Friday, September 26, 2014

पार्क की सुबह

कलम से____

प्रातः की पार्क यात्रा वृतांत:-

एक लंबा अरसा गुजार
कर लौटे हैं हिन्दोस्तां
आना नहीं चाहते थे
सुख सुविधाओं का ध्यान धर
आखिर जीता मोह
माटी का
यहां के यहीं मिल जाने का।

सुबह सुबह हो जाती है मुलाकात
मियां बीबी रहते जो सदैव साथ
टाइट फिटिंग्स को करते हैं प्यार
दिखते हैं सुबह सुबह बिल्कुल तैयार।

पार्क की बैन्च पर हर रोज
होती है छोटी मोटी तकरार
फिर हसँते हैं
मिल कर बढ़ते हैं
लिफ्ट ली एक्सक्यूज मी कह कर
जा बैठा उनके पास।

मकसद था
कुछ होगी बातचीत
दिल से निकलेगी दिल की बात
भीतर जो छिपी रहती है
गुमसुम सी किसी कोने में करती
अपनेपन की तलाश।

चुप्पी तोड़ते हुए
पूछ बैठे क्या करते हैं
कविता, हाँ कविता लिखता हूँ
अब और क्या कँरूगा
हसँ कर कहने लगे सैम्पल है
तो पेश करिए
सुना दी, जो थी रेडीमेड तैयार।

कहने लगे प्रतिक्रया मेरी है
लिखते सुदंर हैं
पर कविता हमेशा
बिछड़े पलों में खोई रहती है
सुना है मैंने और कइयों को
अक्सर हम रोते रहते हैं
कभी इनकी याद
कभी उसकी याद में भटकते रहते हैं
जिन्दगी सिमट गई
चंद से दायरे में
नया कुछ करने को नहीं है
इधर उधर की लिखा करिए
बहुत हसीन है प्रकृति हमारी
कुछ उस पर कहिए
नदी नाले पर्वत हैं पुकारते रहते
हम हीं बस उनकी ओर नहीं देखते।

कहने लगे यूरोप में
लोग वर्तमान में हैं रहते
इतिहास को पढ़ते जीते हैं
पर ऐश खूब करते हैं
अपने लोग न आज अपना
न कल के लिये जीते हैं
फर्क है नज़रिए का
कश्मक्श जिन्दगी की वहाँ भी यही है
यहाँ भी वही है।

उत्सव मान कर जियो यारो
चार दिन की है बची
खुशी खुशी जियो यारो
दूसरों से भी यही कहो प्यारो।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

http://spsinghamaur.blogspot.in/

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