Tuesday, October 28, 2014

बाहर खिड़की के नज़र जो पड़ी।







कलम से____

बाहर खिड़की के नज़र जो पड़ी
लगा कुहासी सुबह हो गई
कुछ देर बाद पता यह लगा
मुगालता था यह मेरा
सुबह अपनी खराब हो गई
स्माग है, जो कोहरा सा लग रहा 
भ्रमित जो हमें कर रहा।

कार का दरवाजा खोलने लगा
पता यह चला रात बूँद कुछ गिर गईं
कार के बोनट समेत शीसों पर धूल के
हस्ताक्षर जो छोड़ गईं।

बाग में घूमने का आनंद भी मिट गया
स्माग के कारण खांसने जो लगा
खासंने से याद आ गया
मान्यवर खांसीराम केसरी 
हमारे मोहल्ले में फिर आगए हैं
कौशांबी में भूलेभटके 
भगवान इसलिए पधार गए हैं
मोदीजी की सरकार को सुप्रीमकोर्ट में फटकार क्या लगी
मफलर लगा खासंने के दिन फिर जो इनके आ गए हैं।

पालिटिक्स देश की फिर गरमा गई है
दिल्ली के चुनाव में लगता है देर अभी है।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

http://spsinghamaur.blogspot.in/

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