Saturday, September 6, 2014

सोने भी नहीं देते हैं दुश्मन मेरी जां के ।

कलम से____

आज प्रातः का दृश्य !

सोने भी नहीं देते हैं दुश्मन मेरी जां के
आकर जगा जाएगा कोई यह कह के
यह भी कोई सोने की जगह है यार
सोना ही है तो सो
महबूबा के आगोश में जाके
मेरा महबूब है कि मुझे बुलाता भी नहीं है
कहता है जा कमा के ला घर में अब कुछ भी नहीं है
खाने के पड़े हैं लाले तुझे चाय कैसै पिलाऊँ
दूध भी अब ललुआ के लिए बचा नहीं है !

जा, बाहर जा घर से निकल
कुछ तो करेगा
और नहीं तो टूटते रिश्तों को भरेगा
आस पर ही अब कट रही है
यह जिन्दगी
जा इस गांव अब तेरा बचा ही क्या है !!

सब तो चले गए शहर
तू ही अकेला रह यहाँ क्या करेगा !!!

(गावँ से पलायन का दर्द किसी को नहीं कचोट रहा है। हे भगवन, यह कैसी विडम्बना है?)

//surendrapal singh//

http://spsinghamaur.blogspot.in/

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