Tuesday, March 10, 2020

शिकोहाबाद केसी कॉलोनी

शिकोहाबाद:

यादों के झरोखे से"

*शिकोहाबाद*...काफी लोगों ने तो शायद इसका नाम भी नहीं सुन रखा होगा,....यू पी के एक जिले फिरोजाबाद (पहले मैनपुरी) की एक तहसील का क़स्बा है। शिकोहाबाद, दिल्ली से कोलकाता जाने वाली मेन रेलवे लाइन का एक जंक्शन है, जहां से फरूखाबाद जाने के लिए ट्रेन बदलनी पड़ती है। मेरे ख्याल से आज की तारीख में इसकी आबादी एक लाख के करीब होनी चाहिए।
आज से करीबन‌ सत्तर पचहत्तर साल पीछे अगर झांक कर देखें, तो यह महज एक छोटा सा कस्बा हुआ करता था। वैसे तो यहां का नाम शाहजहां के वरिष्ठ पुत्र दारा शिकोह से जोड़ा जाता है लेकिन इतिहास की किसी जानी मानी किताब में इसका ज़िक्र कहीं नहीं मिलता है। इसकी प्रमुख पहचान न जाने क्यों इसका रेलवे स्टेशन, गंगा नहर , सिरसा नदी ( जिसमें पानी कम और बाड़ ज्यादा आती थी), ...और बटेश्वर( जहां यमुना तट पर करीबन १०१ मंदिर हैं) जाने के लिए होता था। पूरी तरह एक ग्रामीण इलाका... जो यादवों के प्रभुत्व में था।
पता नहीं... क्या सोचकर यहां आजादी के आगरे के एक वैश्य परिवार ने सन 1930 के आसपास गया गड़ूमा/ऊबटी, डाहिनी गांव के अंतर्गत आने वाली ज़मीन ख़रीदी। पास ही की जुड़ी हुई ज़मीन अमौर गांव के ज़मींदार ठाकुर मेहताब सिंह ने ज़मीन खरीद ली। आगरे के वैश्य परिवार ने ग्लास और क्राकरी बनाने का कारखाना शुरू किया। कालांतर में करांची (पाकिस्तान) उद्दोगी किशन चंद गाबा जिनकी लैंप बनाने की एक फैक्ट्री रेडियो लैंप वर्क्स के नाम से पहले ही काम कर रही थी, यहां पधारे और उन्होंने केसी इलेक्ट्रिक लैंप वर्क्स के नाम से यहां कारखाना खोला। उस समय करांची में काम करने वाले कई अफ़सर और कर्मचारी यहां शिकोहाबाद चले आये। फैक्ट्री के बगल में ही उनके रहने के लिए कुछ निवास बनाये गए। इस तरह केसी कॉलोनी अपने वजूद में आई। रेलवे स्टेशन से इस फैक्टरी में कुछ और लोगों ने पैसा लगाया और इसका नाम रेडियो लैंप वर्क्स हो गया। शुरू में ज्यादातर लोग करांची और पाकिस्तान के पंजाब के इलाके से आये थे पर बाद में एक अच्छा खासा मिक्सड लौट बन गया स्थानीय लोगों को मिलाकर। शुरू में कोलोनी की कोई बाउंड्री नहीं हुआ करती थी। रेलवे स्टेशन पर डंडियामई के जमींदार ठाकुर प्रताप सिंह जी के निवास के अलावा कुछ दुकान हुआ करतीं थीं जिसमें दूध, दही और मिठाई, नाई, पान वालों की दुकानें हुआ करतीं थीं। 1947 में हिंदुस्तान पाकिस्तान के बंटवारे के समय आए पंजाबी रिफ्यूजियों रेलवे स्टेशन रोड पर हररोज के घर गृहस्थी के सामानों की दुकानें खोल लीं। यह सब रिफ्यूजी लोग वहीं की एक सराय और पोस्ट ऑफिस की बिल्डिंग के आसपास घर बना कर रहने लगे। शिकोहाबाद कस्बे का बाजार स्टेशन से कोई दो ढाई किलोमीटर दूर था जिसे शहर कहा जाता था। इसमें तहसील, पुलिस स्टेशन, कॉलेज, बैंक के साथ, दो बाज़ार हुआ करते थे। एक को कटरा बाजार कहते थे और दूसरे को बडा़ बाज़ार। कटरा बाजार में सभी तरह की दुकानें थीं जैसे किताबों, बर्तनों, जूतों, डाक्टरों, दवाइयों, कपड़ों, दर्जी, साइकिलों, सुनार, पंसारी, हलवाई आदि और इससे सटी सब्जी़ मंडी हुआ करती थी। बड़ा बाज़ार में अधिकतर अनाज, तेल, घी ,पशु चारा,बीजों, खेती के औजारों आदि की दुकानें थीं। लेदेके दो सिनेमा हॉल हुआ करते थे एक प्रकाश टॉकीज़ सब्ज़ी मंडी के और दूसरा कृष्णा टॉकीज आर्य समाज मंदिर के पास।
बडे़ बाजार में व्यापारी वर्ग के लोग रहते भी थे। वक्त के साथ साथ इन दोनों बाजारों ने कई गली मुहल्लों से मिलकर एक मिला जुला स्वरूप ले लिया और उसमें कई और तरह की दुकानें भी शामिल हो गयीं...और धीरे धीरे दुकानों के समूह ने कुछ खास प्रोडक्टस को बेचने के बाजार के रूप को अख्तियार कर लिया जैसे बर्तन बाजार, बिजली का सामान बाजार , रेडीमेड कपड़ा बाजार आदि। शहर में सफाई का अभाव था और ड्रेनेज न होने के कारण खुली नालियों से अजीब सी दुर्गन्ध आती रहती थी। मक्खियां को आजादी तो हमारी आजादी से कहीं ज्यादा थी।
उसके बाद 1952 में रेडियों लैम्पस वर्कस को फिलिप्स ने खरीदकर कर इसको इंडियन पार्टनर बजाज के साथ मिलकर हिन्द लैम्पस लिमिटेड में परिवर्तित कर दिया। शुरू में फिलिप्स, नीदरलैंड के मि.जैकोब क्रुजे हुआ करते थे और एडमिनिस्ट्रेटिव एवम कर्मशियल मामलात बजाज का नुमाइंदा देखता था जो पहले एक मि. तमोहर गुप्ता थे और उसके बाद मि. एस एस सूद। मि. सूद कुर्ता , चूड़ीदार पजामी,जेकेट और गांधी टोपी पहनते थे और नेहरू जी के पैर्टन का अनुसरण करते थे। इस फैक्ट्री में हर तरह का लैम्प जैसे मिनीएचर, टेलीफोन स्विचबोड,जीएलएस, ट्यूव लाइट्स और उसके पार्टस भी बनते थे और हर ब्रांड के लैम्पस के नाम से बनते और बिकते थे जैसे फिलिप्स, माज़दा, सीमेन्स, ओसराम, जीईसी आदि। वक्त के साथ-साथ यह फैक्टरी काफी बड़ी हो गई और इसे एशिया की सबसे बड़ी लैम्पस फैक्टरी कहा जाने लगा। इसके साथ साथ इसकी कोलोनी भी काफी बड़ी हो गई। मैनेजर्स , आफीसर्स, सुपरवाइजरस, टेक्नीशियनस, और कारीगरों के लिए अलग अलग ब्लाकस बन गये। शुरू की एक बड़ी दुर्घटना जिसमें एक बड़े गैस टैंक को वैल्ड करते समय फटने से पांच लोगों की मौत ने लोगों की याददाश्त को काफी दिनों तक जकड़ कर रखा था। जिसमें पी सी जोशी जी के छोटे भाई जगदीश जोशो तथा एक शर्मा जी के साथ तीन मजदूरों की भी मृत्यु हो गई थी।
शुरू की केसी कॉलोनी
रेलवे स्टेशन से कॉलोनी आने के लिए रेलवे लाइन्स को पार कर एक छोटा सा गेट था। इस गेट के बाई तरफ कारीगरों के लिए २०  - २२ छोटे मकान थे जिनमें बाथरूम और टॉयलेट नहीं हुआ करता था। इन सब मकानों के लिए बाथरूम और टॉयलेट सामूहिक थे लेकिन पुरुषों और स्त्रियों के लिए अलग-अलग प्रबंध था। इसे ऊपर की लाइन कहा जाता था। गेट के दाहिनी तरफ पांच ऑफिसर्स के मकान थे। जिसमें उस समय छविलानी, सरदार बलवंत सिंह , चावला, वासवानी और खन्ना परिवार रहा करता था, वहां से थोड़ा आगे चलने पर बाए हाथ पर ऊंचाई पर एक खाली सा मैदान था जिसमें कुछ पेड़ भी लगे हुए थे। इस खाली मैदान में गर्मियों में बच्चे और बड़े खूब पतंगबाजी किया करते थे। इसकी जमीन में गोखुरू वाले कांटे हुआ करते थे। इस पर चढ़ने के लिए तीन चार सीढ़ियां भी जिस पर अक्सर ऊपर की लाइन के बच्चे ही बैठे रहते थे। इसके सामने पांच मकानों से सटा तिकोने आकार का खाली ग्रांउड होता था जो ट्रकों को मोड़ने या फिर ऊपर की लाइन के बच्चों के खेलने में काम आता था। उपर वाले मैदान का हिस्सा खत्म होते ही बाई तरफ नौ मकान बने हुए थे जिनके सामने छोटे-छोटे गार्डन स्पेस थे जिसमें लगभग सभी में एक ना एक पेड़ था और पीछे कुछ खाली जगह थी जिससे फैक्ट्री की चारदीवारी मिलती थी। शायद उस चार दीवारी के पीछे वर्क शाप थी क्यों कि वहां से लगातार ठक ठक की आवाज आती रहती थी और शाम के वक्त वैल्डिग की चमक। दीवार के साथ एक नाली भी थी जिसमें शायद गैस प्लांट का कचरा तथा कैमिकल बहते नज़र आते थे जिसकी काफी पंजैंट स्मैल होती थी। इन नौ मकानों में मनमोहन लाल सक्सेना, वी के कुमार, गिडवानी, पी सी जोशी, सरदार हरभजन सिंह, पी सी कपूर , राम लाल वासन और के के कालरा परिवार रहा करता था। इन मकानों के सामने करीब चौदह छोटे मकान थे जिसमें चुन्नी लाल गांधी, आरपीश्रीवास्तव, रतनसिंह, प्रीतमसिंह, महेश्वर सिंह, अजब सिंह, अमरनाथ, के के  कक्क्ड़, भावौ, सिंगारी साहब (जिन्हें सभी लोग खजांची कह कर पुकारा करते थे), सरदार निर्मल सिंह और मदन पुर वाले माथुर परिवार खास थे। आखरी मकान में तीन कमरे थे जिसमें एक में तो दुर्गा पूजा और रामलीला का सामान रखा रहता था और दूसरों कमरों को बैचलर्स के रहने के लिए रखा हुआ था। जिसमें वीपी विज साहब महत्वपूर्ण थे। इन मकानों के सामने एक खुला मैदान था जिसमें एक बड़ा सा गोला हुआ करता था और मैदान के चारों तरफ कुछ जंगल जलेबी, नीम, शीशम के पेड़ थे। मैदान के कोने में निर्मल सिंह के मकान के सामने एक बड़ा सा पीपल का पेड़ और कक्कड के मकान के सामने एक आम का पेड़ हुआ करता था। मैंदान के बीच में गोले के पास एक बरगद का पेड़ भी था। इस मैदान का प्रयोग ज्यादातर बच्चों के खेलने के लिए ही या औरतों के बैठने के लिए होता था। वास्तव में यह गोला सैप्टिक टैंक का ढक्कन था जिसे सीमेंटिड किया हुआ था। इस मैदान में हर तरह के खेल होते थे जैसे कंच्चे खेलना, गुल्ली डंडा, फुटबाल, क्रिकेट आदि। इस मैदान से सटा एक मकान और था जिसे शुरू में धोबी को अलॉट किया हुआ था और उसके पीछे एक छोटा सा कमरा जमादारों को दिया हुआ था । इन नौ मकानों से सटी दो कोठियां थी। जिसमें एक में एक बंगाली डाक्टर और दूसरे में के के कपूर परिवार रहता था। छोटी सी बात को लेकर डाक्टर के नौकर ने बड़े सुनियोजित ढंग से कपूर परिवार के नौकर के साथ मिलकर कपूर साहब का मर्डर कर दिया। यह बड़ी अप्रत्याशित दिल दहलाने वाली घटना थी। उसके बाद कुछ समय के पश्चात इन दोनों कोठियों को तोड़ कर वहां एक बड़ा लॉन बना दिया गया था। पर शुरू शुरू में बच्चे वहां जाने से डरते थे। इन दो कोठियों के सामने से रास्ता फैक्ट्री के मेन गेट को चला जाता था और उसके सामने दो कोठियां और थी जिनके आगे काफी बड़े लान थे और पीछे किचन गार्डन। इसमें एक में एल आर कपूर और दूसरे में बी आर कृपलानी परिवार रहता था। इन कोठियों के बगल में एक वाइट रंग की डबल बिल्डिंग थी जिसके अंदर बहुत सुंदर लान था जिसमें फैक्ट्री का डच जनरल मैनेजर का निवास था और बाद में जब जरनल मैनेजर के लिए नया बंगला बन गया तो इसे गेस्ट हाउस में परिवर्तित कर दिया गया। बाद में इस गेस्ट हाउस के सामने एक पानी के फब्बारे का कांपलेक्स बनाया गया जो प्लांट की सेंट्रल एयर कंडीशनिंग के लिए कूलिंग टावर का काम करता था। 
डाक्टर साहब की कोठी के बगल में सड़क के पार तीन कोठियां और बनी हुई थी जिसके पीछे के हिस्से में काफी खुली जगह थी जिसमें बागवानी की जाती थी। इसमें ए पी मुखर्जी, एस एस धवन और आर पी भंडारी परिवार रहा करता था।  
इन तीनों कोठियों के सामने दो बड़ी सी कोठियां थीं जिसमें तमोहर गुप्ता साहब फैक्टरी मैनेजर तथा एस एस सूद साहब रहा करते थे। इस कोठी के बाहर और अंदर अच्छे खासे लॉन्स थे। शुरू में इस कोठी से सटा एक धोबी घाट भी हुआ करता था और उससे जुड़ा हुआ सर्वेंट कंपलेक्स। इसके बीच में एक छोटा सा दरवाजा सा होता था जिससे निकल कर कालोनी के दूसरे हिस्से में जाया जा सकता था।
रेडियो इलेक्ट्रिक लैंप वर्क्स के शुरूआती दिन:

शुरू शुरू में फैक्ट्री का मेन गेट पावर हाउस और टाइम ऑफिस डिस्पेंसरी और कैंटीन के बीच हुआ करता था। फैक्ट्री में मेन गेट से अंदर घुसते बाएं हाथ को ग्लास प्लांट, वर्कशॉप, गैस प्लांट और पावर हाउस हुआ करता था। उस ज़माने में ग्लास फैक्ट्री में एक टैंक फर्नेस हुआ करती थी जिसमें हैंड ब्लोइंग से लैंप शैल बनाये जाते थे। लैंप फैक्ट्री में जीएलएस की दो यूनिट हुआ करतीं थीं और ग्लास फ़ैक्टरी के बगल वाले शेड में चलती थी।
नया गेट बन जाने के बाद दाएं हाथ को 1952 में जीएल लैम्प्स बनाने के लिए नई चेन्स आईं और गेट के दाएं हाथ पर एक नई दो मंजिला बिल्डिंग बनाई गई। निचले हिस्से में पैकिंग, क्वालिटी डीपार्टमेंट हुआ करते थे और एक तरफ इंजन रूम हुआ करता था जिसमें ऐरकंडिशनिंग और कंप्रेसर वग़ैरह हुआ करते थे। ग्लास फैक्ट्री से लैंप शेल्स एक लिफ्ट द्वारा फर्स्ट फ्लोर तक पहुंचाए जाते थे।
जब 1956-58 में एक्सपेंशन का काम शुरू किया गया तो पुरानी बिल्डिंग को आफिस में तब्दील कर दिया गया। लैंप और टीएल प्लान्ट के लिए एक नई एयर कूल बिल्डिंग बनाई गई। पुरानी बिल्डिंग में ऑफिस, मिनिएचर लैंप्स का प्लांट लगाया गया। इसके आगे जाने पर टीएल प्लांट होता था।
फैक्ट्री के मेन गेट के बिल्कुल सामने पीछे की तरफ एक और गेट था जो माधोगंज की तरफ खुलता था और जिसे एग्जिट गेट की तरफ से इस्तेमाल में लाया जाता था। माधोगंज सड़क, जो एक तरफ रेलवे स्टेशन को जाती थी और उसका दूर छोर बटेश्वर जाता था, के साथ बनी कुछ मकानों और दुकानों की बस्ती थी जो फैक्ट्री के कारण बस गई थी। कालोनी के बच्चों को फैक्ट्री की दीवार पर चढकर अंदर  झांकने में बहुत मज़ा आता था शायद यह जानने के लिए कि फैक्ट्री के अंदर होता क्या है। इस फैक्ट्री में काफी आधुनिक मशीनें और उपकरण लगे हुए थे। शुरू शुरू में फैक्ट्री के अंदर, और अंदर से रेलवे गेट या माल गोदाम तक कच्चा माल या तैयार माल लाने ले जाने के लिए टायरों वाली बडी बैलगाड़ी का इस्तेमाल हुआ करता था।
1964 में जवाहर लाल नेहरू जी के निधन के समय जरनल मैनेजर मि. पोल्डर वाट थे और उस दिन नेहरू जी के निधन को लेकर उनके कारीगरों की भावनाओं को न समझ पा सकने के कारण किए कमेन्ट से फैक्ट्री में मारपीट हो गयी... जिसमें पोल्डर वाट और कई आफीसर्स की भी पिटाई हुई थी। जिसके कारण मैनेजमेंट को सख्त अनुशासनात्मक कार्यवाही करनी पड़ी। लंबे समय तक हड़ताल चली। इसमें एक कारीगर आमरण अनशन पर भी बैठा था। यह शायद इस फैक्ट्री की पहली हड़ताल थी जिसके बाद काम करने का माहौल कुछ बिगड़ता ही चला गया जब तक कि ए दत्त राय को जरनल मैनेजर की जिम्मेदारी नहीं दी गई।
धोबी घाट के पीछे एक साइड पर सुपरवाइजरों के छः डेढ़ रूम सेट के मकान थे। इन मकानों में रहने वाले प्रमुख लोगों में ठाकुर मनोरंजन सिंह, खुन्नी लाल मिश्रा, सांगड़ा, उत्तम चंद आनंद, भटनागर साहब तथा महेश सिंह रहा करते थे। जिसके सामने एक बहुत बड़ा स्पोर्ट्स ग्राउंड था जिसके एक तरफ क्लब की बिल्डिंग थी और दूसरी तरफ के.सी. स्कूल और सामने चौबीस क्वार्टरस हुआ करते थे। यह ग्राउंड क्लब और स्कूल दोनों ही इस्तेमाल में लाते थे। क्लब के पीछे कुछ खाली जमीन थी और उससे जुड़ी हुई सरदार दिलीप सिंह की एक पैकिंग मैटेरियल की एक फैक्ट्री जिस में पहले लकड़ी काटने का आरा हुआ करता था। इस फैक्ट्री की खास अहमियत हुआ करती। उस समय खाना पकाने के लिए या तो कोयले की अंगीठी होती थी या फिर मिट्टी के तेल वाला स्टोव और या फिर बुरादे की अंगीठी। यह बुरादा दिलीप सिंह की आरा फैक्टरी से ही मिलता था।
क्लब के पीछे ही थोड़ा बाई तरफ हटकर स्टाफ के लिए दस मकान और बने हुए थे जिसके सामने की सड़क कॉलोनी के माधोगंज जाने वाले एग्जिट गेट को जाती थी। इन दस क्वाटरों में
भारद्वज, ओम प्रकाश (किशोरी देवी ओम प्रकाश की माता श्री डिस्पेंसरी में हेड नर्स हुआ करतीं थीं), के सी स्कूल के हैड मास्टर,मनोहर लाल सक्सेना, सी एल सक्सेना, चंद्र पाल सिंह चैहान, कम्पोउंडर सक्सेना जी, हरी सिंह,पंडित लीला नंद ड्राइवर, चौबे जी इत्यादि रहा करते थे।।

माधोगंज से होकर रेलवे स्टेशन पहुंचा जाता था और रेलवे स्टेशन से होकर शहर। उन चौबीस क्वार्टरस के पीछे फैक्ट्री से निकले हुए स्क्रैप और वेस्ट का डंपिंग यार्ड था। बाद में इन मकानों के बराबर डबल स्टोरी वाले नये मकान बने जिन्हें भी स्टाफ के लिए बनाया गया था।
पहले के सी स्कूल केवल पांचवीं कक्षा तक हुआ करता था। स्कूल‌ में पांच कक्षाएं, एक म्यूजिक रूम और एक हैड मास्टर का कमरा था। स्कूल में बच्चे टाट पर नीचे बैठकर पढ़ते थे। अध्यापकों को उनके नाम के साथ कक्षा के अनुसार कक्षा एक के , दो के..तीन के ...चार के मास्साब कहकर सम्बोधित किया जाता था। कक्षा पांच को हैड मास्टर ही पढ़ाते थे। स्कूल में शोभा राम नाम का एक चपरासी भी हुआ करता था। स्कूल में पानी पीने का एक ही नल था और लड़के लड़कियों के अलग अलग शौचालय थे। बाद में स्कूल में कुछ झूले भी लग गये थे। स्कूल में पुस्तकालय और मूर्तियां बनाने का काम भी सिखाया जाता था। यह काम कक्षा दो के मास्साब के हवाले था। हर शनिवार को आधे दिन के बाद बाद सभा हुआ करती थी। स्कूल का समय गर्मियों में सुबह सात बजे से बारह बजे तक और सर्दियों में दस बजे सुबह से शाम चार बजे तक होता था। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को स्कूल के बच्चे अध्यापकों के साथ यूनीफोर्म में पूरी कालोनी में राष्ट्रीय ध्वज को लेकर प्रभाव फेरी निकालते थे। जब स्कूल का बैण्ड आ गया तो बैण्ड के साथ उसका प्रभाव देखते ही बनता था। छ्ब्बीस जनवरी पर स्कूल की वार्षिक क्रीडाएं और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे। उसमें बच्चों द्वारा लगाई दुकानें, जिसके बीच में एक गोलाकार जगह बनाकर पानी के अंदंर सरस्वती जी की प्रतिमा विशेष आकर्षण होती थी।स्कूल के प्रांगण में दशहरे के समय रामलीला का भी आयोजन होता था जिसका इंतजार सभी बड़ी उत्सुकता से करते थे। स्कूल के बगल में कुछ खाली जमीन पर बच्चों से सब्जियां भी लगवाते थे। बारिश में पहले स्कूल के आजू बाजू काफी पानी भर जाता था जो कभी कभी घुटने घुटने तक होता था।
कोलोनी में खुले मैदान में देर शाम को पर्दा लगाकर खासतौर से गर्मियों की छुट्टियों में फिल्म्स भी दिखाई जाती थी। बहुधा कभी मशीन खराब हो जाने से और कभी रील कट जाने से और कभी कभी बिजली गुल हो जाने से बड़ी कोफ्त होती थी।
कोलोनी में घर घर में कीर्तन भी होते  थे और लगभग हर त्यौहार जैसे दशहरा, दुर्गा पूजा, गुरू नानक जयंती, होली ,दीवाली मिल जुलकर बड़े धूम धाम से मनाई जाती थी। होली के लिए कई जगह लोहे के डमों में टेसू के फूलों का रंग भरकर रख दिया जाता था।  और दीवाली में पटाखे बजने तो लगभग एक महीने पहले से ही शुरू जाते थे। हां होली के समय बेकार सखा प्रेस एक विशेष होलीकांक निकालती थी जिसमें कालोनी और शहर के ऊँचे ओहदे वाले लोगों पर कुछ मजाकियां फब्तियां कसीं जातीं थीं।
शायद 1966-67 में जब कैप प्लांट लगना शुरू हुआ तो क्लब और क्लब के पीछे वाला सारा हिस्सा, जिसमें दस क्वाटरस भी थे, और सामने वाला ग्राउंड  फैक्ट्री का भाग बन गए। क्योंकि अब फैक्ट्री काफी बड़ी हो गई थी और उसमें मैनेजर्स, ऑफिसर्स और स्टॉफ की रिक्वायरमेंट भी बढ़ गई थी, कॉलोनी के एक्सपेंशन की आवश्यकता महसूस हुई। इस सारी प्रक्रिया में स्कूल की एंट्रेंस बदल कर पीछे की तरफ से कर दी गई और उसके सामने एक पहले जितना दूसरा ग्राउंड बनाया गया। इस ग्राउंड से लगते हुए जनरल मैनेजर का बहुत बड़ा नया बांग्ला बना और उसके पीछे एक और ग्राउंड। धोबी घाट को अपनी पुरानी जगह से थोड़ा और पीछे और साइड पर खिसका कर उसके बीच सुपरवाइर्जस के मकानों के बीच एक सड़क बना दी गई थी जो कैप प्लांट के गेट पर जाकर मिल जाती थी, और उसके बगल में एक कोऑपरेटिव स्टोर बना दिया गया जिसमें रोजमर्रा की सारी चीजें उपलब्ध थी कपड़ों के साथ साथ। यह कोऑपरेटिव स्टोर राशन,जैसे गेहूं, चीनी, चावल, मिट्टी का तेल आदि,बांटने का काम भी करता था । क्लब को भी सूद साहब के जाने के बाद उनकी कोठी में बना दिया गया था।
साथ ही साथ स्कूल के बगल में नई कैंटीन बनाई गई और पुराने कम्यूनिटी सेंटर,जो रात की पाली के कर्मचारियों के सोने और सांस्कृतिक क्रार्यकमों और शादी विवाह के लिए प्रयोग में लाया जाता था, में भी सुधार किया गया। 
कोपरेटिव स्टोर के बगल में काली सड़क के दूसरी तरफ बची हुई जमीन पर कुछ और स्टाफ और आफीसर्स के लिए मकान बनाए गये और‌ स्कूल के सामने दाहिने हाथ पर ग्राउडं से सटे दो नये बंगले और उनके करीब बारह कोठियां बनाई गईं। यह सारा कम्पलैक्स नया था और शायद नये लोगों के लिए उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर बनाया गया था।
जर्नल मैनेजर के बंगले में पहले डच गोरे रहते थे और बड़ी दो कोठियों में पर्सनल और कर्मशियल मैनेजर के लिए थी । बाकी कोठियों में डिपार्टमेंटल हैंड्स रहते थे जिसमें एक कोठी डाक्टर की भी थी। हां अब तक डिस्पेंसरी को भी काफी मोर्डनाइज़ कर दिया गया था।  १९७० के आस पास , कोठियों के साथ में लान टेनिस और बेडमिंटनग्रांउड तथा स्वीमिंग पूल भी बनाया गया, जिसको कुछ इस तरह डिजाइन किया गया था कि वहां पार्टीयां भी की जा सके और उसका नाम 'हनी पोट' रखा गया था। उसी दरम्यान कालोनी के अंदर लैंडस्केपिंग, होर्टिकलचर, साफ सफाई पर भी बहुत काम हुआ जिसने कालोनी की शक्ल ही बदल दी। 
इसके चलते जरनल मैनेजर के बंगले के पीछे वाले ग्राउंड में भी कुछ और कोठियां बना दी गई। इन कोठियों के पास में एक बहुत बड़ा पानी का तालाब था जो शायद फैक्टरी और कालोनी का वैस्ट वाटर था। कालोनी चारों तरफ से बाउंड्री वाल जिस पर कंटीले तार से कवर्ड थी। कालोनी में अब इन सब परिवर्तनों से अंदर आने और जाने का मुख्य रास्ता और दूर हो गया था जो अब स्क्रैप यार्ड के पास से होकर बाहर माधोगंज वाली रोड पर जाकर ही मिलता था। यह रोड एक तरफ रेलवे स्टेशन को जाती थी और दूसरी तरफ बाह और बटेश्वर जाती थी। कालोनी से बाहर जाने के रास्ते के एक साइड पर अब दिलीप सिंह की पैकिंग फैक्ट्री भी शिफ्ट हो गई थी। कालोनी के पूर्वी भाग में माधो गंज और दक्षिणी ओर ऊबटी गांव के खेतिहरों की ज़मीनें थीं।
फिलिप्स और बजाज के बीच कुछ मैनेजमेंट से रिलेटिड समझौता होने के बाद डच गोरे वापिस चले गये और जनरल मैनेजर की जिम्मेदारी एक वायु सेना सर्विस निवृत्त विंग केमोडर ए दत्त राय को सौंप दी गई। उस समय मुख्य फानैंस अधिकारी वैकटारामन थे और पर्सनल आर पी मैनेजर मित्तल साहब थे। दत्त राय साहब ने उन दो बडी़ कोठियों में जिसमें एक में मित्तल साहब रहते थे, के साथ वाली कोठी को अपना निवास स्थान बनाया। जरनल मैनेजर के खाली बंगले को अब आफीसर्स क्लब बना दिया गया था और आफीसर्स क्लब जो सूद साहब की कोठी में था उसे एक इंग्लिश मीडियम लिटिल लैम्प्स प्रायमरी स्कूल में बदल दिया गया।
इसके सामने से होकर जाने वाली सड़क को काली सड़क के नाम से जाना जाता था‌ और सिर्फ यही ईंटों से बनी थी। इस सड़क के दूसरी तरफ आम अमरूद और ककरोदों के पेड़ों का एक घना बाग हुआ करता था। कॉलोनी में काफी तरह-तरह के पेड़ थे और अच्छी खासी हरियाली भी। सफाई का भी अच्छी तरह से ख्याल रखा जाता था। सारी सड़कों पर स्ट्रीट लाइट का इंतजाम था हालांकि उस वक्त जीएलएस लैम्स का ही प्रयोग होता था जिनकी लाइट पर्याप्त नहीं लगती थी। कहीं-कहीं इसीलिए ट्यूबलाइट भी लगाई गई थी। कॉलोनी में घरों का पानी खुली नालियों से वह कर एक बड़े तालाब में, जो नये आफीसर्स क्लब के पीछे नई बनी कोठियों के बगल में बने तालाब में एकत्र हो जाता था। इन नालियों की नियमित रूप से सफाई की जाती थी। कॉलोनी के अंदर सुरक्षा की फीलिंग ठीक-ठाक थी। 
कॉलोनी में एक विचित्र अनुभव हुआ करता था। हर सुबह साडे़ पांच बजते ही पक्षियों का जिसमें ज्यादातर तोते और कबूतर हुआ करते थे का कलरव शुरू हो जाता था। आकाश में उड़ते और उड़ कर कहीं जाते हुए इन पक्षियों के झुंड को देखते ही बनता था। और इसी तरह शाम को छै और साडे़ छै के बीच एक बार फिर यही पक्षी कहीं से उड़कर आते हुए अच्छा खासा शोर करते हुए फिर से पेड़ों पर आकर बैठ जाते थे। कॉलोनी में कौवे और बंदर अक्सर देखने को मिल जाते। कुछ देसी कुत्ते भी इधर उधर अपना परिवार लिए घूमते रहते थे। बिल्लियां भी पिछड़ने वालों में से नहीं थी और उन्होंने भी अपना एकमात्र राज बना ही रखा था। बंदर अक्सर घरों में आकर कुछ से कुछ नुकसान करते रहते थे। पेड़ों पर गिरगिट और गिलहरी खूब देखने को मिलते थे और घरों में गौरैया, जो अब देखने में नजर नहीं आती। बरसातों में जमीन पर इतने कैंचुए निकल आते थे कि समझ में नहीं आता था चला कैसे जाए। बाहर तो बाहर यह कैंचुए घरों के अंदर आकर भी परेशानी का वायस बनते थे। यदा-कदा सांप निकलने की घटनाएं भी होती रहती थी। घरों में बिजली पानी की सुविधा मौज मस्ती के लेवल पर अच्छी कही जा सकती थी। कॉलोनी में दूध की सप्लाई तो पास के लगे हुए गांव से हो जाया करती थी परंतु सब्जी और कुछ खास जरूरतों के लिए शहर जाना ही पड़ता था। कालोनी में सामान्य तौर पर बिजली नहीं जाती थी जब तक कि कोई बडा़ ब्रैक डाउन न हुआ हो। दिन में पांच बार सायरन बजते थे। सुबह सात बजे, शिफ्ट शुरू के समय,  दोपहर बारह बजे लंच के  शुरू होने पर, एक बजे लंच का समय समाप्त होने पर, शाम को साढ़े चार बजे शिफ्ट आप होने के समय और रात को नौ बजे...शायद हम सबको सोने के लिए। फैक्टरी में कोई इमरजेंसी होने पर यह सायरन बजता ही रहता था जिससे अच्छी खासी परेशानी पैदा हो‌जाती थी।
कालोनी की लड़कियां पहले पांचवीं के बाद (बाद में आठवीं के बाद) भगवानी देवी माहेश्वरी गर्लस कालिज में शहर पढ़ने जाती थी जिसके लिए उन्हें कालोनी से बस लेने आती थी। जो एक जेल की वैन जैसी होती थी और उसकी सहायिका का नाम था कटोरी, जो लड़कियों को बस आने की चिल्ला चिल्ला कर सूचना देती थी।
कॉलोनी के रेलवे गेट से जुड़ी एक और बस्ती सी जिसको बेकार सखा कहा जाता था जिसे ठाकुर मेहताब सिंह ने 1932 में बसाया था। इसमें काफी अरसे तक लाइट का प्रबंध नहीं था और पानी भी शायद कुओं से या हैंड पंपों से ही निकाला जाता था। रेलवे स्टेशन में दो प्लेटफार्म थे एक दिल्ली से कोलकाता जाने वाली गाड़ियों के लिए और दूसरा कोलकाता से दिल्ली की तरफ आने वाली गाड़ियों के लिए। रेलवे स्टेशन पर एक चाय की दुकान थी और एक बुक स्टॉल जिसे ए एच व्हीलर चलाता था। उस जमाने में टेलीग्राफ शॉर्ट और अरजेंट मैसेजेस के लिए यूज़ किया जाता था जिस की सुविधा या तो पोस्ट ऑफिस में थी या रेलवे स्टेशन पर। शुरू शुरू में स्टीम इंजन ही हुआ करते थे। डीजल इंजन शायद उन्नीस सौ पैंसठ के बाद ही आए और उन्नीस सौ सत्तर के बाद शुरू हुआ रेलवे इलेक्ट्रिफिकेशन का काम। ‌ जब स्टीम इंजन हुआ करते थे तो रेलवे स्टेशन के दोनों प्लेटफार्म के शुरू में बहुत बड़े ओवरहेड वाटर टैंक हुआ करते थे जिनसे ऑरेंज कलर के सूंड़ के आकार के बहुत बड़े नल के द्वारा इंजन में पानी भरा जाता था। रेलवे स्टेशन से सटा हुआ एक रेलवे का माल गोदाम भी होता था जहां अक्सर कई माल गाड़ियों के डिब्बे खड़े रहते थे। किन्हीं किन्ही डिब्बों में तो गाय भैंस भी बंधी होती थी, जिनको एक जगह से दूसरी जगह लेकर जा रहा होता था। यूं तो चार मेन रेलवे लाइंस थी पर उसके अलावा भी कई और सेकेंडरी रेलवे लाइंस भी थी। अक्सर वहां पर इन्जनों को कुछ डिब्बों के साथ शंटिंग करते देखा जा सकता था। शंटिंग का मेन परपज एक ट्रेन के कुछ डब्बों को दूसरी ट्रेन से जोड़ना या फिर इंजन की दिशा को बदलना जिसके लिए इंजन को स्टेशन से थोड़ा दूर ले जा कर एक बड़े व्हील पर मूव किया जाता था। 
रेलवे स्टेशन से ओवरब्रिज से उतर कर बाहर निकलते ही टांगा और रिक्शा स्टैंड था। टांगे तो शिकोहाबाद में इक्के दुक्के ही नजर आते थे पर इक्के बहुत थे। एक इक्के में दस बारह सवारियां भर ली जाती थी और उसमें जुता घोड़ा, घोड़ा कम और खच्चर ज्यादा लगता था। इन इक्कों के इंबैलेंस होने की झांकियां आम दिन नजर आती रहती थी। रिक्शों का प्रयोग सामान्यरूप से या तो समृद्ध वर्ग या फिर जल्दी की हालत में किया जाता था। रिक्शा और टांगे स्टैंड पर गंदगी फैली रहती थी और घोड़ों के मूत्र की दुर्गंध आती रहती थी। रेलवे स्टेशन के बाहर कुछ दुकानें तो पक्की थी पर ज्यादातर कच्ची ही थी। वहां कीचड़ ज्यादा नजर आता था और सड़क कम। बरसातों में तो हालत और भी ज्यादा खराब हो जाती थी। रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही दाहिने हाथ पर पोस्ट ऑफिस था और उससे थोड़ा आगे बाएं हाथ पर डाक बंगला। उससे थोड़ा और आगे चलने पर दाहिनी हाथ पर पालीवाल ग्लास वर्क्स था जो उस जमाने में कांच के अच्छे ग्लास और झूमर बनाता था। हालांकि फैक्ट्री का रखरखाव बहुत अच्छा नहीं था। इसी फैक्ट्री से सटी हुई शिकोहाबाद की गंगा नहर थी। इस नहर से सटा नहर और सिंचाई विभाग का ऑफिस और उसके वरिष्ठ ऑफिसर्स का बंगला।गंगा नहर का नीला सरलता से मंद मंद बहता पानी बरसात के मौसम को छोड़कर अपनी निर्मलता और नैसर्गिक स्वछंदता का स्वभाविक बोध कराती है। रेलवे स्टेशन के आस पास के रहने वालों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण जीवन स्त्रोत बन गया था। अक्सर वहां भीड़ रहा करती थी। पुल से नहर में कूदते पुरूष और बच्चे। घाटों पर से स्नान करते और कपड़े धोते महिला और पुरूष अपना एक अजीब दृश्य पैदा करते थे। नहर में एक रहटनुमा व्हील जिसके डिब्बे नहर से पानी भर के सिंचाई विभाग की आवश्यकताओं को पूरा करता था। इस नहर पर गर्मियों की छुट्टियों में निर्जला एकादशी पर एक मेला लगता था जो बच्चों के लिए मंनोरंजन के काफी खेल तमाशे लिए होता था
शिकोहाबाद में रेलवे स्टेशन के पास ही एक पुरातन परंतु सुंदर सी देखने वाली बिल्डिंग अहीर क्षत्रिय कॉलेज की हुआ करती थी। जिसके आगे दोनों तरफ बड़े-बड़े ग्राउंड थे और पीछे खेत। इस कॉलेज का एक हॉस्टल भी था। अशोक के पेड़ों से झांकते इस कॉलेज की छवि दूर से देखते ही बनती थी। इस कॉलेज में इंटरमीडिएट के बाद ग्रेजुएशन के साथ-साथ बी टी (बाद में बी एड) की कक्षाएं भी होती थी। कृषि विज्ञान के लिए यह प्रसिद्ध था।
इस कालिज के सामने पालीवाल वर्कस का एक बहुत बड़ा गो-डाउन और आफिस भी हुआ करता था। जो अब अशोक यादव पुत्र श्री महेश्वर सिंह के नेताजी का निवास है।
अहीर कॉलेज से सटा अहीर क्षत्रिय हाई स्कूल (जिसका बाद में नाम आर्दश कृष्णा हाई स्कूल हो गया) था। इस स्कूल में सामान्य तौर से ग्रामीण बच्चे ही शिक्षा के लिए आते थे। स्कूल का फैलाव काफी था। छठी और सातवीं कक्षाएं छप्पर वाली क्लासेस में या पेड़ के नीचे लगा करती थीं। परंतु आठवीं, नवीं और दसवीं की कक्षाएं पक्की थी। विज्ञान और जीव विज्ञान के लिए अच्छे शिक्षक थे और अच्छी प्रयोगशालाएं। पर यहां पर भी तवज्जो कृषि विज्ञान पर ही ज्यादा था। आठवीं कक्षा तक बच्चों से खेती-बाड़ी भी करवाई जाती थी।
अहीर क्षत्रिय स्कूल की बिल्डिंग से सटी एक सरकारी लेबर कोलोनी भी थी। उस इलाके को मेहराबाद कहा जाता था। लेबर कोलोनी व्यवस्थित तरीके से बनी डबल स्टोरी निर्माण था जिसमें पक्की सड़कें और कई ग्राउंडस थे, लेकिन होर्टीकल्चर का सर्वथा अभाव था। मेहराबाद,  मुख्य सड़क जो शहर को जाती थी उसके दूसरी तरफ बनी हुई कच्ची पक्की बस्ती का प्रकार लिए हुए थी और जिसमें गाय भैंसे बंधी और खड़ी बैलगाड़ियां आम नजारा हुआ करता था। यह इलाका सड़क की तरफ थोड़ा ऊंचाई पर था पर पीछे और साइड पर फैलाब नीचा होता हुआ खेतों से मिल जाता था।  
यह सड़क मेहराबाद के थोड़ा आगे जाने पर सिरसा नदी के पुल से होकर लगभग एक किलोमीटर के बाद बाईं तरफ पालीवाल इण्टर कालिज़ और उसी से सटा पालीवाल डिग्री कालिज़ को, और उसके ठीक सामने सिविल होस्पीटल ले जाती थी। इस सड़क के दोनों तरह खेत थे जो सर्दियों के मौसम में अपनी हरियाली बिखेरते ही बनते थे। सड़क के दोनों तरफ जामुन के बड़े बड़े पेड़ थे जो जामुन के मौसम में सड़क पर अपनी दरियादिली बेरहमी से बिखेर देते थे।  सिरसा नदी की चौड़ाई वैसे तो ज्यादा नहीं थी पर कहीं कहीं यह काफी गहरी थी। हां  सड़क के दाईं तरफ सिरसा नदी के एक पट भी एक श्मशान घाट भी था। यह नदी बरसात के दिनों में बाढ़ का कहर ढाने के लिए मशहूर थी। बाढ़ के दौरान वो एक दो महीने सड़क के दोनों तरफ जहां तक नज़र जाती थी....बस मटमैला पानी ही नजर आता था। सड़क का कुछ आता पता ही नहीं होता था...कई जगह से टूट जाती थी और शहर जाना मुश्किल हो जाता था। उस समय सिरसा नदी के पुल से पालीवाल कालेज के कुछ पहले तक नाव से जाया जाता था। कुछ नावें तो खाली बडे़ डम्रों को बांधकर उसके ऊपर लकड़ी के पलैन्कस (फट्टे) रख कर भी बनाई जातीं थी जिन्हें बांसों से खेया जाता था। उस समय उन नावों से शहर जाना अच्छा खासा ऐक्साइटमेंट हुआ करता था। पालीवाल स्कूल से करीबन‌ एक फर्लांग पहले बाईं तरफ सड़क से सटा एक शिव मंदिर था और उसमें एक कुआं भी हुआ करता था। उसके साथ कई पेड़ों वाला बाग होता था जहां सर्दियों की शुरुआत में हर साल एक पशु मेला लगा करता था और गर्मियों की छुट्टियों में मेला जिसमें ऐक्जीवीशन भी कहते थे। जिसमें जादू, तरह तरह के शीशों वाला खेल, मोटर साइकिल वाला मौत के कुएं का खेल और एक छोटा चिड़ियाघर भी होता था, खाने पीने की सामग्री के अलावा। और हां, एक दुकान वो भी थी जिसमें 'हर माल मिलेगा छै आने' अब तक यादगार बनी हुई है।
पालीवाल कालिज़ से आगे जाने पर शहर की शूरूआत हो जाती थी।  बाईं तरफ शहर के मशहूर टांसपोर्टर आहूजा जी का बडा़ सा मकान था और दाईं तरफ भगवानी देवी महेश्वरी गर्ल्स कालिज। इसके आगे शहर का एक मात्र और लैण्डमार्क नारायण होटल जिसके सामने की ओर की सड़क बडे़ बाजार को चली जाती थी। नारायण होटल से थोड़ा और आगे जाने पर बाएं हाथ पर दुकानें शुरू हो जातीं थीं और उनके पीछे शायद क्वार्टर और  राजस्व विभाग हुआ करते थे और उसके पीछे बस्ती। दाहिने तरफ तहसीलदार का बंगला और दफ्तर था और उससे सटा था पुलिस स्टेशन। सड़क के दोनों तरफ कुछ बिल्डिंगों, दीवारों पर तरह तरह तरह के काले सफेद रंगों की कूची से इस्तेमाल लिखे होते थे जिनमें से कुछ तो काफी घटिया हुआ करते थे।
यह सड़क आगे जाकर एक तिराहे से, जहां हमेशा एक कांस्टेबल ट्रैफिक को कंट्रोल करने के लिए सफेद रंग की वर्दी में खड़ा रहता था। तिराहे के बाई ओर चलने पर एक क्लब हाउस, सरकारी बस अड्डा और नारे कॉलेज हुआ करते थे। इसी सड़क के जरिये लोग आगरा जाया करते थे।
तिराहे के दाएं हाथ जाने पर कटरा बाजार पड़ता था जो शहर का मेन शॉपिंग एरिया हुआ करता था। कटरा बाजार के बीच एक ओर खत्राना मोहल्ला हुआ करता था। इसी मोहल्ले की गली के नुक्कड़ पर डॉक्टर कपूर का दवाखाना हुआ करता था। दूसरी ओर प्याऊ वाली गली हुआ करती थी जिसके बगल में डॉक्टर भटनागर और गौड़ की डिस्पेंसरी हुआ करती थी। कटरा बाज़ार पार करने पर उसी सड़क से सिरसागंज, इटावा, कानपुर जाया जा सकता था। एटा तिराहे से एक सड़क एटा और उसके आगे मैंनपुरी के लिए भी जाया करती थी।

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