्ट ने पंद्रह अप्रैल की दी है न"
"हाँ, दी तो है। मेरी चिंता न करिये तबतक ये कोरोना बेअसर हो जाएगा"
उनकी बात सुनकर मैंने कहा, "भगवान करे ऐसा ही हो नहीं तो बहुत से घर उजड़ जायेंगे"
खैर ये तो रही हम मियां बीबी की आपसी बात। कोरोना के लिहाज से कुछ सीख इस प्रकार हैं:
1 अपनी इम्युनिटी बढ़ाने का प्रयास करिये इसके लिए प्रतिदिन योग करिये, मौसमी फल खाइये जिसमें विटामिन सी की अधिकता हो।
2 सुबह की चाय दूध वाली मसाले की न पीकर नींबू की पीजिए। हो सके आधी चम्मच दाल चीनी का पाउडर चाय बनाते समय मिला लीजिए।
3 ओमेगा सी के लिए दो तीन अख़रोट और कुछ किशमिश का सेवन करिये।
4 हॉस्पिटल में भी हर सेवा उपलब्ध नहीं है इसलिए अपना विशेष ख्याल रखिये।
5 सुबह सुबह सैर के लिए और खूसट बुढ्ढों से कुछ दिनों के लिए दूरी बनाकर रखिये।
6 ठीक रहिये और अच्छे दिनों का इंतजार करिये।

धन्यवाद😀


आदरणीय मोदी जी,
आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि कृपया लॉक डाउन अभी न उठायें। जब तक कोरना का खतरा बना हुआ है तब तक कोई भी अपने काम पर वापस लौट कर नहीं आएगा। बड़ी मुश्किलों के बाद प्रवासी कर्मी अपनों के बीच लौटकर आ पाये हैं। उनकी नौकरी भी चली जाएगी।
ऐसे ही एक परिवार की कहानी।
प्रवासी कर्मियों के दुख दर्द :
अमर सिंह और सहदेव सिंह बिहार के आरा के पास के गांव के रहने वाले थे। गांव में उनके पिता के पास दो बीघा ज़मीन थी जिस पर खेती किसानी करके किसी प्रकार उन्होने दोनों को हाई स्कूल तक पढा लिखा दिया। जब घर का खर्चा नहीं चल पाया तो उन्होने एक दिन गांव के ही एक परिवार के मुखिया जी से बात की और उनके लिये दिल्ली के पटपड़गंज में एक फैक्ट्री में हेल्पर की नौकरी लगवा दी। एक दिन अमर सिंह और सहदेव सिंह को भीगी पलकों से रेल गाड़ी की टिकट कटा कर दिल्ली के लिए रवाना कर दिया। दिल्ली के आनंद विहार रेलवे स्टेशन तक वह रेल गाड़ी जाती थी इसलिए अमर सिंह और सहदेव सिंह को कोई दिक्कत नहीं हुई। आनंद विहार रेलवे स्टेशन पर मुखिया जी का लड़का राम बदन उन्हें लेने आ गया और अपने कमरे पर ले गया। इस तरह वे दोनों दिल्ली आकर एक जीन्स बनाने वाली फैक्ट्री में लग गए। दोनों दिन में काम करते और कमरे पर लौट कर अपने लिये और राम बदन के लिये खाना बनाते। खाते पीते और चैन की नींद सोते। महीने पर कुछ पैसा वे लोग अपने माता पिता को भी भेज देते। इस तरह कहा जाए तो उनकी ज़िन्दगी ढर्रे पर आ गई थी।
दीवाली के बाद जब छट का त्योहार जब करीब आया तो दोनों भाई आनंद विहार से रेल गाड़ी से गांव के लिए निकल पड़े। गांव जाते वक़्त उन्होंने अपनी अम्मा और बापू के लिये नये नये कपड़े भी खरीद लिये थे। जब गांव पहुंच कर दोनों भाईयों ने अपना बैग खोला और अम्मा और बापू को कपड़े दिये तो दोनों की आंखों से आँसू बहने लगे और रोते रोते उन दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहा, "आज हमारी ज़िंदगी सफल हो गई। तुम लोग काम पर लग गए"
छट पर दोनों की अम्मा ने व्रत रखा और भगवान से उनके जीवन में सुख शांति के लिए प्रार्थना की। कुछ रोज़ रह कर अमर सिंह और सहदेव सिंह दोनों काम पर दिल्ली वापस आ गए। धीरे धीरे करके वक़्त गुज़रता रहा। एक दिन गांव से उनके बापू का फोन आया और उन्होंने अमर सिंह के लिये पास ही के गांव से रिश्ते की बात बताई। शर्माते हुए अमर सिंह ने बापू से कहा, "अब हम क्या बतायें जो आप ठीक समझें वह करें"
गांव में बापू ने अमर सिंह का व्याह तय कर दिया। चैत्र कालीन नव दुर्गा के आसपास उसके तिलक की तारीख भी लड़की वालों से मिल कर तय हो गई। दोनों भाईयों ने अपने बापू से पूछ कर जो सामान चाहिए था उसको भी बाज़ार से खरीद कर रख लिया। अबकी बार सामान कुछ अधिक था इसलिए मुखिया जी के लडके की सलाह पर गांव की ओर जाने वाली रेल गाड़ी का रिजेर्वेशन भी करा लिया। दोनों भाई बहुत खुश थे और गांव जाने की तैयारी करते रहे। एक दिन जब वे लोग फैक्ट्री में काम कर रहे थे तो मुखिया जी के लडके ने आकर बताया कि देश भर में कोरोना नाम की बीमारी फैल रही है इसलिए वे दोनों बहुत सावधानी से रहें और साफ सफाई का विशेष ध्यान रखें। उस दिन से दोंनो भाईयों ने अपने जीवन में साफ सफाई को महत्व देना शुरू कर दिया। हर रोज़ वे अखब़ार पढ़ते और पता करते रहते कि देश में क्या हो रहा।
जिस दिन उनको पता लगा कि देश के प्रधान-मंत्री टीवी पर देश वासियों के लिए कोई महत्वपूर्ण बात बताने वाले हैं तो वे लोग पास ही की पान वाले की दुकान पर जाकर टीवी देखने जा पहुंचे। प्रधान-मंत्री जी के भाषण को उन दोनों ने बहुत ध्यान से सुना जिसमें उन्होने देश वासियों से इक्कीस दिनों के लिए लॉक डाउन रखने की बात की थी।
कमरे पर वापस लौटते समय दोनों भाईयों ने आपस में बातचीत की और यह तय किया कि वे अपना रिजेर्वेशन केंसिल करवा देंगे और बापू को भी फोन कर देंगे कि वो अभी गांव नहीं आ सकते। बापू को जब यह खबर मिली तो वह बहुत दुखी हुए पर क्या किया जा सकता था। सभी ने बातचीत करके तिलक का प्रोग्राम जेठ के महीने में शादी के साथ ही करने का मन बना लिया।
उसके बाद तो दोनों भाई हर रोज़ समाचर पढ़ते और मौका लग जाता तो पान वाले की दुकान पर टीवी देखने भी चले जाते। कोरोना के बारे में जो जानकारी मिलती उसके हिसाब से चलते रहे। उनकी फैक्ट्री का मालिक एक अच्छा इंसान था इसलिए उसने सभी कर्मियों को आश्वासन दिया है कि सरकार के निर्देशो के अनुसार वह उनकी तनखाह नहीं काटेगा। इतना आश्वासन मिलने के बाद दोनों भाई मुखिया जी के लडके के साथ ही दिन रात कमरे पर रहने लगे। उनके साथ के कई लोग घर जाने के लिये बहुत परेशान हो रहे थे पर वे लोग विचलित नहीं हुए। धीरे धीरे कोरोना शहरों से गांव तक जा पहुँचा। एक दिन घर से बापू का फोन आया कि उनकी माँ को कोरोना हो गया है और उन्हे प्रशासन के लोग अपने साथ ले गए हैं। उन्हे किसी से मिलने नहीं दिया जा रहा है। इस खबर को सुनकर दोनों भाई बहुत परेशान हुए। बापू से जो बात हुई उसके बारे में मुखिया जी के लडके को बताया और यह इच्छा ज़ाहिर की कि वे हर हाल में गांव जाना चाहेंगे। मुखिया जी के लडके की जान पहचान कुछ पुलिस कर्मियों से थी। उसने उन्हे घर भेजने के लिए एक योजना बनाई। एक रात दिल्ली रेलवे स्टेशन से एक माल गाड़ी में गार्ड के केबिन में बिठा दिया। मरते मारते वे लोग किसी तरह पटना तक पहुंच गए।
पटना से आरा में अपने गांव पहुँचने के लिए जब कोई जुगाड़ नहीं हुआ तो वे पैदल ही रेलवे लाईन के किनारे चलते हुए अपने गांव की ओर चल पडे। पचास किमी का रास्ता उन्होने दो दिन में पूरा किया और आरा पहुँच कर भगवान को धन्यवाद किया। जब वे लोग आरा से गांव जा रहे थे तब उनको एक पुलिस वाले ने पकड लिया और हवालात में बंद कर दिया। थानेदार ने उनको यह कह कर बहुत मारा पीटा कि देश के प्रधानमंत्री कितनी बार टीवी पर आकर कह चुके हैं कि हर कोई घर में रहे। गनीमत इतनी रही कि उस थाने का एक हवलदार उनके गांव के आसपास का ही निकल आया जिसने उनके खाने की व्यवस्था की और थानेदार से सिफारिश कर के रात को छुड़वा दिया। रातों रात थाने से चल कर वे लोग गांव पहुंचे तो पता चला कि उनकी अम्मा कोरोना वायरस के चलते मर गई। बापू शहर गए हैं उनकी अम्मा के अन्तिम संस्कार में हिस्सा लेने के लिये। तुरंत वे दोनों शहर की ओर भागे लेकिन अपनी अम्म्मा से मिल नहीं सके।
एक दिन दोनों भाई जब खेत पर गेंहूँ की कटाई करवा रहे थे तब मुखिया जी के लडके का फोन आया और उसने खबर दी कि फैक्ट्री दोबारा चालू हो गई और मालिक पूछ रहे थे कि "तुम लोग कब तक दिल्ली पहुंचोगे'।
अमर सिंह और सहदेव सिंह से जब उनके बापू ने पूछ, "तुम लोगों का दिल्ली जाने का क्या प्रोग्राम है?"

दोनों भाई चुप रह कर अपने पिता की सूनी आंखों में झाँक कर देखते रह गए ...