Friday, April 3, 2015

सब खो गया है होता था जो प्यार पुराना


सब खो गया है
होता था जो प्यार पुराना

कल शाम अचानक स्वर्गीय महेश चन्द्रा जी ( आई टी आई मनकापुर के निवास के दौरान की एक बात पर) के परिवार की याद आ गई। श्रीमती चन्द्रा जी हमारे गाँव के पास की ही रहने वाली थीं। होली के दिनों की बात है, उनके यहाँ उनके बच्चे जो बाहर पढ़ते थे, आए हुए थे। खाना खाते समय की घटना, श्री चन्द्रा जी ने मुझे सुनाई थी, पूडियां बनाने की जिद बच्चों ने की कि माँ पूड़ी तू ही बनाएगी तो खाएंगे नहीं तो खाना नहीं खाएंगे। तेरे हाथ की पूड़ी का कोई जबाब ही नहीं है।

बस यही ध्यान धर कुछ मन में विचार बन गया।



कलम से_____


व्याम करते करते,
कुहू से,
उसकी मम्मा यूँ बोली,
देख चक्की में आटा
ऐसे पिसता है
बचपन में यह काम
हमको घर में ही करना पड़ता था
इससे कमर का
मोटापा भी कंट्रोल में रहता था।

कुछ देर बाद कुहू बोली
मम्मा हल्ला-हुप करने
से भी कमर पतली हो जाती है।

अपना ब्लाउज सिलने
बस बैठी ही थी
कुहू आ गई और पूछने लगी
क्या कर रही हो मम्मा
कहा अपने लिए ब्लाउज
सिल रही हूँ
बचपन माँ ने
हमको सिखाया था।

क्यों सिलती हो
बाज़ार में अब तो
बुटीक जगह जगह
हैं खुले, वहां से
सिलवाया करो न।
मुझे अपने लिए सिलना
अच्छा लगता है
काम अपना करने से
दिल को सुकून भी मिलता है।

सर्दी का मौसम
जब आया
नेट से पता ढूंढ़ा
ऊन 'ओसवाल ' की
मिलेगी भला कहाँ,
बड़ी मुश्किल से मिली
पर मिल गई
ऊन स्वेटर के लिए,
सलाई का डिब्बा ढूंढ़ा
निकाल चलने लगे
हाथ एक फंदा ऊपर
दो फंदे नीचे
फिर एक फंदा ऊपर
स्वेटर बनता देख,
कुहू बोली, मम्मा मिलते हैं न
स्वेटर बाज़ार में,
फिर क्यों बुनती हो
परेशान रहती हो
मेरा प्यार हर फंदे में
समा जाए सर्दी से तुझे बचाए
तू मुझसे बंध जाए
इसलिए बुनती हूँ
स्वेटर मैं तेरे लिए।

यह भी बचपन में
माँ से ही सीखा था।

होली पर गुजिया
बनाते वक्त भी
वही सबाल कि
बाज़ार में सब मिलता है,
मम्मा बोली गुजिया
न मिलेगी ऐसी
जैसी बनाती हूँ मैं
इन हाथों से
इतने प्यार से।

धीरे धीरे कुहू बड़ी और हो गई
होस्टल से लौट दिवाली
मनाने को घर आई,
घर की बाई सा खाना
बनाने लगीं थी
उम्र का तकाज़ा भी था
कुहू बोली मम्मा
पूड़ी तुम ही बनाना
तुम्हारे हाथों की पूड़ी
का क्या कहना
तुम्हारे हाथ की ही
बनी खाऊँगी नहीं तो
खाना नहीं खाऊँगी
धीरे से उठ मम्मा चली
पूरी बेलने
बेलते बेलते उसे फिर
अपना बचपन याद हो आया
अम्मा के हाथों की बनी
पूड़ी का कोई जबाब ही न था
प्यार से हर पूड़ी जो बनी थी
स्वाद का तो क्या कहना
अब्बल ही बनी थी
मुलायम मुलायम और मज़ेदार भी।

बच्चों को, अब कौन सिखाता है,
घर का बना ही सामान पहनना
घर का बना ही खाना खाना
चलो बाज़ार
इस बाज़ार की दुनियां में
सब खो गया है
होता था जो प्यार पुराना
आया है अब, यह नया ज़माना.....

©सुरेंद्रपालसिंह 2015

http://spsinghamaur.blogspot.in/

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