कलम से____
आँखों को याद दिला गया
आग जो तुम्हारे भीतर लगी
उठता हुआ धुआँ, धुआँ
भीतर ही भीतर कुठिंत मन
विद्रोह पनपता हुआ
कभी निशाने पर था
दोस्त
कभी निशाने पर
समाज
कभी निशाने पर
इन्सान
कभी निशाने पर
इन्सानियत
कुछ वक्त और गुज़र जाता
सभंलने का मौका मिल जाता
वो न होता जो हो गया
मैं खुद को भूल गया
उन्माद में
गलत बहुत कुछ हो गया
न खुदा ही मिला
और न रही जिन्दगी
धुआँ धुआँ जिसकी वजह हुआ
बस सब धुआँ धुआँ हो गया......
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
आँखों को याद दिला गया
आग जो तुम्हारे भीतर लगी
उठता हुआ धुआँ, धुआँ
भीतर ही भीतर कुठिंत मन
विद्रोह पनपता हुआ
कभी निशाने पर था
दोस्त
कभी निशाने पर
समाज
कभी निशाने पर
इन्सान
कभी निशाने पर
इन्सानियत
कुछ वक्त और गुज़र जाता
सभंलने का मौका मिल जाता
वो न होता जो हो गया
मैं खुद को भूल गया
उन्माद में
गलत बहुत कुछ हो गया
न खुदा ही मिला
और न रही जिन्दगी
धुआँ धुआँ जिसकी वजह हुआ
बस सब धुआँ धुआँ हो गया......
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
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