Wednesday, November 12, 2014

लाशों के इस ढेर पर कैसे चलूँ।

कलम से____

लाशों  के  इस  ढ़ेर  पर  कैसे  मैं चलूँ
मुर्दों के शहर में आकर अब क्या करूँ !!

नित नए इरादे लेकर आते हैं कुछ लोग
सफल होते हैं कुछ हो जाते कुछ फेल !!

अरमान थे जितने मिट्टी मिल गए
काम हमारे सब बीच में ही रह गए !!

कहाँ  तक  मैं  इनकी  आस  बनूँ
इनके लिए मैं अब क्या क्या न करूँ !!

घर से दूर बहुत कुछ हैं आ गए
अपना सब कुछ यहाँ आकर भूल गए !!

वापसी इनकी मुमकिन नहीं होगी
राख भी सरजमीं अब न पहुंचेगी !!

जिन्दा देखने में नजर आते हैं जरूर
आकर शहर इनको हो गया है गुरूर !!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//



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