काश मैं पेन्टर होता
बनारस की गलियों में रहता
वहाँ के घाटों के मनोरम
दृश्य बनाता
आते जाते लोगों के
साथ हो जाता
जो चेहरा
नज़र चढ़ जाता
उसको सामने मैं बिठाता
कुछ उसकी सुनता
कुछ अपनी कहता
धीरे धीरे
अक्स उसका मन में बसाता
रंगों की महफिल सजाता
जब वो मेरे
करीब हो जाता
अजीज़ हो जाता
कहता चलो, चलें दो कदम साथ
चलता वो तो
बनारस की तंग गलियों में
इधर उधर घूमा करता
बैठ मिठाई की दुकान पर
हलवा पूडी
रवडी खाया करता
आश्रम में बैठ
घंटो प्रवचन सुना करता
धर्म क्या है अधर्म क्या है
जानने की कोशिश करता
जीवन के दर्शन को
खोखली बातों से तौला करता
घाट की सीढ़ी से
गंगा को
निहारा करता
बहती हुई गंगा
ठहरी हुई गंगा
चंचल गंगा
उच्छल गंगा
गंगा के हर रूप को
हृदय में बसाता ...
हुआ फिर चल देता
गलियों में लोगों के साथ
फिर कहीं खो जाता
रंगो को पेन्टिंग में भरते भरते
बिछड़ जाता....
//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//
http://spsinghamaur.blogspot.in/
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