Saturday, September 27, 2014

चित्र लगता बाहर का है मुझे नहीं मालूम कहाँ का है ।

कलम से _____

चित्र लगता बाहर का है
मुझे नहीं मालूम कहाँ का है
लग रहा बहुत खूबसूरत है
काश हमारे आसपास
कुछ ऐसा होता
अगर है तो पता नहीं
घर से कभी निकले नहीं
तलाश कभी की नहीं
समय शायद मिला नहीं
या इच्छा जागृत हुई नहीं।

होता तो क्या होता
कुछ फर्क नहीं पड़ता
हमारा जीवन बस यूँही चलता
जैसे चल रहा है
हम सोते रहते
सूरज रोज़ आता है
चला जाता है
काम है उसका वो करता रहता है
हमको भी काम अपना करना होता है।

आलस छोड़
चलें घर के बाहर
पूरब की ओर देखें
लालिमा है फैली हुई
आओ देखो, कुछ ऐसा कहती हुई
हर रोज़ मुझे नये परिधान में पाओगे
नज़र उठा कर जो देखोगे
खुश हो जाओगे
पल दो पल के लिए ही सही
तुम अपने हो जाओगे
यही अपनापन तो खो गया है
खोखले रिश्तों में ढूंढते फिरते हो
जो तुम्हारा अपना है
उसकी ओर न देखोगे
आ जाया करो मेरे पास भी कभी
मिलेगी तुमको अनंत खुशी
आचँल में मेरे खुशियाँ ही खुशियाँ है
ले सको ले लो जो तुमको लेनी हैं
बाजार में नहीं बिकतीं
यह बस मेरे पास ही मिलतीं हैं।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

http://spsinghamaur.blogspot.in/

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